‘‘ऋषभो वर्धमानश्च तावादौ यस्य स ऋषभवर्धमानादि: दिगंबराणां शास्ता सर्वज्ञ आप्तश्चेति।’’६
इससे स्पष्ट है कि आठवीं शताब्दी में भी जैनेतर विद्वान् जैनधर्म के प्रथम उपदेशक भगवान् ऋषभदेव को और अंतिम उपदेशक सर्वज्ञ वर्धमान भगवान को मानते थे।
इन सभी उद्धरणों से यह स्पष्ट है कि जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव को सभी ने किसी न किसी रूप में स्वीकार किया है और बौद्धग्रंथ में जैन के प्रथम तीर्थंकर ही कह दिया है तथा इन्हीं के प्रथम पुत्र भरत के नाम से इस देश का ‘‘भारत’’ नाम स्वीकार किया है।