बोए पेड़ बबूल का, आम कहाँ से होय
१.१ कर्म करणीय कैसे ?…
हम सभी अपने मौजूदा जीवन को किस तरह जी रहे हैं और ये जो संसार में विविधताएँ दिखाई पड़ रही हैं इन सब की जिम्मेदारी किसकी है, इस बात पर खूब विचार हुआ है और अन्तत: हम इस निर्णय पर पहुँचे हैं कि जो जिस तरह जी रहा है, उसकी जिम्मेदारी उसकी खुद की है, किसी और की जिम्मेदारी इसमें नहीं है-
‘‘कर्म प्रधान विश्व करि राखा, जो जस करहि सो तस फल चाखा।’’
ये सारा संसार कर्मप्रधान है, जो यहाँ जैसा कर्म करता है, वो वैसा फल पाता है या वैसा फल उसे चखना पड़ता है। जो हम विचार करते हैं, सो वो हमारे मन का कर्म है। जो हम बोलते हैं, वो हमारी वाणी का कर्म है। जो हम क्रिया करते हैं या चेष्टा करते हैं, वो हमारे शरीर का कर्म है और इतना ही नहीं, जो हम करते हैं वह तो कर्म है ही। जो हम भोगते हैं, वह भी कर्म है और जो हमारे साथ जुड़ जाता है, संचित हो जाता है वह भी कर्म है। इस तरह यह सारा संसार हमारे अपने किये हुए कर्मों से हम स्वयं निर्मित करते हैं और यदि हम अपने इस संसार को बढ़ाना चाहें, तो इन दोनों की जिम्मेदारी हमारी अपनी है और यह जिम्मेदारी हर जीव की अपनी व्यक्तिगत है। हर जीव की अपनी स्वतंत्र सत्ता है एक-दूसरे से हम प्रभावित होकर मन से विचार करते हैं, वाणी से अपने विचारों को व्यक्त करते हैं, शरीर से चेष्टा या क्रिया करते हैं, इस विचार या कही गई बात को पूरा करने का प्रयत्न करते हैं और इस तरह हमारा संसार किन्हीं क्षणों में बढ़ता भी है और किन्हीं क्षणों में हमारा संसार घट भी जाता है तो इसीलिए जो संसार की विविधता है वो हमारी अपनी वाणी, हमारे अपने मन और हमारे अपने शरीर से होने वाली क्रियाओं पर निर्धारित है बहुत हद तक।
हम दोनों को समझें, कुछ क्रियावान् कर्म होते हैं जो हम करते हैं और उनका फल हमें तुरन्त देखने में आता है। हम सुबह से शाम तक जो भी कर्म करते हैं, उन कर्मों का फल भी हमें हमारे सामने ही देखने को मिल जाता है। कोई सुबह से नौकरी पर जाता है और एक दिन में जितना काम करता है, शाम को उतने पैसे, उतनी तनख्वाह लेकर लौटता है। हम यहाँ पर किसी को गाली देते हैं वह हमें तमाचा मार देता है। हमारा गाली देने का कर्म हमें किसी न किसी रूप में फल देकर के चला जाता है, यह क्रियावान् कर्म है। ये हम रोज कर रहे हैं और इसका फल भी लगे हाथ चखने में आ जाता है। चाहे वह शुभ हो या कि अशुभ हो। लेकिन इतना ही नहीं है अपितु इससे भी कुछ अधिक है, कुछ ऐसे क्रियावान् कर्म हैं जिनका फल हमें तुरन्त नहीं मिलता है, देर-सबेर मिलता है। वे सब कर्म संचित कहलाते हैं। कुछ कर्मों का फल हमें रोज मिलता है, कुछ का फल तो हमें बाद में मिलता है। कर्म हमारे वर्तमान के भी हैं, कर्म हमारे साथ अतीत के भी हैं। कर्म हमारे साथ भविष्य में क्या व्यवहार करेंगे-यह भी वर्तमान में ही हम निर्धारित कर लेते हैं।….. .तो वो जो संचित कर्म हैं, वो क्या चीज हैं, वो जो हमें बाद में फल देते हैं… वो सब संचित कहलाते हैं; जैसे कि गेहूँ बोयें, एक सौ बीस दिन के बाद फसल आएगी। बाजरा बोएँगे, ९० दिन के बाद फसल आएगी और अगर आम बोया है, तो ५ वर्ष के बाद फल लगेंगे। हमने अपने माता-पिता के साथ खोटा व्यवहार किया है और सम्भव है कि उसी जीवन में हमारे बच्चे हमारे साथ वही व्यवहार करें, जैसा हमने अपने माता-पिता के साथ किया। तुरन्त देखने में नहीं आता, पर उसके ऑफ्टर इफेक्ट्स हमारे सामने देखने में आते हैं, बीज आज बोते हैं, फल बहुत देर के बाद देखने में आता है। एक बेटा बहुत छोटा सा है और वह अपने इकट्ठे किये हुए सामान में चाय के कुल्हड़, मिट्टी के और भी बर्तन आदि सब इकट्ठे करता है। पिता एक दिन उससे पूछते हैं कि तुम यह किसलिए इकट्ठे कर रहे हो ?…. .वह कहता है कि जैसे तुम दादा-दादी को इन मिट्टी के बर्तनों में खिलाते हो वैसे ही जब आप बूढ़े हो जाओगे तब मैं आपको खिलाऊँगा, इसीलिए मैं जोड़कर रख रहा हूँ और होता यह ही है, हम आज जो करते हैं, उसका तुरन्त फल मिलता-दिखता है, लेकिन उतना ही पूरा नहीं है। क्रियावान् के साथ-साथ कुछ और है जो कि संचित होता जाता है, जिसका फल हमें बाद में भोगना पड़ता है। इन तीन स्टेजों में कर्म की प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। यह भी साथ में है कि यहाँ वर्तमान में जो संचित हमने किया है, उसमें से कितना भोगना है ?….. हमारे पास पहले से जो संचित है, उसमें से कितना भोगना है ?…. यह कहलाता है प्रारब्ध। हमारे अपने संचित किये हुए कर्मों में से कितने पककर के अपना फल देंगे और जिनका फल हमें भोगना पड़ेगा। वो ठीक ऐसा ही है कि हमने आम का पेड़ भी लगाया है और उधर बाजरा भी बोया है, गेहूँ भी बोया है, लेकिन सब अपने-अपने टाइम से आएँगे। मेरे पास कितना समय है-मेरी अपनी लाइफ कितनी है ? उस लाइफ में जो-जो आते चले जाऐंगे, वो अपना फल देंगे; कुछ शेष रह जायेंगे, जो आगे मेरे साथ ट्रैप होकर के जाएँगे और मुझे आगे भी अपना फल देंगे। फल दिये बिना कर्म जाता नहीं है, किसी न किसी रूप में देगा, पर अपना फल देगा। ये हमारा पुरुषार्थ है, जिस पर हम बाद में विचार करेंगे कि हमें उस कर्म के फल के साथ कैसा बिहेवियर (बर्ताव) करना है।…. .अभी सिर्फ हम यह समझें कि कर्म हमारे साथ बँधते कैसे हैं ?…. .ये आते कहाँ से हैं और इनको बुलाता कौन है और ये हमें फल चखाने की सामर्थ्य कहाँ से पाते हैं ?….. कौन इनमें हमें फल चखने की सामर्थ्य डालता है और ये कितनी देर तक हमारे साथ रहते हैं ?….यह कौन निर्धारित करता है ?……ये प्रक्रिया हमें थोड़ी सी विचार करने की है। होता इतना ऑटोमेटिकली (अपने आप) है कि हम अपनी थोड़ी सी बुद्धि से इन सबके बारे में सोच नहीं सकते, पर एक-एक प्रक्रिया अगर हमारे सामने रहे कि हाँ, इस तरह से होता है, बुलाता कौन है इन कर्मों को, ये आते कहाँ से हैं, ये कहीं और से नहीं आते, हमारे कर्मों से हम इन्हें बुलाते हैं। हम जो कुछ भी सुबह से शाम तक मन, वाणी और शरीर के द्वारा करते हैं वह एक तरह का बुलावा है इन कार्यों के लिए और निरन्तर मन, वाणी और शरीर से होने वाले कर्म हमारे साथ संस्कार की तरह से जुड़ते चले जाते हैं…..फिर उसके बाद हम मजबूर हो जाते हैं, अगर किसी व्यक्ति को गाली देकर के बात करने की आदत बन जाये, तो फिर वह प्यार से बात नहीं कर पाएगा। वो जब भी बात करेगा, एक-आधी उसके मुँह से गाली निकल ही जाएगी। क्योंकि उसके भीतर वैसा संस्कार बन गया है। तो इन कर्मों को कोई बुलाता नहीं है, इन कर्मों का संस्कार हमने बहुत-बहुत पुराना अपने ऊपर डाल रखा है। कहीं पानी बह जाए और फिर सूख जाये और अगली बार पानी गिरे तो वो जो एक लाइन बनी रहती है, वहीं से बहता है। ठीक ऐसा ही हमारे साथ है। हम निरन्तर अपने मन, वाणी और शरीर से कर्मों के संस्कारों को आमत्रंण देते हैं और फिर इतना ही नहीं हमारे भीतर उठने वाले काम, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि ये जितने भी भाव हैं, चाहे वे शुभ हों या अशुभ हों, चाहे वे तीव्र-मंद हों, चाहे वे जान-बूझकर किये गये हों या अज्ञानता से हो गये हों, किसी भी तरह के भाव हों, किसी माध्यम से हुए हों लेकिन हमारे भीतर उठने वाले भाव ‘‘कैसा ये कर्म अपना फल चखाएगा’’ इस बात को निर्धारित करते हैं। एक पण्डितजी गाँव में गये वचनिका के लिए। कोई नहीं था मंदिर में, जब वे पहुँचे। माली से कहा कि भई! जाओ, दो-चार लोगों को बुला लाओ; कहना कि भई! पण्डितजी आ गये। अब माली क्या समझे!… माली गया और ४-५ लोगों को बुलाकर ले आया, वो ४-५ लोग जैसे ही आये तो पहले वाले से पूछा पण्डित जी ने-आप कैसे आए ?….. तो उसने कहा कि ये माली हमको बुला लाया, हम तो रिक्शा चलाते हैं।
अरे! नहीं, आपको नहीं बुलाया, आप तो जाइये। दूसरे वाले व्यक्ति को देखा, वह जरा युवा था। पण्डितजी को ध्यान आ गया कि भई! शाम को जाना है गाड़ी से तो रिजर्वेशन करवा लें, यह युवा ठीक है, उसने कहा कि सुनो, मेरी टिकट बनवा दो, ऐसा कहकर उसको पैसे दिये। पहले वाले को यह कहकर कि तुमसे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है, तुरन्त वापस लौटा दिया, बुला तो लिया था ५-७ लोगों को।….लेकिन उसमें से किसको कितनी देर रखना है, ये कौन निर्धारित करता है ?…… हमारे अपने परिणाम, उससे मेरा कोई ज्यादा सरोकार नहीं है, जैसे रिक्शे वाले से नहीं था तो कहा कि जाओ भैया; जिनसे थोड़ा सरोकार है, उनको टिकट लेने भेज दिया। बाकी जो तीन-चार बचे, उनसे कहा कि सुनो। चलो, थोड़ी देर अपन बैठकर धर्म चर्चा कर लेते हैं, अब आये हैं तो घण्टे-भर उनसे धर्म-चर्चा करी, उतनी देर उन ४-५ को रोका और उसमें से जब विदा लेने लगे, तो एक ने कहा कि पण्डित जी! आपकी आवाज से तो लग रहा है कि आप अमुक जगह से आये हैं। हाँ भैया!…. तो हमारी भी उधर रिश्तेदारी है, अरे! तो बहुत अच्छा है। बैठो-आओ, अपन बात करें। अब जो वचनिका सुनने वाले थे वो वचनिका सुनकर चले गये, उसमें से एक परिचित निकल आये तो उनके साथ और घण्टे भर हो गया और फिर बाद में परिचय इतना गहरा निकला कि पण्डितजी! अब आपको शाम के भोजन के बिना नहीं जाने देंगे। हमारे यहाँ चलो आप, वो उनको अपने घर ले गये। बताइयेगा, किसने निर्धारित किया यह कि कौन कितनी देर साथ रहेगा और कौन-कौन आएगा। हमने ही बुलाया है और हम ही जितनी देर रखना चाहें रख सकते हैं, ये हमारे ऊपर निर्भर है। कर्म भी ऐसे ही हैं, हमारे मन, वाणी और शरीर से इनको हम आमंत्रण देते हैं कि आओ, और फिर हमारे अपने परिणाम जैसे होते हैं, उसके अनुसार ये हमें फल चखाते हैं, हमारा जिसके साथ जैसा व्यवहार होता है उससे हमें वैसा ही तो मिलता है। वैसा ही फल हमें चखने में आता है। इस तरह यह कर्म की प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है क्योंकि सोते-जागते, खाते-पीते, उठते-बैठते, आते-जाते हर स्थिति में, प्राणी मन, वचन और कर्म की कोई ना कोई क्रिया करता ही रहता है। सोते समय उसके मन और शरीर की सक्रियता बनी रहती है और इसलिए निरन्तर उसके साथ ये कर्म चलते ही रहते हैं। एक क्षण के लिए भी, कोई भी जीव कर्म से मुक्त नहीं हो पाता, चाहे वो करने वाले कर्म हों, चाहे वो भोगने वाले कर्म हों, चाहे वो संचित होने वाले कर्म हों, एक क्षण के लिए भी यह प्रक्रिया रुकती नहीं है। जैसे कि किसी की दुकान बहुत अच्छी चलती हो और घर आकर माँ के पूछने पर कहे कि आज तो दुकान बहुत चली, ग्राहकों में ही उलझे रहे, तब माँ कहती है कि क्या एक ही ग्राहक में उलझे रहे ?….कहता है कि नहीं-नहीं, ग्राहकों का ताँता लगा रहा। एक ही कर्म का फल भोगते रहते हैं हम, ऐसा नहीं है; एक ही कर्म करते रहते हैं, ऐसा नहीं है, वरन् उसका ताँता लगा रहता है। एक के बाद दूसरा, दूसरे के बाद तीसरा, कहने में तो यही आता है कि हम कर्म करते रहें, चाहे वो भले हों चाहे वो बुरे हों, चाहे वो अच्छे भावों से किये हों, चाहे वो तीव्रता से किये हों, चाहे मन्दता से किये हों, चाहे जान-बूझकर किये हों, अज्ञानतावश किये हों, निरन्तर किसी न किसी प्रकार से कर्मों का ताँता लगा ही रहता है। निरन्तरता बनी ही रहती है और ऐसा नहीं है कि आज ही हमने शुरू किया है। हमें याद भी नहीं है कि जब से हमारा जीवन है तब से यह मन, वाणी और शरीर तीनों की सक्रियता बनी हुई है। जब तक ये मन, वाणी और शरीर की सक्रियता है तब तक मेरे कर्म आते रहेंगे और जब तक मैं कोई ना कोई शुभ-अशुभ भाव करता रहूँगा, काम, क्रोध, मान, माया और लोभ के जो विकारी परिणाम मेरे भीतर उठते हैं, वे जब तक चलते रहेंगे तब तक ये कर्म की प्रक्रिया निरन्तर चलती रहेगी। कर्म की प्रक्रिया इस तरह की है।
इस कर्म की प्रक्रिया में भागीदारी किसकी है, अब इस पर जरा सा विचार करें, तो शायद बात और स्पष्ट हो। ताकि हम जिनकी साझेदारी है वो खत्म कर देवें, तब सम्भव है कि इस कर्म बंध की प्रक्रिया से हम मुक्ति पा जावें क्योंकि ये प्रक्रिया निरन्तर चलने वाली है, क्योंकि कोई भी क्षण ऐसा नहीं है जिसमें हम कर्म से मुक्त हों। यह सब चीजें हम बाद में विचार करेंगे कि भवितव्य क्या है और हमारा वर्तमान का पुरुषार्थ क्या है ? ……… कुछ प्रश्न थे पहले कि भाग्य कितना और पुरुषार्थ कितना…… और भी कुछ प्रश्न थे, इन पर भी विचार करना है। परन्तु सर्वप्रथम हमें कर्म की साझेदारी में कौन-कौन हमारे साथ है, इस पर थोड़ा—सा विचार करना है और इस कर्मबंध की प्रक्रिया को समझना है। उसकी साझेदारी को समझने के बाद अपने आप हमें यह बात समझ में आ जाएगी कि कितना भाग्य से और कितना पुरुषार्थ से तथा भाग्य को और पुरुषार्थ को कौन निर्धारित करता है ?……. तो क्यों ना हम ऐसा करें कि मेरा जो वर्तमान का जीवन है, मुझे उसे ही बहुत अच्छे ढंग से जीना है। अगर इतना भी कर लें कि बाकी जो बहुत-बहुत कठिन विचार हैं कि ईश्वर क्या है ? ईश्वर कहाँ रहता है और ईश्वर को बनाया किसने है ?… या क्या ईश्वर ने इस सृष्टि को बनाया है ? इन सारी बातों को यदि हम सिर्फ विचार तक ही रखें और अपने लक्ष्य को ध्यान में रखकर अपने वर्तमान को अगर सुधारें, तो क्या यह एक सुविचार नहीं हो सकता। यह भी एक विचार है और हम इतने दिनों से वही करते आ रहे हैं। हम बाकी सब भूल कर सारे प्रपंच को भुला कर सिर्फ एक ही बात तय कर लें कि कल मैंने जैसा जीवन जिया था, कल मैंने जैसी वाणी बोली थी, कल मैंने जैसे विचार किये थे, कल मैंने शरीर से जैसी चेष्टा की थी, जिनसे कि मैं निरन्तर मेरे कर्मों का संसार बढ़ाता हूँ, मैं उसको और बेहतर ढंग से करूँ। कर्मों को बेहतर ढंग से करने का मतलब है-कर्मों से मुक्त होना और यह कोई बहुत बड़ी चीज नहीं है। हम जितने बेहतर ढंग से कर्म करेंगे, उतना ही कर्म से छूट जाएँगे क्योंकि जो व्यक्ति यह ढंग सीख लेता है, वह व्यक्ति कर्मों से पार हो जाता है। अब हमें यह देखना है इसमें भागीदारी किस-किसकी है। मेरे मन, वाणी, शरीर और मेरे अपने भाव जो उनको रोकने में, उनको सामर्थ्य देने में सहभागी है। मेरे साथ कर्म जो बँध जाते हैं, जो बाद में फल देते हैं, उनको सामर्थ्य भी मैं ही देता हूँ। मेरे अपने परिणाम उनको सामर्थ्य देते हैं। तब देखें कि कौन-सी चीजें हैं ? तीन चीजें हैं-मेरी अपनी आसक्ति, मेरा अपना मोह, ये कर्मों के बंधन में पहला भागीदार है। इसमें मेरी परवशता है क्योंकि ये मोह आसक्ति का संस्कार बहुत पुराना चला आ रहा है, ये मेरे हाथ की चीज नहीं है। यह साझेदारी परवश है। दूसरी है मेरे अपने वर्तमान के पुरुषार्थ का निर्धारण, कर्म भला है या कि बुरा ?…. मेरे कर्मों के बंधन में इसकी भी साझेदारी है। मेरे वर्तमान पुरुषार्थ की भी साझेदारी है; वो भला भी हो सकता है और बुरा भी हो सकता है। यह निर्धारित हम करते हैं। यह मेरे स्व-वश है। हम सब मोह व आसक्ति में थोड़ा परवश हैं लेकिन वर्तमान का पुरुषार्थ, जो कि मेरे हाथ में हैं उसमें हम पर वश नहीं है। तीसरी बात इस कर्म बंध की प्रक्रिया के बारे में भ्रम, लापरवाही और अज्ञानता। ये तीसरा साझीदार है मेरे कर्म-बंध की प्रक्रिया में, ये भी मेरे हाथ में है। तीन में से दो मेरे हाथ में हैं। एक में जरा मैं परवश हूँ। ये तीन भागीदार हैं मेरे। इसमें से जिससे मैं परवश हूँ उस पर पहले विचार कर लूँ। हमारा मोह है, हमारी आसक्ति ही है जो हमारे ही है, जिससे कर्म बंध होता है। कर्म करने का ढंग, आज वर्तमान में अगर कोई यह कहे कि शांत बैठो तो उसको निठल्ला मानेंगे। क्या कुछ भी नहीं करते हो, कुछ करो, ‘ये जो कुछ करो’ वाली प्रक्रिया है, इस संसार के मोह की वजह से, वो मेरी अपनी परवशता जैसी हो गई है कि कुछ करो, अर्थात् अशुभ में लगे हो तो अशुभ में लगे रहो, शुभ में लगे हो तो शुभ में लगे रहो। हमें शुभ और अशुभ दोनों के बीच साम्य भाव रखकर जीना है,-यह बात ख्याल में ही नहीं आती। हमारा मोह हमें निरन्तर कर्म करने के लिए प्रेरित करता रहता है, हमारी आसक्ति हमें निरन्तर संसार के कर्म करने के लिए प्रेरित करती है। थोड़ी देर के लिए जब मोह शांत होता है तब संसार के कर्मों से ऐसा लगने लगता है कि अब बहुत हुआ, अन्यथा कई बार हम संसार के कार्य द्वेषवश छोड़ देते हैं, हमसे नहीं होता हम यह सब कहाँ तक करें, हम रागपूर्वक या द्वेषपूर्वक; दोनों स्थितियों में निरन्तर कर्म में संलग्न रहते हैं हमारा जो मोह है, वो हमारे इस कर्म के बंधन में सबसे बड़ा भागीदार है और हमारा वर्तमान का पुरुषार्थ तो है ही और हमारी अज्ञानता भी है। कर्म वैâसे कितनी जल्दी बँध जाते हैं, हम जानना ही नहीं चाहते। ये है हमारी लापरवाही, हमारी अज्ञानता। हम अगर थोड़ा सावधान हो जों, तो शायद इस प्रक्रिया में, थोड़ा सा परिवर्तन भी कर सकते हैं। सब कहते हैं कि मोह है क्या चीज ?….आचार्य भगवंतों ने उसका लक्षण बताया है कि अरहंत भगवान के प्रति अश्रद्धा होना और जीवों के प्रति करुणा का अभाव होना, यह मोह का लक्षण है। इससे हमें बचना चाहिए।
अरहंत भगवान् के प्रति श्रद्धा नहीं होना। अरहंत भगवान अर्थात् जो अपनी विशुद्ध अवस्था को प्राप्त कर चुके हैं या जो राग-द्वेष के संसार के ऊपर उठ चुके हैं, जो वीतरागी हैं, अर्थात् उस वीतरागता के प्रति रुचि नहीं होना, संसार के प्रपंच में रुचि होना, उसका नाम है मोह। बहुत सीधी सी चीज है कि सुबह से शाम तक राग-द्वेष में रुचि है और वीतरागता में रुचि नहीं है, यही तो मोह है और यही हमारी कर्म बंध की प्रक्रिया का सबसे बड़ा भागीदार है, सबसे बड़ा पार्टनर है और दूसरी चीज हमारी अपनी सुख-सुविधा के साधनों को जुटाने के लिए हमारे अन्दर की दया और करुणा का अभाव। ये जो दया और करुणा का अभाव है वो भी मोह का लक्षण है और हमारे अपने इस जीवन को सुख-सुविधा जुटाने की जो आसक्ति है, वो आसक्ति हमारे भीतर की दया और करुणा को गायब करती है, अतएव दया और करुणा का अभाव होना भी मोह है।..
पुन: मैं क्या करूँ ?…… .मैं इस मोह से बचने के लिए अरहंत भगवान के प्रति या वीतरागता के प्रति अपनी श्रद्धा को जाग्रत कर अपनी रुचि को बढ़ाऊँ, अपना रुझान, अपना झुकाव उस तरफ करूँ। मैं उन चीजों से दूर रहूँ जिनमें कि राग-द्वेष के अवसर ज्यादा है। मैं उन चीजों के सम्पर्क में ज्यादा रहूँ जिससे राग-द्वेष घटता हो। जिसमें वीतरागता की तरफ मेरे कदम बढ़ते हों और मैं उन प्रक्रियाओं को दिन-भर में करूँ ? कि जिनसे मेरे भीतर दया और करुणा का भाव बढ़ता हो। मैं दया और करुणा दोनों को बनाये रखूँ, तब हो सकता है कि मैं अपने मोह को जीत सकूँ और इस कर्मबंध की प्रक्रिया को कम कर सकूँ। इसके लिए छोटा सा उदाहरण देखें। हमारे भीतर दया और करुणा का किस तरह अभाव हो गया है, किसी ने एक व्यंग्य किया है। यह उदाहरण है कि मेरी अपनी आसिक्त क्या है ?… .और इस आसक्ति के चलते मेरे अन्दर की जो वीतरागता के प्रति रुचि और मेरे अन्दर की जो करुणा का भाव है, जो कि मेरा अपना स्वभाव है, वो कैसे तिरोहित हो गया है, कैसे हट गया है!
गाँव में एक नया भिखारी आया। वह नया था, उसे क्या मालूम कि कौन सी दुकान के सामने जाने से मिलेगा और कौन सी दुकान पर जाने पर नहीं मिलेगा। बाकी जो वहाँ उस गाँव के या शहर के भिखारी थे उनको तो मालूम था कि इस दुकान पर जोंगे, एक बार कहेंगे, एक बार में मिल जाएगा और इस दुकान पर जाना ही नहीं क्योंकि कितना ही माथा पटक लो, यहाँ नहीं मिलने वाला।.. वह नया भिखारी बेचारा जानता नहीं था, अत: वो ऐसी दुकान पर पहुँच गया, जहाँ से आज तक किसी को कुछ नहीं मिला। दूसरे भिखारी दूर खड़े मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे कि नया-नया है, उसको मालूम नहीं है, बेकार परेशान होगा उस दुकान पर जाकर। अब उसको क्या मालूम.. .लेकिन उस दुकान का जो सेठ था, सब भिखारियों को मालूम था कि वो अपनी धन-सम्पदा में अत्यन्त आसक्त है, खुद भी ठीक से नहीं खाता, दूसरों को तो देने का सवाल ही नहीं है। अब ऐसे व्यक्ति के बारे में लगाव बहुत था उन सबको कि देखें भिखारी को। ‘‘क्यों ? क्या चाहिए?” ‘‘कुछ मिल जाये, मालिक!” ‘‘लगता है कि नये आये हो।” ‘‘आज ही आया हूँ भगवन्! इस शहर में ‘‘अच्छा”, अब सेठजी को भी जरा मजा आया, पता नहीं कौन से मूड में थे, उनका मन भी जरा मजा लेने का हुआ; बोले-‘‘सुनो, मेरी दोनों आँखें देख रहे हो, क्या तुम बता सकते हो कि मैंने इनमें से कौन-सी नकली लगवाई है और कौन-सी असली है ?” भिखारी जरा असमंजस में पड़ गया, लेकिन भिखारी ही था, उसने दुनिया देखी थी, लोगों की आँखें देखकर जानता था, भले ही नया था परन्तु वो, मुश्किल से ३० सेकण्ड लगे होंगे और कहा कि सेठ जी दाहिनी वाली असली है, बाईं नकली। सेठजी दंग रह गये। सेठजी ने तो यह सोचा था कि यह बता नहीं पाएगा और मैं कुछ देऊँगा नहीं। अब तो देना भी पड़ेगा, क्योंकि कमिटमेंट कर चुके थ्ो कि तू अगर सही बताएगा तो कुछ दे दूँगा भिक्षा में; अब सेठ ने बड़ी जोर से हँसकर कहा कि तुम आज जीत गए, आज मेरा मन हो रहा है कि मैं तेरे को कुछ दूँ। सारे भिखारी खड़े हैं दूर, देख रहे हैं कि नए भिखारी को इससे कुछ मिल रहा है,… एक बात और-‘‘मैं तुझसे एक बार और पूछना चाहता हूँ बस वो बता दे, तो मान जाऊँगा।” ‘‘क्या सेठजी ?” ‘‘यही कि तूने पहचाना कैसे कि ये असली है और ये नकली है।” भिखारी बोला-‘‘इसमें क्या है, जिसमें थोड़ी करुणा झलक रही है, मैं समझ गया कि वही नकली है क्योंकि असली वाली में तो सम्भव ही नहीं है कि थोड़ी बहुत करुणा हो, वहाँ तो सिर्फ मोह ही दिखाई पड़ रहा है….आसक्ति ही दिखाई पड़ रही है, किन्तु जो नकली आँख है, उसमें थोड़ी करुणा दिखाई पड़ रही है।”.. .क्या यह उदाहरण इस बात की सूचना नहीं देता है कि मेरा मोह, मेरी अपनी करुणा को नष्ट कर देता है।…..मेरी अपनी जो वास्तविकता है, उससे मुझे विमुख कर देता है, राग-द्वेष में डाल देता है। मुझे वीतरागता से विमुख कर देता है, शायद इसीलिए आचार्यों ने लिखा है कि वीतरागता में रुचि होना। जहाँ धर्म की बात हो रही हो, जहाँ आत्मा के विकास की बात हो रही हो, वहाँ रुचि नहीं है पर जहाँ प्रपंच हो, वहाँ रुचि है। यही तो हमारा मोह है।… .और जहाँ प्राणी मात्र के प्रति करुणा होनी चाहिए, जहाँ क्षण भर को भी अपनी अन्तरात्मा दया का भाव लाती हो, उसी समय अपनी आसक्ति ये कहती है कि ‘ठहरो, ऐसे कहाँ तक दया करते रहोगे ?……… किस-किस पर करोगे?”-ऐसी मुझे सलाह देता है हमारा मोह।. .हमें इस प्रक्रिया में इन सबसे ज्यादा खतरनाक भागीदार पर विचार करना चाहिए, ताकि हम इस कर्मबंध की प्रक्रिया से बच सकें।……और दूसरे नम्बर पर हमारे अपने वर्तमान का पुरुषार्थ हमको भला करना है या बुरा करना है, ये हमारे ऊपर निर्भर है। इसमें किसी का कुछ भी नहीं है। ये बात जरूर है कि भले और बुरे की प्रेरणा हमारे भीतर जो संचित कर्म हैं, वे हमें देते हैं, लेकिन कितने भी संचित कर्म बुरे क्यों न हों, हमारी अन्तरात्मा की बात को दबा नहीं पाते हैं। चोरी करने वाले चोर की भी एक बार अन्तरात्मा की आवाज उसे चोरी करने से रोकती है, उसे भला करने की प्रेरणा देती है, इसीलिए हमें अपने वर्तमान का पुरुषार्थ कि भला करना है या बुरा करना है-इसकी च्वाइस हमारी अपनी है। इस पर हमारा पूरा अधिकार है इसीलिए इस बात पर विचार करना चाहिए कि हमें अपने जीवन में शुभ और अशुभ में से किसे चुनना है ?….जबकि हमारे सामने दो ही विकल्प हैं। शुद्ध तो हमारा लक्ष्य है.. .लेकिन अपने सामने विकल्प तो शुभ और अशुभ दो में से एक है, हमारे वर्तमान का पुरुषार्थ शुभ की तरफ होना चाहिए, अशुभ की तरफ नहीं होना चाहिए और तीसरी चीज जब ये कर्म बन्ध निरन्तर चलता रहता है, तब हम क्यों इतने लापरवाह हैं ?.. और जब हम ऐसे हैं तब यह साफ है कि हम इस कर्मबंध की प्रक्रिया को ठीक-ठाक समझना नहीं चाहता हैं ?
हमें समझ लेना चाहिए क्योंकि कर्मबन्ध की प्रक्रिया को समझ लेने से हम उसमें परिवर्तन कर सकते हैं इसलिए तीसरी भागीदारी भी अपने हाथ में हैं ?….. हम कर्मबंध की प्रक्रिया में अपना जितना ज्ञान बढ़ाएँ, उतनी अपने कर्मबंध की प्रक्रिया को बदलने की सुविधा हमें प्राप्त हो जाएगी। एक उदाहरण है, मंडावरा में एक पण्डितजी थे, पं. हीरालाल जी सिद्धान्तशास्त्री का बड़ा नाम था। करणानुयोग का बड़ा ज्ञान था उनको, कर्म सिद्धान्त बहुत अच्छी तरह जानते थे वे रोज वचनिका करते थे और समझाते थे कि देखो भैया! कर्म कैसे बँधते हैं, जैसे अपने परिणाम हों, तीव्र हो, मंद हों, जान-बूझकर अपन करेंगे और कोई-कोई चीजें ऐसी हैं जो स्वयं से अनजाने में हो जाती हैं। देखो, इन सबसे अलग-अलग कर्म बँधते हैं वे हमेशा ऐसा समझाते थे। उसमें एक गरीब व्यक्ति भी प्रतिदिन बैठता था। एक दिन वह चोरी करते पकड़ा गया। पंचायत बैठी कि भैया! तुमने चोरी क्यों की और चोरी भी ऐसी करी गैर बुद्धिमानी की, कि अपने ही पास सात घर दूर जहाँ वो रहता था। वहाँ से पाँच-सात घर दूर किसी व्यक्ति का मकान था। उनके यहाँ गायें बँधी थीं, सो उनको डालने का भूसा रखा था। वह उस भूसे का बोरा उठाकर ले गया और ऐसा बुद्धू कि उसमें जो छेद था, सो उसे भूसे से एक लाइन लाइन बनती गयी उसके घर तक। बेचारे ने चोरी भी करी तो ऐसी गैर बुद्धिमानी से करी कि वह वो पकड़ में भी आ गया और पकड़ में आने पर कह भी दिया कि चुरा तो हम ही लाये हैं, साथ ही सारी बात स्वीकार कर ली। लोग जानते थे कि यह रोज पण्डित जी की वचनिका में बैठता है। बात कुछ और है, आदमी चोर नहीं मालूम पड़ता है। क्या बात थी भैया!…आपने चोरी क्यों की ? तो उसने कहा- तीन दिन हो गये, न हमारे घर में किसी के पेट में और न ही हमारे पेट में भोजन गया, सो हमने तो सहन कर लिया पानी पीकर, लेकिन कल हमसे देखा नहीं गया। हमारा छोटा सा बेटा दूध के लिए जिद कर रहा था, हमारे पास रोटी का टुकड़ा भी नहीं है, पानी कब तक पिलायें उसको। उसके लिए दूध चाहिए था सो ये सवा रुपये का बिकेगा और उतने में दो तीन दिन के लिए इसके लायक दूध आ जाएगा। तब तक कोई और काम देख लूँगा, अत:एव मैंने सोचा कि और ज्यादा चोरी क्यों करना ?
पण्डित जी हमेशा बताते हैं कि अपने को ज्यादा तीव्र परिणामों से कर्म नहीं करना, मन्दता रखना, कषाएँ जितनी ज्यादा प्रबल होंगी, उतना तीव्र कर्म बँधेगा। मेरी इतनी ज्यादा लोलुपता नहीं थी, मेरी इतनी ज्यादा कषाय नहीं थी, मुझे तो सवा रुपया चाहिए था। ……. और भी सामान वहाँ रखा था। एक उनकी घड़ी उठा करके ले आते तो और ज्यादा की बिकती और वहीं सोने की अँगूठी भी रखी थी हम उसे उठा सकते थे, लेकिन हमने सोचा कि अपने को कीमती का क्या करना, कौन कोई अपने को ज्यादा जमा करके रखना है। सवा रुपये का ये ले चलो, इससे काम चल जाएगा। यह तो एक उदाहरण है। यह किस बात की सूचना दे रहा है। सिर्फ इस बात की कि मेरे अपने कर्म—बोध की अज्ञानता मेरे कर्मबंध को ज्यादा बढ़ा देती है। अगर हम कर्मबंध में सावधानी रखें, उसका ज्ञान रखें , तो शायद अपने इस कर्मबंधन की प्रक्रिया में अपने मनमुताबिक परिवर्तन कर सकते हैं। हम इतने मजबूर नहीं हैं। सिर्फ अपनी आसक्ति और मोह की वजह से थोड़ा मजबूर हैं, क्योंकि एक पार्टनर ऐसा है; …. लेकिन दो ऐसे हैं, जिनमें कि हमारा वर्तमान का पुरुषार्थ और ज्ञान दोनों मिलकर इस प्रक्रिया को परिवर्तित कर सकते हैं। इस तरह हमने आज इस कर्मबंध की प्रक्रिया को जाना और समझा कि वैâसे ये कर्म जो हम करते हैं, हमारे साथ बँधते चले जाते हैं। हमें वैâसे यह अपना फल देते हैं और यह प्रक्रिया वैâसे निरन्तर चलती रहती है। हमारा मोह वर्तमान का पुरुषार्थ और हमारी अपनी अज्ञानता कर्मबंध के प्रति इसको बढ़ाती चली जाती है। हम अगर अपने पुरुषार्थ को सम्हाल लें, अपने ज्ञान को बढ़ा लें, और अपने मोह को घटाते चलें, साथ ही वीतरागता के प्रति हमारा रुझान बढ़ता जाए तो शायद इस कर्मबंध की प्रक्रिया में कुछ परिवर्तन हम भी इस भावना के साथ कर सकते हैं, कि हम इस कर्मबंध की प्रक्रिया को समझकर इस कर्म से मुक्त हो सकें।