१. काक-आहार को जाते समय या आहार लेते समय यदि कौवा आदि वीट कर देवे, तो काक नाम का अन्तराय है।
२. अमेध्य-अपवित्र विष्ठा आदि से पैर लिप्त हो जावे।
३. छर्दि-वमन हो जावे।
४. रोधन-आहार के जाते समय कोई रोक देवे।
५. रक्तस्राव-अपने शरीर से या अन्य के शरीर से चार अंगुल पर्यंत रुधिर बहता हुआ दीखे।
६. अश्रुपात-दु:ख से अपने या पर के अश्रु गिरने लगे।
७. जान्वध: परामर्श-यदि मुनि जंघा के नीचे के भाग का स्पर्श कर लें।
८. जानूपरिव्यतिक्रम-यदि मुनि जंघा के ऊपर का व्यतिक्रम कर लें अर्थात् जंघा से ऊँची सीढ़ी पर-इतनी ऊँची एक ही डंडा या सीढ़ी पर चढ़ें, तो जानूपरिव्यतिक्रम अंतराय है।
९. नाभ्योनिर्गमन-यदि नाभि से नीचे शिर करते आहारार्थ जाना पड़े।
१०. प्रत्याख्यात सेवन-जिस वस्तु का देव या गुरु के पास त्याग किया है, वह खाने में आ जाये।
११. जंतुवध-कोई जीव अपने सामने किसी जीव का वध कर देवे।
१२. काकादि पिंडहरण-कौवा आदि हाथ से ग्रास का अपहरण कर लें।
१३. ग्रासपतन-आहार करते समय मुनि के हाथ से ग्रास प्रमाण आहार गिर जावे।
१४. पाणौ जंतुवध-आहार करते समय कोई मच्छर, मक्खी आदि जन्तु हाथ में मर जावे।
१५. मांसादि दर्शन-मांस, मद्य या मरे हुए का कलेवर देख लेने से अन्तराय है।
१६. पादांतर जीव-यदि आहार लेते समय पैर के नीचे से पंचेन्द्रिय जीव चूहा आदि निकल जाये।
१७. देवाद्युपसर्ग-आहार लेते समय, देव, मनुष्य या तिर्यंच आदि उपसर्ग कर देवें।
१८. भाजनसंपात-दाता के हाथ से कोई बर्तन गिर जाये।
१९. उच्चार-यदि आहार के समय मल विसर्जित हो जावे।
२०. प्रस्रवण-यदि आहार के समय मूत्र विसर्जन हो जावे।
२१. अभोज्य गृह प्रवेश-यदि आहार के समय चांडालादि के घर में प्रवेश हो जावे।
२२. पतन-आहार करते समय मूर्धा आदि गिर जाने पर।
२३. उपवेशन-आहार करते समय बैठ जाने पर।
२४. सदंश-कुत्ते, बिल्ली आदि के काट लेने पर।
२५. भूमिस्पर्श-सिद्धभक्ति के अनन्तर हाथ से भूमि का स्पर्श हो जाने पर।
२६. निष्ठीवन-आहार करते समय कफ, थूक आदि निकलने पर।
२७. वस्तुग्रहण-आहार करते समय हाथ से कुछ वस्तु उठा लेने पर।
२८. उदर कृमिनिर्गमन-आहार करते समय उदर से कृमि आदि निकलने पर।
२९. अदत्तग्रहण-नहीं दी हुई किंचित् वस्तु ग्रहण कर लेने पर।
३०. प्रहार-अपने ऊपर या किसी के ऊपर शत्रु द्वारा शस्त्रादि का प्रहार होने पर।
३१. ग्रामदाह-ग्राम आदि में उसी समय आग लग जाने पर।
३२. पादेन किंचिद्ग्रहण-पाद से किंचित् भी वस्तु ग्रहण कर लेने पर।
इन उपर्युक्त कारणों से आहार छोड़ देने का नाम ही अन्तराय है। इसी प्रकार से इन बत्तीस के अतिरिक्त चांडालादि स्पर्श, कलह, इष्टमरण, साधर्मिक-संन्यासपतन, राज्य में किसी प्रधान का मरण आदि प्रसंगों से भी अन्तराय होता है। अन्तराय के अनन्तर साधु आहार छोड़कर मुख शुद्धि कर आ जाते हैं। मन में वे किंचित् भी खेद या विषाद को न करते हुए ‘‘लाभादलाभो वरं’’ लाभ की अपेक्षा अलाभ में अधिक कर्मनिर्जरा होती है, ऐसा चिंतन करते हुए, वैराग्य भावना को वृद्धिंगत करते रहते हैं।