विजय, अचल, धर्म, सुप्रभ, सुदर्शन, नन्दी, नन्दिमित्र, राम और पद्म ये नौ बलभद्र हुए हैं।
त्रिपृष्ठ, द्विपृष्ठ, स्वयंभू, पुरुषोत्तम, पुरुषसिंह, पुरुषपुंडरीक, पुरुषदत्त, नारायण और कृष्ण ये नौ नारायण हुए हैं।
अश्वग्रीव, तारक, मेरक, मधुवैâटभ, निशुम्भ, बलि, प्रहरण, रावण और जरासंध ये नौ प्रतिनारायण हुए हैं।
त्रिपृष्ठ आदि पाँच नारायणों में से प्रत्येक क्रम से श्रेयांसनाथ आदिक पाँच तीर्थंकरों की वंदना करते थे। अर और मल्लिनाथ तीर्थंकर के अन्तराल में दत्त नामक नारायण हुए हैं। सुव्रत और नमि स्वामी के मध्य में लक्ष्मण और भगवान नेमिनाथ के समय में कृष्ण नारायण हुए हैं। नारायण के बड़े भाई ही बलदेव और नारायण के प्रतिशत्रु ही प्रतिनारायण होते हैंं।
नारायण के सात महारत्न-शक्ति, धनुष, गदा, चक्र, कृपाण, शंख और दण्ड ये सात महारत्न अर्द्धचक्रियों के पास शोभायमान रहते हैं।
बलभद्र के चार रत्न-मूसल, हल, रथ और रत्नावली ये चार रत्न प्रत्येक बलदेव के पास शोभित रहते हैं।
नौ प्रतिनारायण युद्ध में नव नारायण के हाथों से उन्हीं के चक्रों से मृत्यु को प्राप्त होकर नरकभूमि में जाते हैं। सब नारायण पूर्व भव में तपश्चरण करके निदान से सहित होकर मरकर देव होते हैं तथा वहाँ से आकर नारायण होकर भोगों की आसक्ति में ही मरकर अर्थात् राज्य में ही मरकर नरक जाते हैं। आठ बलदेव मोक्ष और अंतिम बलदेव ब्रह्म स्वर्ग को प्राप्त हुए हैं। यह अंतिम बलदेव स्वर्ग से च्युत होकर कृष्ण के तीर्थ में सिद्धपद को प्राप्त होंगे।
विजय बलभद्र-त्रिपृष्ठ नारायण-
जैनशासन में नव बलभद्र, नव नारायण एवं नव प्रतिनारायण होते हैं। भगवान श्रेयांसनाथ के तीर्थकाल में प्रथम बलभद्र, नारायण एवं प्रतिनारायण हुए हैं।
पुरुरवा भील-
इस जम्बूद्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में सीता नदी के उत्तर किनारे पर ‘पुष्कलावती’ नाम का देश है। उसकी ‘पुण्डरीकिणी’ नगरी में एक ‘मधु’ नाम का वन है। उसमें ‘पुरुरवा’ नाम का एक भीलों का राजा अपनी ‘कालिका’ नाम की स्त्री के साथ रहता था। किसी दिन दिग्भ्रम के कारण ‘श्री सागरसेन’ नामक मुनिराज को इधर-उधर भ्रमण करते हुये देखकर यह भील उन्हें मारने को उद्यत हुआ, उसकी स्त्री ने यह कहकर मना कर दिया कि ‘ये वन के देवता घूम रहे हैं, इन्हें मत मारो।’ वह पुरुरवा उसी समय मुनि को नमस्कार कर तथा उनके वचन सुनकर शांत हो गया। मुनिराज ने उसे मद्य, मांस और मधु इन तीन मकारोें का त्याग करा दिया। मांसाहारी भील भी इन तीनों के त्यागरूप व्रत को जीवनपर्यन्त पालन कर आयु के अंत में मरकर सौधर्म स्वर्ग में एक सागर की आयु को धारण करने वाला देव हो गया। कहाँ तो वह हिंसक क्रूर भील पाप करके नरक चला जाता और कहाँ उसे गुरू का समागम मिला कि जिससे हिंसा का त्याग करके स्वर्ग चला गया!
मरीचि कुमार-
जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्रसम्बन्धी आर्यखंड के मध्य भाग में कौशल नाम का देश है। इस देश के मध्य भाग में अयोध्या नगरी है। वहाँ ऋषभदेव भगवान के ज्येष्ठ पुत्र भरत चक्रवर्ती की अनंतमती रानी से ‘यह पुरुरवा भील का जीव देव’ मरीचि कुमार नाम का पुत्र हुआ। अपने बाबा भगवान ऋषभदेव की दीक्षा के समय स्वयं ही गुरुभक्ति से प्रेरित होकर मरीचि ने कच्छ आदि चार हजार राजाओं के साथ दिगम्बर दीक्षा धारण कर ली। भगवान तो छह महीने का उपवास लेकर ध्यान में लीन हो गये। मरीचि आदि चार हजार राजा स्वयं ही फल, आवरण आदि को ग्रहण करने लगे तब वनदेवता ने प्रगट होकर कहा-‘‘निर्ग्रंथ दिगम्बर जिनमुद्रा को धारण करने वालों का यह क्रम नहीं है अर्थात् यह अर्हंतमुद्रा तीनों लोकों में पूज्य है इसको धारण कर यह स्वच्छंद प्रवृत्ति करना कथमपि उचित नहीं है अत: तुम लोग अपनी-अपनी इच्छानुसार अन्य वेष ग्रहण कर लो।”
ऐसा सुनकर प्रबल मिथ्यात्व से प्रेरित हुए मरीचि ने सबसे पहले परिव्राजक की दीक्षा धारण कर ली। वास्तव में जिनका संसार दीर्घ होता है उनके लिए यह मिथ्यात्व कर्म मिथ्यामार्ग ही दिखलाता है। उस समय उसे उन सब विषयों का ज्ञान भी स्वयं ही प्रगट हो गया सो ठीक ही है क्योंकि सज्जनों के समान दुर्जनों को भी अपने विषय का ज्ञान स्वयं ही हो जाता है। उसने तीर्थंकर भगवान के वचन सुनकर भी समीचीन धर्म ग्रहण नहीं किया था। वह मरीचि साधु सोचता रहता था कि जिस प्रकार भगवान ऋषभदेव ने अपने आप समस्त परिग्रहों कर त्यागकर तीनों लोकों में क्षोभ उत्पन्न करने वाली सामर्थ्य प्राप्त की है उसी प्रकार मैं भी संसार में अपने द्वारा चलाए हुए दूसरे मत की व्यवस्था करूँगा और उसके मिमित्त से होने वाले बड़े भारी प्रभाव के कारण इन्द्र की प्रतीक्षा को प्राप्त करूँगा-इन्द्र द्वारा की हुई पूजा को प्राप्त करूँगा। मैं समझता हूँ कि मेरे यह सब अवश्य होगा। इस प्रकार मान कर्म के उदय से वह पापबुद्धि सहित हुआ खोटे मत से विरक्त नहीं हुआ और अनेक दोषों से दूषित वही वेष धारण कर रहने लगा।
तभी कच्छ आदि चार हजार राजा, जो दीक्षित हुए थे, उन सभी मुनिवेषधारियों ने भी अनेक वेष बना लिए।
मरीचि का भवभ्रमण-
मरीचिकुमार आयु के अंत में मरकर ब्रह्मस्वर्ग में दस सागर आयु वाला देव हो गया। वहाँ से आकर जटिल ब्राह्मण हुआ, पुन: पारिव्राजक बना पुन: मरकर सौधर्म स्वर्ग मेंं देव हुआ, पुन: वहाँ से आकर अग्निसह ब्राह्मण होकर पािरव्राजक दीक्षा ले ली पुन: मरकर देव हुआ, वहाँ से च्युत होकर अग्निमित्र ब्राह्मण होकर पारिव्राजक तापसी हुआ पुुनरपि माहेन्द्र स्वर्ग में देव हुआ, वहाँ से आकर भारद्वाज ब्राह्मण होकर त्रिदण्डी साधु बन गया और पुनरपि स्वर्ग में गया, वहाँ से च्युत होकर मिथ्यात्व के निमित्त से यह मरीचि कुमार त्रस-स्थावर योनियों में असंख्यात वर्ष तक परिभ्रमण करता रहा।
वह मरीचिकुमार का जीव इस तरह असंख्यात वर्षों तक इन कुयोनियों में भ्रमण करते हुये श्रांत हो गया। कुछ पुण्य से राजगृह नगर के शांडिल्य ब्राह्मण की पारशरी पत्नी से ‘स्थावर’ नाम का पुत्र हुआ। वहाँ भी सम्यग्दर्शन से शून्य पारिव्राजक की दीक्षा लेकर अंत में मरकर माहेन्द्र स्वर्ग में सात सागर की आयु वाला देव हो गया।
विश्वनंदी-
इसी मगधदेश के राजगृह नगर में ‘विश्वभूति’ राजा की ‘जैनी’ नाम की रानी से यह मरीचि कुमार का जीव स्वर्ग से आकर ‘विश्वनंदी’ नाम का राजपुत्र हो गया। विश्वभूति राजा का एक विशाखभूति नाम का छोटा भाई था, उसकी लक्ष्मणा पत्नी से ‘विशाखनन्दि’ नाम का मूर्ख पुत्र हो गया। किसी दिन विश्वभूति राजा ने विरक्त होकर छोटे भाई विशाखभूति को राज्य देकर अपने पुत्र ‘विश्वनन्दि’ को युवराज बना दिया और स्वयं तीन सौ राजाओं के साथ श्रीधर मुनि के पास दीक्षित हो गये।
किसी दिन विश्वनंदी युवराज अपने ‘मनोहर’ नामक उद्यान में अपनी स्त्रियों के साथ क्रीड़ा कर रहे थे। उसे देख, चाचा के पुत्र विशाखनंदी ने अपने पिता के पास जाकर उस उद्यान की याचना की। विशाखभूति ने भी युवराज विश्वनंदी को ‘विरुद्ध राजाओं को जीतने के बहाने’ बाहर भेजकर पुत्र को बगीचा दे दिया। विश्वनंदी को इस घटना का तत्काल पता लग जाने से वह क्रुद्ध होकर वापस विशाखनंदी को मारने को उद्यत हुआ। तब विशाखनंदी वैâथे के वृक्ष पर चढ़ गया, विश्वनंदी ने वैâथे के वृक्ष को उखाड़ दिया। तब वह भागा और पत्थर के खम्भे के पीछे हो गया, यह विश्वनंदी पत्थर के खंभे को उखाड़कर उससे उसे मारने को दौड़ा। विशाखनंदी वहाँ से डरकर भागा, तब युवराज के हृदय में सौहार्द और करुणा जाग्रत हो गई। उसने उसी समय उसे अभयदान देकर बगीचा भी दे दिया और स्वयं ‘संभूत’ नामक मुनि के पास दीक्षा धारण कर ली, तब विशाखभूति ने भी पापों का पश्चात्ताप कर दीक्षा ले ली।
किसी दिन मुनि विश्वनंदी अत्यन्त कृशशरीरी मथुरा में आहार के लिए आए, उस समय यह विशाखनंदी वेश्या के महल की छत से मुनि को देख रहा था। मुनि को गाय ने धक्के से गिरा दिया, यह देख विशाखनंदि बोला ‘तुम्हारा पत्थर का खम्भा तोड़ने वाला पराक्रम कहाँ गया’? मुनि ने यह दुर्वचन सुन उन्हें क्रोध आ गया, अन्त में निदान सहित संन्यास से मरकर महाशुक्र स्वर्ग में देव हो गये, वहीं पर चाचा विशाखभूति भी देव हो गये। दोनों की आयु सोलह सागर प्रमाण थी।
अर्धचक्री त्रिपृष्ठकुमार-
सुरम्य देश के पोदनपुर नगर में प्रजापति महाराज की जयावती रानी से ‘विशाखभूति का जीव’ विजय नाम का पुत्र हुआ और महाराज की दूसरी रानी मृगावती से ‘विश्वनंदी का जीव’ त्रिपृष्ठ नाम का पुत्र हुआ। विजय बलभद्र पद के धारक हुए और ये त्रिपृष्ठ अर्धचक्री पद के धारक हुए। उधर विशाखनंदि का जीव चिरकाल तक संसार में भ्रमण करता हुआ कुछ पुण्य से विजयार्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी के अलकापुर नगर में मयूरग्रीव विद्याधर की नीलांजना रानी से ‘अश्वग्रीव’ पुत्र हुआ। यह प्रतिनारायण हुआ था। कालांतर में युद्ध में अश्वग्रीव के चक्ररत्न से ही अश्वग्रीव को मारकर त्रिखण्डाधिपति राजा त्रिपृष्ठ ने अपने भाई विजय के साथ बहुत काल तक राज्यलक्ष्मी का उपभोग किया।
ये बलभद्र और नारायण दोनों ही सोलह हजार मुकुटबद्ध राजाओं, विद्याधरों एवं व्यंतर देवों के अधिपति होते हैं। नारायण के धनुष, शंख, चक्र, दण्ड, असि, शक्ति और गदा ये सात रत्न होते हैं। ये देवोें से सुरक्षित रहते हैं। बलभद्र के भी गदा, रत्नमाला, मूसल और हल ये चार रत्न होते हैं। ये नारायण तीन खण्ड के स्वामी अर्धचक्री कहलाते हैं।
नारायण के सोलह हजार रानियाँ होती हैं और बलभद्र के आठ हजार रानियाँ होती हैं तथा प्रतिनारायण के भी अठारह हजार रानियाँ होती हैं।
ये विजय बलभद्र दीक्षा लेकर तपश्चरण करके मोक्ष प्राप्त कर चुके हैं। त्रिपृष्ठ नारायण कई भवों के बाद अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर हुए हैं। प्रतिनारायण भी आगे भवों में नियम से मोक्ष प्राप्त करते हैं, ऐसा नियम है।
श्री वासुपूज्य भगवान के तीर्थ में द्विपृष्ठ नारायण, अचल बलभद्र एवं तारक नाम के प्रतिनारायण हुए हैं। नारायण का प्रतिनारायण प्रतिद्वन्दी-शत्रु होता है। ये नारायण आदि अर्द्धचक्री कहलाते हैं क्योंकि ये तीन खण्ड-एक आर्यखण्ड और दो म्लेच्छखण्ड पर विजय प्राप्त करने वाले होते हैं। प्रतिनारायण की आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न होता है। शत्रुता के निमित्त से प्रतिनारायण नारायण पर चक्र चला देते हैं, वही चक्र नारायण की तीन प्रदक्षिणा देकर उनके पास स्थित हो जाता है तभी नारायण प्रतिनारायण को उसी चक्ररत्न से मार देते हैं, ऐसा कुछ प्राकृतिक नियम ही है।
यहाँ अब इनके पूर्व भवों को कहते हैं-
इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में कनकपुर नगर के राजा सुषेण थे। इनके यहाँ एक गुणमंजरी नृत्यकारिणी थी, जो कि रूप, गुण और कला में अनूठी थी।
इसी भरतक्षेत्र में मलयदेश के विंध्यपुर में विंध्यशक्ति नाम का राजा रहता था। इस राजा ने गुणमंजरी नर्तकी को प्राप्त करने के लिए राजा सुषेण के पास रत्न आदि उपहार देकर एक दूत भेजा और उसने आकर राजा का यथायोग्य सम्मान करके नर्तकी के लिए याचना की और कहा-
राजन्! आप नर्तकी को एक बार भेज दीजिए, राजा देखना चाहते हैं पुन: मैं उसे वापस लाकर आपको सौंप दूँगा। दूत के समाचार को सुनकर राजा सुषेण ने उसे तर्जित कर वापस कर दिया। फलस्वरूप विंध्य शक्ति राजा ने युद्ध शुरू कर दिया तथा युद्ध में सुषेण को पराजित कर नृत्यकारिणी प्राप्त कर ली। इस अपमान से सुषेण ने बहुत ही दु:खी हो विरक्त होकर सुव्रत जिनेन्द्र से धर्मोपदेश सुनकर निर्मलचित्त होकर जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। अनंतर शत्रु के प्रति विद्वेष भावना से उसके मारने का निदान करके अंत में संन्यास विधि से मरण कर प्राणत स्वर्ग में देव हो गया। वहाँ इसकी आयु बीस सागर की थी।
भगवान विमलनाथ के तीर्थ में सुधर्म बलभद्र एवं स्वयंभू नारायण हुए हैं। उन्हीं का संक्षिप्त चरित कहा जा रहा है-जम्बूद्वीप के पश्चिम विदेह में मित्रनंदी राजा धर्मन्यायपूर्वक प्रजा का पालन कर रहे थे। किसी समय सुव्रत जिनेन्द्र के पादमूल में धर्मोपदेश सुनकर भोगों से विरक्त हो जैनेश्वरी दीक्षा ले ली और आयु के अंत में श्रेष्ठ समाधि से मरण करके अनुत्तर विमान में तेतीस सागर की आयु वाले अहमिन्द्र हो गए।
वहाँ से चयकर द्वारावती के राजा भद्र की रानी सुभद्रा से जन्मे। इनका नाम ‘सुधर्म’ रखा गया।
इसी भरतक्षेत्र के कुणाल देश की श्रावस्ती के राजा सुकेतु थे। वे जुआ आदि सातों व्यसनों में लगे हुए थे। किसी समय राजा जुआ में सब कुछ हारकर व्याकुल होकर सुदर्शनाचार्य गुरु की शरण में पहुँचा, धर्मोपदेश सुनकर संसार से विरक्त होकर दीक्षा ले ली और तपश्चरण करते हुए चातुर्य, बल आदि का निदान कर लिया। अंत में समाधि से मरणकर लांतव स्वर्ग में देव हो गया। वहाँ की चौदह सागर की आयु पूर्णकर वहाँ से चयकर द्वारावती के राजा भद्र की दूसरी पृथिवीमती रानी से पुत्र हो गया, उसका नाम ‘स्वयंभू’ रखा गया। यह पुत्र राजा को अत्यधिक प्रिय था। ये दोनों भाई सुधर्म और स्वयंभू बलभद्र और नारायण के अवतार थे।
पूर्वभव में राजा सुकेतु के जुआ में हार जाने पर एक राजा ने उसका राज्य छीन लिया था। वह राजा धर्म आचरण करके मरकर रत्नपुर नगर में राजा मधु हो गया। यह चक्ररत्न का स्वामी प्रतिनारायण था। पूर्व जन्म के बैर के संस्कार से राजा स्वयंभू मधु का नाम सुनते ही कुपित हो जाता था।
किसी समय किसी राजा ने मधु के लिए बहुत कुछ भेंट भेजी। राजा स्वयंभू ने दूत को मारकर वह भेंट स्वयं छीन ली। जब मधु ने नारद के द्वारा यह समाचार ज्ञात किया तब वह अपनी सेना के साथ नारायण से युद्ध करने चल पड़ा। दोनों राजाओं में घमासान युद्ध हुआ। अंत में मधु राजा ने अपना चक्र स्वयंभू राजा के ऊपर चला दिया। वह उनकी प्रदक्षिणा देकर उन्हीं के पास ठहर गया, उसी समय ये ‘स्वयंभू’ नारायण प्रसिद्ध हो गये और उसी चक्र से प्रतिनारायण को मार दिया। ये बलभद्र और नारायण बहुत काल तक तीन खण्ड का राज्य करते रहे हैं। कालांतर में सुधर्म बलभद्र ने श्री विमलनाथ भगवान के चरण सान्निध्य में दीक्षा लेकर घोर तपश्चरण करके केवलज्ञान प्राप्त किया है और अंत में मोक्ष प्राप्त कर चुके हैं।
भगवान अनंतनाथ के समय में सुप्रभ बलभद्र और पुरुषोत्तम नारायण हुए हैं। इनका संक्षिप्त विवरण सुनाया जा रहा है-
इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र के पोदनपुर में राजा वसुषेण राज्य करते थे, उनकी पाँच सौ रानियों में नंदा महारानी राजा को अतीव प्रिय थीं। मलयदेश के राजा चण्डशासन राजा वसुषेण के मित्र थे। किसी समय राजा चण्डशासन अपने मित्र से मिलने के लिए पोदनपुर आया। पापकर्म से प्रेरित हो, वह अपने मित्र की रानी नंदा को देखकर उस पर आसक्त हो किसी भी उपाय से उसका हरण करके अपने देश ले गया। राजा वसुषेण असमर्थ होते हुए इस घटना से बहुत ही दु:खी हुए।
कालांतर में श्रीश्रेय गणधर के धर्मोपदेश से संसार से विरक्त होकर जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। ये मुनि वसुषेण सिंहनिष्क्रीडित आदि अनेक व्रतों के अनुष्ठान से महातपस्वी बन गये, पुन: किसी समय निदान कर लिया ‘‘मेरी तपस्या का फल मुझे यह प्राप्त हो कि मैं ऐसा राजा होऊँ, जिसकी आज्ञा का कोई उल्लंघन न कर सके। अनंतर संन्यास मरण कर सहस्रार नाम के बारहवें स्वर्ग में देव हो गये। इनकी आयु अठारह सागर की थी।
इसी मध्य जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह में नंदन नगर के महाबल राजा बहुत काल तक सुखपूर्वक राज्य संचालन करके किसी समय विरक्तमना हो अपने पुत्र के लिए राज्य सौंपकर श्री प्रजापाल अर्हंत भगवान के समीप दीक्षा लेकर सिंहनिष्क्रीडित व्रत करके तपश्चरण के प्रभाव से एवं संन्यास विधि से मरणकर इसी सहस्रार स्वर्ग में अठारह सागर की आयु वाले देव हो गये। इन दोनों देवों का आपस में बहुत ही प्रेमभाव था।
इसी भरतक्षेत्र की द्वारावती नगरी के राजा सोमप्रभ की जयवंती रानी थी। यह महाबल राजा के देव का जीव वहाँ से च्युत होकर रानी जयवंती के गर्भ में आ गया और नव माह बाद पुत्र हुआ, इसका नाम ‘सुप्रभ’ रखा गया। इन्हीं राजा की दूसरी रानी सीता से वसुषेण के देव का जीव पुरुषोत्तम नाम का पुत्र हुआ है। ये दोनों पुत्र बड़े होकर बलभद्र और नारायण हुए हैं। बलभद्र का वर्ण श्वेत था और नारायण का वर्ण कृष्ण था। इन दोनों का शरीर पचास धनुष ऊँचा था (५०²४·२०० हाथ) । तीस लाख वर्ष की आयु थी। दोनों ही एक साथ समान सुख का अनुभव करते थे।
पहले जिस चण्डशासन राजा ने वसुषेण की नंदारानी का हरण किया था, वह अनेक भवों में भ्रमण कर वाराणसी नगरी का स्वामी मधुसूदन हुआ था। उसने पूर्व भव में तपस्या करके निदान करके अर्धचक्री का वैभव प्राप्त किया था। इसकी आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ था, जिसके प्रभाव से इसने दिग्विजय कर तीन खण्ड को जीत लिया था। नारद के मुख से किसी समय इसने सुप्रभ व पुरुषोत्तम के वैभव को सुना, तब उसने एक दूत को भेजकर इन दोनों से हाथी, रत्न आदि ‘कर’ के रूप में मांगे।
यह सुनकर सुप्रभ व पुरुषोत्तम ने दूत की तर्जना करके उसे भगा दिया। तभी मधुसूदन ने सेना लेकर आकर द्वारावती नगरी को घेर लिया। दोनों सेनाओं में भयंकर युद्ध हुआ। अनंतर मधुसूदन ने अपना चक्र चला दिया। वह चक्र राजा पुरुषोत्तम की प्रदक्षिणा देकर उन्हीं के पास स्थित हो गया। अंत में पुरुषोत्तम ने उसी के चक्र से उसे मार डाला।
उसी क्षण ये दोनों भाई बलभद्र व नारायण के रूप में तीन खण्ड के स्वामी हो गये। बहुत काल तक इन दोनों ने न्यायपूर्वक प्रजा का पालन किया है। अंत में सुप्रभ बलभद्र ने श्रीसोमप्रभ जिनेन्द्र के चरण सान्निध्य में दीक्षा लेकर घोर तप करके क्षपकश्रेणी में आरोहण कर केवलज्ञान को प्राप्त किया है। अनंतर केवली काल में विहार करके अगणित जीवों को मोक्षमार्ग का उपदेश देकर अंत में निर्वाणधाम को प्राप्त कर लिया है। ये ‘सुप्रभ’ सिद्ध परमात्मा हम सभी को सिद्धि प्रदान करें।
भगवान धर्मनाथ के तीर्थ में सुदर्शन बलभद्र एवं पुरुषसिंह नारायण हुए हैं। उनका संक्षिप्त इतिहास कहा जाता है-
इसी भरतक्षेत्र के राजगृह नगर में सुमित्र नामक राजा थे, वे बहुत ही अभिमानी थे। किसी समय मल्लयुद्ध में कुशल एक राजसिंह नाम के राजा उस सुमित्र राजा के गर्व को नष्ट करने के लिए राजगृह नगर में आये और उन्होंने युद्धभूमि में राजा सुमित्र को पराजित कर दिया।
मानभंग से वे सुमित्र महाराजा बहुत ही दु:खी हुए, कालांतर में श्रीकृष्णाचार्य मुनि के वचनों से शांत होकर उन्होंने दैगंबरी दीक्षा ले ली। यद्यपि इन मुनिराज ने सिंहनिष्क्रीडित आदि अनेक प्रकार के तपश्चरणों के अनुष्ठान किए थे फिर भी मन में पराजय का संक्लेश बना रहता था अत: उन्होंने निदान कर लिया कि-
‘मुझे इन तपश्चरणों का फल ऐसा मिले कि मैं बड़े से बड़े शत्रुओं को पराजित करने में बलवान हो जाऊँ।’
अंत में संन्यास विधि से मरणकर माहेन्द्र स्वर्ग में सात सागर की आयु प्राप्त कर देव हो गये। इसी जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह में वीतशोकापुरी के राजा नरवृषभ सुखपूर्वक राज्य सुखों का अनुभव कर रहे थे। ये राजा किसी समय विरक्तमना होकर ‘दमवर’ महामुनि के समीप दीक्षा लेकर कठोर तप के प्रभाव से अंत में मरण कर सहस्रार नाम के बारहवें स्वर्ग में देव हो गये, वहाँ इनकी आयु अठारह सागर की थी। आयु के अंत में वहाँ से चयकर जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में खड्गपुर नगर के इक्ष्वाकुवंशीय राजा सिंहसेन की विजया रानी से ‘सुदर्शन’ नाम के पुत्र हुए हैं।
इन्हीं राजा सिंहसेन की दूसरी अंबिका रानी से राजा सुमित्र के जीव देव पर्याय से च्युुत होकर ‘पुरुषसिंह’ नाम के नारायण हुए हैं। ये दोनों भाई पैंतालीस धनुष (४५²४·१८०) एक सौ अस्सी हाथ के शरीर के धारक थे। इनकी आयु दश लाख वर्ष की थी। ये दोनों परस्पर में अतिशय प्रेम से राज्य सुखों का अनुभव कर रहे थे।
इसी भरतक्षेत्र के हस्तिनापुर नगर में राजा मधुक्रीड़ राज्य करते थे। जो सुमित्र राजा को मल्लयुद्ध में जीतने वाले ‘राजसिंह’ राजा थे, वे ही क्रम से ये ‘मधुक्रीड़’ नाम से प्रतिनारायण अर्धचक्री राजा हुए हैं। ये मधुक्रीड़-राजा सुदर्शन व पुरुषसिंह के पराक्रम को नहीं सहन कर पाते थे इसीलिए इन्होंने एक दिन अपने दण्डगर्भ नाम के प्रधानमंत्री को इन दोनोें के पास खड्गपुर नगर में कर-टैक्स लेने के लिए भेज दिया।
महाराजा सुदर्शन व पुरुषसिंह आये हुए प्रधानमंत्री के शब्दों से क्षुभित और कुपित होकर कठोर शब्द कहने लगे। प्रधानमंत्री ने जाकर मधुक्रीड़ राजा को सूचना दी। इतना सुनते ही क्रुद्ध हुए प्रतिनारायण मधुक्रीड़ ने शीघ्र ही विशाल सेना लेकर युद्ध के लिए प्रस्थान कर दिया। दोनों सेनाओं में भयंकर युद्ध हुआ। अंत में मधुक्रीड़ ने अपना चक्र पुरुषसिंह के ऊपर चला दिया। नियोग के अनुसार पुरुषसिंह के पुण्य के प्रभाव से वह चक्र उनकी प्रदक्षिणा देकर उन्हीं के पास स्थित हो गया। तभी पुरुषसिंह ने उसी के चक्ररत्न से उसी का वध कर दिया और तत्क्षण ही ये दोनों इस भूतल पर पाँचवें बलभद्र व नारायण प्रसिद्ध हो गये।
वास्तव में ऐसे ‘वैर के निदान को धिक्कार हो’ कि जिससे अपने ही चक्ररत्न से अपना घात हो जाता है।
इधर दोनों भाई तीन खण्ड के स्वामी बनकर बहुत काल तक राज्यलक्ष्मी का उपभोग करते रहे हैं। अंत में नारायण के वियोग से दु:खी हो बलभद्र सुदर्शन ने ‘भगवान धर्मनाथ तीर्थंकर’ के चरण सान्निध्य में पहुँचकर मोह और शोक को छोड़कर जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। घोरातिघोर तपश्चरण करके अपने घातिया कर्मों का नाशकर केवली हुए हैं पुन: सभी कर्मों से रहित निर्वाणधाम को प्राप्त किया है, ऐसे वे सिद्धालय में विराजमान ‘सुदर्शन बलभद्र’ सिद्ध भगवान हम सबको भी शाश्वत धाम को प्राप्त करावें, यही उनके चरणों में विनम्र प्रार्थना है।
भगवान अरनाथ एवं मल्लिनाथ के अन्तराल में नंदिषेण बलभद्र एवं पुण्डरीक नारायण हुए हैं।
तीसरे भव पूर्व ये राजपुत्र थे। एक राजपुत्र ने शल्य सहित तपश्चरण करके आयु के अंत में संन्यास विधि से मरण करके प्रथम स्वर्ग में देवपद पाया, वहाँ से चयकर सुभौम चक्रवर्ती के बाद छह सौ करोड़ वर्ष बीत जाने पर इसी भरतक्षेत्र में चक्रपुर नगर के राजा वरसेन की लक्ष्मीरानी से पुण्डरीक नाम का पुत्र हुआ। इन्हीं वरसेन राजा की दूसरी वैजयंती रानी से नंदिषेण नाम का बलभद्र उत्पन्न हुआ। इन दोनों की आयु छप्पन हजार वर्ष की थी, शरीर की ऊँचाई छब्बीस धनुष (२६²४·१०४ हाथ) की थी। किसी एक दिन इन्द्रपुर के राजा उपेन्द्रसेन ने अपनी पद्मावती नाम की पुत्री ‘पुण्डरीक’ नारायण के लिए प्रदान की।
पहले भव में एक सुकेतु नाम का राजा था, जो कि अत्यंत अहंकारी, दुराचारी तथा पुण्डरीक का शत्रु था। क्रम से कुछ पुण्य के संचय से ‘निशुंभ’ नाम का राजा हुआ, उसने चक्ररत्न के द्वारा तीन खण्डों पर विजय प्राप्त कर अर्धचक्री पद प्राप्त कर लिया। जब उसने पुण्डरीक राजा के साथ पद्मावती के विवाह का समाचार सुना तो बहुत ही कुपित हुआ।
उस निशुंभ प्रतिनारायण ने बहुत बड़ी सेना साथ लेकर पुण्डरीक के साथ युद्ध प्रारंभ कर दिया। भयंकर युद्ध में उसने अपना चक्ररत्न पुण्डरीक राजा पर चला दिया। उस चक्ररत्न ने भी पुण्डरीक को अपना स्वामी बना लिया तभी पुण्डरीक ने निशुंभ अर्धचक्री का वध कर दिया और उसी क्षण ये देवों द्वारा भी मान्य नारायण एवं बलभद्र प्रसिद्ध हो गए।
किसी समय नंदिषेण भाई पुण्डरीक की मृत्यु से विरक्तमना हो, शिवघोष मुनि के चरण सान्निध्य में दीक्षा लेकर शुद्ध परिणामों से घातिया कर्मों का नाश कर केवली हो गए। अनेक भव्यों को धर्मामृत का पान कराकर पुन: अघातिया कर्मों का भी नाश कर सिद्ध परमात्मा हो गए। ऐसे नंदिषेण बलभद्र सिद्ध भगवान हम सभी के मोक्षमार्ग को प्रशस्त करें, यही भावना है।
भगवान मल्लिनाथ के तीर्थ में नंदिमित्र नाम के सातवें बलभद्र एवं श्रीदत्त नाम के सातवें नारायण हुए। इनके तीसरे भव पूर्व का चरित्र प्रस्तुत है-
अयोध्या के राजा के दो पुत्र थे। ये दोनों पिता को प्रिय नहीं थे अत: राजा ने इन दोनों को छोड़कर अपने छोटे भाई को युवराज पद दे दिया। तब इन दोनों भाइयों ने यह समझा कि यह सब मंत्री ने कराया है अत: मंत्री के प्रति वैर भाव धारण कर ये दोनों राजकुमार महामुनि शिवगुप्त से दीक्षा लेकर तपश्चरण करने लगे पुन: अंत में समाधिपूर्वक मरण कर सौधर्म स्वर्ग में सुविशाल विमान में देव हो गए।
वहाँ से च्युत होकर एक देव वाराणसी के इक्ष्वाकुवंशीय राजा अग्निशिख की अपराजिता रानी से नंदिमित्र नाम के बलभद्र हुए हैं एवं इन्हीं राजा की दूसरी केशवती रानी से दूसरे देव ने जन्म लेकर श्रीदत्त नाम प्राप्त किया है। बत्तीस हजार वर्ष की इनकी आयु थी। बाईस धनुष (२२²४·८८ हाथ) ऊँचा शरीर था, क्रम से बलभद्र के शरीर का वर्ण शुक्ल व नारायण के शरीर का वर्ण इन्द्रनील मणि के समान था।
इधर मंत्री का जीव क्रम से कुछ पुण्य संचित करके विजयार्ध पर्वत पर मन्दरपुर नगर का स्वामी बलीन्द्र विद्याधर हुआ। किसी एक दिन इस बलीन्द्र ने दोनों राजा-नंदिमित्र व श्रीदत्त के पास दूत भेजा और कहलाया कि आपके पास भद्रक्षीर नाम का एक गंधहस्ती है, उसे हमारे यहाँ भेज दीजिए। इन दोनों ने दूत से कहा कि वे बलीन्द्र विद्याधर राजा अपनी पुत्रियों का हमारे साथ विवाह कर दें, तब यह गंधहाथी दिया भी जा सकता है।
यह सब सुनकर विद्याधर बलीन्द्र अपना चक्ररत्न आगे कर युद्ध के लिए चल पड़े।
इधर दक्षिणश्रेणी के सुरकांतार नगर के स्वामी केसरीविक्रम जो कि ‘केशवती’ के भ्राता थे, उन्होंने सम्मेदशिखर पर विधिपूर्वक सिद्ध की गई सिंहवाहिनी और गरुड़वाहिनी ऐसी दो विद्याएँ ‘श्रीदत्तनारायण’ को दे दीं। इस प्रकार इन दोनों ही बलवान राजाओं की सेना में भयंकर युद्ध होता रहा। बलीन्द्र विद्याधर के पुत्र शतबली में और बलभद्र नंदिमित्र में आपस में बहुत ही युद्ध हुआ। उसमें बलभद्र ने शतबली को यमराज के मुख में पहुँचा दिया। पुत्र की मृत्यु देख ‘बलीन्द्र’ राजा ने अत्यंत कुपित हो श्रीदत्त पर अपना चक्र चला दिया परन्तु वह चक्र श्रीदत्त की तीन प्रदक्षिणा देकर इनकी दाहिनी भुजा पर आ गया। श्रीदत्त ने उसी चक्र से उस बलीन्द्र विद्याधर का वध कर दिया।
युद्ध समाप्त होते ही दोनों भाइयों ने ‘अभयघोषणा’ की और चक्ररत्न को प्राप्त कर तीनों खण्डों को अपने आधीन कर लिया। दोनों भाइयों ने बलभद्र व नारायण पद को प्राप्त कर चिरकाल तक राज्य सुखों का अनुभव किया है। अंत में बलभद्र नंदिमित्र ने संभूत जिनेन्द्र के पास अनेक राजाओं के साथ दीक्षा लेकर केवलज्ञान प्राप्त कर पृथिवी पर श्रीविहार करके धर्मोपदेश दिया है, अनंतर सम्पूर्ण कर्मों का नाश कर मोक्ष प्राप्त किया है। ये नंदिमित्र सिद्ध परमात्मा हम सभी की आत्मा को परमात्मा बनाने के लिए सद्बुद्धि प्रदान करें।
अयोध्या के राजा दशरथ के चार रानियाँ थीं, उनके नाम थे-अपराजिता, सुमित्रा, केकयी और सुप्रभा। अपराजिता (कौशल्या) ने पद्म (रामचन्द्र) नाम के पुत्र को जन्म दिया। सुमित्रा से लक्ष्मण, केकयी से भरत और सुप्रभा से शत्रुघ्न ऐसे दशरथ के चार पुत्र हुए। राजा दशरथ ने इन चारों को विद्याध्ययन आदि में योग्य कुशल कर दिया।
लंका नगरी-
किसी समय अजितनाथ के समवसरण में राक्षसों के इन्द्र भीम और सुभीम ने प्रसन्न होकर पूर्व जन्म के स्नेहवश विद्याधर मेघवाहन को कहा कि हे वत्स! इस लवण समुद्र में अतिशय सुन्दर हजारों महाद्वीप हैं। उन द्वीपों में से एक ‘राक्षस द्वीप’ है, जो सात सौ योजन लम्बा तथा इतना ही चौड़ा है। इसके मध्य में नौ योजन ऊँचा, पचास योजन चौड़ा ‘त्रिकूटाचल’ नाम का पर्वत है। उस पर्वत के नीचे तीस योजन विस्तार वाली लंका नगरी है। हे विद्याधर! तुम अपने बंधुवर्ग के साथ उस नगरी में जाओ और सुख से रहो। ऐसा कहकर भीम इन्द्र ने उसे एक देवाधिष्ठित हार भी दिया था। इन्हीं की परम्परा में राजा रत्नश्रवा की रानी केकसी से देदीप्यमान प्रतापी पुत्र ने जन्म लिया। बहुत पहले राजा मेघवाहन को राक्षसों के इन्द्र भीम ने जो हार दिया था, हजार नागकुमार जिसकी रक्षा करते थे, जिसकी किरणें सब ओर पैâल रही थीं और राक्षसों के भय से इतने दिनों तक जिसे किसी ने नहीं पहना था, उस बालक ने उसे मुट्ठी से खींच लिया। माता ने बड़े प्रेम से बालक को वह हार पहना दिया, तब उसके असली मुख के सिवाय उस हार में नौ मुख और दीखने लगे, जिससे सबने बालक का नाम ‘दशानन’ रख दिया। उसके बाद रानी ने भानुकर्ण, चन्द्रनखा और विभीषण को जन्म दिया था। राक्षसों द्वारा दी गई लंका नगरी में रहने से ये लोग राक्षसवंशी कहलाते थे।
सीता का विवाह-
मिथिला नगरी के राजा जनक की रानी विदेहा की सुपुत्री सीता थी। किसी समय राजा जनक ने पुत्री के ब्याह के लिए स्वयंवर मंडप बनवाया और यह घोषणा कर दी कि जो वङ्काावर्त धनुष को चढ़ायेगा, वही सीता का पति होगा। श्री रामचन्द्र ने उस वङ्काावर्त धनुष को चढ़ाया और लक्ष्मण ने समुद्रावर्त धनुष को चढ़ाया। रामचन्द्र के गले में सीता ने वरमाला डाली एवं चन्द्रवर्धन विद्याधर ने अपनी अठारह कन्याओं की शादी लक्ष्मण से कर दी। उस समय भरत को विरक्त देख केकयी की प्रेरणा से पुन: स्वयंवर विधि से राजा कनक ने अपनी लोकसुन्दरी पुत्री का ब्याह भरत के साथ कर दिया।
रामचन्द्र का वनवास-
किसी समय राजा दशरथ वैराग्य को प्राप्त हो गये और रामचन्द्र को राज्यभार देकर दीक्षा लेने का निश्चय किया। उसी समय भरत भी विरक्तचित्त होकर दीक्षा के लिए उद्यत होने लगे। इसी बीच भरत की माता केकयी घबराकर तथा मन में कुछ सोचकर पति के पास पहुँची और समयोचित वार्तालाप के अनन्तर उसने पूर्व में ब्याह के समय सारथी का कुशल कार्य करने के उपलक्ष्य में राजा द्वारा प्रदत्त ‘वर’ जो कि अभी तक धरोहर रूप में था, उसे माँगा और पति की आज्ञा के अनुसार उसने कहा कि ‘मेरे पुत्र के लिए राज्य प्रदान कीजिए’। यह वर देकर राजा दशरथ ने रामचन्द्र को बुलाकर रामचन्द्र से शोकपूर्ण शब्दों में यह सब हाल कह दिया। मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र पिता को अनेक प्रकार से समझाकर शोकमुक्त करके भ्राता लक्ष्मण और सती सीता के साथ वन में चले गये और दशरथ ने भी मुनि दीक्षा ले ली। उस समय भरत ने बड़ी जबरदस्ती से राज्यभार संभाला।
रावण की मृत्यु-
वनवास के प्रवास में किसी समय धोखे से रावण ने सीता का अपहरण कर लिया। तब हनुमान और सुग्रीव आदि विद्याधरों की सहायता से रामचन्द्र ने रावण से युद्ध प्रारंभ किया। रावण प्रतिनारायण था। उसके चक्ररत्न से ही लक्ष्मण के द्वारा उसकी युद्धभूमि में मृत्यु हो गई और लक्ष्मण उसी चक्ररत्न से ‘नारायण’ पदधारी हो गये।
सीता का निष्कासन-
बलभद्र पदधारी रामचन्द्र और लक्ष्मण नारायण बहुत काल तक अयोध्या में सुखपूर्वक राज्य करते हुए समय व्यतीत कर रहे थे कि एक समय अकारण ही सीता के अपवाद की चर्चा रामचन्द्र तक आई और राम ने उस निर्दोष गर्भवती सीता को धोखे से वन में भेज दिया। जब वन में विह्वलचित्त सीता विलाप कर रही थी, तब पुंडरीकपुर का स्वामी राजा वङ्काजंघ वहाँ हाथी पकड़ने के लिए सेना सहित आया था। वह बड़े ही धर्मप्रेम से सीता को अपने साथ ले गया। वहीं सीता को युगल पुत्र उत्पन्न हुए जिनका अनंगलवण और मदनांकुश नाम रखा। बाललीला से माता को प्रसन्न करते हुए ये बालक किशोर अवस्था को प्राप्त हुए। उनके पुण्य से प्रेरित ‘सिद्धार्थ’ नामक क्षुल्लक उन्हें विद्याध्ययन कराने लगे। वे क्षुल्लक जी प्रतिदिन तीनों संध्याओं में मेरुपर्वत के चैत्यालयों की वंदना करके क्षण भर में वापस आ जाते थे। थोड़े ही समय में क्षुल्लक जी ने उन बालकों को सम्पूर्ण शस्त्र और शास्त्र विद्याएँ ग्रहण करा दीं।
रामचन्द्र का पुत्रों के साथ युद्ध-
किसी समय घूमते-घूमते नारद क्षुल्लक वेष में वहाँ आ गये और नमस्कार करते हुए दोनों कुमारों को आशीर्वाद दिया कि ‘राजा रामचन्द्र और लक्ष्मण जैसी विभूति शीघ्र ही आप दोनों को प्राप्त हो’। इसके उत्तर में उन्होंने पूछा-हे भगवन्! वे राम-लक्ष्मण कौन हैं ? नारद ने सीता के वन में छोड़ने तक का सारा वृत्तान्त कह सुनाया। त्ाब इन बालकों ने पूछा-यहाँ से अयोध्या कितनी दूर है ? नारद ने कहा-साठ योजन दूर है। दोनों कुमार अयोध्या पर चढ़ाई करने के लिए उद्यत हो गये। माता ने बहुत कुछ समझाया कि हे पुत्रों! तुम विनय से जाकर पिता और चाचा को नमस्कार करो, यही न्यायसंगत है किन्तु वे बोले कि ‘‘इस समय वे रामचन्द्र हमारे शत्रु के स्थान को प्राप्त हैं।’’ इत्यादि कहकर वे जैसे-तैसे माता की आज्ञा लेकर और सिद्ध भगवान को नमस्कार कर युद्ध करने के लिए चल पड़े। वहाँ संग्राम भूमि में महा भयंकर युद्ध होने लगा।
अनन्तर कोपवश लक्ष्मण ने चक्ररत्न का स्मरण करके मदनांकुश को मारने के लिए चला दिया किन्तु वह चक्ररत्न वापस लक्ष्मण के पास आ गया। इसी बीच में सिद्धार्थ क्षुल्लक ने रामचन्द्र और लक्ष्मण को सच्ची घटना सुना दी। तब उन लोगों ने शस्त्र डाल दिये और पिछले शोक एवं वर्तमान के हर्ष से विह्वल हो पुत्रों से मिले। पुत्रों ने भी विनय से सिर झुकाकर पिता को नमस्कार किया।
सीता की अग्निपरीक्षा-
अनंतर रामचन्द्र की आज्ञा से भामंडल, विभीषण, हनुमान, सुग्रीव आदि बड़े-बड़े राजा पुंडरीकपुर से सीता को ले आये। सभा में रामचन्द्र की मुखाकृति को देख सीता किंकर्त्तव्यविमूढ़ सी वहाँ खड़ी रहीं। तब राम ने कहा कि सीते! सामने क्यों खड़ी है ? दूर हट, मैं तुझे देखने के लिए समर्थ नहीं हूँ। तब सीता ने कहा कि ‘‘आपके समान दूसरा कोई निष्ठुर नहीं है, दोहला के बहाने मुझ गर्भिणी को वन में भेजना क्या उचित था ? यदि मेरे प्रति आपको थोड़ी भी कृपा होती तो आर्यिकाओं की वसति में मुझे छोड़ देते। अस्तु! हे देव! आप मुझ पर प्रसन्न हों और जो भी आज्ञा दें मैं पालने को तैयार हूँ। तब राम ने सोचकर अग्निपरीक्षा का निर्णय दिया। तब सीता ने हर्षयुक्त हो ‘एवमस्तु’ ऐसा कहकर स्वीकार किया। उस समय हनुमान, नारद आदि घबरा गये।
महाविकराल अग्निकुंड धधकने लगा। सीता पंचपरमेष्ठी की स्तुति-पूजा करके मुनिसुव्रतनाथ तीर्थंकर को नमस्कार करके बोलीं-मैंने स्वप्न में भी राम के सिवाय किसी अन्य मनुष्य को मन, वचन, काय से चाहा हो तो हे अग्नि देवते! तू मुझे भस्मसात् कर दे अन्यथा नहीं जलावे’ इतना कहकर वह सीता उस अग्निकुण्ड में कूद पड़ी। उसी समय उसके शील के प्रभाव से वह अग्नि शीतल जल हो गयी और कल-कल ध्वनि करती हुई बावड़ी लहराने लगी। वह जल बाहर चारों तरफ पैâल गया और लोक समुदाय घबराने लगा किन्तु वह जल रामचन्द्र के चरण स्पर्श करके सौम्य दशा को प्राप्त हो गया, तब लोग सुखी हुए। वापी के मध्य कमलासन पर सीता विराजमान थीं, आकाश से देव पुष्पवृष्टि कर रहे थे। देवदुंदुभि बाजे बज रहे थे। लवण और अंकुश आजू-बाजू खड़े थे।
ऐसी सीता को देखकर रामचन्द्र उसके पास गये और बोले-हे देवि! प्रसन्न होवो और मेरे अपराध क्षमा करो। इत्यादि वचनों को सुनकर सीता ने कहा-हे राजन्! मैं किसी पर कुपित नहीं हूँ, आप विवाद को छोड़ो। इसमें आपका या अन्य किसी का दोष नहीं है, मेरे पूर्वकृत पाप कर्मों का ही यह विपाक था। अब मैं स्त्रीपर्याय को प्राप्त न करूँ, ऐसा कार्य करना चाहती हूँ, ऐसा कहते हुए सीता ने निःस्पृह को अपने केश उखाड़कर राम को दे दिये। यह देख रामचंद्र मूर्च्छित हो गये। इधर जब तक चन्दन आदि द्वारा राम को सचेत किया गया तब तक सीता पृथ्वीमती आर्यिका से दीक्षित हो गई। जब रामचन्द्र सचेत हुए तब सीता को न देखकर शोक और क्रोध में बहुत ही दु:खी हुए और सीता को वापस लाने के लिए देवों से व्याप्त उद्यान में पहुँचे। वहाँ मुनियों में श्रेष्ठ सर्वभूषण केवली को देखा और शांत होकर अंजलि जोड़कर नमस्कार करके मनुष्यों के कोठे में बैठ गये। वहीं पर आर्यिकाओं के कोठे में वस्त्रमात्र परिग्रह को धारण करने वाली आर्यिका सीता बैठी थीं। केवली भगवान का विशेष उपदेश सुनकर राम ने संतोष प्राप्त किया।
रामचन्द्र की दीक्षा और निर्वाणगमन-
अनन्तर अनंगलवण के पुत्र अनन्तलवण को राज्य देकर रामचन्द्र ने आकाशगामी सुव्रत मुनि के समीप निर्ग्रन्थ दीक्षा धारण कर ली। उस समय शत्रुघ्न, विभीषण, सुग्रीव आदि कुछ अधिक सोलह हजार राजा साधु हुए और सत्ताईस हजार प्रमुख-प्रमुख स्त्रियाँ श्रीमती नामक साध्वी के पास आर्यिका हुईं। रामचन्द्र उत्तम चर्या से युक्त गुरु की आज्ञा लेकर एकाकी विहार करने लगे।
पाँच दिन का उपवास कर धीर-वीर योगी रामचन्द्र पारणा के लिए नन्दस्थली नगरी में आये। उनकी दीप्ति और सुन्दरता को देखकर नगर में बड़ा भारी कोलाहल हो गया। पड़गाहन के समय-हे स्वामिन्! यहाँ आइये! यहाँ ठहरिये! इत्यादि अनेकों शब्दों से आकाश व्याप्त हो गया, हाथियों ने भी खम्भे तोड़ डाले, घोड़े हिनहिनाने लगे और बंधन तोड़ डाले, उनके रक्षक दौड़ पड़े। प्रतिनन्दी ने भी क्षुभित हो वीरों को आज्ञा दी कि जाओ! इन मुनिराज को मेरे पास ले आओ। इस प्रकार भटों के कहने से महामुनि रामचन्द्र अन्तराय जानकर वापस चले गये, तब वहाँ और अधिक क्षोभ मच गया।
अनन्तर रामचन्द्र ने पाँच दिन का दूसरा उपवास ग्रहण कर यह प्रतिज्ञा ले ली कि मुझे वन में आहार मिलेगा तो ग्रहण करूँगा, अन्यथा नहीं। कारणवश गए हुए इन्हीं राजा प्रतिनन्दी ने रानी सहित वन में रामचन्द्र को आहारदान देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये। रामचन्द्र को अक्षीणमहानस ऋद्धि थी अत: उस बर्तन का अन्न उस दिन अक्षीण हो गया। घोरातिघोर तपश्चरण करते हुए रामचन्द्र को माघ शुक्ला द्वादशी के दिन केवलज्ञान प्रगट हो गया। तब देवों ने आकर गंधकुटी की रचना की। रामचन्द्र की आयु सत्तर हजार वर्ष की और शरीर की ऊँचाई सोलह धनुष प्रमाण थी। ये रामचन्द्र सर्वकर्म रहित होकर तुंगीगिरि से मुक्ति को प्राप्त हुए हैंं। आज भी राम, लक्ष्मण और सीता का आदर्श जीवन सर्वत्र गाया जाता है।
भगवान नमिनाथ के बाद शौरीपुर के राजा अंधकवृष्टि की सुभद्रा महारानी के दश पुत्र हुए, जिनके नाम-(१) समुद्रविजय (२) अक्षोभ्य (३) स्तिमितसागर (४) हिमवान (५) विजय (६) अचल (७) धारण (८) पूरण (९) अभिचन्द्र और (१०) वसुदेव तथा सुभद्रा महारानी के दो पुत्रियाँ थीं, जिनके कुंती और माद्री नाम थे।
राजा अंधकवृष्टि ने समुद्रविजय को राज्य प्रदान कर सुप्रतिष्ठ केवली के पादमूल में दीक्षा ले ली। राजा समुद्रविजय की महारानी शिवादेवी थीं। वसुदेव कंस आदि को धनुर्विद्या की शिक्षा दे रहे थे।
राजगृही के राजा जरासंध बहुत ही प्रतापी थे। इनकी आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ था, जिससे ये तीन खण्ड को जीतकर शासन कर रहे थे।
किसी समय जरासंध राजा ने घोषणा की कि-‘जो सिंहपुर के राजा सिंहरथ को जीवित पकड़ कर मेरे आधीन करेगा, उसे मैं अपनी पुत्री जीवद्यशा को और इच्छित देश के राज्य को देऊँगा।’ वसुदेव ने जीवित सिंहरथ राजा को पकड़ लिया एवं कंस से उसे बंधवा दिया और ‘‘कंस ने यह कार्य किया है ऐसा घोषित कर दिया’’। राजा जरासंध ने कंस का कुल-गोत्र जानना चाहा, तब कौशाम्बी की मंजोदरी माता को बुलाया गया, उसने एक मंजूषा लाकर दे दी और कहा-राजन्! मैंने यमुना के प्रवाह में बहती हुई इस मंजूषा में इसे पाया है। तब उस मंजूषा में एक मुद्रिका मिली, उसमें लिखा था-
‘यह राजा उग्रसेन की रानी पद्मावती का पुत्र है, यह गर्भ में ही उग्र था अत: इसे छोड़ा गया है।’
तब जरासंध अर्धचक्री ने अपनी पुत्री उसे ब्याह दी और बहुत सी संपदा से सहित कर दिया तथा कंस की इच्छा के अनुसार उसे मथुरा का राज्य दे दिया। कंस मथुरा पहुँचकर तथा ‘‘पिता ने मुझे मंजूषा में रखकर नदी में छोड़ा है’’, ऐसा वैर बाँधकर मथुरा के उग्रसेन राजा से युद्ध कर उन्हें बंदी बनाकर मथुरा नगर के मुख्यद्वार के ऊपर उन्हें वैâद कर दिया।
पुन: वसुदेव के उपकार का आभार होने से उन्हें आग्रह से मथुरा बुलाकर अपनी बहन देवकी का उनके साथ विवाह कर दिया। इससे पूर्व वसुदेव की रोहिणी रानी से बलभद्र हुए थे।
एक दिन कंस के बड़े भाई अतिमुक्तक मुनिराज राजमहल में आहार के लिए आये, तब जीवद्यशा ने नमस्कार करके देवकी के विषय में कुछ शब्द कहे। तभी मुनिराज मौन छोड़कर व भोजन का अंतराय मानकर बोले-
अरे मूढ़! इस देवकी के गर्भ से जो पुत्र होगा, वह तेरे पति और पिता दोनों को मारने वाला होगा। इतना सुनते ही घबराई हुई जीवद्यशा पति के पास गई व सारे समाचार सुना दिए, तभी कंस ने कुछ विचार कर वसुदेव के पास जाकर निवेदन किया-
हे देव! आपने जो मुझे वर दिया था वह धरोहर में है, मैं आज उसे माँगने आया हूँ। वसुदेव की स्वीकृति पाकर वह बोला-‘प्रसूति के समय देवकी का निवास मेरे महल में ही हो, भाई के घर में बहन को भला क्या कष्ट होगा ? ऐसा सोचकर सरल बुद्धि से वसुदेव ने वर दे दिया पुन: जब वसुदेव को मुनिराज के वचनों का पता चला तो वे बहुत ही दु:खी हुए और आम्रवन में विराजमान चारणऋद्धिधारी श्री अतिमुक्तक मुनि के समीप पहुँचे, साथ में देवकी रानी भी थीं। दोनों ने गुरु को नमस्कार किया, मुनि ने आशीर्वाद दिया।
तब वसुदेव ने प्रश्न किया-भगवन्! मेरे पुत्र द्वारा कंस का घात होगा आदि, सो मैं आपके श्रीमुख से सुनना चाहता हूँ। तब मुनिराज ने अवधिज्ञान से जानकर कहना प्रारंभ किया। जिसका संक्षेप सार यह है कि तुम्हारे छह युगलिया पुत्र चरमशरीरी होंगे। भगवान नेमिनाथ के समवसरण में दीक्षा लेकर मोक्ष प्राप्त करेंगे तथा सातवाँ पुत्र नारायण का अवतार होगा। उसी के द्वारा कंस का एवं जरासंध प्रतिनारायण का वध होगा। सुनकर शंकारहित होकर वसुदेव अपने स्थान पर आ गए।
पुन: राजा कंस के आग्रह से वसुदेव अपनी रानी देवकी के साथ मथुरा आकर कंस के महल में रहने लगे। क्रम से देवकी गर्भवती हुई, नव माह के बाद देवकी के युगल पुत्र उत्पन्न हुए, उसी क्षण उन पुत्रों के पुण्य से इंद्र की आज्ञा से सुनैगम नाम के देव ने दोनों पुत्रों को उठाकर सुभद्रिल नगर के सेठ सुदृष्टि की अलका सेठानी के पास पहुँचा दिया। उसी क्षण अलका सेठानी के भी युगलिया पुत्र हुए थे परन्तु भाग्यवश वे उत्पन्न होते ही मर गये थे। नैगम देव ने उन मृतक पुत्रों को लाकर देवकी के प्रसूतिगृह में रख दिया और अपने स्थान स्वर्गलोक को चला गया।
कंस को जब पता चला कि देवकी को पुत्र हुए हैं, वह बहन के प्रसूतिगृह में प्रवेश कर दोनों मृतक पुत्रों को देखता है और क्रूर परिणामी होकर उनके पैर पकड़कर शिलातल पर पछाड़ देता है। इसी तरह समय-समय पर देवकी के दो बार और दो-दो युगलिया पुत्र हुए हैं, उन्हें भी सुनैगमदेव ने अलका सेठानी के पास पहुँचाया है और उनके मृतक युगलिया पुत्रों को लाकर प्रसूतिगृह में रखा है तथा क्रूर कंस उन मृतक युगलों को शिलातल पर पछाड़-पछाड़ कर मारता गया है।
इन देवकी के पुत्रों के पुण्य के प्रभाव से ही उनकी देव द्वारा रक्षा की गई है अत: ये तीनों युगलिया-छहों भाई अलका सेठानी के पास सुखपूर्वक पाले जा रहे थे, उनके नाम-(१) नृपदत्त (२) देवपाल (३) अनीकदत्त (४) अनीकपाल (५) शत्रुघ्न और (६) जितशत्रु थे।
अनंतर एक दिन श्वेत भवन में शयन करती हुई देवकी ने पिछली रात्रि में अभ्युदय को सूचित करने वाले ऐसे सात स्वप्न देखे-(१) उगता हुआ सूर्य (२) पूर्ण चन्द्रमा (३) आकाश से उतरता हुआ विमान (४) बड़ी-बड़ी ज्वालाओं से युक्त अग्नि (५) हाथियों द्वारा अभिषेक को प्राप्त हो रही लक्ष्मी (६) ऊँचे आकाश में रत्नों से युक्त देवों की ध्वजा और (७) मुख में प्रवेश करता हुआ सिंह। इन स्वप्नों को देखकर जागकर विस्मय को प्राप्त हुई देवकी प्रात:कालीन स्नान आदि से निवृत्त होकर मंगलीक वस्त्र अलंकार धारणकर पति के निकट पहुँचकर अपने स्वप्न निवेदित कर उनका फल पूछने लगी।
वसुदेव ने कहा-हे प्रिये! तुम्हारे एक ऐसा पुत्र होगा जो समस्त पृथ्वी का स्वामी होगा, महाप्रतापी और निर्भय होगा, अनंतर वह गर्भवती हुई। देवकी के गर्भ वृद्धि के साथ-साथ पृथिवी पर समस्त मनुष्यों का सौमनस्य बढ़ता जाता था किन्तु कंस का क्षोभ निरंतर बढ़ता जा रहा था।
वह अलक्ष्यरूप से गर्भ के महीनों को गिनता रहता था तथा बहन के प्रसव की प्रतीक्षा करता हुआ उसकी पूर्ण देख-रेख रखता था। सभी बालक नव माह में उत्पन्न होते हैं परन्तु ये कृष्ण भाद्रमास में सातवें मास में ही उत्पन्न हो गए। उस समय बालक के पुण्यप्रभाव से स्नेही बंधुओं के यहाँ अच्छे-अच्छे निमित्त प्रगट हुए एवं शत्रुओं के घरों में भय उत्पादक निमित्त प्रकट हुए। उन दिनों सात दिनों से लगातार घनघोर वर्षा हो रही थी, फिर भी उसकी रक्षा के लिए बलदेव ने बालक कृष्ण को उठा लिया और वसुदेव ने उन पर छत्ता तान दिया एवं रात्रि के समय ही दोनों शीघ्र ही घर से बाहर निकल पड़े। उस समय नगरवासी सो रहे थे, कृष्ण के सुभट भी गहरी निद्रा में निमग्न थे। गोपुरद्वार पर आए तो किवाड़ बंद थे परन्तु बालक के चरणस्पर्श करते ही उनमें निकलने योग्य संधि हो गई, जिससे वे बाहर निकल गए।
उस समय पुत्र के पुण्य से नगरदेवता विक्रिया से एक बैल का रूप बनाकर उनके आगे हो गया, उस बैल के दोनों सींगों पर देदीप्यमान मणियों के दीपक रखे हुए थे, जिनसे रात्रि का घोर अंधकार दूर होता जा रहा था। जैसे ही यह मुख्य गोपुरद्वार से बाहर निकले, पानी की एक बूंद बालक की नाक में चली जाने से जोर से उसे छींक आ गई। तभी ऊपर से उग्रसेन ने कहा-अरे! कौन है ? तभी बलभद्र ने कहा-आप इस रहस्य की रक्षा करें, यह बालक ही आगे आपको बंधन से मुक्त करेगा। तब उग्रसेन ने खूब आशीर्वाद दिया-‘तू चिरंजीवी हो।’ यह हमारे भाई की पुत्री का पुत्र शत्रु से अज्ञात रहकर वृद्धि को प्राप्त हो।
ये पिता-पुत्र बालक को लेकर आगे बढ़ते जा रहे थे, यमुना के किनारे पहुँचे कि कृष्ण के पुण्य से यमुना नदी के महाप्रवाह दो भाग में हो गए, बीच में मार्ग बन गया। वे नदी को पार कर वृंदावन की ओर गए, वहाँ गाँव के बाहर सिरका में अपनी यशोदा पत्नी के साथ सुनंद गोप रहता था, वह वंश परम्परा से चला आया इनका अतिविश्वासपात्र था।
बलदेव और वसुदेव ने रात्रि में उसे देखकर पुत्र को सौंपकर कहा-देखो भाई! यह पुत्र महान पुण्यशाली है, इसे अपना पुत्र समझकर बढ़ाओ और यह रहस्य किसी को भी ज्ञात न हो। अनंतर उसी समय जन्मी यशोदा की पुत्री को लेकर ये दोनों शीघ्र ही वापस आकर देवकी रानी के पास पुत्री को रखकर गुप्तरूप से अपने स्थान पर चले गए।
प्रात: बहन की प्रसूति का समाचार पाकर निर्दयी कंस प्रसूतिगृह में घुसकर कन्या को देखकर कुछ शांत हुआ किन्तु सोचने लगा, क्या पता इसका पति मुझे मारने वाला हो ? इस शंका से आकुल हो उसने उस कन्या की नाक मसल दी पुन: उसने समझ लिया कि अब इसके संतान नहीं होगी अत: कुछ शांतचित्त हो रहने लगा।
उधर बालक का जातसंस्कार कर उसका नाम कृष्ण रखा गया। वह बालक ब्रजवासियों के तथा माता-पिता, यशोदा व नंदगोप के अभूतपूर्व आनंद को बढ़ाता हुआ वृद्धि को प्राप्त हो रहा था।
अनंतर किसी एक दिन कंस के हितैषी वरुण नाम के निमित्तज्ञानी ने कहा कि राजन्! यहाँ कहीं या वन में आपका शत्रु बढ़ रहा है, उसकी खोज करना चाहिए। तब कंस ने तीन दिन का उपवास किया, उस समय पूर्व भव में इसके साधु समय के प्रभाव से जो विद्यादेवियाँ आई थीं और इसने कहा था ‘अभी आवश्यकता नहीं है, समय पर आपको याद करूँगा, तब सहायता करना’ ऐसी वे देवियाँ आकर पूछने लगीं-कहिए! राजन्! क्या कार्य है ?
उसने कहा-मेरा शत्रु कहीं बढ़ रहा है, तुम सभी उसे मार डालो। तब उन देवियों में से कोई देवी पूतना बनकर विष भरे स्तनपान कराने लगी, कोई भयंकर पक्षी बनकर चोंच मारने लगी किन्तु बालक के पुण्य से वे सभी निष्फल रहीं। वह बालक अद्भुत-अपूर्व शक्ति का धारक सभी मायामयी प्रकोपों को क्षण भर में दूर भगा देता था।
एक समय बलदेव माता देवकी को लेकर बालक के पास आए। माता ने यशोदा को सराहते हुए बालक पर हाथ फेरा कि उसके स्तन से दूध झरने लगा, यह गोप्य किसी को मालूम न हो अत: बलदेव्ा ने दूध के घड़ों से माता को नहला दिया पुन: बालक को लाड़-प्यार का अनेक आशीर्वाद देकर माता वापस आ गईं।
यह बालक बढ़ते हुए किशोरावस्था में आ गया था और अपनी अद्भुत सुंदरता से सभी के हर्ष व प्रेम को वृद्धिंगत करता रहता था। किसी समय एक देवी ने भयंकर वर्षा से कृष्ण को मारना चाहा और सारे गोकुल व गायों को संकट में डाल दिया, तभी श्रीकृष्ण ने अपनी दोनों भुजाओं से गोवर्द्धन पर्वत को बहुत ऊँचा उठाकर उसके नीचे सबकी रक्षा की।
इधर इन लोकोत्तर क्रियाकलापों से प्रभावित बलदेव वहाँ आ-आकर श्रीकृष्ण को सम्पूर्ण विद्या व कलाओं में निष्णात कर रहे थे। ये कृष्ण नीलवर्ण के थे, पीत वस्त्र पहनते थे, माथे पर मयूरपंख की कलगी लगाए रहते थे। वे गोप बालकों के साथ तथा गोप बालिकाओं के साथ भी क्रीड़ा करते रहते थे फिर भी वे सदा निर्विकार ही रहते थे। जैसे-अंगूठी में जड़ा हुआ श्रेष्ठ मणि स्त्री के हाथ की अंगुली का स्पर्श करता हुआ भी निर्विकार रहता है उसी प्रकार वे रासलीला के समय गोप बालिकाओं को नचाते हुए भी निर्विकार रहते थे।
किसी समय मथुरा में जैनमंदिर के समीप पूर्व दिशा के दिक्पाल के मंदिर में श्रीकृष्ण के पुण्य के प्रभाव से नागशय्या, धनुष व शंख ये तीन रत्न उत्पन्न हुए। देवता उनकी रक्षा करते थे। कंस ने उन्हें देखकर डरते हुए वरुण नाम के ज्योतिषी से पूछा-
इनका फल क्या है ? ज्योतिषी ने कहा-राजन्! जो विधिवत् इन तीनों रत्नों को सिद्ध करेगा, वही चक्ररत्न से सुरक्षित राज्य करेगा। कंस ने प्रयत्न किया किन्तु असफल रहा। तब उसने नगर में घोषणा करा दी-‘जो बलवान नागशय्या पर चढ़कर एक हाथ से शंख बजाएगा और दूसरे हाथ से धनुष को अनायास ही चढ़ा देगा उसे राजा अपनी पुत्री प्रदान करेगा।’
घोषणा सुनकर अनेक लोगों के साथ कृष्ण वहाँ आए और सहज में नागशय्या पर चढ़कर शंख फूँककर धनुष को चढ़ा दिया और बलदेव आदि की प्रेरणा से शीघ्र ही ‘ब्रज’ वापस चले गए। कंस को निर्णय नहीं हो सका कि किसने यह कार्य किया है ? कंस ने अनेक उपायों से अपने उस शत्रु को खोजने का प्रयास किया किन्तु सफल नहीं हो सका तब उसने नंदगोप को सूचना भेजी कि तुम सभी लोग मथुरा में आवो, मल्लयुद्ध में भाग लेवो।
इस भयंकर मल्लयुद्ध में बलदेव के संकेतानुसार श्रीकृष्ण ने बहुत देर तक मल्लयुद्ध में कौशल दिखाते हुए पहले तो ‘चाणूर’ नाम के मल्ल को मार गिराया पुन: कंस के कुपित होकर रंगभूमि में प्रवेश करने पर श्रीकृष्ण ने उसके पैर पकड़ पक्षी की तरह उसे आकाश में घुमाया और पुन: जमीन पर पटककर यमराज के पास भेज दिया। उसी समय आकाश से फूल बरसने लगे, देवों ने नगाड़े बजाए, तभी वसुदेव की सेना में क्षोभ होने लगा। वीरशिरोमणि बलदेव ने विजयी श्रीकृष्ण को आगे कर विरुद्ध राजाओं पर आक्रमण कर दिया और सभी को पराजित कर दिया।
पुन: उग्रसेन राजा को बंधन से मुक्त कर नंदगोप आदि को सम्मानित किया। उस समय सभी नगरवासी व देशवासी यह जान गए कि ये श्री वसुदेव के पुत्र हैं, कंस के भय से ब्रज में नंदगोप के यहाँ बढ़ रहे थे।
इधर श्रीकृष्ण बलदेव के साथ अपने पिता वसुदेव व माता देवकी से मिले, नमस्कार कर उन्हें संतुष्ट किया। उसी समय श्रीसमुद्रविजय आदि भी श्रीवसुदेव की प्रेरणा से वहाँ आए हुए थे। सभी परिवार से मिलकर प्रसन्न हुए पुन: मथुरा का राज्यभार श्रीउग्रसेन राजा को सौंपकर अपने कुटुम्बीजनों के साथ शौरीपुर चले गए।
भगवान नेमिनाथ-
शौरीपुर में महाराजा समुद्रविजय राज्य संचालन कर रहे थे। इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने शौरीपुर में महाराजा समुद्रविजय के महल में महारानी शिवादेवी के आंगन में तीर्थंकर के गर्भ में आने के छह माह पूर्व से रत्नों की वर्षा करना प्रारंभ कर दिया, वह रत्नवृष्टि दिन में तीन बार साढ़े तीन करोड़ प्रमाण थी। दिक्कुमारी देवियाँ माता शिवादेवी की सेवा कर रही थीं।
माता ने एक दिन रात्रि के पिछले प्रहर में सोलह स्वप्न देखे, प्रात: पतिदेव के मुख से उनका फल सुनकर प्रसन्न हुईं कि आपके गर्भ में तीर्थंकर बालक आ गया है। इन्द्रों ने आकर गर्भकल्याणक महोत्सव मनाया व माता-पिता की पूजा-भक्ति आदि करके अपने-अपने स्थान चले गए, यह तिथि कार्तिक शुक्ला षष्ठी प्रसिद्ध हुई है।
तदनंतर माता शिवादेवी ने श्रावण शुक्ला षष्ठी को जिनबालक को जन्म दिया। इन्द्रों के आसन कंपते ही असंख्य देवपरिवार के साथ इन्द्र ने आकर शची द्वारा प्रसूतिगृह से बालक को प्राप्त कर सुमेरुपर्वत पर ले जाकर प्रभु तीर्थंकर बालक का जन्माभिषेक महोत्सव सम्पन्न कर शौरीपुर आकर माता-पिता को तीर्थंकर बालक को सौंप दिया पुन: शौरीपुर में भी सुमेरुपर्वत के सदृश जन्माभिषेक महोत्सव करके दिखाया। बालक का नाम इन्द्र ने ‘नेमिनाथ’ रखा। क्रमश: तीर्थंकर बालक अपनी बालक्रीड़ा से वृद्धिंगत हो रहे थे। हरिवंशपुराण में भगवान के जन्माभिषेक का बहुत ही विस्तार से वर्णन है।
द्वारावती रचना-
किसी समय राजगृह के स्वामी जरासंध इन हरिवंशी राजाओं को नष्ट करने के उत्सुक थे। चूँकि उनकी पुत्री जीवद्यशा ने अपने पति कंस के मरने के समाचार सुनाए थे, तभी से वे कुपित थे ही, पुन: अनेक कारणों से कुपित हुए जरासंध ने विशाल सेना लेकर शौरीपुर की ओर प्रस्थान किया।
उस समय वसुदेव, बलदेव आदि ने मिलकर मंत्रणा की कि यद्यपि तीर्थंकर नेमिनाथ व जरासंध प्रतिनारायण को मारने वाले श्रीकृष्ण नारायण हैं, फिर भी अभी कुछ समय की प्रतीक्षा करना है अत: ये यदुकुल अर्थात् हरिवंशी राजागण मथुरा व शौरीपुर छोड़कर अपरिमित धन व अठारह करोड़ यादवों को-हरिवंशी राजा, महाराजाओं को साथ लेकर उत्तम तिथि आदि उत्तम मुहूर्त में शौरीपुर से बाहर निकले और धीरे-धीरे पड़ावों से विंध्याचल के निकट पहुँचे। मार्ग में पीछे-पीछे जरासंध आ रहा है, सुनकर ये लोग युद्ध की प्रतीक्षा करने लगे। इधर समय और भाग्य के नियोग से अर्ध भरतक्षेत्र में निवास करने वाली देवियों ने अपनी विक्रिया से बहुत सी चिताएँ रच दीं, उन्हें अग्नि की ज्वालाओं से व्याप्त कर दिया। तब जरासंध का मार्ग रुक गया, उसने एक वृद्धा से पूछा-यह किसका विशाल कटक जल रहा है, उस वृद्धा ने कहा-हे राजन्! राजगृह के प्रतापी राजा जरासंध हरिवंशी, कुरुवंशी आदि राजाओं के पीछे लगा हुआ है, ऐसा जानकर ये हरिवंशी आदि राजागण मंत्रियों के साथ इस अग्नि में प्रविष्ट हो गये हैं, इत्यादि।
जरासंध ऐसा सुनकर व इन हरिवंशी राजाओं का नाश मानकर वापस चला गया।
इधर ये समुद्रविजय, वसुदेव आदि राजागण पश्चिम समुद्र के तट पर पहुँच गए और समुद्र के किनारे जाकर समुद्र की शोभा देखने लगे। तब श्रीकृष्ण बलदेव के साथ पंचपरमेष्ठियों की भक्ति-स्तुति करके तीन उपवास के साथ आसन पर स्थित थे।
उसी समय श्रीकृष्ण के पुण्य व श्रीनेमिनाथ तीर्थंकर की सातिशय भक्ति से कुबेर ने वहाँ शीघ्र ही द्वारिकापुरी नाम से समुद्र के मध्य में सुंदर नगरी की रचना कर दी। ये बारह योजन लंबी, नव योजन चौड़ी, परकोटे से युक्त व समुद्र की परिखा से घिरी हुई थी। इसमें अठारह खंडों से युक्त नारायण का महल था। स्वर्ण व रत्नों के महलों से शोभायमान ये नगरी स्वर्गपुरी के समान दिख रही थी। तभी कुबेर ने श्रीकृष्ण के लिए मुकुट, हार, कौस्तुभ मणि, दो पीत वस्त्र, नाना आभूषण, गदा, शक्ति, नंदक नाम का खड्ग, शार्ङ्ग धनुष, दो तरकश, वङ्कामय बाण, दिव्यरथ, चंवर, छत्र आदि प्रदान किए तथा बलदेव के लिए दो नील वस्त्र, माला, मुकुट, गदा, हल, मूसल, धनुष बाणों से युक्त तरकश, दिव्यरथ, छत्र आदि दिए एवं भगवान नेमिनाथ के लिए उनके योग्य वस्त्र, अलंकार आदि सामग्री प्रदान कर इन सभी से इस द्वारिका नगरी में प्रवेश के लिए प्रार्थना की और स्वयं अपने स्थान चला गया। तब सभी राजाओं ने मिलकर तीर्थंकर नेमिनाथ, बलदेव व श्रीकृष्ण के साथ बहुत ही वैभव से उस नगरी में प्रवेश किया। ये सब यथास्थान रहकर सुखपूर्वक वहाँ निवास कर रहे थे। कुबेर की आज्ञा से यक्ष देवों ने वहाँ साढ़े तीन दिन तक अटूट धन, धान्यादि की वर्षा की थी।
इस शौरीपुर नगरी में कुबेर ने सर्वप्रथम एक हजार शिखरों से सुशोभित देदीप्यमान बहुत बड़ा एक जिनमंदिर बनाया था।
महासंग्राम-
किसी समय राजगृही के राजा जरासंध पुन: किसी कारण से कुपित हो युद्ध के लिए प्रस्थान कर देते हैं। कौरव आदि राजागण उनके साथ हो जाते हैं और पाण्डव आदि राजागण श्रीकृष्ण के साथ हो जाते हैं। कुरुक्षेत्र में महासंग्राम शुरू हो जाता है, लाखों-लाखों लोग मारे जाते हैं।
उत्तरपुराण में कहा है कि ‘मनुष्यों का जो आगम में अकालमरण बतलाया गया है, उसकी अधिक से अधिक संख्या यदि हुई थी, तो उसी युद्ध में हुई थी।
अंत में क्रोध से भरे अर्धचक्री जरासंध ने अपना चक्ररत्न श्रीकृष्ण के ऊपर चला दिया, वह भी श्रीकृष्ण की तीन प्रदक्षिणा देकर उनकी दाहिनी भुजा पर ठहर गया तब उसी चक्र से श्रीकृष्ण ने जरासंध का शिर छेद डाला। उसी समय आकाश से पुष्प बरसने लगे और देवों द्वारा वाद्य बजाए जाने लगे।
उस समय श्रीकृष्ण नवमें नारायण-तीनखण्ड के स्वामी प्रसिद्ध हो गए और बलदेव नवमें बलभद्र हो गए। हजारों राजाओं, विद्याधरों से सेवित पुन: ये सभी द्वारावती में रहते हुए तीन खण्डों की प्रजा पर एकछत्र सार्वभौम शासन करने लगे।
श्रीकृष्ण की आयु एक हजार वर्ष की थी, दश धनुष (१०²४·४० हाथ) ऊँचा शरीर था, नील वर्ण था। चक्ररत्न, शक्ति, गदा, शंख, धनुष, दण्ड और नंदक नाम का खड्ग ये सात रत्न थे। रुक्मिणी, सत्यभामा आदि ८ पट्टरानियाँ व सोलह हजार रानियाँ थीं। बलदेव के रत्नमाला, गदा, हल, मूसल ये चार महारत्न थे एवं आठ हजार रानियाँ थीं। दोनों भाई परस्पर अखंड प्रेम धारण कर समस्त वसुधा पर शासन कर रहे थे।
भगवान नेमिनाथ-
किसी समय भगवान नेमिनाथ विवाह हेतु करोड़ों हरिवंशियों के साथ जूनागढ़ पहुँचे थे। वहाँ पशुओं के बंधन को देखकर विरक्त हुए और लौकांतिक देवोें द्वारा स्तुत्य दीक्षा लेकर तपश्चरण करने लगे। प्रभु ने गिरनार के सहस्राम्रवन में श्रावण शुक्ला षष्ठी के दिन बांस वृक्ष के नीचे दीक्षा ली थी। इन्होंने वहीं आश्विन शुक्ला प्रतिपदा के दिन केवलज्ञान प्राप्त किया है।
भगवान के समवसरण में समय-समय पर श्रीकृष्ण, बलदेव आदि जा-जाकर प्रभु के धर्मोपदेश को श्रवण करते रहते थे। किसी समय देवकी ने समवसरण में भगवान को नमस्कार कर हाथ जोड़कर प्रश्न किया- भगवन्! आज मेरे महल में दो मुनियों का युगल तीन बार आया और फिर-फिर से उन्होंने तीन बार आहार लिया, प्रभो! जब मुनियों की आहार बेला एक है, एक बार ही वे भोजन लेते हैं, तो तीन बार वैâसे आये ? अथवा वे तीन मुनियों का युगल अत्यंत रूप की सदृशता से मुझे भ्रम हो रहा हो। प्रभो! आश्चर्य इस बात का है कि उन सभी में मेरा पुत्रों के समान स्नेह उमड़ रहा था।
देवकी रानी के इस प्रश्न के बाद प्रभु की दिव्यध्वनि खिरी और गणधरदेव श्रीवरदत्त ने कहा-
महारानी! वे छहों ही मुनि तुम्हारे ही पुत्र हैं। श्रीकृष्ण के पहले तीन बार युगलिया पुत्र जन्मे थे, कंस के भय से देव ने इन्हें भद्रिलपुर के सुदृष्टि सेठ की सेठानी अलका के यहाँ पहुँचाया था। वे छहों ही भाई मेरे समवसरण में दीक्षित होकर मुनि हुए हैं। वे इसी जन्म से मोक्ष को प्राप्त करेंगे। यही कारण है कि तुम्हारा उनमें पुत्रत्व प्रेम उमड़ रहा था। अनंतर देवकी रानी ने वहीं समवसरण में विराजमान उन पुत्ररूप मुनियों को नमस्कार किया तथा श्रीकृष्ण आदि ने भी उन्हें नमस्कार कर उनकी स्तुति की।
भगवान के समवसरण में श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न आदि ने, अनेक रानियों ने व अनेक राजा, महाराजाओं ने दीक्षा ली है। भगवान नेमिनाथ के गर्भ व जन्मकल्याणक शौरीपुर में हुए हैं तथा दीक्षा, केवलज्ञान व मोक्ष ये तीन कल्याणक गिरनार में हुए हैं।
श्री बलभद्र-बलदेव भी आगे तपश्चरण करके महाशुक्र स्वर्ग में देव हुए हैं। ये भी आगे भविष्य में तीर्थंकर होंगे तथा श्रीकृष्ण भी आगे इसी भरतक्षेत्र में श्री निर्मलनाथ नाम के सोलहवें तीर्थंकर होवेंगे। इन भावी तीर्थंकरों को भी मेरा नमस्कार होवे।
नाभेयादि-जिनाधिपास्त्रिभुवनख्याताश्चतुर्विंशति:
श्रीमन्तो भरतेश्वरप्रभृतयो ये चक्रिणो द्वादश।
ये विष्णु-प्रतिविष्णु-लाङ्गलधरा: सप्तोत्तरा विंशति-
स्त्रैकाल्ये प्रथितास्त्रिषष्टिपुरुषा: कुर्वन्तु ते (मे) मङ्गलम्।।