-शार्दूलविक्रीडित-
भ्रूक्षेपेण जयंति ये रिपुकुलं लोकाधिपा: केचन द्राक्तेषामपि येन वक्षसि दृढं रोप: समारोपित:।
सोऽपि प्रोद्गतविक्रमस्मरभट: शान्तात्मभिर्लीलया यै: शस्त्रग्र२३२हवर्जितैरपि जित: स्तेभ्यो यतिभ्यो नम:।।१।।
अर्थ —संसार में कई एक ऐसे भी राजा हैं जो कि अपनी भ्रुकुटी के विक्षेप मात्र से ही वैरियों के समूह को जीत लेते हैं उन राजाओं के भी हृदय में शीघ्र ही जिस कामदेवरूपी योद्धा ने दृढ़ता से बाण को समारोपित कर दिया है ऐसे अत्यंत पराक्रमी भी उस कामदेवरूपी सुभट को समस्त प्रकार के शास्त्रों कर सहित तथा जिनकी आत्मा क्रोधादि कषायों के नाश होने से शांत हो गई हैं ऐसे यतियों ने बात की बात में जीत लिया है उन यतियों के लिये नमस्कार है अर्थात् वे यतीश्वर मेरी रक्षा करें।
भावार्थ — जिन राजाओं की भों टेड़ी होने पर ही प्रबल भी शत्रुओं का समूह बात की बात में वश हो जाता है उन महापराक्रमी राजाओं के हृदय में भी जिस कामदेवरूपी सुभटने अपना बाण समारोपित कर दिया है अर्थात् उसने ऐसे पराक्रमी राजाओं के ऊपर भी अपना प्रभाव जमा रखा है उस महापराक्रमी भी कामदेवरूपी सुभट को बिना ही हथियार के जिन शांतात्मा मुनियों ने बात की बात में जीत लिया, आचार्य कहते हैं कि उन मुनियों के लिये मैं मस्तक झुकाकर नमस्कार करता हूँ।।१।।
ब्रह्मचारी कौन हो सकता है? इस बात को आचार्यवर दिखाते हैं-
आत्मा ब्रह्मविविक्तबोधनिलयो यत्तत्र चर्यं परं स्वांगासंगविवर्जितैकमनसस्तद्ब्रह्मचर्यं मुने:।
एवं सत्यवला: स्वमातृभगिनीपुत्रीसमा: प्रेक्षते वृद्धाद्या विजितेन्द्रियो यदि तदा स ब्रह्मचारी भवेत्।।२।।
अर्थ —अपने शरीर में जो आसक्तता, उस कर रहित है एक मन जिसका अर्थात् जिस मुनि के मन में शरीर विषयक कुछ भी आसक्तता नहीं है ऐसे मुनी की जो समस्त पदार्थों से भिन्न तथा ज्ञानस्वरूप आत्मा है, वही ब्रह्म है और परब्रह्म में जो चर्या है अर्थात् एकाग्रता है वही ब्रह्मचर्य है और ऐसे होने पर जो वृद्ध आदिक स्त्रियाँ हैं, उनको अपनी माता, बहिन, लडकी के समान देखता है, उस समय वह ब्रह्मचारी होता है।
भावार्थ —समस्त पदार्थों से भिन्न और ज्ञान का स्थान अर्थात् ज्ञानस्वरूप जो आत्मा है, वह तो ब्रह्म है और उस ब्रह्म में जो शरीर विषयक ममता कर रहित मुनी के मन की एकाग्रता है, वह अंतरंग ब्रह्मचर्य है और बाह्य में जो वृद्ध स्त्री को माता के समान समझता है तथा बराबरी की स्त्री को बहिन के समान तथा छोटी स्त्री को पुत्री के समान समझता है उस पुरुष का वह बाह्य ब्रह्मचर्य है और जो इन दोनों प्रकार के ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला है, वह (वशी) ब्रह्मचारी होता है।।२।।
अब आचार्य इस बात को दिखाते हैं कि यदि शयन आदि अवस्था में मुनि को अतिचार लगे, तो वे प्रायश्चित्त करते हैं-
स्वप्ने स्यादतिचारिता यदि तदा तत्रापि शास्त्रोदितप्रायश्चित्तविधिं करोति रजनीभागानुमत्या मुनि:।
रागोद्रेकतया दुराशयता सा गौरवात्कर्मणस्तस्य स्याद्यपि जाग्रतोपि हि पुनस्तस्यां महच्छोधनम्।।३।।
अर्थ —यदि किसी कारण से स्वप्न में मुनि को अतिचार लग जावे तो मुनि रात्रि का विभाग कर शास्त्र में कहे हुवे प्रायश्चित को करते हैं और यदि जाग्रत अवस्था में राग के उद्रेक से अथवा खोटे आशय से वा कर्म की गुरुता से यदि मुनि को अतिचार लग जावे तो उस अतिचारिता में वे बड़ा भारी संशोधन करते हैं।
भावार्थ — यदि मुनिश्वरों को सोते समय रात्रि में अतिचार लगे तो वे रात्रि का विभाग कर प्रायश्चित करते हैं और यदि जागृत अवस्था में राग की अधिकता से वा खोटे आशय से अथवा कर्म के गौरव से अतिचार लगे तो मुनि उसका बड़ा भारी संशोधन करते हैं।।३।।
साधु के दृढ़मन का संयम जो है, वही ब्रह्मचर्य की रक्षा करता है, इस बात को आचार्य दिखाते हैं-
नित्यं खादति हस्तिसूकरपलं सिंहोवली तद्रतिर्वर्षेणैकदिने शिलाकणचरे पारावते सा सदा।
न ब्रह्मव्रतमेति नाशमथवा स्यान्नैव भुक्तेर्गुणात्तद्रक्षां दृढ एक एव कुरुते साधोर्मन: संयम:।।४।।
अर्थ — भोजन के गुण से अर्थात् भोजन के करने से ब्रह्मचर्य व्रत नष्ट होता है तथा भोजन के न करने से ब्रह्मचर्य व्रत पलता है यह बात नहीं है क्योंकि अत्यंत बलवान सिंह, हाथी तथा सूअर के माँस को खाता है किंतु वर्ष में एक ही समय रति को करता है तथा कबूतर सदा पत्थर के टुकड़े खाता है तो भी वह सदा रति करता रहता है किंंतु ब्रह्मचर्य का पालन, (रक्षा) एकमात्र साधु का दृढ़ जो मन का संयम है, वही करता है।
भावार्थ — बहुत से मनुष्य ऐसा समझते हैं कि पुष्ट भोजन करने से ब्रह्मचर्य नहीं पलता है और पुष्ट भोजन के न करने से ब्रह्मचर्य पलता है सो यह बात नहीं क्योंकि यदि पुष्ट भोजन करने से ही काम की अतितीव्रता होती तो सिंह को भी अधिक कामी होना चाहिये क्योंकि वह भी तो दिन-रात हाथी तथा सूअर के अत्यंत पुष्ट माँस को खाता है किंतु वह रति वर्ष में एक ही दिवस करता है तथा यदि पुष्ट भोजन के न करने से ही काम अधिक नहीं सताता है तो कबूतर, जोकि रात-दिन रूखे में टुकड़ों को खाता है, उसे काम को अधिक नहीं सताना चाहिये किंतु देखने में आता हैं कि कबूतर बड़ा कामी होता है तथा सदा रति करता रहता है इसलिये पुष्ट भोजन करने से ब्रह्मचर्य का नाश होता है तथा पुष्टभोजन के न करने से ब्रह्मचर्य का पालन होता है यह बात नहीं किंतु ब्रह्मचर्य काr रक्षा का कारण एकमात्र साधु का दृढ़मन का संयम ही है और दृढ़मन का संयम न होवे तो ब्रह्मचर्य का नाश होता है, ऐसा समझना चाहिये।।४।।
चेत: संयमनं यथावदवनं मूलव्रतानां मतं शेषाणां च यथाबलं प्रभवतां बाह्यं मुनेर्ज्ञानिन:।
तज्जन्यं पुनरांतरं समरसीभावेन चिच्चेतसो नित्यानंदविधायिकार्यजनकं सर्वत्र हेतुर्द्वयम्।।५।।
अर्थ — ज्ञानी मुनि के यथाशक्ति होने वाले जो मूलगुण तथा उत्तरगुण हैं उनको यथायोग्य जो रक्षण करना है, वह तो बाह्य मन का संयम है तथा बाह्य मन के संयम से उत्पन्न हुवा और सदा आनंद के करने वाले कार्य को पैदा करने वाला चैतन्य तथा मन के समरसी भाव से, जो मन का संयम होता है वह अंतरंगमन का संयम है तथा सब जगह यह दोनों प्रकार का संयम कारण है।।५।।
समस्त स्त्रियों के त्याग करने में व्रती को अत्यंत प्रयत्न करना चाहिये, इस बात को आचार्यवर दिखाते हैं—
चेतोभ्रांतिकरी नरस्य मदिरापीतिर्यथा स्त्री तथा तत्संगेन कुतो मुनेर्व्रतविधि: स्तोकोऽपि सम्भाव्यते।
तस्मात्संसृतिपातभीतमतिभि: प्राप्तैस्तपोभूमिकां कर्तव्यो व्रतिभि: समस्तयुवतित्यागे प्रयत्नो महान्।।६।।
अर्थ — जिस प्रकार मदिरा का पान मनुष्य को भ्रांति का करने वाला होता है उसी प्रकार स्त्री भी मनुष्य के चित्त को भ्रांति की करने वाली होती है इसलिये उस स्त्री की संगति से मुनि के थोड़े भी व्रत के विधानीक संभावना नहीं हो सकती इसलिये आचार्य कहते हैं कि जिन मुनियों की मति संसार में भ्रमण करने से भयभीत है और जो मुनि तप की भूमिका को प्राप्त हो गये हैं उनको समस्त स्त्रियों के त्याग में बड़ा भारी प्रत्यन करना चाहिये।
भावार्थ — जिस प्रकार शराब को पीने वाला मनुष्य बेहोश रहता है और वह कुछ भी काम नहीं कर सकता उसी प्रकार स्त्री का लोलुपी पुरुष भी हिताहित से शून्य तथा किंकर्तव्यविमूढ़ रहता है इसलिये ऐसी निकृष्ट स्त्री की संगति से थोड़ा सा भी व्रत का विधान नहीं हो सकता अत: आचार्य उपदेश देते हैं कि जिन मुनियों की बुद्धि संसार के भ्रमण से अत्यंत भयभीत है और जो तप की भूमिका को प्राप्त हो गये हैं उन मुनियों को चाहिये कि वह समस्त प्रकार की स्त्रियों के त्याग में बड़ा प्रयत्न करें।।६।।
और भी आचार्यवर स्त्री के त्याग की दृढ़ता को बतलाते हैं—
मुक्तेर्द्वारि दृढार्गला भवतरो: सेकेंगना सारिणी मोहव्याधविनिर्मिता नरमृगस्याबंधने वागुरा।
यत्संगेन सतामपि प्रसरति प्राणादिपातादि तत्तद्वार्तापि यतेर्यतित्वहतये कुर्यान्न किें सा पुन:।।७।।
अर्थ — यह स्त्री मुक्ति के द्वार के रोकने के लिये मजबूत अर्गला है और संसाररूपी वृक्ष के सींचने के लिये नाली है तथा मनुष्यरूपी मृगों के बांधने के लिये मोहरूपी व्याध द्वारा बनाया हुवा जाल है क्योंकि जिस स्त्री के संग से सज्जनों का भी जीवन नष्ट हो जाता है और जिस स्त्री की बात भी मुनियों के मुनिपने के नाश के लिये होती है वह स्त्री संसार में और क्या-क्या नहीं कर सकती ? अर्थात् समस्त प्रकार के अनिष्टों को कर सकती है।
भावार्थ — स्त्री को अर्गला की उपमा इसलिये दी गई है कि जिस समय किवाड़ लगाकर अर्गला लगा दी जाती है उस समय जिस प्रकार उस दरवाजे के भीतर कोई भी प्रवेश नहीं कर सकता उसी प्रकार जो मनुष्य स्त्री के फंदे में पँâसे हुवे हैं उनको मोक्ष की प्राप्ति कदापि नहीं हो सकती और स्त्री को नाली की उपमा इसलिये दी गई है कि जिस प्रकार नाली द्वारा सींचने से वृक्ष दिन-प्रतिदिन बढ़ता चला जाता है उसी प्रकार स्त्रीलम्पटियों के लिये संसार भी बढ़ता चला जाता है अर्थात् उनको निरंतर संसार में भ्रमण करना पड़ता है और स्त्री को जाल की उपमा इसलिये दी गई है कि जिस प्रकार जाल में पँâसकर जीव दु:ख पाते हैं उसी प्रकार स्त्री में आसक्त होने से जीवों को नाना प्रकार के दु:खों का सामना करना पड़ता है इसलिये ऐसी स्त्री संसार में समस्त अनिष्टों के करने वाली है क्योंकि जिस स्त्री के संग से सज्जनों का भी जीवन नष्ट हो जाता है तथा यतियों के यतिपने का भी नाम निशान उड़ जाता हैं।।७।।
और भी आचार्य स्त्री के विषय में उपदेश देते हैं—
तावत्पूज्यपदस्थिति: परिलसत्तावद्यशो जृंभते तावच्छुभ्रतरा गुणा: शुचिमनस्तावत्तपो निर्मलम्।
तावद्धर्मकथापि राजति यतेस्तावत्स दृश्यो भवेत् यावन्न स्मरकारि हारि युवते रागान्मुखं वीक्षते।।८।।
अर्थ —जब तक यति, प्रीति से काम के उद्दीपन करने वाले तथा मनोहर स्त्री के मुख को नहीं देखता तभी तक यह यति पूज्यपद में अर्थात् उत्तमपद में स्थित रहता है और तभी तक उस यति का शोभायमान यश वृद्धि को प्राप्त होता रहता है तथा तभी तक उसके गुण निष्कलंक रहते हैं और तभी तक उस यतीश्वर का मन पवित्र बना रहता है तथा उसी समय तक उसका निर्मल तप रहता है तथा उसी समय तक उसकी धर्मकथा शोभित रहती है और तभी तक वह देखने योग्य बना रहता है किंतु स्त्री के मुख देखते ही ये कोई बातें नहीं रहतीं इसलिये यतियों को स्त्री का मुख कदापि नहीं देखना चाहिये।।८।।
मुनीश्वरों को स्त्री का सर्वथा त्याग कर देना चाहिये, इस बात को आचार्यवर बताते हैं—
तेजोहानिमपूततां व्रतहतिं पापं प्रपातं पथो मुक्तेरागितयांगनास्मृतिरपि क्लेशं करोति ध्रुवं।
तत्सानिध्यविलोकनप्रतिवच:स्पर्शादय: कुर्वते किं नानर्थपरंपरामिति यतेस्त्याज्यावला दूरत:।।९।।
अर्थ —जिस स्त्री का राग स्ाहित पन से स्मरण भी तेज की हानि को करता है तथा अपवित्रता को करता है और व्रतों के नाश को करता है तथा पाप की उत्पत्ती करता है और मोक्ष के मार्ग से मनुष्यों को गिराता है और निश्चय से नाना प्रकार के क्लेशों को करता है तब उस स्त्री के समीप में रहना तथा उसका देखना और उसके साथ वचनालाप और उसके स्पर्श, आदिक किस—किस अनर्थ को नहीं करते ? अर्थात् अनर्थों को करते हैं इसलिये ऐसी स्त्री यतियों को दूर से ही त्यागने योग्य है।
भावार्थ —जब स्त्री का न कुछ स्मरण ही तेज का नाश करता है और पवित्रता नहीं होने देता तथा समस्त प्रकार के व्रतों को जड़ से उड़ाता है और मोक्षमार्ग से भ्रष्ट करता है और नाना प्रकार के दु:खों को देता है तब उसके पास रहना, उसका देखना, उसके साथ वार्तालाप करना और स्पर्श आदि करना किस—किस अनर्थ को न करेगा ? इसलिये अपने हित के अभिलाषी यतीश्वरों को चाहिये कि वे सर्वथा स्त्री से दूर रहें।।९।।
और भी आचार्यवर मुनीश्वरों को उपदेश देते हैं—
वेश्या स्याद्धनतस्तदस्ति न यतेश्चेदस्ति सा स्यात्कुतो नात्मीया युवतिर्यतित्वमभवत्तत्त्यागतो यत्पुरा।
पुंसोऽन्यस्य च योषिता यति रतिश्छिन्नो नृपात्तत्पते: स्यादापज्जननद्वयक्षयकरी त्याज्यैव योषा यते:।।१०।।
अर्थ —यदि मुनि वेश्या के लोलुपी बने तो वेश्या उनको मिल नहीं सकती क्योंकि वेश्या अधिक धन होने पर ही प्राप्त होती है और वह धन यती के पास है नहीं, यदि कदाचित् धन भी होवे तो वेश्या उसको मिल नहीं सकती और अपनी स्त्री की भी यति को प्राप्ति नहीं हो सकती क्योंकि पहिले उस स्त्री के त्याग से ही यतिपना हुवा है और यदि दूसरे पुरुष की स्त्री के साथ यति रति करें तो वे राजा से छेदन आदिक दंड को प्राप्त होते हैं तथा उस स्त्री के पति द्वारा भी बहुत से कष्टों को पाते हैं इसलिये यतियों को दोनों जन्मों की नाश करने वाली स्त्री का सर्वथा त्याग कर देना चाहिये।
भावार्थ —यदि स्त्री के साथ में प्रीति करने से कुछ सुख मिलता, तब तो यतियों को स्त्री के साथ प्रीति करना अच्छा होता किन्तु स्त्री के साथ में प्रीति करने में तो अंशमात्र भी सुख नहीं क्योंकि वेश्या के साथ प्रीति तो धन से होती है सो धन यति के पास है नहीं, इसलिये उनको एक प्रकार का कष्ट ही है यदि कदाचित् उनके पास धन होवे भी तो वेश्या उनको कहाँ से मिल सकती है यदि कहो अपनी युवति के साथ रति करें सो अपनी स्त्री भी यति को नहीं मिल सकती क्योंकि पहिले उस स्त्री के त्याग से ही यति हुवे हैं इसलिये भी दु:ख ही है यदि कहो कि परस्त्री के साथ ही रति करें सो भी नहीं बन सकता क्योंकि परस्त्री सेवियों को राजा, छेदन-भेदन आदि दंड देता है तथा उस स्त्री का पति भी नाना प्रकार के ताड़न आदि दु:ख देता है और स्त्री दोनों जन्मों के नाश करने वाली होती है इसलिये ऐसी स्त्री का मुनि को सर्वथा त्याग कर देना चाहिये।।१०।।
आचार्य ब्रह्मचर्य की महिमा का वर्णन करते हैं—
दारा एव गृहं नचेष्टकचितं तत्तैर्गृहस्थो भवेतत्त्यागे यतिरादधाति नियतं १सद्ब्रह्मचर्यं परम्।
वैकल्यं किल तत्र चेत्तदपरं सर्वं विनष्टं व्रतं पुंसस्तेन विना तदा तदुभयभ्रष्टत्वमापद्यते।।११।।
अर्थ —स्त्री का नाम ही घर है किंतु ईटों से व्याप्त घर नहीं कहलाता इसलिये उन स्त्रियों से ही मनुष्य गृहस्थ होता है और उस स्त्री के सर्वथा त्याग से ही यति उत्कृष्ट तथा श्रेष्ठ ब्रह्मचर्य को निश्चय से धारण करते हैं यदि उस ब्रह्मचर्य में किसी कारण से विकलता हो जावे तो दूसरे-दूसरे समस्त व्रत नष्ट हो जाते हैं और उस समय उस ब्रह्मचर्य के बिना यति के व्रतीपना तथा गृहस्थपना दोनों नष्ट हो जाते हैं और उस समय उस ब्रह्मचर्य के बिना यति के व्रतीपना तथा गृहस्थपना दोनों नष्ट हो जाते हैं।
भावार्थ —स्त्री के ग्रहण से तो मनुष्य गृहस्थ कहा जाता है और स्त्री के त्याग से यति, वास्तविक रीति से ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं यदि ब्रह्मचर्य में किसी प्रकार की विकलता (हीनता) हो जावे तो और दूसरे—दूसरे भी समस्तव्रत नष्ट हो जाते हैं और ब्रह्मचर्य में विकलता के आ जाने के कारण न तो वास्तविक रीति से व्रतीपना ही रहता है और न गृहस्थपना ही रहता है इसलिये यतियों को चाहिये कि वे ब्रह्मचर्य के धारण करने पर उसका अच्छी तरह पालन करें और यदि ब्रह्मचर्य भलीभांति पालन न कर सके तो वे गृहस्थ ही बनें, रहे जिससे उनका गृहस्थपना तो उत्तम बना रहे, नहीं तो दोनों ही गृहस्थपना तथा व्रतीपना उनके नष्ट हो जावेंगे।।११।।
और भी आचार्यवर मुनियों को उपदेश देते हैं-
सम्पद्येत दिनद्वयं यदि सुखं नो भोजनादेस्तदा स्त्रीणामप्यतिरूपगर्वितधियामंगं शवांगायते।
लावण्याद्यपि तत्र चंचलमिति श्लिष्टं च तत्तद्गगां दृष्ट्वा कुंकुमकज्जलादिरचनां मा गच्छ मोहं मुने।।१२।।
अर्थ —रूप से अत्यंत घमंड युक्त है बुद्धि जिन्हों की, ऐसी स्त्रियों को यदि दो दिन भी भोजनादि से सुख न मिले अर्थात् यदि वे दो दिन भी नहीं खाये तो उनका शरीर मुर्दे के शरीर के समान मालूूम पड़ता है और उन स्त्रियों के शरीर में मौजूद जो लावण्य है, वह भी चंचल है अर्थात् क्षणभर में विनाशीक है इसलिये हे मुनियों! उन स्त्रियों के शरीर में केसर, काजल आदि की रचना को देखकर मोहित मत हो।
भावार्थ —यदि स्त्रियों का शरीर नित्य तथा सुंदर बना रहता और उनके शरीर का लावण्य चंचल न होता, तब तो हे हे मुनियों! तुमको उनके शरीर में केसर तथा काजल आदि की रचना को देखकर मुग्ध होना था लेकिन उनका शरीर तो ऐसा है कि यदि वे दो दिन भी भोजन न करें तो वह मुर्दे के शरीर के समान फीका पड़ जाता है और उनमें जो कुछ लावण्य दृष्टि- गोचर होता है वह भी पलभर में नष्ट हो जाता है इसलिये ऐसी निस्सार स्त्री में कदापि तुमको मोह नहीं करना चाहिये।।१२।।
स्त्री के शरीर की शोभा क्षणभंगुर है, इस बात को आचार्य दिखाते हैं—
रम्भास्तम्भमृणालहेमशशभृन्नीलोत्पलाद्यै: पुरा यस्य स्त्रीवपुष: पुर: परिगतै: प्राप्ता प्रतिष्ठा न हि।
तत्पर्यंतदशां गतं विधिवशात्क्षिप्तं क्षतं पक्षिभिर्भीतैश्छादितनासिवैâ: पितृवने दृष्टं लघु त्यज्यते।।१३।।
अर्थ —जिस स्त्री के शरीर के आगे प्राप्त ऐसे केलों का स्तंभ, कमल का तंतु, बरफ, चंद्रमा और नीलकमल आदिकों ने भी पहिले प्रतिष्ठा नहीं पाई थी, वही स्त्री का शरीर जिस समय मृतशरीर बन जाता है और जब वह श्मशान भूमि में फेंक दिया जाता है और जिस समय पक्षी उसके टुकड़े—टुकड़े कर देते है उस समय वह देखा हुआ शरीर, भयभीत तथा जिनकी नाक ढ़की हुई है ऐसे मनुष्यों के द्वारा शीघ्र ही छोड़ दिया जाता है।।१३।।
भावार्थ —जब तक स्त्री का शरीर जीवित शरीर रहता है, तब तक तो इतना मनोहर रहता है कि केलों का स्तंभ भी उसके सामने कोई चीज नहीं और न कमलतंतु ही कोई चीज है तथा शीतल इतना होता है कि बरफ, चंद्रमा तथा नीलकमल की भी शीतलता उसके सामने कोई चीज नहीं किंतु वही शरीर जब मृतशरीर बन जाता है उस समय वह श्मशानभूमि में फेंक दिया जाता है और पक्षिगण उसके टुकड़े—टुकड़े उड़ा देते हैं और मनुष्य उसको भयभीत होकर तथा नाक ढ़ककर देखते हैं और शीघ्र ही छोड़ देते हैं इसलिये ऐसे अपवित्र तथा अनित्यशरीर में मुनियों को कभी भी राग नहीं करना चाहिये।।१३।।
और भी इसी विषय में आचार्य कहते हैं—
अङ्गं यद्यपि योषितां प्रविलसत्तारुण्यलावण्यवद्भूषावत्तदपि प्रमोदजनकं मूढात्मनां नो सताम्।
उच्छूनैर्बहुभि: शवैरतितरां कीर्णं श्मशानस्थलं लब्ध्वा तुष्यति कृष्णकाकनिकरो नो राजहंसव्रज:।।१४।।
अर्थ —यद्यपि स्त्रियों का शरीर, मनोहर यौवन अवस्था तथा लावण्यकर सहित भी है और अनेक प्रकार के भूषणों से भूषित है तो भी वह मूढ़ बुद्धि पुरुष को ही आनंद का देने वाला है किंतु सज्जन पुरुषों को आनंद का देने वाला नहीं, जिस प्रकार सड़े हुवे अनेक मुर्दों से व्याप्त श्मशान भूमि को प्राप्त होकर काले काकों का समूह ही संतुष्ट होता है, राजहंसों का समूह संतुष्ट नहीं होता।
भावार्थ —जिस प्रकार सड़े हुवे मुर्दों से व्याप्त श्मशान भूमि को प्राप्त होकर कौवा संतुष्ट होता है और राजहंस संतुष्ट नहीं होता उसी प्रकार यद्यपि स्त्री का शरीर उत्तम यौवन तथा लावण्यकर सहित भी है और नाना प्रकार के भूषणों से भी सहित है तो भी उसको मूर्ख लोग ही हर्ष का करने वाला मानते हैं, विद्वान लोग हर्ष का करने वाला कदापि नहीं मानते।।१४।।
स्त्री का शरीर अपवित्र है इसलिये विद्वान लोग उसमें राग नहीं करते, इस बात को आचार्यवर दिखाते हैं-
यूकाधाम कचा: कपाल १मजिनाच्छन्नं मुखं योषितां तच्छिद्रे नयने कुचौ पलभरौ वाहूतते कीकसे।
तुंदं मूत्रमलादिसद्म जघनं प्रस्पन्दिवर्चोगृहं पादस्थूणमिदं किमत्र महतां रागाय संभाव्यते।।१५।।
अर्थ —स्त्रियों के बाल तो जूंवाओं के स्थान हैं और मुख तथा कपाल चामकर वेष्टित हैं और दोनों नेत्र उसके छेद हैं तथा स्तन मांस से भरे हुवे हैं और दोनों भुजा विस्तृत हड्डियां हैं और स्त्रियों का पेट मूत्र तथा मल का घर है और जघन बहती हुई विष्ठा के घर हैं और स्त्रियों के चरण स्थूण के समान है इसलिये नहीं मालूम सज्जनों को स्त्रियों की कौन सी चीज राग के लिये होती है।
भावार्थ —यदि स्त्री की कोई भी चीज पवित्र तथा सुंदर होती तो स्त्री में विद्वान् पुरुषों के राग की संभावना हो सकती थी किंतु स्त्री की तो कोई चीज पवित्र तथा सुंदर नहीं क्योंकि उनके बालों में तो असंख्याते जूवां-लीख आदि जीव भरे हुवे हैं और मुख तथा कपाल चर्म कर वेष्टित हैं तथा दोनों नेत्र छिद्र हैं और स्तन मांस के पिंड हैं और भुजा लंबी—लंबी हड्डियाँ हैं और पेट मल—मूत्र का पिटारा है और जघन बहती हुई विष्ठा के घर हैं और चरण थूड़ी के समान है इसलिये ऐसे अपवित्र स्त्री के शरीर में उत्तम पुरुषों को कदापि मोह नहीं करना चाहिये।।१५।।
और भी आचार्यवर स्त्री की अपवित्रता को दिखाते हैं—
कार्याकार्यविचारशून्यमनसो लोकस्य किं ब्रूमहे यो रागांधतयादरेण वनितावक्रास्यलालां पिवेत्।
श्लाघ्यास्ते कवय: शशांकवदिति प्रव्यक्तवाग्डंबरैश्चर्मानद्धकपालमेतदपि यैरग्रे सतां वर्ण्यते।।१६।।
अर्थ —राग से अंधा होकर जो लोक बड़े आदर से स्त्री के मुख की लार का पान करता है ग्रंथकार कहते हैं कि कार्य तथा अकार्य के विचार से रहित है मन जिसका, ऐसे उस लोक के विषय में हम क्या कहें ? और वे कवि भी सराहना करने योग्य हैं कि जो कवि सज्जनों के सामने चामसे ढका हुवा है कपाल जिसका, ऐसे भी स्त्री के मुख को, अपने प्रबलवाणी के आडंबर से चंद्रमा के समान कहते हैं।
भावार्थ —बिना ही उपदेश के समस्त जीव स्त्री के सेवक बने हुवे हैं और रात-दिन बड़े आदर से उनकी लार का पान करते हैं किन्तु कवि लोग चाम से ढके हुए भी स्त्री के मुख को चंद्रमा की उपमा देकर और उनको चंद्रवदनी कहकर और भी जीवों को भ्रांत करते हैं यह बड़ी भारी भूल है इसलिये ऐसी निकृष्ट तथा अपवित्र स्त्री की प्रशंसा करने वाले वे कवि कुकवि हैं, ऐसा समझना चाहिये।।१६।।
आचार्यवर कवियों की निंदा करते हैं—
एष स्त्रीविषये विनापि हि परप्रोक्तोपदेशं भृशं रागांधो मदनोदयादनुचितं किं किंन कुर्याज्जन:।
अप्पेतत्परमार्थबोधविकल: प्रौढं करोति स्फुरच्छृंगारं प्रविधाय काव्यमसकृल्लोकस्य कश्चित्कवि:।।१७।।
अर्थ —राग से अंधा यह लोक पर के दिये हुवे उपदेश के बिना ही काम के उदय से अर्थात् कामी होकर क्या—क्या अनुचित काम नहीं करता है अर्थात् सब ही अनुचित काम को करता है इतने पर भी जिसको अंशमात्र भी परमार्थ का ज्ञान नहीं ऐसा कोई कवि जिसमें भलीभांति शृंगार का वर्णन किया गया है ऐसे काव्य को बनाकर और भी निरंतर लोगों को चतुर (स्त्रियों के सेवन में प्रौढ़) करता रहता है।
भावार्थ —यह नीतिकार का सिद्धांत है कि जो पदार्थ त्यागने योग्य होता है उसमें मनुष्य की बुद्धि बिना उपदेश के प्रवेश कर जाती है, उपादेय पदार्थ के ग्रहण करने में उतनी जल्दी बुद्धि प्रवेश नहीं करती इसलिये जो पुरुष रागांध हैं उनकी एक तो बिना उपदेश के ही स्त्री के विषय में बुद्धि प्रवृत्त हो जाती है और जब उनकी बुद्धि स्त्री विषय में पँâस जाती है तब वे अनेक प्रकार के अनुचित काम कर बैठते हैं। ऐसे होने पर भी कवि लोग अपने को दयालु समझकर और भी उनके लिये शृंगार विशिष्ट काव्यों को बनाकर उनको स्त्री विषय में चतुर बना देते हैं इसलिये ऐसे कवियों को उत्तम कवि न समझकर कुकवि ही समझना चाहिये।।१७।।
अब आचार्यवर इस बात को बताते कि हैं जो मुनि स्त्री तथा धन का त्यागी है, वह देवों के देव है और सबों का मानने योग्य है—
दारार्थादिपरिग्रह: कृतगृहव्यापारसारोऽपि सन् देव: सोऽपि गृही नर: परधनस्त्रीनिस्पृह: सर्वदा।
यस्य स्त्री न तु सर्वथा न च धनं रत्नत्रयालंकृतो देवानामपि देव एव स मुनि: केनात्र नो मन्यते।।१८।।
अर्थ —जिस पुरुष के स्त्री का परिग्रह मौजूद है और धन का परिग्रह मौजूद है तथा जिसने समस्त गृहसंबंधी व्यापार को कर लिया है ऐसा गृहस्थ भी मनुष्य, यदि परधन तथा परस्त्री में निस्पृह है तो वह भी जब देव कहा जाता है तब जिस मुनि के न तो स्त्री है और न सर्वथा धन ही है और जो सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्रस्वरूप रत्नत्रय से शोभित है वह तो देवों का भी देव है ही और उस मुनि की सब ही प्रतिष्ठा करते हैं।
भावार्थ —चाहे उस मनुष्य के स्त्री तथा धन हो और चाहे उसने समस्त घर के काम किये हुवे हों, यदि वह परधन तथा परस्त्री में इच्छा रहित है वह भी जब देव कहलाता है जब जो सर्वथा स्त्री का त्यागी है और सर्वथा धन का त्यागी है अर्थात् जिसके पास कणमात्र भी धन नहीं है और जो सम्यग्दर्शनादिरत्नत्रय से विभूषित है तो वह क्यों नहीं देवों का देव होगा? और वह क्यों नहीं सज्जनों के आदर का पात्र होगा ? अवश्य ही होगा, इसलिये मुनियों को चाहिये कि वे स्त्री तथा धन में सर्वथा इच्दा का त्याग कर देवें।।१८।।
कामिन्यादि विनात्र दु:खहतये स्वीकुर्वते तच्च ये लोकास्तत्र सुखं पराश्रिततया तद्दु:खमेव धु्रवम्।
हित्वा तद्विषयोत्थमंतविरसं स्तोकं यदाध्यात्मिकं तत्तत्त्वैकदृशां सुखं निरुपमं नित्यं निजं नीरजम्।।१९।।
अर्थ —स्त्री आदि के बिना संसार में दु:ख होता है, यह समझकर लोग दु:ख के दूर करने के लिये स्त्री आदि को स्वीकार करते हैं परंतु स्त्री आदिक में जो सुख है, सो पराधीनता के कारण दु:ख ही है इसलिये अंत में विरस तथा थोड़ा जो विषय से उत्पन्न सुख है, उसको छोड़कर जो तत्त्वज्ञानियों का आत्मसंबंधी सुख है, वही सुख उपमारहित तथा सदा काल रहने वाला और अपना तथा निर्दोष है, ऐसा समझना चाहिये।
भावार्थ —जो अल्पज्ञानी दु:ख के दूर करने के लिये स्त्री-भोजन आदि को स्वीकार करते हैं सो ठीक नहीं क्योंकि स्त्री- भोजन आदि के स्वीकार से दु:ख दूर नहीं होता और न सुख ही मिल सकता क्योंकि वह जो सुख है, वह पराधीनता के कारण दु:ख ही है और वह विषयोत्थ सुख अंत में विरस तथा थोड़ा है इसलिये ऐसे सुख को छोड़कर, तत्त्वज्ञानी पुरुष, जो उपमारहित तथा नित्य और स्वीय तथा निर्दोष सुख का अनुभव करते हैं, वास्तव में वही सुख है, ऐसा समझना चाहिये।।१९।।
अब आचार्य इस बात को बताते हैं कि जो पुण्यवान हैं, वे भी यतीश्वरों को नमस्कार करते हैं-
सौभाग्यादिगुणप्रमोदसदनै: पुण्यैर्युतास्ते हृदि स्त्रीणां ये सुचिरं वसंति विलसत्तारुण्यपुण्यश्रियाम्।
ज्योतिर्बोधमयं तदंतरदृशा कायात्प्रथक् पश्यतां येषां ता नतु जातु तेऽपि कृतिनस्तेभ्यो नम: कुर्वते।।२०।।
अर्थ — वे मनुष्य सौभाग्य आदि गुण तथा आनंद के स्थानभूत जो पुण्य, उनकी सहित हैं जो मनुष्य मनोहर जो यौवनावस्था उससे पवित्र है शोभा जिनकी, ऐसी स्त्रियों के मन में चिरकाल तक निवास करते हैं और वे पुण्यवान पुरुष भी जो मुनि अपनी प्रसिद्ध अंतर्दृष्टि से सम्यग्ज्ञानमय तेज को शरीर से जुदा देखने वाले हैं और जिनके पास स्त्री फटकने तक भी नही पाती, ऐसे मुनीश्वरों को नमस्कार करते हैं।
भावार्थ — यद्यपि संसार में वे मनुष्य भी पुण्यात्मा तथा धन्य हैं जो यौवनावस्था से शोभायमान स्त्रियों के हृदय में चिरकाल तक निवास करते हैं अर्थात् जिनको स्त्रियाँ हृदय से चाहती हैं किन्तु उनसे भी धन्य वे यतीश्वर हैं जो कि अपनी अंतर्दृष्टि से सम्यग्ज्ञानमय ज्योति को जुदाकर देखते हैं और जिनके पास स्त्रियाँ स्वप्न में भी नहीं फटकने पातीं तथा वे पुण्यात्मा और स्त्रियों के प्रिय भी मनुष्य, जिनको मस्तक झुकाकर नमस्कार करते हैं।।२०।।
मनुष्य भव से मोक्ष की प्राप्ति होती है, इसलिये भव्यजीवों को पाकर तप करना चाहिये, इस बात का आचार्य उपदेश देते हैं-
दुष्प्रापं बहुदु:खराशिरशुचि स्तोकायुरल्पज्ञता ज्ञातप्रांतदिन: जराहतमति: प्रायो नरत्वं भवे।
अस्मिन्नेव तपस्तत: शिवपदं तत्रैव साक्षात्सुखं सौख्यार्थीति विचिंत्य चेतसि तप: कुर्यान्नरो निर्मलम्।।२१।।
अर्थ — जिस नरभव में बहुत दु:खों का समूह है और जिसमें अपवित्र तथा थोड़ी आयु है और जिसमें थोड़ा ज्ञानपना है तथा जिसमें अंत के दिन का निश्चय नहीं है ‘‘अर्थात् कब मरण होगा? यह बात मालूम नहीं है’’ और जिस नरभव में बुद्धि वृद्धावस्थाकर नष्ट है ऐसा इस संसार में यह नरभव है किंतु तप की प्राप्ति इसी नरभव में ही होती है और उस तप से मोक्षपद की प्राप्ति होती है तथा उस मोक्षपद में साक्षात् सुख मिलता है इसलिये ग्रंथकार कहते हैं कि ऐसा भलीभांति चित्त में विचार कर जो मनुष्य उत्तम सुख की प्राप्ति के अभिलाषी हैं, उनको अवश्य ही निर्मल तप करना चाहिये।
भावार्थ — यद्यपि इस नरभव में बहुत से दु:ख हैं तथा अपवित्र और थोड़ी आयु है और थोड़ा ज्ञान है तथा इस नरभव में मरण के दिन का भी निश्चय नहीं है, जरा से बुद्धि भी नष्ट है तो भी तप की प्राप्ति इस नरभव में ही होती है और उस तप से मोक्षपद की प्राप्ति होती है तथा मोक्ष में साक्षात् सुख मिलता है इसलिये ऐसा विचार कर और इस उत्तम नरभव को पाकर मनुष्य को निर्मलतप अवश्य करना चाहिये किन्तु व्यर्थ ही इस नरभव को व्यतीत नहीं करना चाहिये।।२१।।
उक्तेयं मुनिपद्मनंदिभिषजा द्वाभ्यां युताया: शुभा सद्वत्तौषधिविंशतेरुचितवागर्थाम्भसा वर्तिता।
निर्ग्रन्थै: परलोकदर्शनकृते प्रोद्यत्तपोवार्द्धवैâश्चेतश्चक्षुरनंगरोगशमनी वर्ति: सदा सेव्यताम्।।२२।।
अर्थ — श्रीपद्मनंदि नामक वैद्य द्वारा, उचित जो वचन और अर्थ वही हुआ जल उससे दो श्लोकों कर तथा श्रेष्ठ छन्दरूप ही हैं औषधि जिसमें, ऐसी जो विंशfित उससे ‘‘ अर्थात् बाईस श्लोकों से ’’ यह शुभ सलाई (ब्रह्मचर्य रक्षावर्ति) बनाई है इसलिये जो समस्त प्रकार के परिग्रहों कर रहित निर्ग्रंथ है और उन्नत जो तप उससे वर्धमान है अर्थात् जो अत्यंत तपस्वी हैं उनको मनरूपी नेत्र में स्थित जो कामरूपी रोग, उसको शांत करने वाली यह सलाई परलोक के दर्शन के लिये अवश्य ही सेवनीय है।
भावार्थ — जिस प्रकार नेत्र का रोगी पुरुष नेत्र से देखने के लिये किसी वैद्य द्वारा उत्तम जल से बनाई गई सलाई का सेवन करता है उसी प्रकार आचार्यवर पद्मनंदिनामक वैद्य ने भी यह ब्रह्मचर्यरक्षावर्ति उत्तम वचन तथा अर्थरूपजल से २२ श्लोकों में बनाई है इसलिये जो मनुष्य समस्त प्रकार के परिग्रहों से रहित निर्ग्रंथ हैं और प्रबलतपस्वी तथा परलोक के देखने के अभिलाषी हैं उनको अवश्य ही इस कामरूपी ज्वर को शमन करने वाली सलाई (ब्रह्मचर्य रक्षावर्ति) का सेवन करना चाहिये अर्थात् उनको अवश्य ही पूरी तौर से ब्रह्मचर्य का रक्षण करना चाहिये।।२२।।
इस प्रकार श्रीपद्मनंदि आचार्य द्वारा रचित श्री पद्मनंदिपंचविंशतिका
में ब्रह्मचर्यरक्षावर्तिनामक अधिकार सामप्त हुआ।