वन्दूं श्री जिन मल्लिप्रभु , वीतराग सुखकार |
काममल्ल को जीतकर , पद पाया अविकार ||१||
उन्निसवें तीर्थेश के, पद वंदन शत बार |
चालीसा पढकर लहूँ , स्वात्मधाम सुखकार ||२||
मल्लिप्रभु यम मल्ल विजेता , मोक्षमार्ग के बन गए नेता ||१||
आत्मा में जब रमण कर लिया , शिवलक्ष्मी का वरण कर लिया ||२||
चैत्र सुदी एकम शुभ तिथि में ,गर्भकल्याणक सुरगण करते ||३||
मगशिर सुदि ग्यारस में प्रभु का,जन्म हुआ तब त्रिभुवन हरषा ||४||
इन्द्र शची संग हर्ष मनाता, मेरु शिखर अभिषेक रचाता ||५||
देव-देवियाँ प्रभु गुण गाते , प्रभुवर जन-जन के मन भाते ||६||
मिथिला नगरी धन्य हो गई , कुम्भराज पितु मात प्रजावति ||७||
बालपने से यौवन आया, फिर भी ब्याह नहीं रचवाया ||८||
जातिस्मरण हुआ जब प्रभु को, दीक्षा हेतु चले तब वन को ||९||
देव जयंता पालकि लाए , जय जय करते स्तुति गाएं ||१०||
स्वयं प्रभू ने दीक्षा ली थी , मगशिर शुक्ला एकम् तिथि थी ||११||
बाल ब्रम्हचारी पद पाया , आत्मज्ञान में मन को रमाया ||१२||
घोर तपश्चर्या थे करते , केवलज्ञान प्रगट हुआ उनके ||१३||
चार घातिया कर्म विनाशे , लोकालोक सभी परकाशे ||१४||
समवसरण की दिव्य सभा थी, ऊंकारमय ध्वनी खिरी थी ||१५||
जिन भव्यों ने पान किया था , आत्मा का उत्थान किया था ||१६||
बीस हजार हाथ ऊपर था , समवसरण वह बना अधर था ||१७||
उसमें ही प्रभु अधर विराजे , भव्यों को हितमार्ग बताते ||१८||
आयु रही जब एक मास तब , पहुंचे गिरि सम्मेदशिखर पर ||१९||
योग निरोधा कर्म नशाया, तत्क्षण सिद्धशिला को पाया ||२०||
वीतराग सर्वज्ञ कहाए , इन्द्र मोक्षकल्याण मनाएं ||२१||
चिन्ह कलश से सब जन जानें , स्वर्ण वर्णयुत आभा मानें ||२२||
जय जय जय जिनदेव हमारे , स्वामी हमको भव से तारें ||२३||
अब मेरे भी कष्ट निवारो , मुझको भी भवदधि से तारो ||२४||
सुना बहुत लाखों को तारा , कितनों को भव पार उतारा ||२५||
इसी हेतु तव शरणा आया , दुखों से मन बहु अकुलाया ||२६||
शारीरिक, मानस, आगंतुक और आर्थिक कष्ट बहुत हैं ||२७||
विह्वल है संसारी प्राणी, सुख खोजे बनता अज्ञानी ||२८||
किन्तु भक्ति जो तेरी करता , इन सब दुखों को है हरता ||२९||
जो भवि तुमको शीश नवावें,शिरोरोग आदिक नाश जावें ||३०||
निरखें,वाणि सुनें,स्तुति से,नेत्र कर्ण मुख रोग विनशते ||३१||
ध्यान करे जो नित्य तुम्हारा , हृदय उदर व्याधी को टारा ||३२||
करते जो पंचांग प्रणाम , नीरोगी अरु हों निष्काम ||३३||
व्यथा मानसिक सब ही नशती ,आर्थिक संकट से भी मुक्ती ||३४||
तव भक्ती सब कार्य करेगी , कौन सी वस्तु जिसे नहिं देगी ||३५||
व्यथा मेट दो अर्ज किया है , मल्लिप्रभु तुम्हें नमन किया है ||३६||
हे बुध ग्रह के कष्टनिवारक , तुम ही तरण और हो तारक ||३७||
इस ग्रह की सब पीड़ा हर लो , पूर्ण सुखी मुझको तुम कर दो ||३८||
स्वामी तुम बिन कौन खिवैया , बीच भंवर में फंसी है नैया ||३९||
एक यही अरदास हमारी , जीवन में भर दो उजियारी ||४०||
प्रभु मल्लिनाथ का चालीसा , जो चालीस दिन तक पढते हैं |
विधिवत जाप्यानुष्ठान करें ,बुधग्रह की बाधा हरते हैं ||
लौकिक वैभव के साथ ‘इंदु’ आध्यात्मिक वैभव मिल जाता |
अंतर में ज्ञान उदित होता, संसार जलधि से तिर जाता ||१||