प्रियमित्र चक्रवर्ती महामुनि ने सहस्रार स्वर्ग में देवपद प्राप्त किया, सूर्यप्रभ इनका नाम था। वहां उनकी आयु अठारह सागर प्रमाण थी। अणिमा, महिमा आदि अनेक ऋद्धियों से सहित थे। सबसे पहले ये देव जिनमंदिरों में पहुंचते हैं। जिनमंदिर में प्रतिमाओं की वंदना स्तुति करके पूजा की। इन जिनमंदिरों में एक सौ आठ जिनप्रतिमायें विराजमान रहती हैं। प्रत्येक मंदिर में झारी, कलश, दर्पण, चंवर, बीजना, सिंहासन, छत्र और ठो ये आठ मंगल द्रव्य एक सौ आठ-एक सौ आठ रहते हैं। इन मंदिरों में दुंदुभि, मृदंग, मर्दल, जयघंटा, भेरी, झांझ, वीणा और बांसुरी आदि वाद्यों के उत्तम-उत्तम शब्द सदैव होते रहते हैं।
प्रत्येक जिनप्रतिमायें आठ प्रातिहार्यों से सहित हैं। अशोकवृक्ष, सुरपुष्पवृष्टि, दिव्यध्वनि, चामर, सिंहासन, छत्रत्रय, भामंडल और देव-दुंदुभि ये आठ प्रातिहार्य माने हैं।
सम्यग्दृष्टि देव कर्मक्षय के निमित्त गाढ़ भक्ति से सहित होकर विविध अष्ट द्रव्यों से जिनेंद्र प्रतिमाओं की पूजा करते हैं।तीनों लोकों में अकृत्रिम जिनमंदिरों की संख्या का प्रमाण बताया है। अधोलोक में नरकधरा के ऊपर भवनवासी देवों के सात करोड़ बहत्तर लाख जिनमंदिर हैं। मध्यलोक में जंबूद्वीप नाम के प्रथम द्वीप से लेकर रुचकवर’ नाम के तेरहवें द्वीप तक चार सौ अट्ठावन मंदिर हैं । इनमें से जंबूद्वीप में सुमेरूपर्वत के 16, गजदंत के 4, जंबूवृक्ष शाल्मलिवृक्ष के 2, सोलह वक्षारों के 16, चांैतीस विजयार्ध पर्वतों के 34 एवं षट् कुलाचलों के 6 ये 16$4$2$16$34$6=78 हुये। ऐसे पूर्वधातकी खंड के 78, पश्चिम धातकी खंड के 78, पूर्व पुष्करार्धद्वीप के 78, पश्चिम पुष्करार्ध द्वीप के 78, इष्वाकार के 4, मानुषोत्तर पर्वत के 4, नंदीश्वर द्वीप के 52, कुंडलवर द्वीप के 4 और रुचकवर द्वीप के 4 ऐसे 78$78$78$78$78$ 4$4$ 52$4$4=458 हो गये।
ऊध्र्वलोक के चैरासी लाख, सत्तानवे हजार तेईस हैं। स्वर्गों के एवं नवग्रैवेयक आदि के जितने विमान हैं उतने ही जिनमंदिर हैं। सौधर्मस्वर्ग में 32 लाख, ईशान में 28 लाख, सानत्कुमार में 12 लाख, माहेन्द्र में 8 लाख, ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर युगल में 4 लाख, लांतव-कापिष्ठ मेें 50 हजार, शुक्र-महाशुक्र में 40 हजार, शतार सहस्रार में 6 हजार, आनत-प्राणत, आरण और अच्युत ऐसे चार कल्पों में सात सौ तीन अधोग्रैवेयक 111, तीन मध्यग्रैवेयक में 107, तीन ऊध्र्वग्रैवेयक में 91, नव अनुदिश में 9 और पांच अनुत्तर में 5 ऐसे सब मिलाकर 3200000 $ 2800000 $ 1200000$800000$400000$50000$40000$6000$ 700$111$107$91$9$5=8497023 अकृत्रिम जिनमंदिर हैं। कुल मिलाकर 77200000$458$8497023=85697481 अकृत्रिम जिनमंदिर हैं।इसके आगे व्यंतर देवों के यहां और ज्योतिषी देवों के यहां असंख्यातों जिनमंदिर माने गये हैं। इन प्रत्येक जिनमंदिरों में 108-108 जिनप्रतिमायें विराजमान हैं अतः उपयुकर््त जिनमंदिरों के जिन प्रतिमाओं की संख्या नव सौ पचीस करोड़़ त्रेपन लाख, सत्ताइस हजार, नव सौ अड़तालीस हैैं।
नव सौ पचीस कोटी त्रेपन, लाख सताइस सहस प्रमाण।
नव सौ अड़तालिस जिनप्रतिमा, शिवसुख हेतू करूँ प्रणाम।।
सम्यग्दृष्टि देव इन मंदिरों में से मध्यलोक के अकृत्रिम जिन मंदिरों की तो अतीव भक्ति से पूजा करते ही हैं जहां जहां संभव है वहां-वहां जाकर वे सूर्यप्रभ देव जिनप्रतिमाओं की वंदना किया करते हैं शेष जिनमंदिरों की परोक्ष से ही वंदना का पुण्य संचय किया करते थे।कभी-कभी ये देव अपने देव परिवार के साथ मध्यलोक में आकर महामुनियों की वंदना करके उनके श्रीमुख से धर्मोपदेश सुन कर प्रसन्न होते हैं। इस प्रकार धर्माराधना में समय व्यतीत किया करते हैं।आयु के अंत में स्वर्ग में ही सुंदर उद्यान में कल्पवृक्ष के नीचे महामंत्र का स्मरण करते हुये ध्यान में लीन हो गये। देव शरीर से प्राण निकल गये और वैक्रियिक शरीर तत्क्षण ही कपूर जैसा विलीयमान हो गया। वे मध्यलोक में इसी भरत क्षेत्र के छत्रपुर नगर में रानी के पुत्र हो गये।