सोरठा
अभिनंदन जिनदेव, अखिल अमंगल को हरें।
नित्य करूँ मैं सेव, मेरे कर्मांजन हरें।।१।।
सखी छंद
जय जय जिन देव हमारे, जय जय भविजन बहु तारें।
जय मुक्तिरमापति देवा, शत इंद्र करें तुम सेवा।।२।।
मुनिवृंद तुम्हें चित धारें, भविवृंद सुयश विस्तारें।
सुर नर किन्नर गुण गावें, किन्नरियाँ बीन बजावें।।३।।
भक्तीवश नृत्य करे हैं, गुण गाकर पाप हरे हैं।
विद्याधर गण बहु आवें, दर्शन कर पुण्य कमावें।।४।।
भव भव के त्रास मिटावें, यम का अस्तित्त्व हटावें।
जो जिनगुण में मन पागें, तिन देख मोह रिपु भागें।।५।।
जो प्रभु की पूज रचावें, इस जग में पूजा पावें।
जो प्रभु का ध्यान धरे हैं, उनका सब ध्यान करे हैं।।६।।
जो करते भक्ति तुम्हारी, वे भव भव में सुखियारी।
इस हेतु प्रभो तुम पासे, मन के उद्गार निकासे।।७।।
जब तक मुझ मुक्ति न होवे, तब तक सम्यक्त्व न खोवे।
तब तक जिनगुण उच्चारूँ, तब तक मैं संयम धारूँ।।८।।
तब तक हो श्रेष्ठ समाधी, नाशे जन्मादिक व्याधी।
तब तक रत्नत्रय पाऊँ, तब तक निज ध्यान लगाऊँ।।९।।
तब तक तुम ही मुझ स्वामी, भव भव में हो निष्कामी।
ये भाव हमारे पूरो, मुझ मोह शत्रु को चूरो।।१०।।
घत्ता
जय जय चिन्मूरति, गुणमति पूरित, जय जिनवर वृष चक्रपती।
जय ‘ज्ञानमती’ धर, शिवलक्ष्मीवर, भविजन पावें सिद्धगती।।११।
ॐ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथाय जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
—शंभु छंद—
जो भव्य अभिनंदन विधान, सदा करें बहु भक्ति से।
वे नित्य ही आनंद मंगल, पायेंगे शुभ भाग्य से।।
इस लोक के सुख भोग कर, फिर गुण अनंतों पाएंगे।
स्वयमेव केवल ‘ज्ञानमति’ हो, मुक्तिसुख पा जाएंगे।।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।