—स्रग्विणी छंद—
हे प्रभो! आप सौ इन्द्र से वंद्य हैं।
तीन ही लोक के ईश अभिनंद्य हैं।।
पूरिये नाथ! मेरी मनोकामना।
फेर होवे न संसार में आवना।।१।।
चार गति में भ्रमा सौख्य का लेश ना।
जन्म औ मृत्यु ये दु:ख देवें घना।।पूरिये.।।२।।
नाथ! नीगोद में एक ही श्वांस में।
आठ दश बार जन्मा मरा नाथ! मैं।।पूरिये.।।३।।
भू पवन अग्नि जल औ वनस्पति हुआ।
एक इन्द्रीय तनु धार बहु दुख सहा।।पूरिये.।।४।।
केंचुआ शंख चींटी ततैया हुआ।
जन्म धर धर मुआ जन्म धर धर मुआ।।पूरिये.।।५।।
पंच इंद्री पशू योनि धर दुख सहा।
क्रूर सिंहादि हो पाप करता रहा।।पूरिये.।।६।।
पाप से नर्क में नारकी हो गया।
सागरों वर्ष की आयु धर दुख सहा।।पूरिये.।।७।।
नर्क की वेदना जो सही नाथ! मैं।
भारती भी न कहने में सक्षम उन्हें।।पूरिये.।।८।।
आप हो केवली सर्व कुछ जानते।
शीघ्र रक्षा करो भक्त मुझ मानके।।पूरिये.।।९।।
मैं मनुज योनि में भी दुखी ही दुखी।
इष्ट वीयोग आनिष्ट संयोग भी।।पूरिये.।।१०।।
रोग शोकादि दारिद्र संकट घने।
नाथ! सम्यक्त्व बिन दुख ही दुख घने।।पूरिये.।।११।।
देव की योनि में मानसिक ताप से।
दुख पाया विभो! अब कहूँ आप से।।पूरिये.।।१२।।
मैं सुना शास्त्र में आपही हो सुखी।
सिद्धसुख की नहीं कोइ उपमा कभी।।पूरिये.।।१३।।
एक ही शास्त्र को जान आनंद हो।
आप त्रैलोक्य जाना महानंद हो।।पूरिये.।।१४।।
चक्रि के भोगभूमिज व धरणेन्द्र के।
इन्द्र अहमिंद्र के सुख अनंते गुणें।।पूरिये.।।१५।।
इन सभी के त्रिकालीक सुख लीजिये।
इन सुखों को अनंते गुणा कीजिये।।पूरिये.।।१६।।
स्वात्म सुख क्षण का भि उत्कृष्ट है।
तोल सकते न इसको परम श्रेष्ठ है।।पूरिये.।।१७।।
स्वात्म सुख की नहीं कल्पना हो सके।
जीव छद्मस्थ इस स्वाद ना ले सकें।।पूरिये.।।१८।।
आज मैं आपकी अर्चना कर रहा।
आत्मसुख चाह से वंदना कर रहा।।पूरिये.।।१९।।
धन्य मेरा जनम धन्य है ये घड़ी।
धन्य अवसर मिला ज्ञान बल्ली बढ़ी।।पूरिये.।।२०।।
पूर्ण शशि रश्मि से जैसे सागर बढ़े।
वैसे प्रभु सामने ज्ञान सिंधु बढ़े।।पूरिये.।।२१।।
मैं नमूँ मैं नमूँ कोटि कोटी नमूँ।
सर्वमिथ्यात्व क्रोधदि विष को वमूँ।।पूरिये.।।२२।।
तीन ही रत्न के हेतु फिर फिर नमूँ।
‘‘ज्ञानमती’’ पूर्ण हो नाथ! ये ही चहूँ।।पूरिये.।।२३।।
पार्श्वप्रभु भक्ति ही सर्व वरदायिनी।
आप गुण कीर्ति गुण संपदा दायिनी।।पूरिये.।।२४।।
ॐ ह्रीं अष्टोत्तरसहस्रगुणसमन्विताय सर्वोपद्रवनिवारकाय श्रीपार्श्वनाथाय जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतेय शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-गीता छंद-
जो पार्श्वनाथ विधान भविजन, भक्ति श्रद्धा से करें।
वे पापकर्म सहस्र नाशें, सहस मंगल विस्तरें।।
‘सज्ज्ञानमति’ भास्कर उदित हो, हृदय की कलिका खिले।
बस भक्त के मन की सहस्रों, कामनायें भी फलें।।१।।
इत्याशीर्वाद:।