‘‘जिस घर जाये स्वर्ग बना दे, दोनों कुल की लाज निभा दे
यही बाबुलजी देंगे दुआ, कि रानी बेटी राज करेगी।’’
बेटी की बिदाई के वक्त फिल्माया गया यह गीत क्या अपने शब्दों पर खरा उतरता है, क्या आज के युग में यह संभव है। क्या वर्षों से चली आ रही है मान्यताओं को इतनी आसानी से परिवर्तित किया जा सकता है। क्या बदलते सामाजिक वातावरण में यह बात सत्य हो सकती है कि पराये घर की आई हुई बेटी आपके घर में राज कर सकेगी? ऐसे अनेकानेक प्रश्न है जो आज समाज के हर व्यक्ति को व्यथित किये हुए है। यह सत्य है कि सामाजिक समीकरण बदले हैं जिनमे आज बहू—बेटियों पर वे प्रतिबंध नहीं है जिनके कारण उन्हें घुट—घुटकर जीना पड़ता था। आज बहू—बेटियां बेटों के समकक्ष कहें या उससे भी अधिक शिक्षित है, आत्म—निर्भर है, उनकी प्रगतिशील विचारधारा किसी नियम के अंतर्गत बाध्य नहीं हैं । पर्दा प्रथा हट गई है आज परिवारों में सास—ससुर और बहू के मध्य प्रत्यक्ष वार्तालाप संभव है, परिवार के अह्म पैâसलों में उनके निर्णय महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। इतना ही नहीं अपनी योग्यता के बल पर राष्ट्रपति , प्रधानमंत्री आदि महत्वपूर्ण पदों को सुशोभित करने वाली इन बहू—बेटियों ने अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी ख्याति प्राप्त कर अपने आप को प्रतिष्ठित किया है। फिर एक प्रश्न सहज ही उठता है कि हमारे धारावाहिक अपनी कहानी के माध्यम से नारी का कौन सा स्वरूप प्रस्तुत करना चाहते है ? महिलाओं का सर्वाधिक लोकप्रिय माने जाने वाले धारावाहिक बालिका वधू को देखें तो सरपंच बिटिया बनकर लोगों के दु:ख दर्द दूर करने की भावना से अपने कत्र्तव्य पथ पर चलने वाली आंनदी को बार—बार विरोध का सामना क्यों करना पड़ रहा है ? अपनी दादी सा द्वारा पूर्व में दी गई प्रताड़ना, शिक्षा की अभिलाषा में तड़फना, पति द्वारा उपेक्षित होना, समाज द्वारा शंकित नजरों से देखा जाना आदि कई सारी घटनाऐं हैं जो ग्रामीण इलाकों में बसे परिवारों की नारी के प्रति ओछी मानसिकता के परिचायक हैं। जबकि आनंदी ने अपने आचरण से हिन्दू—संस्कृति व पारिवारिक मानदण्ड़ों को जीवंत रखा है, फिर त्याग और संयम की प्रतिमूर्ति नारी की आंखों में अश्रुधार क्यों है ? वहीं शिक्षित गौरी के चरित्र के रूप में एक विद्रोही, ईष्र्यालु नारी की छवि प्रस्तुत कर आज की शिक्षा और विशेषकर नारी—शिक्षा पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। हम एक दूसरा धारावाहिक देखें दीया और बाती हम की नायिका पढ़ी लिखी, समझदार, शांत, सुशील एवं पारिवारिक दायित्वों का भलीभांति निर्वाह करने वाली बताई है, जिसे परिवार के सभी सदस्यों प्यार व सम्मान प्राप्त था किन्तु जैसे ही परिवार के सदस्यों को ज्ञात होता है कि उनकी बहू ७वीं पास नहीं अपितु १४वीं क्लास में राजस्थान में तृतीय स्थान पर आई है वैसे ही उस बहू के प्रति गर्व होने अथवा बहू को प्यार भरे आशीर्वाद देने की अपेक्षा पूरा परिवार उसके विरोध में इस तरह खड़ा हो जाता है मानों उसने कोई भयंकर अपराध किया हो। यह सत्य है कि ये धारावाहिक समाज का स्पष्ट आईना नहीं है परंतु यह भी सत्य है कि ये समाज को दिग्भ्रिमित कर रहे हैं।शिक्षा का प्रभाव कहें या धारावाहिकों के द्वारा परोसी गई विकृति, आज की बेटियों में बढ़ते अहम् भाव ने , नारी स्वतंत्रता का अनुचित उपयोग करना प्रारंभ कर दिया है। स्वयं वर चयन की छूट का गलत फायदा उठाकर विजातीय विवाह स्थापित किये जा रहे हैं। विवाह पूर्व प्रेम संबंध तो सामान्य बात है विवाहेत्तर संबंध स्थापित होने के केस भी बढ़ते जा रहे हैं । तलाकों के केसों में होने वाली वृद्धि के आंकडें हमें यह सोचने को मजबूर कर रहे हैं कि हमारी आने वाली पीढ़ी में जैनत्व के संस्कार कैसे आयेंगें। हम विषय केन्द्र बिंदु पर आते हैं जिसमें यह बताया गया है कि यदि संस्कारवान कन्या है तो वह जिस घर में ब्याह कर जाती है उस घर को स्वर्ग बना देती है और अपने व्यवहार से दोनों कुलों की अर्थात् पीहर तथा ससुराल दोनो का नाम रोशन करती हैं। जब तक वह पिता के घर में है अपनी मां अथवा दादी के द्वारा दी गई संस्कारों की छुट्टी से बड़ो को आदर देने वाली एवं छोटों को प्यार देने वाली होती है। आज्ञाकारी, साहसी एवं संयमी कन्या ही ससुराल में जाकर अपने सास—ससुर का आदर कर सकती है अपने पति की सहचरी बनकर उसके हर कदम पर उसका साथ देती है। चाहे सुख हो या दु:ख हो वह अक्षरा (ये रिश्ता क्या कहलाता है।) के समान अपने ससुराल वालों को साथ और पति को हिम्मत बांधने वाली होती है। आवश्यकता पढ़ने पर साहस का परिचय देकर परिवार का गौरव बढ़ाती है। और इस तरह वह दोनों कुल की लाज निभाती है। बदलती हुई परिस्थितियों में, भौतिकतावादी संस्कृति के प्रति आकर्षण बढा है जिससे धर्म के स्थान पर धन का महत्व बढ़ा है इतना ही नहीं स्वतंत्रता के मायने बदले हैं तथा उच्छृंखलता के दृश्य समाज को शर्मिदा कर रहे हैं। पाश्चात्य सभ्यता के बढ़ते प्रभाव ने नारी सुलभ शालीनता को कठघरे में खड़ा कर दिया है। अनैतिकता के परिदृष्यों से समाज का विकृत स्वरूप सामने आ रहा है कहने का तात्पर्य यह कि जिस मर्यादित, सुसंस्कृत समाज की हमारे पूर्वजों ने कल्पना करके रीति नीति निर्धारण कर सामाजिक मानदण्ड स्थापित किये थे आज उन मानदण्डों की उपेक्षा ही नहीं बल्कि उन्हें रूढ़िवादिता कहकर नकारा जाने लगा है। परिवारों में बहू—बेटियों के बढ़ते अहंकार के चलते पारिवारिक प्रतिमान टूटते जा रहे हैं, स्वार्थ परता की भावना युवा पीढ़ी के हृदय में स्थान बनाने लगी है इस कारण उनकी नजरों में परिवार का महत्व घटने लगा है। बुजुर्गों की स्थिति दयनीय हो रही है। हमारा दायित्व है कि हम इस युवा पीढ़ी को उच्च शिक्षा के साथ मर्यादा और संस्कार का पाठ पढ़ायें परिवार, धर्म तथा जाति का महत्व समझायें, आज की बेटी कल का भविष्य है और यदि हमें अपना भविष्य सुरक्षित करना है तो अपनी बेटियों को दहेज के रूप में संस्कारों की पोटली थमाना होगी। तभी निम्न पंक्तियां सार्थक हो सकेगी। जिस घर से बंधे हैं भाग तेरे, उस घर में सदा तेरा राज रहें होठों पे हंसी की धूप खिले, माथे पे खुशी का ताज रहे। कभी जिसकी ज्योति न हो फीकी, तुझे ऐसा रूप शृ्रंगार मिले।