महापुराण के अन्तर्गत आदिपुराण ग्रन्थ के अनुसार भगवान ऋषभदेव ने अपनी पुत्री ब्राह्मी-सुन्दरी को युग की आदि में सर्वप्रथम विद्या ग्रहण कराया था अत: वे अपने पिता त्रैलोक्यगुरु के अनुग्रह से सरस्वती की साक्षात् प्रतिमा के समान बन गई थीं पुन: भरत आदि पुत्रों को भी भगवान ने समस्त विद्याएँ सिखाई थीं।
इसी प्रकरण में एक विशेष बात यह जानना है कि ब्राह्मी-सुन्दरी ने ऋषभदेव के समवसरण में आर्यिका दीक्षा धारण की थी। उनके विषय में अनेक विद्वानों की यह धारणा बनी हुई है कि ब्राह्मी-सुन्दरी ने इसलिये दीक्षा ली कि उनके पिता भगवान ऋषभदेव को उनके पति के लिए नमस्कार करना पड़ता किन्तु दिगम्बर जैन आगम ग्रन्थों में कहीं भी ऐसा कथन नहीं मिलता है इसीलिये लोग कन्याओं के जन्म को अभिशाप मानने लगते हैं तथा यह भी कह देते हैं कि भगवान ऋषभदेव के पुत्री होना भी हुण्डावसर्पिणी काल का दोष है किन्तु यह कथन भी सर्वथा गलत है क्योंकि किसी प्राचीन आचार्य प्रणीत ग्रन्थ में ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता है।
दामाद के पैर छूने या नमस्कार करने की परम्परा आज भी सब जगह देखने में नहीं आती है। मैंने अवधप्रान्त में देखा है कि दामाद स्वयं अपने ससुर को पिता मानकर पैर छूते हैं। भगवान शांतिनाथ की छियानवे हजार रानियों में क्या किसी से पुत्री नहीं जन्मी होगी? अवश्य जन्मी होगी और उनके विवाह आदि भी हुए ही होंगे। तीर्थंकर जैसे महापुरुष के लिए दामाद को नमस्कार करने जैसी बात कहना अत्यन्त असंगत है क्योंकि वे तो जन्म से ही माता-पिता, मुनि आदि को भी नमस्कार नहीं करते हैं, यह उनकी नियति ही मानना चाहिये। इसी प्रकार महान सती कन्या ब्राह्मी-सुन्दरी के वैराग्य की अवमानना करते हुए उनकी दीक्षा के विषय में भी ऐसी कुशंका उपस्थित नहीं करना चाहिये।
अनेक प्रतिष्ठाचार्य विद्वान् पंचकल्याणक प्रतिष्ठाओं में मंच पर इस दृश्य का मंचन भी कराते हैं कि ब्राह्मी-सुन्दरी ने अपने पिता भगवान ऋषभदेव से पूछा कि पिताजी! क्या इस धरती पर आपसे भी बड़ा कोई व्यक्ति है ? तब भगवान ऋषभदेव ने कहा—हाँ पुत्रियों! जिनके साथ हम तुम्हारा विवाह करेंगे वे मुझसे भी बड़े होंगे क्योंकि मुझे उन दामादों के पैर छूना पड़ेगा आदि। इस बात से दु:खी होकर दोनों पुत्रियों ने निर्णय लिया कि हम विवाह नहीं करेंगे इसीलिये उन दोनों ने आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर ली थी।
किन्तु ऐसा कोई भी वर्णन दिगम्बर जैन शास्त्रों में मेरे देखने में नहीं आया है। मेरा उन विद्वानों से भी कहना है कि यदि कहीं किसी भी आचार्य प्रणीत ग्रन्थ में ऐसा वर्णन आपने पढ़ा हो तो मुझे अवश्य सूचित करें अन्यथा ब्राह्मी-सुन्दरी की यह वार्ता कभी भी मंच पर प्रस्तुत नहीं कराना चाहिये। इससे उन महान आत्माओं के अवर्णवाद का निरर्थक दोष उत्पन्न होता है। देखो, आदिपुराण ग्रन्थ में चौबीसवें पर्व में श्री जिनसेनाचार्य ने बहुत ही सुन्दर शब्दों में कहा है—