सिद्धे णमंसिदूण य झाणुत्तमखवियदीहसंसारे।
दह दह दो दो य जिणे दह दो अणुपेहणा वुच्छं।।१।।
जो उत्तम ध्यान के द्वारा दीर्घ संसार का नाश कर चुके हैं ऐसे सिद्ध भगवान को नमस्कार होवे। पुन: दस-दस, दो और दो ऐसे (१०+१०+२+२=२४) चौबीस तीर्थंकरों को नमस्कार करके मैं दस और दो अर्थात् बारह अनुप्रेक्षाओं को कहूँगा।
अद्धुवमसरणमेगत्तमण्णसंसारलोगमसुचित्तं।
आसवसंवरणिज्जरधम्मं बोधिं च चिंतेज्जो।।२।।
अनुप्रेक्षाओं के नाम-अध्रुव, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म और बोधिदुर्लभ ये बारह अनुप्रेक्षा जिनका पुन:-पुन: विचार-चिन्तन किया जाये, उन्हें अनुप्रेक्षा कहते हैं।
ये भावनाएँ वैराग्य को उत्पन्न करने में माता के समान मानी गई हैं। इनकी विशेषता यह है कि तीर्थंकर महापुरुष भी कुछ कारण पाकर विरक्त होते ही इन भावनाओं को भाते हैं और अपने वैराग्य को दृढ़ करते हैं। उपसर्ग और परीषहों पर विजय प्राप्त करने के लिए इन भावनाओं का आश्रय लेना ही पड़ता है। गृहस्थाश्रम में अनेक प्रकार की समस्याओं, चिंताओं और संघर्षों में शान्ति प्राप्त करने के लिए इन भावनाओं का चिंतवन अमोघ औषधि है, ऐसा विश्वास रखकर सदैव इनको भाते रहना चाहिए और चौबीस घंटे में एक बार अवश्य ही बारह भावना का पाठ करना चाहिए। यहाँ प्राकृत, संस्कृत, हिन्दी, मराठी और कन्नड़, इन पाँच भाषाओं में बारह भावना को दिया गया है।
श्री कुंदकुंददेव रचित प्राकृत बारह भावनाएँ सबसे प्राचीन हैं। उनमें संसार भावना को पाँचवें नम्बर पर लिया है, एकत्व को तीसरे और अन्यत्व को चौथे पर रखा है, उसी क्रम से यहाँ भी भावनाएँ ली गई हैं क्योंकि यहाँ प्रमुखता श्री कुंदकुंददेव रचित प्राकृत भावनाओं की ली गई है। श्री कुंदकुंददेव रचित द्वादशानुप्रेक्षा में गाथायें ९१ हैं। मैंने मात्र प्रत्येक अनुप्रेक्षा की एक-एक गाथाएँ यहाँ ली हैं एवं प्रारंभ में दो गाथाएँ तथा अंत में अंत की दो गाथाएँ ली हैं अत: यहाँ १६ गाथाएँ हैं।
अब सर्वप्रथम अध्रुव अनुप्रेक्षा को कहते हैं। इसका दूसरा नाम अनित्य अनुप्रेक्षा है।
जीवणिबद्धं देहं खीरोदयमिव विणस्सदे सिग्घं।
भोगोपभोगकारणदव्वं णिच्चं कहं होदि।।
जब दूध और पानी के समान एकमेक होकर जीव के साथ मिला हुआ यह शरीर भी शीघ्र ही नष्ट हो जाता है तब भोगोपभोग के लिए कारण ऐसे स्त्री, धन, महल आदि द्रव्य नित्य किसे हो सकते हैं ? परमार्थ से यह आत्मा देवेन्द्र, असुरेन्द्र और नरेन्द्र के वैभव से भिन्न है और शाश्वत है-नित्य है, ऐसा निरन्तर चिन्तवन करना चाहिए।
मणिमंतोसहरक्खा हयगयरहओ य सयलविज्जाओ।
जीवाणं ण हि सरणं तिसु लोए मरणसमयम्हि।।८।।
मरण के समय तीनों लोकों में मणि, मंत्र, औषधि, रक्षक सामग्री, हाथी, घोड़े, रथ और समस्त विद्याएँ जीवों के लिए शरण नहीं हैं अर्थात् मरण से बचाने में समर्थ नहीं हैं।
स्वर्ग ही जिसका किला है, देवगण सेवक हैं, वङ्का शस्त्र हैं और ऐरावत गजराज है उस इन्द्रराज का भी कोई शरण नहीं है-मरते समय उसको भी बचाने वाला कोई नहीं है। नौ निधियाँ, चौदह रत्न, घोड़े, मत्त हाथी और चतुरंगिणी सेना ये सब कुछ चक्रवर्ती के लिए भी शरण नहीं हैं, देखते-देखते यमराज उसे नष्ट कर देता है। जिस कारण आत्मा ही जन्म, जरा, मरण, रोग और भय से आत्मा की रक्षा करता है उस कारण बंध, उदय और सत्तारूप अवस्था को प्राप्त जो कर्म हैं, उनसे पृथक् रहने वाला आत्मा ही शरण है अर्थात् शुद्धनय की अपेक्षा आत्मा को कर्मों से रहित चिंतन करना ही मरण से छूटने का उपाय है।
अर्हंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पाँच परमेष्ठी हैं। ये परमेष्ठी भी आत्मा में निवास करते हैं अर्थात् यह आत्मा ही तो पाँच परमेष्ठी रूप से परिणमन करता है इसलिए मेरा आत्मा ही मेरे लिए शरण है। चूँंकि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप ये चारों भी आत्मा में स्थित हैं इसलिए मेरा आत्मा ही मेरे लिए शरण है।
वास्तव में इन्द्र हो या चक्रवर्ती या साधारण मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट कोई भी हो सबको आयु पूरी होने के बाद मरना पड़ता है। साधारण मनुष्य और तिर्यंचों की अकाल मृत्यु भी मानी गई है इसलिए मनुष्य पर्याय में धर्म को प्राप्त कर पाँच परमेष्ठी ही शरण हैं अथवा रत्नत्रय से परिणत अपनी शुद्ध आत्मा ही शरण है।
एक्को करेदि कम्मं, एक्को हिंडति य दीहसंसारे।
एक्को जायदि मरदि य, तस्स फलं भुंजदे एक्को।।
जीव अकेला ही कर्म करता है, उसके फल से अकेला ही इस महासंसार में भ्रमण करता है, अकेला ही जन्म लेता है, अकेला ही मरता है और अकेला ही कर्म के फल को भोगता है।
विषयों के निमित्त तीव्र लोभ से सहित हुआ यह जीव अकेला ही पाप करता है पुन: नरक और तिर्यंचगति में जाकर अकेला ही उसका फल भोगता है। यह जीव धर्म के निमित्त मात्र दान करके अकेला ही पुण्य संचय करता है, पुन: मनुष्य तथा देवों में अकेला ही उसका फल भोगता है।
पात्र और अपात्र कौन हैं ?
सम्यक्त्व गुण से युक्त साधु को उत्तम पात्र कहा है, सम्यग्दृष्टि श्रावक मध्यम पात्र हैं, जिनागम में अविरत सम्यग्दृष्टि को जघन्य पात्र कहा है और जो सम्यग्दर्शनरूपी रत्न से रहित है वह अपात्र है। इस तरह पात्र और अपात्र की अच्छी तरह परीक्षा करनी चाहिए।
जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हैं, वे ही भ्रष्ट हैं, सम्यग्दर्शन से रहित मनुष्यों को मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती है। जो चारित्र से भ्रष्ट हैं, वे तो सिद्ध हो जाते हैं अर्थात् पुन: चारित्र ग्रहण कर सिद्धपद प्राप्त कर लेते हैं किन्तु जो सम्यक्त्व से रहित हैं, वे सिद्ध नहीं हो सकते हैं। तात्पर्य यह है कि जिसके पास सम्यक्त्व रत्न मौजूद है वह कदाचित् चारित्र से च्युत भी हुआ परन्तु यदि उसका सम्यक्त्व नहीं छूटा है तो वह पुन: चारित्र ग्रहण कर मोक्ष जा सकता है किन्तु जिसके सम्यक्त्व छूट गया है, वह यदि एकेन्द्रिय आदि योनियों में चला गया तो वहाँ से निकलकर उसका मोक्ष प्राप्त करना बहुत ही कठिन है।
मैं अकेला हूँ, ममत्व से रहित हूँ, शुद्ध हूँ तथा ज्ञान-दर्शन लक्षण से सहित हूँ अत: मेरे लिए शुद्ध एकत्व भाव ही ग्रहण करने योग्य है। इस प्रकार संयमी साधु को सदा विचार करते रहना चाहिए।
माता, पिता, सगे भाई, पुत्र तथा स्त्री आदि बंधुजनों का समूह जीव से संबंध रखने वाला नहीं है। ये सब लोग अपने कार्य के वश ही साथ रहते हैं। यह मेरा स्वामी था, मर गया इस प्रकार मानते हुए अन्य जीव अन्य के प्रति शोक करते हैं परन्तु संसाररूपी महासागर में डूबते हुए ये अपने आपके प्रति शोक नहीं करते, यह बड़े आश्चर्य की बात है।
अण्णं इमं सरीरादिगं पि होज्ज बाहिरं दव्वं।
णाणं दंसणमादा एवं चिंत्तेहि अण्णत्तं।।
ये जो भी शरीर आदि हैं वे सब बाह्य द्रव्य हैं अत: वे सब मेरे से अन्य-भिन्न हैं। मात्र ज्ञान, दर्शनरूप ही मेरी आत्मा है अर्थात् यह आत्मा ही मेरा है, इस प्रकार अन्यत्व भावना का चिंतवन करो।
पंचविहे संसारे, जाइजरामरणरोगभयपउरे।
जिणमग्गमपेच्छंतो, जीवो परिभमदि चिरकालं।।
जिनेन्द्रदेव द्वारा प्रणीत मार्ग को स्वीकार नहीं करता हुआ यह जीव, चिरकाल से जन्म, जरा, मरण, रोग और भय से परिपूर्ण पाँच प्रकार के संसार में परिभ्रमण करता रहता है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव ये पाँच परिवर्तन ही पाँच प्रकार के संसार कहलाते हैं। द्रव्य परिवर्तन को पुद्गलपरिवर्तन भी कहते हैं।
द्रव्य परिवर्तन–पुद्गल परिवर्तनरूप संसार में इस जीव ने अकेले ही समस्त पुद्गलों को अनंत बार भोगकर छोड़ा है।
क्षेत्र परिवर्तन-समस्त लोकरूपी क्षेत्र में ऐसा कोई स्थान नहीं है जहाँ यह क्रम से उत्पन्न न हुआ हो। समस्त अवगाहनाओं के द्वारा इस जीव ने क्षेत्र संसार में अनेक बार परिभ्रमण किया है। क्षेत्र परिवर्तन के स्वक्षेत्र परिवर्तन और परक्षेत्र परिवर्तन ये दो भेद होते हैं। संपूर्ण लोकाकाश में क्रम से उत्पन्न होने में जितना समय लगता है उतने को स्वक्षेत्र परिवर्तन कहते हैं और क्रम से जघन्य अवगाहना से लेकर उत्कृष्ट अवगाहना तक धारण करने में जितना समय लगता है उतना परक्षेत्र परिवर्तन है। यहाँ पर दोनों प्रकार के क्षेत्र परिवर्तन का ग्रहण हो गया है।
काल परिवर्तन–यह जीव अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल की समयावलियों में उत्पन्न हुआ है तथा मरा है, इस तरह इसने काल संसार में अनेक बार परिभ्रमण किया है।
भव परिवर्तन–मिथ्यात्व के आश्रय से इस जीव ने नरक की जघन्य आयु से लेकर उपरिम ग्रैवेयक तक की भवस्थिति को धारण कर अनेक बार भ्रमण किया है।
नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव में जघन्य आयु से लेकर उत्कृष्ट आयु तक को क्रम से प्राप्त कर लेने में जितना समय लगता है, उतने समय को भवपरिवर्तन कहते हैं। नरक की जघन्य आयु दस हजार वर्ष, उत्कृष्ट आयु तेंतीस सागर है। तिर्यंच और मनुष्य की जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट आयु तीन पल्य है। देवगति में जघन्य आयु दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट तेंतीस सागर है किन्तु भव परिवर्तन करने वाले मिथ्यादृष्टि देव नव ग्रैवेयक तक ही जाते हैं अत: यहाँ पर ग्रैवेयक की उत्कृष्ट आयु इकतीस सागर तक में ही परिवर्तन समझना।
भाव परिवर्तन–इस जीव ने मिथ्यात्व के वश समस्त कर्मप्रकृतियों की सब स्थितियों को, सब अनुभाग बंध स्थानों को और सब प्रदेश बंध स्थानों को प्राप्त कर बार-बार भावसंसार में परिभ्रमण किया है। ये पाँचों परिवर्तन ही पाँच प्रकार के संसार हैं, इन संसारों में जीव का घूमना मिथ्यात्व के कारण होता है और भी किन-किन कारणों से जीव का संसार में भ्रमण होता है ? सो ही दिखाते हैं।
जो मनुष्य पुत्र, स्त्री के निमित्त पापबुद्धि से धन कमाता है और दया-दान का परित्याग कर देता है वह संसार में भ्रमण करता है। जो जीव, यह मेरा पुत्र है, यह मेरी स्त्री है, यह मेरा धन-धान्य है, इस प्रकार की तीव्र आकांक्षा से धर्मप्रवृत्ति को छोड़ देता है वह दीर्घ संसार में डूब जाता है। मिथ्यात्व के उदय से यह जीव जिनेन्द्र द्वारा कथित धर्म की निंदा करता हुआ तथा कुधर्म, कुलिंग और कुतीर्थ को मानता हुआ संसार में ही भ्रमण किया करता है। जो मनुष्य जीवों की हिंसा करके मधु, मांस और मदिरा का सेवन करता है तथा परद्रव्य और परस्त्री को ग्रहण कर पाप करता है वही इस संसार समुद्र में दु:ख उठाता रहता है। मोहांधकार से सहित यह जीव विषयों के निमित्त प्रयत्नपूर्वक पाप करता है और उससे संसार में ही परिभ्रमण करता रहता है।
नित्यनिगोद, इतरनिगोद, पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक और वायुकायिक इन छह प्रकार के जीवों में प्रत्येक की सात-सात लाख योनियाँ हैं। वनस्पतिकायिक की दस लाख, विकलेन्द्रियों की छह लाख, देव, नारकी तथा पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में प्रत्येक की चार-चार लाख और मनुष्यों की चौदह लाख, इस प्रकार कुल मिलाकर चौरासी लाख योनियाँ हैं। इनमें संसारी जीव भ्रमण करता रहता है।
संसार में जीवों को संयोग-वियोग, लाभ-अलाभ, सुख-दु:ख तथा मान-अपमान प्राप्त होते रहते हैं। कर्मों के निमित्त से यह जीव संसाररूपी भयानक वन में भ्रमण कर रहा है किन्तु निश्चयनय से जीव कर्मों से रहित है इसलिए उसके संसार भ्रमण भी नहीं है।
जो जीव संसार से छूट चुके हैं, वे ही उपादेय हैं और संसारी जीव हेय हैं, ऐसा चिन्तवन करते रहना चाहिए। इस प्रकार संसार के कारणों का और पाँच प्रकार के संसार का चिन्तवन करना संसार भावना है।
जीव आदि पदार्थों का समूह ही लोक है। उसके अधोलोक, मध्यलोक और ऊध्र्वलोक ये तीन भेद हैं। नीचे नरक हैं, मध्य में असंख्यात द्वीप-समुद्र हैं। ऊपर में तिरेसठ भेदों से युक्त स्वर्ग हैं और इनके ऊपर मोक्ष है।
त्रेसठ पटल-सौधर्म और ईशान स्वर्ग में इकतीस, सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग में सात, ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर में चार, लांतव-कापिष्ठ में दो, शुक्र-महाशुक्र में एक, शतार-सहस्रार में एक तथा आनत, प्राणत, आरण और अच्युत इन अंत के चार स्वर्गों में छह, इस तरह सोलह स्वर्गों में कुल ५२ पटल हैं। इनके आगे अधो ग्रैवेयकत्रिक में तीन, मध्यम ग्रैवेयकत्रिक में तीन और उपरिम ग्रैवेयकत्रिक में तीन अर्थात् नव ग्रैवेयकों के नव, अनुदिशों का एक और अनुत्तर विमानों का एक पटल है। इस तरह सब मिलाकर ऋतु आदि तिरेसठ पटल हैं।
इस लोकभावना को भाने का क्या सार है-
असुहेण णिरयतिरियं, सुहउवजोगेण दिविजणरसोक्खं।
सुद्धेण लहइ सिद्धिं, एवं लोयं विचिंतिज्जो।।
अशुभोपयोग से नरक और तिर्यंचगति प्राप्त होती है, शुभोपयोग से देव और मनुष्यगति का सुख मिलता है और शुद्धोपयोग से यह जीव मोक्ष को प्राप्त करता है। इस प्रकार लोक भावना का चिंतवन करने से लोक के अग्रभाग पर जाने की-सिद्ध पद प्राप्त करने की इच्छा जाग्रत होती है।
यह शरीर हड्डियों से बना है, मांस से लिपटा है, चर्म से ढका हुआ है और कीड़ों से भरा हुआ है, यही कारण है कि यह सदा मलिन है।
दुग्गंधं बीभच्छं, कलिमलभरिदं अचेयणं मुत्तं।
सडणप्पडणसहावं देहं इदि चिंतए णिच्चं।।
यह शरीर दुर्गंधित है, घृणित है, गंदे मल से भरा हुआ है, अचेतन है और मूर्तिक है। सड़ना और गलना ही इसका स्वभाव है, ऐसा सदा चिंतवन करना चाहिए।
यह शरीर रस, रुधिर, मांस, चर्बी, हड्डी तथा मज्जा से युक्त है, मूत्र, पीव और कीड़ों से भरा हुआ है, दुर्गंधयुक्त, अपवित्र और चर्ममय है, अनित्य है, अचेतन है और पतनशील-नश्वर है। आत्मा इस शरीर से भिन्न है, कर्मरहित है, अनंत सुखों का भंडार है तथा श्रेष्ठ है इस प्रकार निरंतर भावना करनी चाहिए।
मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये आस्रव हैं। ये क्रम से पाँच, पाँच, चार और तीन भेदों से युक्त हैं। आगम में इनका अच्छी तरह वर्णन किया गया है। एकांत, विपरीत, विनय, संशय और अज्ञान यह पाँच प्रकार का मिथ्यात्व है तथा हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह के भेद से पाँच प्रकार की अविरति नियम से होती है। क्रोध, मान, माया और लोभ यह चार प्रकार की कषाय हैं तथा मन, वचन, काय के भेद से योग के तीन भेद हैं। इस प्रकार ये सत्रह आस्रव माने गये हैं।
मन, वचन, काय योग के शुभ-अशुभ ये दो प्रकार माने गये हैं। इन प्रत्येक का खुलासा करते हैं-आहार, भय, मैथुन और परिग्रह ये चार संज्ञाएँ, कृष्ण, नील, कापोत लेश्याएँ, इन्द्रियजन्य सुखों में तीव्र लालसा, ईष्र्या, विषाद, राग, द्वेष, मोह तथा हास्यादिक नोकषायरूप परिणाम चाहे स्थूल हों चाहे सूक्ष्म, ये सब अशुभ मन हैं।
भोजनकथा, स्त्रीकथा, राजकथा और चोरकथा अशुभ वचन हैं, ऐसा जानो तथा बंधन, छेदन और मारणरूप जो क्रिया है वह अशुभ काय है।
अब शुभ मन, वचन, काय का विषय बताते हैं-
पूर्वोक्त कथित अशुभ भाव तथा अशुभ द्रव्य को सम्पूर्णतया छोड़कर व्रत, समिति, शील और संयमरूप परिणामों का होना शुभ मन है। संसार के नष्ट करने में कारण जो वचन हैं, उन्हें ही शुभ वचन कहा है तथा जिनेन्द्रदेव, निग्र्रंथगुरु आदि की पूजारूप जो कार्य की प्रवृत्ति है वह शुभ कार्य है, ऐसा श्री जिनेन्द्रदेव ने कहा है।
अनेक दोषरूपी तरंगों से युक्त, दु:खरूपी जलचर जीवों से व्याप्त, इस संसार रूपी वन में जो जीव का परिभ्रमण होता है, वह कर्मों के आस्रव से ही होता है। इस कर्मास्रव के कारण ही यह जीव संसार में डूबा हुआ है। जो क्रिया ज्ञान के वश होती है वही परम्परा से मोक्ष का कारण है।
आसवहेदू जीवो जम्मसमुद्दे णिमज्जदे खिप्पं।
आसवकिरिया तम्हा मोक्खणिमित्तं ण चिंतेज्जो।।
आस्रव के कारण जीव संसार समुद्र में शीघ्र ही डूब जाता है इसलिए आस्रवक्रिया मोक्ष का निमित्त नहीं है, ऐसा विचार करना चाहिए।
चूँकि परम्परा से भी आस्रव क्रिया के द्वारा निर्वाण नहीं होता है। आस्रव तो संसार गमन का ही कारण है इसलिए निन्दनीय है, ऐसा जानना चाहिए।
यद्यपि सम्यग्दृष्टि का पुण्यास्रव कथंचित् मोक्ष का कारण माना गया है फिर भी यहाँ पुण्यास्रव को जो मोक्ष के लिए निषेध किया है, वह सामान्य कथन है। कारण यह है कि मोक्ष तो संवर और निर्जरा से ही होता है।
निश्चयनय से जीवों के ये ऊपर कहे हुए आस्रव के भेद नहीं हैं इसलिए यह आत्मा दोनों प्रकार के आस्रव से रहित शुद्ध है, ऐसा चिन्तवन करना चाहिए।
चल, मलिन और अगाढ़ इन दोषों को छोड़कर निर्दोष सम्यक्त्वरूपी दृढ़ कपाटों के द्वारा मिथ्यात्वरूपी आस्रवद्वार का निरोध हो जाता है।
पाँच महाव्रतों से युक्त मन के द्वारा अविरतिरूप आस्रव नियम से रुकता है और कषाय के अभावरूप फाटकों से क्रोधादिकषायरूप आस्रवद्वार बंद हो जाते हैं।
सुहजोगस्स पवित्ती संवरणं कुणदि असुहजोगस्स।
सुहजोगस्स णिरोहो सुद्धुवजोगेण संभवदि।।
शुभयोग की प्रवृत्ति अशुभ योग को रोकती है और शुद्धोपयोग के द्वारा शुभयोग को रोका जाता है अर्थात् कर्मों का आना रुक जाना संवर है। शुभ प्रवृत्ति से अशुभ कर्म रुकते हैं और शुद्धोपयोग के द्वारा शुभकर्म भी रुक जाते हैं। यह अनादिकालीन क्रम है।
पुन: शुद्धोपयोग से जीव के धर्मध्यान और शुक्लध्यान होते हैं इसलिए ध्यान संवर का कारण है, ऐसा निरंतर विचार करते रहना चाहिए। निश्चयनय से जीव के संवर नहीं है क्योंकि वह शुद्ध भाव से सहित है अतएव आत्मा को सदा संवर भाव से रहित विचारना चाहिए।
बन्धपदेसग्गलणं णिज्जरणं इदि जिणेहि पण्णत्तं।
जेण हवे संवरणं तेणु दु णिज्जरणमिदि जाण।|
बंधे हुए कर्मप्रदेशों का गलना निर्जरा है, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है। जिन कारणों से संवर होता है उन्हीं कारणों से निर्जरा होती है अर्थात् संवर के हेतु ही निर्जरा के हेतु हैं।
वह निर्जरा दो प्रकार की है एक अपना उदय काल आने पर कर्मों का स्वयं पककर झड़ जाना और दूसरी तप के द्वारा की जाने वाली। इनमें से पहली निर्जरा तो चारों गतियों के जीवों के होती हैं ओर दूसरी निर्जरा व्रती जीवों के होती है।
उत्तम सुख से सम्पन्न श्री जिनेन्द्रदेव ने धर्म के दो भेद कहे हैं-गृहस्थ धर्म और मुनिधर्म। ये दोनों धर्म सम्यक्त्वपूर्वक होते हैं। इनमें से गृहस्थ धर्म के ग्यारह भेद हैं और मुनिधर्म के दश भेद हैं।
श्रावक धर्म-दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित त्याग, रात्रिभुक्ति त्याग, ब्रह्मचर्य, आरंभ त्याग, परिग्रह त्याग, अनुमति त्याग और उद्दिष्ट त्याग ये ग्यारह देशविरत अर्थात् गृहस्थधर्म के भेद हैं। इन्हें रत्नकरण्डश्रावकाचार आदि से समझना चाहिए।
मुनिधर्म-उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम सत्य, उत्तम शौच, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिन्चन्य और उत्तम ब्रह्मचर्य ये मुनिधर्म के दश भेद हैं।
यदि क्रोध की उत्पत्ति का साक्षात् बहिरंग कारण हो फिर भी जो विंâचित् मात्र क्रोध नहीं करते हैं तो उनके क्षमा धर्म होता है।
जो मुनि कुल, रूप, जाति, बुद्धि, तप, श्रुत तथा शील के विषय में कुछ भी गर्व नहीं करते, उनके मार्दव धर्म होता है।
जो मुनि कुटिल भाव को छोड़कर निर्मल हृदय से आचरण करते हैं, उनके नियम से तीसरा आर्जव धर्म होता है।
जो साधु दूसरों को संताप करने वाले वचन को छोड़कर स्व-पर हितकारी वचन बोलते हैं उनके चौथा सत्य धर्म होता है।
जो परम मुनि कांक्षा भाव से दूर होकर वैराग्य भाव धारण करते हैं, उनके शौच धर्म होता है।
जो मन-वचन-काय की प्रवृत्तिरूप दण्ड को त्यागकर, इन्द्रियों को जीतकर व्रत और समितियों का पालन करते हैं उनके नियम से संयम धर्म होता है।
जो विषय कषायों को छोड़कर ध्यान और स्वाध्याय के द्वारा आत्मा की भावना करते हैं, उनके नियम से उत्तम तप होता है।
जो समस्त द्रव्यों से मोह छोड़कर तीन प्रकार के निर्वेद को भाते हैं उनके त्याग धर्म होता है, ऐसा श्री जिनेन्द्रदेव ने कहा है।
जो मुनि निष्परिग्रही होकर सुख-दु:ख देने वाले अपने भावोें का निग्रह करते हुए निद्र्वंद रहते हैं, उनके आविंâचन्य धर्म होता है।
जो स्त्रियों को देखते हुए उनमें विकारभाव नहीं करते हैं वे निश्चय से अत्यन्त कठिन ब्रह्मचर्य धर्म को धारण करने में समर्थ होते हैं।
सावयधम्मं चत्ता जदिधम्मे जो हु वट्टए जीवो।
सो णय वज्जदि मोक्खं धम्मं इदि चिंतए णिच्चं।।
जो जीव श्रावक धर्म को छोड़कर मुनिधर्म धारण करते हैं वे ही मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं, इस प्रकार निरन्तर चिन्तवन करते रहना चाहिए। निश्चयनय से यह आत्मा गृहस्थधर्म और मुनिधर्म से रहित है इसलिए दोनों धर्मों में मध्यस्थ भावना रखते हुए निरंतर शुद्ध आत्मा का चिंतन करते रहना चाहिए।
उपज्जदि सण्णाणं जेण उवाएण तस्सुवायस्स।
चिंता हवेइ बोहो अच्चंतं दुल्लहं होदि।।
जिस उपाय से सम्यग्ज्ञान उत्पन्न होता है उस उपाय की चिंता का नाम बोधि है, यह बोधि अत्यन्त दुर्लभ है। कर्मोदय से होने वाली पर्याय के कारण क्षायोपशमिक ज्ञान हेय है और आत्मद्रव्य उपादेय है, ऐसा निश्चय होना सम्यग्ज्ञान है। मिथ्यात्व से लेकर असंख्यात लोकप्रमाण जो कर्मों की मूल-उत्तर प्रकृतियाँ हैं वे परद्रव्य हैं और निज आत्मा स्वद्रव्य है, ऐसा निश्चयनय का कथन है। इस प्रकार स्वद्रव्य और परद्रव्य का चिंतवन करने से हेय और उपादेय का ज्ञान होता है। निश्चयनय में यह हेय-उपादेय का विकल्प भी नहीं है। मुनि को संसार का अंत करने के लिए बोधि का विचार करते रहना चाहिए। ये बारह भावनाएँ ही प्रत्याख्यान, प्रतिक्रमण, आलोचना और समाधि हैं इसलिए इन अनुप्रेक्षाओं की निरंतर भावना करनी चाहिए। यदि अपनी शक्ति है तो रात-दिन प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, समाधि, सामायिक और आलोचना करना चाहिए।
मोक्खगया जे पुरिसा अणाइकालेण वारअणुवेक्खं।
परिभाविऊण सम्मं पणमामि पुणो पुणो तेसिं।।
जो पुरुष अनादिकाल से बारह अनुप्रेक्षाओं का अच्छी तरह चिंतन कर मोक्ष गये हैं मैं उन्हें बार-बार प्रणाम करता हूँ बहुत कहने से क्या लाभ ? अतीतकाल में जो महापुरुष सिद्ध हुए हैं और जो भविष्यत् में सिद्ध होवेंगे, वह अनुप्रेक्षाओं का ही माहात्म्य है।
इदि णिच्छयववहारं जं भणियं कुंद्कुंदमुणिणाहे।
जो भावइ सुद्धमणो सो पावइ परमणिव्वाणं।।
इस प्रकार कुन्दकुन्द मुनिनाथ ने निश्चय और व्यवहार का अवलंबन लेकर जो भावनाएँ कही हैं उन्हें शुद्ध हृदय होकर जो भाते हैं, वे परमनिर्वाण को प्राप्त कर लेते हैं।