-दोहा-
जय जय जय श्री चंद्रप्रभो!, तुम गुणरत्न अनंत।
जो गावें गुणमालिका, वे पावें भव अंत।।१।।
-चौबोल छंद-
मुनिमन समुद्र वर्धन को शशि, मदनजयी मन तमहारी।
चपलचित्त गति हरन हेतु, चन्द्रप्रभ पूजा सुखकारी।।
भवव्याधिशम को सर्वोषधि, केवलज्ञान के अधिनायक।
महामोह निश अंधकार रवि, आश्रित जन यश वर्धनविधु।।२।।
शशि सेवितपद परमशांतियुत, भव्य भवाग्नी शांत करो।
यति मन कमल विकासी शशि सम, धवल वर्ण नमुं चंद्रप्रभो!।।
अज्ञ हूँ फिर भी भक्ति से प्रेरित, कुछ भी स्तव वह भवनाशक।
स्मृति भी तव अनंत दु:खहर, निंह क्या िंसहशिशु गजमारक।।३।।
प्रभु तुम देखे मन हर्षित, वाणी गद्गद् अरु नयनों से।
हर्षाश्रू झरते मम जन्म, सफल हैं नमुँ अंजलि करके।।
अनंत दु:ख से व्याप्त योनि, चौरासी लक्ष में फिर-फिर कर।
पाया धर्म जहाज प्रभो! तव कृपा से तरना भवसागर।।४।।
किये अनंत पंच परिवर्तन, अब थकान है बहु मुझको।
तुम परिवर्तन मुक्त अत:, विनती सुन रक्षा करो विभो।।
कालचक्र से रहित! न तुम-बिन कला काल की इक जावे।
पूर्ण सब कला त्रिजगचंद्र! तनुरहित धवल! तव गुण गायें।।५।।
चंद्र! तेरी चाँदनी सभा पय, िंसधु में न्हाकर हो निष्पाप।
बारह सभा भविक शोभें-प्रभु, नमूँ स्वात्म निर्मलता काज।।
क्रोध शांति से मद मृदुता से, छल ऋजुता से शुचि से लोभ।
बिना शस्त्र जीता स्मरजित्! दोषाकर फिर भी निर्दोष।।६।।
मेघाच्छादित राहु ग्रसित-निंह रात्री दिवस प्रकाश करें।
कला न घटती प्रभु से जन मन, चंद्रकांतमणि दुग्ध झरें।।
प्रभु तव मुख को देख शोच से, शशि क्षय रोगी हुआ है क्या?
घटती कला उगे निश में, सब जगत्द्योति तुम उदित सदा।।७।।
रवि किरणें जगतापकरी रवि, तापहरन शशि, पर जग में।
ऋषिकुल कुमुद प्रफुल्लित चंद्र! मृत्युतापहर तुम्हीं बने।।
भामंडल छवि से लज्जित, आया कलंक धोने तुम पास।
यदि ऐसा निंह सकुटुंबी क्यों, तव पद में नित करें निवास।।८।।
जीव नित्य ही या अनित्य ही, क्रिया मोक्ष कर निंह उनके।
तव मत ‘‘स्यात्’’ के आश्रय से, शिव लहें, न शिव मिथ्यामत से।।
यदि मुक्ती में नाश गुणों का मुक्तीच्छा क्यों मुनिजन के।
यदि पुनरावतार हो तो, सुख ज्ञानादि अनंत वैâसे।।९।।
तव मत में प्रत्येक जीव, निज निज कृति से स्रष्टा बनता।
भू जल वायू अग्नि वनस्पति, विविध विविध निज तन रचता।।
विकलत्रय, पंचेन्द्रिय बन बन, कभी शुभ से नर तन पाया।
यदी निजातम ध्यान किया, कृतकृत्य हुआ शिवपद पाया।।१०।।
शशिसम धवल गुण स्तुति में, तव महर्षि भी असमर्थ रहें।
मैं फिर वैâसे समर्थ होऊँ, निंह बुद्धी िंकचित् मुझमें।।
तथापि िंकचित् संस्तव तेरा, अशुभ कर्म विध्वंसक है।
हे चन्द्रप्रभ! नमोस्तु तुमको, सकल ताप संहारक हैं।।११।।
द्वय नय आश्रित ही शिवपथ को, व्रती ग्रहण कर हो भगवान।
निंह मुक्ती है दुराग्रही को, जयति सदा ही जिनशासन।।
स्वपर भेद विज्ञान यदी है, चरित्र भी होता निश्चित।
स्वात्म सुखामृत पीकर यदि, जन पाते पूर्ण सौख्य अमृत।।१२।।
निरतिचार चारित पालन कर, निश्चयनय से स्वात्मा को।
हृदय कमल में नित अनुभवते, पाते वही मोक्षसुख को।।
परमशुद्ध चिद्घन आत्मा में, यदि मन कथमपि हो स्थिर।
स्वयं शुद्धमय अतुल कांतिभर, शोभे यह जग में सुखकर।।१३।।
प्रभु मैं जन्म जरा मरणादिक, से हूँ पृथक् स्वयं चिद्रूप।
निश्चयनय से निंह विकार, मुझमें मैं सिद्ध सदृश सुखरूप।।
‘‘तुम सम मैं’’ यह बुद्धि तुष्टिप्रद, फिर क्या सिद्ध बने सच में।
प्रभू ध्यान से सिद्धी होवे, यदि चित्त लीन होवे प्रभु में।।१४।।
कुबेर निर्मित समवसरण में, तारागणयुत शशि सम आप।
द्विदश सभा बिच सर्व जीव हित, करें देशना शोभें नाथ!।।
मदनजयी जिनपति! दुरितंजय, कर्ममर्मभित्! करुणाहृद!
हे त्रिभुवनपति मम हृदि तिष्ठो, भव से रक्षा करो तुरत।।१५।।
जिनेन्द्र! जिनरवि! जिनचंद्र! शरणागत वत्सल! कृपा करो।
हे जिनपुंगव! भवदधि तारक! झट भवदधि से पार करो।।
सुरकृत पुष्पवृष्टि यह मानो, तारागण आये नभ से।
मैं भी शिव हेतु करूँ अर्पण, तव पद में कुसुमावलि ये।।१६।।
हे मुक्तिश्रीरमापते! शरद्-ऋतुपूर्ण चंद्र! जिनचंद्र।
मोह सर्प विषमूर्छित जन को, सुधावृष्टि से करते पुष्ट।।
यदि चंद्रप्रभ गुणगणभक्ती-मुझसे नित की जावे नाथ!।
पूर्ण ‘ज्ञानमति’ परमानंद सुख, का मुझमें हो स्वयं विकास।।१७।।
-दोहा-
प्रभु गुणमाला गाय के, पाऊँ निज सुखधाम।
ज्ञानमती वैâवल्य हित, करूँ अनंत प्रणाम।।१८।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री चंद्रप्रभतीर्थंकराय जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-गीता छंद-
जो भक्ति से श्री चंद्रप्रभ तीर्थेश का अर्चन करें।
वे भव्य निज के ही गुणों का नित्य संवर्द्धन करें।।
इस लोक के सुख भोग कर फिर सर्वकल्याणक वरें।
स्वयमेव ‘केवलज्ञानमति’ हो मुक्तिलक्ष्मी वश करें।।
।। इत्याशीर्वाद:।।