मार्ग— बड़ागाँव का दिगम्बर जैन मंदिर अतिशय क्षेत्र के रूप में प्रसिद्ध है। यहाँ पहुँचने का मार्ग इस प्रकार है— दल्ली-सहारनपुर सड़क मार्ग से सड़क के किनारे खेकड़ा बस-स्टैण्ड है। खेकड़ा उत्तर प्रदेश में मेरठ जिले की तहसील बागपत में गुड़, गल्ले की प्रसिद्ध मंडी है। दिल्ली से खेकड़ा का बस-स्टैण्ड २२ कि.मी. है। स्टैण्ड से खेकड़ा का बाजार २ कि.मी. है। स्टैण्ड पर हर समय ताँगे और रिक्शे मिलते हैं। बाजार से बड़ागाँव ५ कि.मी. है। खेकड़ा से मेरठ जाने वाली बस से बड़ागाँव जा सकते हैं अथवा साइकिल रिक्शा से जा सकते हैं। गाँव में होकर मंदिर के लिए रास्ता है। मंदिर गाँव के बिल्कुल पास है।
अतिशय क्षेत्र— इस मंदिर की प्रसिद्ध अतिशय क्षेत्र के रूप में है। लगभग ५० वर्ष पहले यहाँ एक टीला था, जिस पर झाड़-झंखाड़ उगे हुए थे। देहात के लोग यहाँ मनौती मानने आते रहते थे। अपने जानवरों की बीमारी में या उन्हें नजर लगने पर वे यहाँ बड़ी श्रद्धा से आते थे और दूध चढ़ाकर मनौती मानते थे और उनके पशु रोगमुक्त हो जाते थे। बहुत से लोग अपनी बीमारी, पुत्रप्राप्ति और मुकद्दमों की मनौती मानने भी आते थे और इस टीले पर दूध चढ़ाते थे। इससे उनके विश्वास के अनुरूप उनकी मनोकामना पूर्ण हो जाती थी। सम्भवत: किसी जमाने में यहाँ विशाल मंदिर था। किन्तु मुस्लिम काल में धर्मान्धता अथवा प्रकृतिक प्रकोप के कारण नष्ट हो गया और टीला बन गया। एक बार ऐलक अनंतकीर्ति जी खेकड़ा ग्राम में पधारे। उस समय प्रसंगवश वहाँ के लोगों ने उनसे इस टीले की तथा उसके अतिशयों की चर्चा की। फलत: वे उसे देखने गये। उन्हें विश्वास हो गया कि इस टीले में अवश्य ही प्रतिमाएँ दबी होंगी। उनकी प्रेरणा से वैशाख वदी ८ संवत् १९७८ को इस टीले की खुदाई करायी गयी। खुदाई होने पर प्राचीन मंदिर के भग्नावशेष निकले और उसके बाद बड़ी मनोज्ञ १० दिगम्बर जैन प्रतिमाएँ निकलीं, जिनमें ७ पाषाण तथा तीन धातु की थीं। लगभग ५ अंगुल की एक हीरे की भी प्रतिमा निकली थी। किन्तु वह खंडित थी। अत: यमुना नदी में प्रवाहित कर दी गयी। धातु प्रतिमाआें पर कोई लेख नहीं है। किन्तु पाषाण प्रतिमाओं पर (दो को छोड़कर शेष पर) मूर्तिलेख हैं। उनसे ज्ञात होता है कि इन प्रतिमाओं में कुछ १२ वीं शताब्दी की हैं और कुछ १६ वीं शताब्दी की। इससे उत्साहित होकर यहाँ एक विशाल दिगम्बर जैन मंदिर का निर्माण किया गया और ज्येष्ठ शुक्ला ९ संवत् १९७९ को यहाँ भारी मेला हुआ। इसके बाद संवत् १९८९ में यहाँ समारोहपूर्वक शिखर की प्रतिष्ठा हुई। जिस स्थान पर खुदाई की गयी थी, वहाँ पर पक्का कुआँ बना दिया गया। कुआँ १८ फीट गहरा है। इस कुएँ का जल अत्यंत शीतल, स्वादिष्ट और स्वास्थ्यवर्धक था। इसके जल से अनेक रोग दूर हो जाते थे। धीरे-धीरे इस कुएँ की ख्याति दूर-दूर तक फैल गयी और यहाँ बहुत से रोगी आने लगे। इतना ही नहीं, इस कुएँ का जल कनस्तरों में रेल द्वारा बाहर जाने लगा। प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि खेकड़ा के स्टेशन पर प्रतिदिन १००-२०० कनस्तर जाते थे। वहाँ से उन्हें बाहर भेजा जाता था। मंदिर में मनौती मानने वाले जैन और अजैन बन्धु अब भी आते हैं। जिनके जानवर बीमार पड़ जाते हैं, वे भी यहाँ मनौती मानने आते हैं।
जिनमंदिर— यह मंदिर शिखरबंद है। शिखर विशाल है। उसका निचला भाग कमलाकार है। मंदिर में केवल एक हालनुमा मोहनगृह है। हाल के बीचों-बीच तीन कटनीवाली गंधकुटी है। गंधकुटी एक पक्के चबूतरे पर बनी हुई है। वेदी में मूलनायक भगवान पार्श्वनाथ की श्वेत पाषाण की पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। इसकी अवगाहना १ हाथ के लगभग है। प्रतिमा सौम्य और चित्ताकर्षक है। इसकी प्रतिष्ठा वैशाख सुदी ३ संवत् १५४७ में भट्टारक जिनचंद्र ने की थी। इस प्रतिमा के अतिरिक्त एक पीतल की प्रतिमा इस वेदी में विराजमान है। मंदिर के चारों ओर बरामदा बना हुआ है। बरामदे के चारों कोनों पर शिखरबंद मंदरियाँ बनी हुई हैं। पूर्व की वेदी में ऋषभदेव भगवान की मटमैले रंग की पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। इसकी अवगाहना डेढ़ हाथ की है। यह प्रतिमा १५ वीं शताब्दी की है तथा यह भूगर्भ से निकली थी। दक्षिण की वेदी में मूलनायक भगवान विमलनाथ की भूरे पाषाण की पद्मासन प्रतिमा है। नीचे के हाथ की उँगलियाँ खंडित हैं। इसका लांछन मिट गया है किन्तु परम्परागत मान्यता के अनुसार इसे विमलनाथ की मूर्ति कहा जाता है। मूर्ति के नीचे इतना लेख स्पष्ट पढ़ने में आया है— संवत् ११२७ माघ सुदी १३ श्रीशं लभेथे’ इसी वेदी में भगवान पार्श्वनाथ की एक कृष्ण पाषाण की मूर्ति है। यह पद्मासन है। अवगाहना १ पुâट है। हाथ खंडित हैं। इस पर कोई लेख नहीं है। पालिश कहीं-कहीं उतर गयी है। यह मूर्ति भी विमलनाथ के समकालीन लगती है। ये दोनों भूगर्भ से निकली थीं। पश्चिम की वेदी में भगवान पार्श्वनाथ की श्वेत पाषाण की एक हाथ अवगाहना वाली पद्मासन प्रतिमा है। पीतल की एक ६ इंची वेदी में चारों दिशाओं में पीतल की चार खड्गासन चतुर्मुखी प्रतिमाएँ हैं। पीतल की दो प्रतिमाएँ और हैं जो क्रमश: सवा दो इंची और डेढ़ इंची हैं। ये सभी भूगर्भ से निकली थीं। उत्तर की वेदी में भगवान महावीर की मटमैले रंग की पद्मासन प्रतिमा है। इसकी अवगाहना डेढ़ हाथ है। यह पूर्व की वेदी में विराजमान भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा के समकालीन है तथा दोनों का पाषाण भी एक ही है। यह भी भूगर्भ से प्राप्त हुई थी। इन प्रतिमाओं के अतिरिक्त सभी वेदियों में पीतल की एक-एक प्रतिमा और यंत्र हैं, जो सभी आधुनिक हैं। मंदिर के चारों ओर धर्मशाला है, जिसका द्वार पूर्व दिशा में है। धर्मशाला के बाहर एक पक्का चबूतरा और एक पक्का कुआँ है जो मंदिर की सम्पत्ति है। धर्मशाला के दक्षिण की ओर के कमरों के बीच में एक कमरे में नवीन मंदिर है, जिसमें दो वेदियाँ हैं। बड़ी वेदी में मूलनायक चंद्रप्रभु भगवान की प्रतिमा है। इनके अतिरिक्त तीन पाषाण तथा एक धातु की प्रतिमा है। इनमें एक पाषाण प्रतिमा भूगर्भ से निकली थी। यह एक भूरे पाषाण-खंड में उकेरी हुई है जो प्राय: पाँच अंगुल की है। छोटी वेदी में शीतलनाथ भगवान की खड्गासन, पाषाण की दो पद्मासन और एक पीतल की खड्गासन प्रतिमा विराजमान है।मानस्तम्भ का शिलान्यास— कई वर्ष पहले यहाँ क्षुल्लक सुमतिसागर जी पधारे थे। उन्होंने इस क्षेत्र पर मानस्तम्भ के निर्माण की प्रेरणा दी। किन्तु उस समय यह कार्य सम्पन्न नहीं हो सका। सन् १९७१ में आचार्य शिवसागर जी के शिष्य मुनि श्री वृषभसागर जी महाराज ने दिल्ली चातुर्मास के समय लोगों को इस कार्य के लिए पुन: प्रेरित किया।। फलत: ८ नवम्बर सन् १९७१ को महाराज जी के सानिध्य में मंदिर के सामने मानस्तम्भ का शिलान्यास हो गया। यहाँ की जलवायु बड़ी स्वास्थ्यवर्धक है। इस क्षेत्र पर अनेक नवनिर्माण भी प्रबंध समिति द्वारा हुए हैं। बड़ागांव अतिशय क्षेत्र पर अन्य संस्थाएँ भी अनेक नवनिर्माण करके जिनशासन की प्रभावना में अग्रेसर हैं। उनमें प्रमुख रूप से आचार्य श्री सन्मतिसागर महाराज की प्रेरणा से त्रिलोक तीर्थ का निर्माण, आर्यिका श्री चंद्रमती माताजी की प्रेरणा से महिलाश्रम एवं पूज्य मुनि श्री अमितसागर महाराज के शिष्य स्व.मुनि श्री संवेगसागर जी की प्रेरणा से श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन साधु व्रती आश्रम है।