१.१ तत्त्वों के बार-बार चिन्तन को भावना अथवा अनुप्रेक्षा कहते हैं। ये १२ प्रकार की हैं। इन भावनाओं को बार-बार भाते रहने से संसार, शरीर, भोगादि से विरक्त भाव उत्पन््ना होता है। भावना से परिणामों की उज्ज्वलता होती है, मिथ्यादर्शन का अभाव होता है, व्रतों में दृढ़ता बढ़ती है और शुभ ध्यान की वृद्धि होती है। भूतकाल में जो महापुरुष हुए हैं उन सभी ने इन भावनाओं का चिन्तन किया है।
उन सभी ने अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ, धर्म इन बारह भावनाओं का चिंतन किया है।
बारह भावनाओं का विवरण निम्नानुसार है-
अब सर्वप्रथम अनित्य भावना को कहते हैं। इसका दूसरा नाम अनित्य अनुप्रेक्षा है।
तन धन यौवन इन्द्रिय सुख ये, सब क्षणभंगुर हैं नित्य नहीं।
मैं नित्य अचल अविनश्वर हूँ, स्वाभाविक शक्ति अचिन्त्य कही।।
मैं नित ध्याऊँ निज आत्मा को, अविनश्वर पद के पाने तक।
मैं ज्ञाता दृष्टा बन जाऊँ, सर्वज्ञ अवस्था आने तक।।१।।
राजाओं का वैभव, देवों के विमान, धन, यौवन, ऐश्वर्य, बल, आज्ञा का चलना, इन्द्रिय के भोग ये सब एक निमिष मात्र भी स्थिर नहीं हैं। जैसे आकाश में बिजली चमक कर नष्ट हो जाती है, इन्द्रधनुष क्षण में विलीन हो जाता है उसी प्रकार इस संसार में ये सब नष्ट होने वाले हैं। इन सबसे भिन्न मात्र अपने आत्म- स्वभाव की ही तुम सतत साधना करो कि जिससे तुम स्थिर ऐसी मुक्ति को प्राप्त कर सकोगे।
इस अध्रुव अथवा अनित्य भावना का चिंतवन करते रहने से मन में संसार की किसी भी वस्तु के प्रति विशेष ममत्व भाव नहीं रह जाता है बल्कि उससे भिन्न अपनी आत्मा शाश्वत काल रहने वाली नित्य है, उसमें ही सच्चा अनुराग उत्पन्न होता है तथा उस आत्मा की सिद्धि के लिए कारणभूत ऐसे पाँचों परमेष्ठियों की भक्ति, उपासना, आराधना में भी अनुराग होता है इसलिए इस अध्रुव अनुपे्रक्षा का हमेशा चिंतवन करते रहना चाहिए।
जग में क्या शरण कोई देगा, सब शरण रहित अशरणजन हैं।
आत्मा इक शरणागत रक्षक, उस ही का शरण लिया मैंने।।
यद्यपि अर्हंत जिन पंचगुरू, हैं शरणभूत निज भक्तों के।
पर निश्चय से निज आत्मा ही, रक्षा करती भव दु:खों से।।२।।
तात्पर्य यह हुआ कि अशरण भावना भाते समय निश्चयनय से अपनी आत्मा को ही शरण समझकर व्यवहार नय से पाँचों परमेष्ठी की शरण लेना चाहिए। यही इस भावना को भाने का सार है।
इस तीन लोकरूपी वन में जैसे व्याघ्र हरिण को पकड़ ले तो उसकी दाढ़ के नीचे गए हुए उस हरिण को कोई भी शरण नहीं है। उसी प्रकार हे जीव! मृत्यु के समय तुम्हारी रक्षा करने वाला भला कौन बलवान है ? माता-पिता, बन्धु, राजा और इन्द्र ये सभी तो यमराज के मुख का ग्रास बन रहे हैं पुन: ये तुम्हारी क्या रक्षा करेंगे ? हाँ, इस जगत में रक्षक वे ही हैं कि जिन्होंने यमराज को जीत लिया है इसलिए मृत्यु के विजेता ऐसे देवाधिदेव जिनेन्द्रदेव की ही शरण लेवो।
हैं द्रव्य, क्षेत्र औ काल तथा, भव भाव पंच विध परिवर्तन।
निज आत्मा के अंदर रमते, ही रुक जाते सब परिभ्रमण।।
मैं हूँ निश्चय से भ्रमण रहित, शिवपुर में ही विश्राम मेरा।
मैं निज में स्थिर हो जाऊँ, फिर होवे भ्रमण समाप्त मेरा।।
इस तीन जगत में चिरकाल से मिथ्यात्व और मायाचार से यह जीव भ्रमण कर रहा है। श्री जिनेन्द्रदेव के धर्म को नहीं प्राप्त कर ही इसने अनंतकाल बिता दिया है। इस जगत में केवल दु:ख ही दु:ख है, शाश्वत शांति नहीं है। इसलिए हे भव्यजीव! तुम भव से रहित ऐसे जिनेन्द्रदेव का आश्रय लेवो कि जिससे पुन: तुम्हें इस संसार में जन्म-मरण ही न करना पड़े।
इस प्रकार संसार भावना के बार-बार चिंतवन करने से संसार से भय उत्पन्न होता है तब मोक्ष प्राप्ति के उपाय में प्रवृत्ति होती है।
मैं हूँ अनादि से एकाकी, एकाकी जन्म मरण करता।
फिर भी अनंतगुण से युत हूँ, मैं जन्म मृत्यु भय का हरता।।
स्वयमेव आत्मा को ध्याऊँ, पूजूं वंदूँ गुणगान करूँ।
एकाकी लोक शिखर जाकर, स्थिर हो निज सुख पान करूँ।।
इस संसार में यह जीव अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही मरता है। इसके साथ दूसरा कोई नहीं जाता है और न आता ही है। हे भाई! यह स्पष्टतया देखो, मात्र प्रत्येक जीव के साथ उसके किये हुए शुभ-अशुभ कर्म ही साथ जाते हैं बाकी कोई किसी के साथ नहीं जाता है। जैसे रात्रि में वृक्ष पर अनेक पक्षी आकर इकट्ठे हो जाते हैं और प्रात: होते ही अन्यत्र चले जाते हैं।
मेरी आत्मा से भिन्न सभी, किंचित् अणुमात्र न मेरा है।
मैं सबसे भिन्न अलौकिक हूँ, बस पूर्ण ज्ञान सुख मेरा है।।
मैं अन्य सभी पर द्रव्यों से, संबंध नहीं रख सकता हूँ।
वे सब अपने में स्वयं सिद्ध, मैं निज भावों का कर्ता हूँ।।
‘‘यह घर मेरा है यह शरीर मेरा है’’ ऐसा कहते हुए यह संसारी प्राणी प्रत्येक वस्तु से स्नेह करते रहते हैं किन्तु वास्तव में कोई भी वस्तु इस जीव के साथ नहीं जाती है। जैसे जल और दूध मिलाने पर एकमेक हो जाते हैं वैसे ही यह जीव और शरीर दोनों एकमेक हो रहे हैं किन्तु इनका लक्षण अलग-अलग है। जल को अलग कर दूध पीने वाले हंस के समान तुम चिन्मय चैतन्य हंस अपनी आत्मा को कर्मों से अलग कर सुखी होवो।
यह देह अपावन अशुचिमयी, सब शुचि वस्तु अपवित्र करे।
इस तन में राजित आत्मा ही, रत्नत्रय से तन शुद्धि करे।।
तन सहित तथापी अशरीरी, आत्मा को ध्याऊँ रुचि करके।
चैतन्य परम आल्हादमयी, परमात्मा बन जाऊँ झट से।।
यह शरीर मल, मूत्र आदि अशुचि पदार्थों का पिंड है इससे हमेशा दुर्गंध ही निकलती रहती है। चाहे जितना इसे नहलाओ, सुगंधित द्रव्य लगाओ पर वे भी अपवित्र हो जाते हैं। इस शरीर में स्थित आत्मा को तीन रत्न-रत्नत्रय से धोने पर यह पवित्र हो जाता है। ऐसी भावना भाने से शरीर से प्रेम नष्ट हो जाता है और रत्नत्रय में प्रीति उत्पन्न होती है जिससे इस नश्वर घृणित शरीर से ही आत्मा को अविनाशी पवित्र बनाया जाता है।
इस प्रकार अशुचि भावना के भाते रहने से शरीर से ममत्व दूर हो जाता है और इस अपवित्र शरीर से रत्नत्रय द्वारा संसारी आत्मा को पवित्र कर लिया जाता है।
मिथ्या अविरती कषायों से, कर्मास्रव हैं आते रहते।
पर ये जड़ अशुचि अचेतन हैं, जड़ ही इनको रचते रहते।।
मेरा है चेतन रूप सदा, मैं इन कर्मोंे से भिन्न कहा।
मैं निज आत्मा को भिन्न समझ, इन कर्मास्रव से पृथक् किया।।
मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग इनके द्वारा आठ प्रकार के कर्म आत्मा में आते हैं। ये शुभ-अशुभरूप से बंधकर अच्छे-बुरे फलों को देते रहते हैं। जैसे जहाज में छिद्र होने से चारों तरफ से उसमें जल भर जाने से वह समुद्र में डूब जाता है, उसी प्रकार से संसार समुद्र में यह आत्मा इन आस्रव के कारण डूब जाता है।
इस आस्रव भावना को समझकर मिथ्यात्व आदि से बचना, उनके विपरीत सम्यक्त्व, विरति आदि को ग्रहण करना यही इस आस्रव भावना को भाने का सार है।
गुप्ति समितियुत संयम ही, कर्मों का संवर करते हैं।
निश्चय से निज में गुप्त रहूँ, तब कर्मास्रव सब रुकते हैं।।
मैं निर्विकल्प निज परम ध्यान, में लीन रहूँ परमारथ में।
फिर कर्म कहो आते वैâसे ? ये भी रुक जाते मारग में।।
जहाज के छिद्रों को बंद करने से वह उसमें बैठने वालों को समुद्र के किनारे पहुँचा देता है वैसे ही कर्म के छिद्रों को रोकने के लिए संयम की आवश्यकता है। हे भव्यजीव! तुम हमेशा व्रत, समिति आदि के पालन करने में तत्पर होवो क्योंकि इस संसार को पार करने के लिए संवर भावना ही है, ऐसा तुम सतत मन में चिंतवन करते रहो।
संवर भावना को भाते रहने से आस्रव से भय होता है और संवर को प्राप्त करने की रुचि उत्पन्न होती है। यही इस भावना के चिंतन करने का अभिप्राय है।
ध्यानाग्नि से सब कर्मपुंज, को जला जलाकर भस्म करूँ।
बहिरंतर तप तपते तपते, निज से कर्मों को जुदा करूँ।।
मैं कर्मरहित निज आत्मा को, जब निज में स्थिर कर पाऊँ।
तब कर्म स्वयं ही झड़ जावें, मैं मुक्तिश्री को पा जाऊँ।।
जैसे सूर्य के आतप से सरोवर का जल सूख जाता है वैसे ही तपश्चर्या के द्वारा कर्मों को सुखाना चाहिए। आगे के आने वाले कर्म रुक गये और पुराने बंधे हुए झड़ते गये तो क्रम से सब कर्मों की निर्जरा होकर शीघ्र ही मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है, ऐसा सतत चिन्तन करना निर्जरा भावना है।
यह निर्जरा भावना कर्मों से छुड़ाकर मोक्ष प्राप्त कराने वाली है। इसके भाते रहने से आत्मा से कर्मों का भार हल्का होता है।
यह लोक अनादि अनिधन है, यह पुरुषाकार कहा जिन ने।
नहिं किंचित् सुख पाया क्षण भर, मैं घूम घूम कर इस जग में।।
अब मैं निज का अवलोकन कर, लोकाग्रशिखर पर वास करूँ।
मैं लोकालोकविलोकी भी, निज का अवलोकन मात्र करूँ।।
यह लोक तीन सौ तेतालीस राजु प्रमाण घनरूप है, पुरुष के आकार का है। इसी में चौरासी लाख योनियों में अनेक आकार को धारण करके यह जीव घूम रहा है। तत्त्वज्ञान के बिना इस लोक में लेशमात्र भी शांति नहीं मिल सकती है। जो लोक के अग्रभाग में निवास कर रहे हैं ऐसे सिद्ध भगवान को ही पूर्ण शांति प्राप्त है, वे ही स्थिर पद पर निवास कर रहे हैं।
इस लोक भावना के बार-बार भाते रहने से यह जीव ऊर्ध्वलोक को प्राप्त करने का प्रयास करता है पुन: धीरे-धीरे लोक के अग्रभाग को प्राप्त कर लेता है।
दुर्लभ निगोद से स्थावर, त्रस पंचेन्द्रिय होना दुर्लभ।
दुर्लभ उत्तम कुल देश धर्म, रत्नत्रय भी पाना दुर्लभ।।
सबसे दुर्लभ निज को पाना, जो नित प्रति निज के पास सही।
दुर्लभ निज को पाकर निज में, स्थिर हो पाऊँ सौख्य मही।।
इस जगत में पृथ्वी, जल, वनस्पति आदि स्थावर एकेन्द्रिय से त्रस पर्याय में दो इन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चार इन्द्रिय होना दुर्लभ है, पुन: पंचेन्द्रिय होना दुर्लभ है। इसको पाकर उत्तम कुल, बल, जाति, रूप, शरीर स्वस्थता, बुद्धि और श्रेष्ठ गुणों का पाना दुर्लभ है। इन सबको पाकर भी उत्तम संयम पाना पुन: अंत में समाधिमरण प्राप्त करना बहुत ही दुर्लभ है। इन सबको पाकर हे भव्य! तुम जिनराज के चरणों का आश्रय लेवो कि जिससे जन्म-मरण की परम्परा समाप्त हो जावे।
जो भवसमुद्र में पतित जनों को, निज सुखपद में धरता है।
है धर्म वही मंगलकारी, वह सकल अमंगल हर्ता है।।
वह लोक में है उत्तम सबमें, औ वही शरण है सब जन को।
निज धर्ममयी नौका चढ़कर, मैं शीघ्र तिरूँ भवसिंधू को।।
इस जीवन में धर्म ही श्री है और धर्म ही श्रेष्ठ है, यह धर्म ही कल्पवृक्ष है, चिंतामणि है, इसके समान और कुछ भी नहीं है। हे आत्मन्! तुम यदि सतत शांति चाहते हो तो सर्व भ्रांति को छोड़कर इस धर्मरूपी अमृत का पान करो, पान करो, यही अजर अमर पद को देने वाला है।
यह धर्म संसार में सर्व मनोरथ को पूर्ण कर अनेक अभ्युदयों को प्रदान करता है पुन: सर्व कर्मों का नाश कर मोक्षसुख देने वाला है। धर्म के बिना इस जगत में कुछ भी सार नहीं है, ऐसा बार-बार भाते रहने से यह धर्म आत्मा को परमात्मा बना देता है।
विशेष-अनेक सन्तों एवं कवियों द्वारा बारह भावनाएँ रची गयी हैं। उनमें से कोई भी बारह भावना यहाँ ली जा सकती हैं।