सौगत-ज्ञान प्रमाण होवे, ठीक है किन्तु वह विज्ञानाकार गोचर में ही प्रमाण है।
जैन-वह ज्ञान निर्विकल्प ही है क्योंकि विकल्प अवस्तु को विषय ही करता है।
जैन-यहाँ विज्ञान का ऐसा अर्थ करना चाहिए। वि-विशेष जाति आदि आकार का ज्ञान निश्चय है जिसके वह विज्ञान है किन्तु निर्विकल्पक दर्शन विज्ञान नहीं है क्योंकि उस दर्शन का व्यवहार में उपयोग नहीं होता है। छोड़ना, ग्रहण करना आदि रूप जो व्यवहारी लोगों का फल है वह निर्विकल्पदर्शन से नहीं बन सकता है अन्यथा निश्चय को विफल होने का प्रसंग आ जायेगा।‘सभी विभ्रम ही है’ इस प्रकार के विभ्रमैकांत पक्ष में भी संव्यवहार विशेष नहीं बन सकता है। संशय आदि का निराकरण करने से ही ज्ञान संव्यवहार में हेतु है किन्तु भ्रांति से नहीं है, जिससे कि सभी ज्ञान भ्रांत हो सकें अर्थात् सभी ज्ञान भ्रांत नहीं हैं।
विज्ञानाद्वैतवादी बौद्ध-निश्चय को कराने वाला भी ज्ञान बाह्य पदार्थों का अवलंबन लेने वाला नहीं है, क्योंकि बाह्य पदार्थों का ही अभाव है।
यौगादि-ज्ञान पदार्थों का ही निश्चय कराने वाला है किन्तु वह अपने स्वरूप को नहीं जानता है क्योंकि अपने में क्रिया का विरोध है।
भावार्थ-विज्ञानाद्वैतवादी बौद्ध बाह्य पदार्थों को नहीं मानते हैं केवल ज्ञान मात्र को ही स्वीकार करते हैं और यौग आदि कहते हैं कि ज्ञान बाह्य पदार्थों को ही जानने वाला वह स्वयं को नहीं जानता है। आगे आचार्य इन दोनों के मत का निराकरण करने के लिए निरुक्ति अर्थपूर्वक विज्ञान शब्द की व्याख्या करते हैं।