हमारे धार्मिक संस्कार छान कर पानी पीना, सूरज अस्त होने के पूर्व भोजन करना, हमारी रसोई में लहसन, प्याज, आलू का प्रवेश नहीं होना, जियो और जीने दो, अहिंसा परमोधर्म ये ऐसे धार्मिक संस्कार हैं, जिसे आज वैज्ञानिक भी इन्हें मानव जीवन के लिये सबसे अधिक आरोग्यदायी एवं पर्यावरण के लिये बहुत ही असरदार मान रहे हैं। ये सब सोना है तो इन सब पर सुहागा है हमारे संतों का तप, त्याग और संयम। हमारा समाज प्रगतिशील समाज है। आधुनिकता की छाया हम पर भी छा रही है। ऐसा लगता है मानो बढ़ने व दिखावे की होड़ में हमसे कुछ छूटता जा रहा है। हमारे समाज का हर परिवार आर्थिक रूप से समृद्ध हो रहा है, किन्तु हमारे संस्कारों का दीवाला निकल रहा है। हमारे घरों में बेड मनी का प्रवेश हो रहा है। कुछ ऐसे सोचनीय प्रश्न हवा में तैर रहे हैं जो हमारी संस्कृति पर ग्रहण लगा सकते हैं। ये मेरे अपने विचार हैं, जो मैंने महसूस किये हैं। जरूरी नहीं कि आप इनसे सहमत हों, अगर आप सहमत हों तो इनके उत्तर खोजने में मददगार बनना और अगर असहमत हों तो मुझे क्षमा करना। क्योंकि मैं भी आप ही के समान देव—शास्त्र—गुरु के प्रति पूर्ण सर्मिपत हूँ। क्या हमें नहीं लगता कि समाज में अनुशासनहीनता तेजी से बढ़ रही है। हम अपने पूर्वजों द्वारा स्थापित किए गए ट्रस्टों एवं समाजहित में बनाई गई पारमार्थिक संस्थाओं, शासन द्वारा अपने प्रभाव से लोक कल्याण के लिये ली गई भूमि जिन पर कुछ निर्माण हुआ है, या होना है, या होगा को दाँव पर लगा रहे हैं एवं जिस डाल पर बैठे हैं, उसे ही काटने की उक्ति को सार्थक कर रहे हैं। क्या हमें नहीं लगता कि हमारे शादी विवाह के खर्च आलीशान गार्डन, उनकी सजावट, शाही भोज से इतने बढ़ गये हैं, कि साधारण वर्ग अपने को बहुत ही हीन महसूस करने लगा है, क्योंकि जितना हम दिखावे में खर्च कर रहे हैं, उतना वह २१ वर्ष से ७० वर्ष की उम्र तक कमा भी नहीं पाया है। बचत क्या कर पायेगा ? क्या हमें नहीं लग रहा है कि हमारे उच्च शिक्षित बच्चे विदेशों में व बैंगलोर, हैदराबाद, मुम्बई, पुणे, नोएडा में सेटल हो रहे हैं या हो गए हैं। इन्हें इस लायक बनाने वाले माँ बाप को ये ना—लायक समझने लगे हैं और उन्हें साथ रखने में परहेज कर रहे हैं या माता—पिता वहाँ जाकर एकाकी जिन्दगी नहीं जीना चाहते हैं। क्या हमें नहीं लग रहा है कि बिना आवागमन के साधन या बस व्यवस्था, बिना भोजन और बिना तामझाम (हजारों रुपये के फ्लेक्स प्रिटिंग) के हमारे धार्मिक अनुष्ठान या र्धािमक, सामाजिक कार्यक्रम संपन्न नहीं हो पा रहे हैं। क्या हमें नहीं लगता कि सामाजिक जीवन का तानाबाना अनुशासनहीनता की छुरी से तहस नहस हो रहा है। लव जिहाद या इण्टरकास्ट शादी का चलन बहुत ही दिखावे पूर्वक हो रहा है। हम मूकदर्शक के रूप में इनमें शामिल होकर अपनी सहभागिता की मुहर लगा रहे हैं। या दूसरे शब्दों में कहूँ तो ‘सब्जी काटना’ कहने को िंहसा मानने वाले ‘सब्जी सुधारना’ कहते हैं, और अपने बच्चों की शादी माँसाहार करने वाले समाज में करके अपनी मजबूरी को समाज की कमजोरी मान रहे हैं। क्या हमें नहीं लगता कि समाज को एक सूत्र में बाँधने, मोक्ष मार्ग की राह पर चलने का संदेश देने वाले हमारे गुरु संत की बहुत ही खर्चीले तामझाम वाले आयोजन को, धर्मप्रभावना का माध्यम मान रहे हैं और उनके पट्ठे (आयोजक) भीड़ भरा आयोजन करने की चाह में समाज के श्रेष्ठिजन को नहीं, फिल्मी पर्दे की हिरोइनों (आयटम गर्ल) को आमंत्रित कर रहे हैं। अभी तक तो राजनेता चुनाव जीतने के लिये अपनी सभा में पब्लिक को एकत्रित करने के लिये इनका इस्तेमाल करते रहे हैं, अब दुर्भाग्य से हमारे धार्मिक आयोजनों में इन्हें आमंत्रित कर श्रद्धालुओं की भीड़ जुटाने के प्रयास होने लगे हैं। साधु संतों की उपस्थिति में फूहड़ नृत्य प्रस्तुत करवाये जा रहे हैं। क्या हमें नहीं लगता कि हमारे श्रेष्ठी वर्ग के दान का उपयोग र्आिथक रूप से कमजोर बच्चों की पढ़ाई, महँगे हो गये इलाज, बारह से आकर इन्दौर में उच्च शिक्षा ग्रहण कर रहे बच्चों के होस्टल निर्माण, समाज की अपनी मेडिकल, इंजीनियिंरग या मैनेजमेण्ट इन्स्टीस्टयूट बनाने में होना चाहिए, या भव्य आयोजन, जिसमें महँगे शाही भोज, बड़े—बड़े शामियाने, लाखों के फ्लैक्स, पत्रिका, पोस्टर, प्रिटिंग, चैनलों पर हजारों रुपये के पैकेज में। क्योंकि आज समाज के कई मध्यमवर्गीय परिवार डिप्रेशन से पीड़ित हो रहे हैं, ऐसे में कई प्रश्न हवा में तैर रहे हैं, किन्तु कौन किससे कहे, बिल्ली के गले में घण्टी कौन बाँधे ?……. बुद्धिजीवी समाज अपना दायित्व नहीं निभाएगा तो समाज पतन की ओर बढ़ता चला जाएगा। और हमारी गौरवमयी संस्कृति नष्ट हो जाएगी। जागो साथियों जागो, मौन मत रहो, मुखर हो जाओ। जैन संस्कृति व संतति की रक्षा करो। याद रहे मौन स्वीकृति होती है। जंगल में आग लगी है और एक चिड़िया अपनी चोंच में पानी लेकर आती है और उस आग पर डालती है। उसका यह सद्प्रयास उसे तमाशबीनों की भीड़ से अलग करता है और उसे अपने आप पर गर्व होता है कि उसने आग बुझाने का प्रयास किया। बस यही प्रयास आप भी कीजिए ताकि गर्व से आप अपना मस्तक ऊँचा कर सकें। ध्यान रहे—मौन रहना भी स्वीकृति है। ‘‘मौनं स्वीकृति लक्षणं’’।
जिन्दगी ऐसे न जियो कि लोग फरियाद करें। बल्कि ऐसे जियो कि लोग फिर याद करें।।
श्रीमती कुसुम पाण्ड्या, इन्दौर सन्मतिवाणी २५ नवम्बर २०१४