इधर बाहुबली भगवान एक वर्ष का योग लेकर ध्यान में खड़े थे। उस समय उनके ध्यान के प्रभाव से मन:पर्ययज्ञान और अनेक ऋद्धियाँ प्रगट हो गई थीं। यदि बाहुबली को शल्य होती, तो मन:पर्ययज्ञान और ऋद्धियाँ नहीं हो सकती थीं…..। उन्हें मात्र विकल्प था कि-
संक्लिष्टो भरताधीश:, सोऽस्मत्त इति यत्किल।
हृद्यस्य हार्दं तेनासीत् तत्पूजापेक्षि केवलम्।।
मेरे द्वारा मेरे बड़े भ्राता को क्लेश हो गया है, ऐसा विकल्प कभी-कभी बाहुबली के मन में ‘सौहार्द’ भावरूप-भाई के प्रति सौहार्द भाव रूप विकल्प आ जाता था। यह शल्य नहीं थी।
इधर एक वर्ष पूर्ण होने वाला था, चक्रवर्ती भरत आकर श्री बाहुबली की पूजा करते हैं, उसी समय बाहुबली एकदम निर्विकल्प होते हैं और उन्हें केवलज्ञान प्रगट हो जाता है। गंधकुटी की रचना बन जाती है। पुन: भरत चक्रवर्ती श्री बाहुबली केवली भगवान की विशेष पूजा करते हैं और उनकी दिव्यध्वनि सुनकर अपने स्थान पर आ जाते हैं।
असंख्यातों देवगण भी गंधकुटी में श्री बाहुबली केवली भगवान की दिव्यध्वनि सुनते हैं।