अब बहु आदि का किंचित् अर्थ कहते हैं।
‘बहु’ का अर्थ अनेक होता है। जैसे-बहुजन। उससे प्रतिपक्षी-उल्टे का एक अर्थ होता है जैसे एक जन। अनेक जाति से भिन्न-भिन्न को बहुविध कहते हैं। जैसे-बहुत से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। उससे विपरीत एकविध है जैसे-ब्राह्मण लोग। क्षिप्र-शीघ्रता यह ज्ञान का विशेषण है। जैसे-एक बार में ग्रहण करना। उससे विपरीत धीरे-धीरे ग्रहण करना अक्षिप्र है। प्रगट हुए को संवृत, अप्रगट को अनि:सृत कहते हैं। जैसे-जल में डूबे हुए हाथी की सूंड मात्र ऊपर है। इससे विपरीत प्रगट-खुले हुए को नि:सृत कहते हैं। जल में हाथी पूरा निकला हुआ है। अभिप्राय से समझने को अनुक्त कहते हैं। जैसे-अग्नि के लाने में सकोरा आदि को बिना कहे ही समझ लिया। प्रतिपादित को उक्त कहते हैं। जैसे-स्पष्ट रीति से ‘लाओ’ ऐसा कहने पर लाना। अवस्थित रहने को ध्रुव कहते हैं यह ज्ञान का विशेषण है। अनवस्थित को अध्रुव कहते हैं। जैसे-फूटे बर्तन का जल। अथवा स्थिर पर्वत आदि ध्रुव हैं और बिजली आदि अस्थिर पदार्थ अध्रुव हैं। इनके विषय रूप से अवग्रह आदि विशिष्ट रूप होते हैं। इसी प्रकार से व्यंजन में भी लगा लेना चाहिए। अर्थावग्रह, ईहा आदि के २८८ भेद और व्यंजनावग्रह के ४८ भेद इन दोनों को जोड़ देने से मतिज्ञान के तीन सौ छत्तीस भेद हो जाते हैं।
भावार्थ-अवग्रह ज्ञान के दो भेद हैं-व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह। दर्शन के अनंतर जो शब्दादि का अव्यक्त ग्रहण होता है, वह व्यंजनावग्रह है। इसके आगे ईहा आदि नहीं होते हैं और यह अव्यक्त ज्ञान चक्षु और मन से भी नहीं होता है इसलिए अवग्रह को शेष चार इन्द्रियों से गुणने से १५४·४ भेद हुये। पुन: यह ज्ञान भी बहु आदि को विषय करता है अत: इससे बारह को गुणने से १२²४·४८ भेद हो जाते हैं। अनंतर व्यक्त-स्पष्ट को ग्रहण करने वाला अर्थावग्रह ज्ञान होता है। इसके आगे ईहा आदि भेद भी व्यक्त को ग्रहण करने वाले होते हैं। ये चारों ज्ञान बहु आदि को विषय करते हैं। अत: १२ को ४ से गुणित करके ६ इंद्रियों से गुणने से १२²४²६·२८८ भेद होते हैं। इनको जोड़ देने से २८८±४८·३३६ भेद हो जाते हैं। ये सब मतिज्ञान के भेद हैं।