प्रस्तुति-डॉ. मुन्नी पुष्पा जैन, वाराणसी
पूज्य गणिनीप्रमुखा आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी का जन्म सन् १९३४ में आश्विन शुक्ला १५ शरदपूर्णिमा के दिन उत्तरप्रदेश के बाराबंकी जिले में स्थित टिकैतनगर ग्राम में हुआ था। आपके पिता का नाम छोटेलाल जी तथा माता का नाम मोहिनी था।
आपके बचपन का नाम कु. मैना है। माताजी ने १८ वर्ष की अल्पायु में ही सन् १९५२ में शरदपूणिमा के दिन आचार्य देशभूषण जी महाराज से बाराबंकी में आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत ग्रहण किया।
सन् १९५३ में चैत्र कृष्णा एकम् के दिन महावीर जी में आपकी क्षुल्लिका दीक्षा हुई तथा आपका नाम वीरमती रखा गया। आपने सन् १९५६ में वैशाख कृष्णा द्वितीया को राजस्थान के माधोराजपुरा नगर में परमपूज्य आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज से आर्यिका दीक्षा प्राप्त की। उसी दिन आपका नाम आर्यिका ज्ञानमती माताजी रखा गया।
पूज्य माताजी ने संस्कृत, हिन्दी, मराठी, कन्नड़ भाषाओं में दो सौ से अधिक ग्रंथों की रचना की है। जिसमें अष्टसहस्री, नियमसार, समयसार, षट्खण्डागम आदि की हिन्दी संस्कृत टीका तथा त्रिलोकभास्कर कातंत्ररूपमाला, मुनिचर्या, प्रवचन निर्देशिका, ज्ञानामृत, आराधना, जैन भूगोल आदि ग्रंथ प्रमुख हैं। इसके अलावा आपने इन्द्रध्वज, सिद्धचक्र, कल्पद्रुम, त्रैलोक्य मण्डल आदि कई सौ से अधिक पूजन-विधानों की रचना भी आपने की है। बाल साहित्य, उपन्यास तथा कई नाटक भी आपकी लेखनी से प्रसूत हैं।
पूज्य माताजी की प्रेरणा से हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप की रचना का विशाल निर्माण हुआ है। इसके अलावा कई तीर्थंकरों की जन्म तथा निर्वाणभूमियों के तीर्थों का विकास भी पूज्य माताजी की प्रेरणा से हुआ है। पूज्य माताजी का पावन जीवन हम सभी श्राविकाओं तथा श्रावकों के लिए प्रेरणादायी है। हमारी भावना है कि पूज्य माताजी इसी प्रकार आत्म साधना करते हुए हम सभी को हमेशा आशीर्वाद प्रदान करती रहें। हम भी उनसे प्रेरणा लेकर अपने जीवन में ज्ञान और चारित्र का विकास करें। आप दीर्घायु रहें, स्वस्थ रहें, यही हमारी मंगलकामना है। इन्हीं भावनाओं के साथ।