जो श्रावक गृहस्थाश्रम में ही रहते हुए पंच अणुव्रत आदि व्रतों को पालन करते हैं, उनके वैराग्य जागृत करने के लिए चिन्तवन करने योग्य बारह अनुपे्रक्षाएं हैं अथवा वैराग्य उत्पन्न होने के अनन्तर तीर्थंकरों ने भी इन अनुपे्रक्षाओं का चिन्तवन किया है अत: वैराग्य को जन्म देने के लिए और उनको वृद्धिंगत करने के लिए ये माता के समान हैं।
अनित्य अनुप्रेक्षा – गाँव, नगर, स्थान, चक्रवर्ती, इन्द्र, धरणेन्द्र, शरीर, माता, पिता, पुत्र, स्त्री आदि सांसारिक पदार्थ इस जीव के लिए अनित्य हैं। शुद्ध अविनाशी आत्म चिन्तवन करने योग्य हैं क्योंकि आत्मा ही नित्य है।
अशरण अनुप्रेक्षा – हे जीवात्मन्! चतुर्गति संसार में जन्म लेने वाले जीव को सदा सुख-दुख भोगते समय या मरते समय देव, मंत्र, औषधि, रथ, सेना आदि कोई भी रक्षक-बचाने वाला नहीं है, केवल पंचपरमेष्ठी द्वारा प्रतिपादित जैनधर्म तथा चैतन्य चमत्काररूप अपनी आत्मा ही शरण है।
संसार अनुप्रेक्षा – यह जीव द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव इन पंचपरावर्तनरूप संसार वन में अनादिकालीन मिथ्यात्व की वासना से वासित होकर दु:ख उठा रहा है। कर्मरूपी यंत्र की प्रेरणा से कभी स्वर्ग में जाता है, कभी नरक में जाता है और कभी निगोद आदि की महादु:खमय योनि में जा पड़ता है। सर्वत्र भ्रमण करते हुए संसार में कहीं पर कोई भी सुखी नहीं है, ऐसा बार-बार विचार करना संसार अनुप्रेक्षा है।
एकत्वानुप्रेक्षा – यह जीव सदा अकेला है, परमार्थ दृष्टि से इसका मित्र कोई नहीं है, अकेला आया है, अकेला ही दूसरी योनि में चला जायेगा, बन्धुवर्गादि कोई भी श्मशान भूमि से आगे के साथी नहीं हैं, एक धर्म ही साथ जाने वाला है।
अन्यत्वानुप्रेक्षा –यद्यपि इस शरीर से मेरा अनादिकाल से संबंध है परन्तु यह अन्य है और मैं अन्य ही हूँ, शरीर और मैं सर्वथा भिन्न हूूँ। जब अत्यन्त समीपस्थ शरीर भी अपना नहीं है, तो फिर स्त्री, कुटुम्बादि अपने किस प्रकार हो सकते हैं? ये तो प्रत्यक्ष ही दूसरे हैं।
अशुचि अनुप्रेक्षा –यह शरीर अत्यन्त अपवित्र है। माता-पिता के मलरूप रज और वीर्य से इसकी उत्पत्ति हुई है। इसके संसर्ग से अन्य पवित्र सुगंधित पदार्थ भी अपवित्र और घिनावने हो जाते हैं। इस अशुचि शरीर से ही रत्नत्रयरूप पवित्र निधि को प्राप्त किया जा सकता है, इस रत्नत्रय से ही आत्मा को पूर्ण पवित्र-पूज्य बनाया जा सकता है।
आस्रव अनुप्रेक्षा – मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग इन कारणरूप द्वारों से जीव के शुभ और अशुभ कर्मों का आगमन होता है, इसे ही आस्रव कहते हैं। इन आस्रव से बंध होता है जो कि संसार का मूल कारण है। आस्रव के कारणों से विमुख होकर आत्मा के स्वरूप का चिन्तवन करना चाहिए।
संवर अनुप्रेक्षा –कर्मों के आस्रव रोकने को संवर कहते हैं। इस संवर के कारणभूत पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति, दशधर्म, द्वादशानुप्रेक्षा और बाईस परीषहों के चिन्तवन करने को संवर अनुप्रेक्षा कहते हैं।
निर्जरा अनुप्रेक्षा – पूर्व संचित कर्म समूह के उदय में आकर झड़ जाने को निर्जरा कहते हैं। इसके दो भेद हैं-सविपाक निर्जरा और अविपाक निर्जरा। पूर्व संचित कर्मों की स्थिति पूर्ण होकर उनके फल देकर झड़ जाने को सविपाक निर्जरा एवं तपश्चर्या, परीषह आदि के द्वारा कर्मों की स्थिति पूरी किये बिना झड़ जाने को अविपाक निर्जरा कहते हैं। प्रथम निर्जरा सम्पूर्ण संसारी जीवों के होती है। द्वितीय निर्जरा सम्यग्दृष्टि और व्रतधारियों के ही होती है।
लोक अनुप्रेक्षा – अनन्त अलोकाकाश के मध्य में पुरुषाकार लोकाकाश है। यह अनादिनिधन, स्वयंसिद्ध है। इस प्रकार लोक में स्वर्ग, नरक आदि कहाँ हैं? निगोद और मोक्ष स्थान कहाँ हैं? यह जीव कहाँ से आया है? और कहाँ इसे जाना है? इत्यादि लोक के स्वरूप का बारम्बार विचार करना लोक अनुप्रेक्षा है।
बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा – इस घोर दु:खरूप संसार में निगोद राशि से निकल कर त्रस जन्म को पाना दुर्लभ है। त्रस में भी पंचेन्द्रिय होना समुद्र में गिरी हुई वङ्का कणिका के सदृश अत्यन्त दुर्लभ है। पंचेन्द्रिय में भी मनुष्य होना सब गुणों में कृतज्ञता के सदृश अत्यन्त दुर्लभ है। मनुष्य जन्म में भी उत्तम कुल, देश, इन्द्रियों की पूर्णता, आरोग्यता आदि उत्तरोत्तर दुर्लभ हैं। अंत में अहिंसामयी धर्म पाना, मुनिधर्म का धारण करना तथा समाधिमरण पाना अतिशय दुर्लभ हैं। इन सबको पाकर प्रमादरहित होते हुए अपने स्वरूप को प्राप्त कर लेना ही उत्तम है क्योंकि परवस्तु की प्राप्ति तो कर्माधीन है किन्तु अपना ज्ञान, दर्शन स्वभाव तो अपने पास ही है, तो उसकी प्राप्ति को दुर्लभ क्यों मानना? अर्थात् अपने स्वभाव की प्राप्ति अपने पास ही होने से सुलभ है, मात्र पुरुषार्थ की आवश्यकता है, ऐसा बार-बार विचार करके उत्तम पुरुषार्थ करना चाहिए।
धर्म अनुप्रेक्षा –यह सर्वज्ञ प्रणीत जैनधर्म अिंहसा लक्षण युक्त है। सत्य, शौच, ब्रह्मचर्य आदि इसके अंग हैं। इनकी अप्राप्ति से जीव अनादि संसार में भ्रमण करता है, पाप के उदय से दु:खी होता है परन्तु इसकी प्राप्ति से अनेक सांसारिक सम्पदाओं को भोग करके मुक्ति प्राप्ति से सुखी होता है, इस प्रकार चिन्तवन करना धर्मानुप्रेक्षा है। किसी भी श्रावक को इन बारह अनुप्रेक्षाओं का चिन्तवन करके पूर्णतया विरक्त होकर पुन: माता-पिता आदि कुटुम्बीजनों से आज्ञा लेकर दिगम्बर मुनिराजों के संघ में जाकर गुरु के पास दीक्षा की याचना करनी चाहिए अथवा जो क्षुल्लक या ऐलक हैं, वे भी आचार्य के पास जाकर मुनि दीक्षा की याचना करते हैं, तब आचार्यप्रवर उनमें दीक्षा की योग्यता देखकर उन्हें विधिवत् जैनेश्वरी दीक्षा प्रदान करते हैं। दीक्षार्थी को केशलोंच करना होता है। वह सम्पूर्ण प्रकार के वस्त्र, आभरण, परिग्रह आदि का त्याग कर देता है। गुरुदेव उसे संयम के उपकरणरूप मयूर पंख की पिच्छिका, ज्ञान के उपकरणरूप शास्त्र और शौच का उपकरण कमण्डलु प्रदान करते हैं तथा अट्ठाईस मूलगुणों का लक्षण समझाकर उस शिष्य को पंचपरमेष्ठी की साक्षीपूर्वक दीक्षा देते हैं। उसके मस्तक पर विधिवत् मंत्रों का न्यास करके बीजाक्षरों का न्यास करते हैं। गुरु से दीक्षा को ग्रहण कर वह शिष्य भी कृतकृत्य होता हुआ गुरु को आत्मसमर्पण कर देता है।