वर्ष शुभारंभ तिथि-आश्विन शुक्ला दशमी-विजयादशमी, दिनाँक-२४ अक्टूबर २०२३बंधुओं! हम सभी को विदित है कि बीसवीं-इक्कीसवीं शताब्दी के सर्वप्रथम दिगम्बर जैनाचार्य चारित्रचक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज हुए हैं, जिन्होंने मूलाचार आगम के अनुरूप साधुओं की जीवनचर्या का स्वत: अनुपालन करके शिथिल होती जैन साधुचर्या का पुनरुद्धार किया, जिससे आज इस कलिकाल में जैनधर्म के अनुसार सच्चा, वास्तविक और आगमोक्त मोक्षमार्ग प्रशस्त हो पाया है। इसी प्रकार श्रावकों की चर्या भी आगमोक्त बनाई और गृहस्थियों के लिए भी परम्परा से मोक्ष का मार्ग बताया।इसके साथ ही जिनवाणी की रक्षा करते हुए षट्खण्डागम जैसे मूल आगम ग्रंथ को बचाकर भगवान महावीर की दिव्यदेशना अर्थात् धरसेनाचार्य, पुष्पदंत-भूतबली आचार्य द्वारा रचित महान सिद्धान्त ग्रंथ को जीर्ण-शीर्ण ताड़पत्रों से ताम्रपट्ट पर उत्कीर्ण कराकर सदियों-सदियों के लिए हमारा आगम ग्रंथ सुरक्षित किया एवं हिन्दी अनुवाद कराकर प्रकाशित कराया। दहीगाँव में विद्यमान बीस तीर्थंकर, कुंथलगिरि में श्री देशभूषण-कुलभूषण सिद्ध भगवान, कुम्भोज में श्री बाहुबली भगवान आदि की प्रतिमाएँ विराजमान कराकर तीर्थ विकास का भी महान कार्य किया।
ऐसे महामना आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज को वर्ष १९२४ में आश्विन शुक्ला एकादशी के दिन ग्राम समडोली (जिला-सांगली) महा. में चतुर्विध संघ के द्वारा इस सदी का प्रथम आचार्य पद प्रदान किया था। इस आचार्य पदारोहण दिवस ने अब वर्तमान में सन् २०२३ के आश्विन शुक्ला एकादशी को अपने ९९ वर्ष पूर्ण करके १००वें वर्ष में प्रवेश किया है। आश्विन शुक्ला एकादशी, सन् १९२४ को आपने अपने शिष्यों श्री वीरसागर जी महाराज एवं श्री नेमिसागर जी महाराज को क्षुल्लक से मुनि बनाकर अपनी शिष्य परम्परा को समुन्नत बनाया अत: आचार्य पदारोहण शताब्दी वर्ष के साथ-साथ आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज एवं आचार्य श्री नेमिसागर जी महाराज का १००वाँ मुनि दीक्षा वर्ष भी घोषित किया गया है। आश्विन शुक्ला दशमी-विजयादशमी, २४ अक्टूबर २०२३ को शाश्वत तीर्थ अयोध्या में पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से अखण्ड दीप प्रज्ज्वलित करके एवं समडोली में एक लाख दीप प्रज्ज्वलित करके इन वर्षों का शुभारंभ किया गया।
सर्वोच्च जैन साध्वी गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी, जिन्होंने आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज के क्षुल्लिका अवस्था में तीन बार दर्शन करके उन्हीं की आज्ञानुसार उनके प्रथम पट्टशिष्य आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज से आर्यिका दीक्षा ग्रहण की और ‘‘ज्ञानमती’’ यह नाम प्राप्त किया। अत: ऐसी पूज्य माताजी के द्वारा गुरु गुणानुवाद का यह आदर्श उदाहरण हम सबके मध्य है, जब उन्होंने आचार्य महाराज की ‘‘आचार्य शताब्दी वर्ष’’ को मनाने के लिए सभी को प्रेरित किया है।