भवविवर्धनमेव यतो भवेदधिकदु:खकरं चिरमंगिनाम्।
इति निजांगनयापि न तन्मतं मतिमतां सुरतं किमतोन्यथा।।१।।
अर्थ —जिस मैथुन के करने से संसार की ही वृद्धि होती है तथा जो मैथुन समस्त जीवों को अत्यन्त दु:ख का देने वाला है इसलिये सज्जन पुरुषों ने उसको अपनी स्त्री के साथ करना भी ठीक नहीं माना है, वे सज्जन दूसरी स्त्रियों से अथवा अन्य प्रकार से उसको वैâसे अच्छा मान सकते हैं ?
भावार्थ —मैथुन के करने से अनेक प्रकार के कीड़ों का विघात होता है तथा विघात से िंहसा होती है और िंहसा से कर्मों का बंध होता है तथा कर्मों के बंध से इस पंचपरावर्तनरूप संसार में घूमना पड़ता है इसलिये मैथुन के करने से केवल संसार की वृद्धि ही है तथा मैथुन के करने से मनुष्यों को नाना प्रकार के दु:खों का सामना करना पड़ता है इसलिये मैथुन समस्त जीवों को अधिक दु:ख का देने वाला है, ऐसा भलीभाँति समझकर जिन सज्जन पुरुषों ने उस मैथुन को अपनी स्त्री के साथ भी करना अनुचित समझा है, वे सज्जनपुरुष दूसरी स्त्रियों से तथा अन्य प्रकार से मैथुन करना वैâसे योग्य समझ सकते हैं?।।१।।
पशव एव रते रतमानसा इति बुधै: पशुकर्म तदुच्यते।
अभिधया ननु सार्थकयानया पशुगति: पुरतोस्य फलं भवेत्।।२।।
अर्थ —जो मनुष्य मैथुन करने के अत्यन्त अभिलाषी हैं, वे साक्षात् पशु ही हैं क्योंकि जो वास्तविक रीति से पदार्थों के गुण-दोषों को विचारने वाले हैं, ऐसे बुद्धिमानों ने इस मैथुन को पशुकर्म कहा है, सो इस मैथुन को पशुकर्म कहना सर्वथा ठीक ही है क्योंकि मैथुन करने वाले मनुष्यों को मैथुन कर्म से आगे पशुगति ही होती है।
भावार्थ —मैथुन को विद्वान लोगों ने पशुकर्म इसलिये कहा है कि जिस प्रकार पशुओं का काम हित तथा अहितकर रहित होता है, उसी प्रकार इस मैथुन में भी मनुष्य बिना इसके गुण-दोष विचारे ही प्रवृत्त हो जाता है इसलिये इस प्रकार के मनुष्य, जो कि सदा मैथुन की ही इच्छा करने वाले हैं और उसमें उत्तरोत्तर अभिलाषा को बढ़ाते ही जाते हैं, वे साक्षात् पशु ही हैं तथा विद्वान् लोगों ने जो इस मैथुन को पशुकर्म संज्ञा दी है, सो बिल्कुल ठीक ही है क्योंकि जो मनुष्य बड़ी लालसापूर्वक इस मैथुन कर्म के करने वाले हैं, उनको आगे भव में जाकर पशुगति ही मिलती है, इसलिये आगे जाकर इस मैथुन कर्म का फल पशुगति की प्राप्ति ही है।।२।।
यदि भवेदवलासु रति: शुभा किल निजासु सतामिह सर्वथा।
किमिति पर्वसु सा परिवर्जिता किमिति वा तपसे सततं बुधै:।।३।।
अर्थ —आचार्य कहते हैं कि सज्जन पुरुषों को यदि अपनी स्त्रियों के साथ मैथुनकर्म करना शुभ होता तथा उत्तम फल का देने वाला होता, तो वे अष्टमी-चतुर्दशी आदि पर्वों में अपनी स्त्री का त्याग क्यों कर देते तथा तप के समय भी उन अपनी स्त्रियों को विद्वान् लोग क्यों छोड़ देते ?
भावार्थ —जैनशास्त्रों में अष्टमी-चतुर्दशी पर्वों का बड़ा भारी माहात्म्य माना गया है तथा जिन-जिन भव्यजीवों ने इन पर्वों में यथायोग्य व्रतों का पालन किया है, उनको अनेक प्रकार के उत्तमोत्तम फलों की प्राप्ति भी हुई है इसलिये उत्तम फल के अभिलाषी सज्जन पुरुष इन पर्वों में यथायोग्य भलीभाँति व्रतों का आचरण करते हैं। जिस समय ये सज्जन पुरुष अष्टमी-चतुर्दशी आदि पर्वों में उपवास आदि व्रतों को धारण करते हैं, उस समय वे परस्त्रियों का त्याग तो करते ही हैं किन्तु अपनी स्त्रियों को भी सर्वथा त्यागकर देते हैं, इसी युक्ति को लेकर आचार्य उपदेश देते हैं कि हे अत्यंत निकृष्ट मैथुन कर्म के अभिलाषी पुरुषों! यदि सज्जनों को अपनी स्त्रियों में की हुई प्रीति अथवा उनके साथ किया हुआ मैथुन शुभ फल का देने वाला होता, तो सज्जनपुरुष पर्वों में उपवास व्रतों को धारण करते समय स्त्रियों का क्यों सर्वथा त्याग कर देते ? इसलिये मालूम होता है कि अपनी स्त्रियों के साथ किया हुआ भी मैथुन किसी प्रकार के शुभ फलों का देने वाला नहीं है तथा जिस समय सज्जन पुरुष संसार में कामभोग आदि से विरक्त होकर तप को जाते हैं, उस समय सर्वथा स्त्रियों का त्याग करके ही जाते हैं। बताओ यदि स्त्रियों के साथ मैथुन करने से जरा भी शुभफल की प्राप्ति होती, तो सज्जन पुरुष तप के समय अपनी स्त्रियों को साथ क्यों नहीं ले जाते ? इसलिये साफ मालूम होता है कि मैथुन करने से थोड़े से भी उत्तम फल की प्राप्ति नहीं होती।।३।।
रतिपतेरुदयान्नरयोषितोरशुचिनोर्वपुषो: परिघट्टनात्।
अशुचि सुष्ठुतरं तदितो भवेत्सुखलवे विदुष: कथमादर:।।४।।
अर्थ —जिस समय काम की उत्पत्ति होती है, उस समय काम की उत्पत्ति से अत्यन्त अपवित्र दोनों शरीरों का आपस में परिघट्टन अर्थात् रगड़ना होता है तथा उस परिघट्टन से अत्यन्त अपवित्र फल की प्राप्ति होती है इसलिये थोड़े से सुख की प्राप्ति के लिये विद्वान लोग वैâसे उस मैथुन में आदर कर सकते हैं ? कभी भी नहीं कर सकते।
भावार्थ —यह नियम है कि कारण जैसा होता है, कार्य भी वैसा ही होता है। यदि कारण अच्छा होवे तो कार्य भी उससे अच्छा ही उत्पन्न होता है और यदि कारण खराब होवे, तो कार्य भी उससे खराब ही उत्पन्न हुआ देखने में आता है। मैथुन उस समय होता है, जिस समय कामी दोनों स्त्री-पुरुषों को काम की अति तीव्रता होती है तथा तीव्रता के होने पर जब उन दोनों के अत्यन्त अपवित्र शरीरों का आपस में मिलाप होता है, इसलिये जब दोनों अपवित्र शरीरों का मिलाप ही मैथुन की उत्पत्ति में कारण पड़ा तो समझना चाहिये कि मैथुन का एक अत्यन्त खराब फल है इसलिये इस प्रकार के मैथुन से उत्पन्न हुवे थोड़े सुख में विद्वान् लोग वैâसे आदर को कर सकते हैं ? अर्थात् कभी भी नहीं कर सकते।।४।।
अशुचिनि प्रसभं रतकर्मणि प्रतिशरीररतिर्यदपि स्थिता।
चिदरिमोहविजृंभणदूषणादियमहो भवतीति निषेधिता।।४५।।
अर्थ —काम के वशीभूत होकर बलात्कार से अत्यन्त अपवित्र मैथुन कर्म के होने पर कामी स्त्री-पुरुषों के शरीर में उत्पन्न हुई यह कामसंबंधी प्रीति चैतन्य का वैरी जो मोह, उसके पैâलाव के दूषण से होती है इसलिये यह काम की प्रीति सर्वथा निषिद्ध मानी गई है।
भावार्थ —जब तक इस आत्मा में मोहनीय कर्म की प्रबलता रहती है, तब तक वास्तविक चैतन्यस्वरूप आत्मा का प्रगट नहीं होता क्योंकि आत्मा का जो वास्तविक चैतन्यस्वरूप है, उसका यह मोहनीय कर्म प्रबल वैरी संसार में है और यह जो रति उत्पन्न होती है, सो इस मोहनीय कर्म की प्रबलता से ही होती है क्योंकि काम के वशीभूत होकर जब दोनों स्त्री-पुरुष परस्पर में स्नेहरूपी रस्सी में बँध जाते हैं तथा स्नेहरूपी रस्सी में बँधकर जब वे मैथुन कर्म में प्रवृत्त होते हैं, उस समय उन दोनों के शरीर में यह कामसंबंधी रति स्थित होती है इसलिये इस रति की उत्पत्ति आत्मा के वास्तविक चैतन्य के वैरी मोह के पैâलाव से ही होती है इसलिये सर्वथा वास्तविक वस्तु के स्वरूप से हटाने वाली इस रति का निषेध विद्वान् लोगों ने किया है।।५।।
निरवशेषयमद्रुमखण्डने शितकठारहतिर्ननु मैथुनम्।
सततमात्महितं शुभमिच्छता परिहतिविधिनास्य विधीयते।।६।।
अर्थ —आचार्य कहते हैं कि यह मैथुन कर्म समस्त संयमरूपी वृक्ष के खंडन करने में तीक्ष्ण कुठार की धारा के समान है इसलिये जो मनुष्य निर्मल अपनी आत्मा के हित के करने वाले हैं, वे इसका सर्वथा त्याग कर देते हैं।
भावार्थ —पाँच प्रकार के स्थावर तथा त्रस जीवों की जो रक्षा करना है, इसी का नाम संयम है। वह संयम मैथुन कर्म में प्रवृत्ति होने पर कदापि नहीं पलता है क्योंकि मैथुन कर्म के करने से अनेक प्रकार के जीवों का विघात होता है इसलिये मैथुन करने से किसी प्रकार आत्मा के हित की प्राप्ति नहीं होती है इसीलिये जो पुरुष यह चाहते हैं कि हमारी आत्मा का किसी प्रकार से हित होवे, वे इस महान निकृष्ट पाप के करने वाले मैथुन कर्म का सर्वथा त्याग करते हैं अत: आत्महितैषियों को कदापि इस मैथुन कर्म की ओर ऋजु नहीं होना चाहिये किन्तु इसका दूर से ही त्याग कर देना चाहिये।।६।।
मधु यथा पिबतो विकृतिस्तथा वृजिनकर्मभृत: सुरते मति:।
न पुनरेतदभीष्टमिहांगिनां न च परत्र यदायतिदु:खदम्।।७।।
अर्थ —जिस प्रकार मदिरा पीने वाले पुरुष को विकार होते हैं, उसी प्रकार जो पुरुष पापी हैं, उसकी सदा रति करने में इच्छा रहती है किन्तु यह मद्य जीवों को किसी प्रकार के हित का करने वाला नहीं है तथा दूसरे भव में भी यह अनेक प्रकार के दु:खों को देने वाला है।
भावार्थ —जिस प्रकार जो पुरुष सदा मदिरा का पीने वाला है, यदि उसको किसी रीति से किसी समय मदिरा न मिले तो उसको अनेक प्रकार के विकार उत्पन्न हो जाते हैं उसी प्रकार जो मनुष्य पापी है अर्थात् मैथुन आदि खराब काम करने में जरा भी भय नहीं करता है, उस मनुष्य को सदा अभिलाषा मैथुन कर्म के करने की ही रहती है किन्तु यह मैथुन कर्म किसी प्रकार के हित का करने वाला नहीं, केवल जीवों को नाना प्रकार के अहितों का ही करने वाला है तथा आगामी काल में भी यह जीवों को नाना प्रकार के भयंकर दु:खों को देने वाला है इसलिये परभव में भी किसी प्रकार के सुख की आशा नहीं, इसलिये जो पुरुष मोक्षाभिलाषी हैं, आत्मा के सुख को चाहते हैं, उनको चाहिये कि वे कदापि मैथुन कर्म में अपनी प्रवृत्ति को न करें।।७।।
रतिनिषेधविधौ यततां भवेच्चपलतां प्रविहाय मन: सदा।
विषयसौख्यमिदं विषसन्निभं कुशलमस्ति न भुक्तवतस्तव।।८।।
अर्थ —आचार्य महाराज उपदेश देते हैं कि जो मनुष्य अपना हित चाहते हैं, उनको इस रीति से अपने मन को अच्छी तरह शिक्षा देनी चाहिये कि हे मन! तू सदा चपलता को छोड़कर रह तथा रति के निषेध करने में प्रयत्न कर क्योंकि वह विषय सौख्य विष के समान है और इस विषय सुख को भोगने वाले तेरी किसी प्रकार से कुशल नहीं है।
भावार्थ —जो मनुष्य विष के भक्षण करने वाला होता है, उसकी जिस प्रकार संसार में खैर नहीं रहती, उसको अनेक प्रकार के दु:खों का सामना करना पड़ता है उसी प्रकार हे मन! यह विषय सुख भी मािंनद जहर के है इसलिये जो तू इसमें सुख मानकर रात-दिन इसके भोग करने में तत्पर रहता है इसमें तेरी खैर नहीं, तुझे नाना प्रकार की आपत्तियों का सामना करना पड़ेगा इसलिये ऐसा भलीभाँति समझकर हे मन! तू अपनी! चंचलता को छोड़ दे तथा रतिकर्म के हटाने के लिये सदा जैसे बने, वैसे कोशिश कर।।८।।
युवतिसंगतिवर्जनमष्टकं प्रति मुमुक्षुजनं भणितं मया।
सुरतरागसमुद्रगता जना: कुरुत मा क्रुधमत्र मुनौ मयि।।९।।
अर्थ —जो मनुष्य मुमुक्ष हैं, मोक्ष की प्राप्ति के अभिलाषी हैं, उन्हीं मनुष्यों के लिये यह मैंने युवति स्त्रियों के संग का निषेध करने वाला अष्टक का अर्थात् ब्रह्मचर्याष्टक का वर्णन किया है किन्तु जो मनुष्य भोगरूपी रागसमुद्र में डूबे हुये हैं, इस अष्टक को अच्छा नहीं समझते हैं, वे मुझे मुनि जानकर मेरे ऊपर क्षमा करें।।९।।
।।इति श्रीपद्मनंद्याचार्यविरचितपद्मनंदिपंचिंवशतिका समाप्ता।।
इस प्रकार मुनि श्री पद्मनंदि आचार्यद्वारा विरचित पद्मनंदिपंचिंवशतिका में
ब्रह्मचर्याष्टकनामक अधिकार समाप्त हुआ।
।।इस प्रकार यह श्रीपद्मनंदि आचार्यद्वारा विरचित श्रीपद्मनंदिपंचिंवशतिका का नवीन हिन्दी भाषानुवाद समाप्त हुआ।।