किसी समय भरत चक्रवर्ती कुछ श्रावकों को व्रती बनाकर उन्हें दान देने की भावना से उनका ‘ब्राह्मण’ वर्ण नाम दे दिया। उन्हें अनेक प्रकार से पूजा विधि-अनुष्ठान आदि का भी उपदेश दिया था।
उन्हें उपासकाध्ययन अंग के अनुसार ‘इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तप’ का भी उपदेश दिया था। इज्या-पूजा, वार्ता-खेती आदि किसी भी क्रिया के द्वारा ‘आजीविका’ करना। दान-चार प्रकार के दान देना। स्वाध्याय-धार्मिक ग्रंथों का पठन-पाठन करना, संयम-प्राणी संयम और इन्द्रिय संयम पालन करना और तप-तपश्चरण आदि के द्वारा व्रत आदि करते रहना।