भक्तामर स्तोत्र प्रश्नोत्तर काव्य – 1 से 12
काव्य-1
उत्तर—झुके हुये / नम्रीभूत मुकुट।
उत्तर—पाप रूपी अंधकार का विस्तार।
उत्तर—जिनेन्द्र भगवान के द्वय चरण।
उत्तर—अरिहंत भगवान को ‘जिन’ भी कहते हैं।
उत्तर—चार घतिया कर्मों को नष्ट करने वाले एवं देवों के द्वारा पूज्य हैं वे अरिहंत हैं।
उत्तर—जो परम/श्रेष्ठ पद में स्थित हैं उन्हें परमेष्ठी कहते हैं।
उत्तर—५ हैं।
उत्तर—१ अरिहंत, २. सिद्ध, ३. आचार्य, ४. उपाध्याय, ५. सर्वसाधु।
उत्तर—जिन्होंने आठों कर्मों को नष्ट कर अशरीरदशा को प्राप्त कर लिया है। वे सिद्धभगवान/ परमेष्ठी हैं।
उत्तर—आदिनाथ भगवान की।
उत्तर—देवों द्वारा।
उत्तर—अमर।
उत्तर—कमलों की।
उत्तर—पापनाशक व संसार समुद्र में डूबते प्राणियों के लिये आलम्बन स्वरूप है।
उत्तर—लगभग १३०० वर्ष पूर्व सातवीं शताब्दी में।
उत्तर—देवों को।
उत्तर—समीचीन/भलीप्रकार/मन—वचन—काय से।
काव्य-2
उत्तर—मानतुंग स्वामी ने काव्य का प्रारम्भ संकल्पपूर्वक किया।
उत्तर—देवलोक के इन्द्र द्वारा।
उत्तर—तीनों लोकों के जीव के चित्तहरण करने वाले उत्कृष्ट/प्रशंसनीय/श्रेष्ठ स्तोत्र के द्वारा प्रभु की स्तुति की गई।
उत्तर—सम्पूर्ण/समस्त/पूर्ण द्वादशांग।
उत्तर—अरिहंत देव द्वारा अर्थ रूप से प्रतिपादित, गणधर द्वारा सूत्र ग्रंथ रूप से रचित बारह (१२) अंग वाले अंग प्रविष्ट श्रुत को द्वादशांग कहते हैं।
उत्तर— १. आचारांग” २. सूत्रकृतांग” ३. स्थानांग” ४. समवायांग” ५. व्याख्या प्रज्ञप्ति” ६. ज्ञातृ धर्मकथांग” ७. उपासकाध्यानांग” ८. अन्तकृत दशांग” ९. अनुत्तरौपपादिक दशांग। १०. प्रश्नव्याकरणांग। ११. विपाक सूत्रांग। १२. दृष्टिवादांग।
उत्तर—हाँ ! दो (२) भेद हैं। (१) ग्यारह अंग, (२) चौदह पूर्व।
उत्तर—‘‘एक सौ बारह करोड़ तिरासी लाख अट्ठावन हजार पाँच’’ है।
उत्तर—हाँ ! हाँ ! क्यों नहीं, ११२ करोड़ ८३ लाख ५८ हजार ५।
उत्तर—तीनों लोक के जीवों के चित्त / मन को हरने वाले।
उत्तर—बुद्धि की चतुरता से।
उत्तर—जिनके वीतरागता, हितोपदेशिता एवं सर्वज्ञता ये तीन लक्षण है, ऐसे अरिहंत देव/सच्चे देव को नमस्कार किया है।
उत्तर—जो १८ दोषों से रहित वीतरागता आदि लक्षण युक्त हैं।
उत्तर—१. भूख, २. प्यास, ३. बुढ़ापा, ४. रोग, ५. जन्म, ६. मरण, ७. भय, ८. गर्व, ९. राग, १०. द्वेष, ११. मोह, १२. आश्चर्य, १३.
उत्तर—श्रेष्ठी हेमदत्त के द्वारा।
उत्तर—विजया देवी।
उत्त—रसुदत्त चोर।
उत्तर—‘‘ ॐ ह्रीं अर्हं णमो, जिणाणं’’। ‘‘णमो ओहि जिणाणं।।
काव्य-3
प्रश्न १. मानतुंगाचार्य ने स्वयं को कैसा बताया ?
उत्तर—बुद्धिहीन/अल्पज्ञ एवं लघु बताया।
प्रश्न २. ‘पादपीठ’ का अर्थ बताइये ?
उत्तर—पैरों के रखने का आसन।
प्रश्न ३. ‘विगतत्रप:’ का आशय क्या हैं ?
उत्तर—लज्जा को छोड़कर/लज्जा रहित होकर।
प्रश्न ४. आचार्य मानतुंग स्वामी ने कैसे भक्ति की है ?
उत्तर—मान/अभिमान/अहंकार/घमण्ड/गर्व को छोड़कर भक्ति की है।
प्रश्न ५. अहंकार छोड़कर भक्ति करने को क्यों कहा है ?
उत्तर—सच्ची भक्ति निरहंकारी होने पर ही होती है। ‘
उत्तर—प्रभु चरणों में किंकर/दास/सेवक/अनुचर बनकर जाना चाहिए।
प्रश्न ७. विनय गुण किसका प्रतीक है ?
उत्तर—विनय गुण महानता का प्रतीक है।
प्रश्न ८. काव्य नं. ३ का ऋद्धि मंत्र बता दीजिए ?
उत्तर—‘‘ॐ ह्रीं अर्हं णमो परमोहि—जिणाणं’’।
काव्य-4
उत्तर—जैसे समुद्र अपार, असीम, अपरिमित होता है उसी प्रकार भगवान भी अपार, असीम, अपरिमित, अनन्त गुण के धारी हैं।
उत्तर—ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि आत्मा के अनंत गुणों से है।
उत्तर—प्रलयकाल, जो काल के अन्त में होता है।
उत्तर—हाँ ! काल के २ भेद किये हैं। (१) उत्र्सिपणी, (२) अवर्सिपणी।
उत्तर—जिस काल में मनुष्य /तिर्यंचादि की आयु, बल, अवगाहना एवं विभूति आदि बढ़ती जाती है वह उत्र्सिपणी काल है।
उत्तर—जिसमें आयु आदि घटती रहे वह अवर्सिपणी काल है।
उत्तर—१० कोड़ाकोड़ी सागर तक।
उत्तर—एक करोड़ में एक करोड़ का गुणा करने पर जो गुणनफल आये वो एक कोड़ाकोड़ी जानना चाहिए।
उत्तर—उत्र्सिपणी—अवर्सिपणी दोनों के मिलने/पूर्णता पर कल्पकाल होता है।
उत्तर—एक कल्पकाल २० कोड़ाकोड़ी सागर का होता है।
उत्तर—प्रत्येक के ६—६ भेद होते हैं, इसे षटकाल परिवर्तन कहते हैं।
उत्तर—अवर्सिपणी काल के नाम—(१) सुखमा—सुखमा, (२) सुखम, (३) सुखमा—दुखमा, (४) दुखमा—सुखमा, (५) दुखमा, (६) दुखमा—दुखमा।
उत्तर—प्रथमादि क्रमश: काल स्थिति—४ कोड़ाकोड़ी सागर, ३ कोड़ाकोडी सागर, २ कोड़ाकोड़ी सागर। ४२ हजार वर्ष कम १ कोड़ाकोड़ी सागर। २१ हजार वर्ष, २१ हजार वर्ष।
उत्तर—वणिक पुत्र सुदत्त ने जहाज में की।
उत्तर—प्रभावती देवी।
उत्तर—ॐ ह्री अर्हं णमो सव्वेहि जिणाणं’’।
काव्य-5
उत्तर—भक्ति के साथ भगवान के गुणों का कीर्तिन करना स्तवन कहलाता है।
उत्तर—शक्तिहीन होते हुए भी।
उत्तर-सिंह / शेर।
उत्तर—सुभद्रावती नगरी के देवल ने की थी।
उत्तर—अजिता नाम की देवी।
उत्तर—स्तुति करने के लिए।
उत्तर—‘‘ॐ ह्री अर्हं णमो अणंतोहि—जिणाणं’’।।
उत्तर—निज शिशु की रक्षार्थ हिरणी ने शेर का सामना किया।
उत्तर—सद्य प्रसूता थी।
काव्य-6
उत्तर—अल्पज्ञान या अल्पज्ञानी से अर्थात् श्रुत (ग्रंथों) का अल्प अभ्यायी हूँ यद्यपि उनके ज्ञान का पता तो उनकी बहु आयामी स्तोत्र रचना से ही होता है, फिर भी अपनी लघुता का दिग्दर्शन ऐसा कहकर कराया है। विद्वानों की यही लघुता उनकी विद्वता की सूचक है।
उत्तर—भगवान जिनेन्द्र की वाणी को श्रुत कहते हैं अथवा जिनेन्द्रदेव की वाणी जिनशास्त्रों में निहित है, निबद्ध है उन शास्त्रों को श्रुत कहते हैं।
उत्तर—विद्वानों / मनीषियों के द्वारा हँसी का पात्र हूँ।
उत्तर—बसन्त ऋतु में।
उत्तर—आम मंजरी का समूह।
उत्तर—८ भेद हैं।
उत्तर—(१) मतिज्ञान, (२) श्रुतज्ञान, (३) अवधिज्ञान, (४) मन:पर्यायज्ञान, (५) केवलज्ञान।
उत्तर—हाँ ! सम्यग्दृष्टि के ज्ञान को सम्यग्ज्ञान कहते हैं।
उत्तर—मिथ्यादृष्टि के ज्ञान को मिथ्याज्ञान कहते हैं।
उत्तर—उपर्युक्त पांच ज्ञान में से आदि के तीन ज्ञान मिथ्या भी होते हैं।
उत्तर—१. कुमतिज्ञान, २. कुश्रुतज्ञान, ३. कुअवधिज्ञान।
उत्तर—सम्राट हेमवाहन के पुत्र भूपाल कथानायक है।
उत्तर—काशी नगरी के।
उत्तर—दो पुत्र थे।
उत्तर—(१) भूपाल, (२) भुजपाल।
उत्तर—श्रुतधर पंडित के द्वारा।
उत्तर—भूपाल जाति मंदबुद्धि था।
उत्तर—छठवें काव्य का ऋद्धि मंत्र सहित जाप्य किया।
उत्तर—२१ दिन तक।
उत्तर—ॐ ह्रीं अर्हं णमो कोट्ठबुद्धीणं’’।
उत्तर—ब्राह्मी नाम की देवी।
उत्तर—हाँ ! मंत्राराधना से धुरन्धर विद्वान बन गया।
काव्य-7
उत्तर—जन्म, जरा और मृत्यु की सनातन परम्परा से है।
उत्तर—बुरे कार्यों को पाप कहते हैं।
उत्तर—पाप पाँच होते हैं ? (१) िंहसा, (२) झूठ, (३) चोरी, (४) कुशील, (५) परिग्रह इनके अलावा जितने प्रकार के परिणामों की संक्लेशता है वह सब पाप कहलाते हैं।
उत्तर—सूर्य की किरणों से छिन्न—भिन्न।
उत्तर—भ्रमर के समान काले।
उत्तर—‘‘ॐ ह्रीं अर्हं णमो बीज बुद्धीणं।’’
उत्तर—सम्यक्त्वी रति शेखर ने की।
उत्तर—जिनशासन अधिष्ठात्री जृम्भादेवी।
काव्य-8
उत्तर—प्राणियों के अनेक जन्मों में उर्पािजत किए हुये पाप कर्म श्री जिनेन्द्र देव के सम्यक स्तवन करने से क्षणभर में नष्ट हो जाते हैं। ऐसा मानकर प्रभु का स्तवन प्रारम्भ कर रहे हैं।
उत्तर—सज्जनों के चित्त को हरण करने वाला है।
उत्तर—जो मोक्षमार्गी संतों की चरण वंदना करते हैं, उनके आचरण की कामना करते हैं तथा सत्य के उपासक होते हैं। ऐसे सदाचारी जीवों को सज्जन कहते हैं। जो मोक्षमार्गी संत चरणों से दूर उनकी निंदा िंनदा के उपासक होते हैं, सत्य से कोसों दूर होते हैं ऐसे दुराचारी जीवों को दुर्जन कहते हैं।
उत्तर—कमलिनी के पत्तों पर मोती की कांति को प्राप्त होती हैं।
उत्तर—‘‘ॐ ह्रीं अर्हं णमो पदाणु सारीणं।’’
उत्तर—धनपाल वैश्य ने, निर्धन एवं नि:संतान होने के कारण की।
उत्तर—चन्द्रर्कीित एवं महीर्कीित दिगम्बर मुनिराज के द्वारा।
उत्तर—मंत्र की अधिष्ठात्री महिमा देवी प्रकट हुई।
उत्तर—जिनेन्द्र देव के जिनालय निर्माण कराने का संकल्प लिया।
काव्य-9
उत्तर—समस्त दोषों को दूर करता है।
उत्तर—आचार्य श्री कहा है–कि हे जिनेन्द्र ! आपका निर्दोष स्तोत्र तो दूर रहे, आपके गुणों की चर्चा मात्र से ही पापों का समूल नाश हो जाता है।
उत्तर—सरोवरों में कमलों को विकसित करती हैं।
उत्तर—सूर्य में १२,००० किरणें होती हैं।
उत्तर—महापुरुषों के जीवन चरित्र के ऐसे कथानक जो मोक्षमार्ग को प्रशस्त करने वाले हैं तथा मोक्ष पुरुषार्थ में कारणभूत सातिशय पुण्य का संचय कराने वाले धर्म, अर्थ, काम, पुरुषार्थ का सम्यक् निरूपण करते हैं वे कथा संज्ञा को प्राप्त होते हैं।
उत्तर—हाँ ! भगवान जिनेन्द्र के स्तवन, गुणगान से संचित निदान रहित पुण्य परम्परा से मुक्ति का कारण है।
उत्तर—धर्म /पुण्य/ स्तवन आदि करते—करते सांसारिक सुखों की इच्छा करना ही निदान बंध कहलाता है?
उत्तर—सम्राट हेमब्रह्म एवं रानी हेमश्री को पुत्र की प्राप्ति हुई।
उत्तर—कामरूप देश की भद्रावती नगरी में।
उत्तर—मुर्दे का शृंगार के समान, रेत से तेल निकालने के समान, पानी को मथकर मक्खन निकालने की इच्छा करने के समान है।
काव्य-10
उत्तर—जिनेन्द्र भगवान के लिए भुवन भूषण और भूतनाथ विशेषणों से संबोधित किया है।
उत्तर—भुवन यानि लोक, भूषण यानि अलंकार / शृंगार/ आभूषण अर्थात् लोक के अलंकार यही भुवन भूषण का अर्थ है।
उत्तर—पृथ्वी।
उत्तर—भूतयानि प्राणी, नाथ यानि स्वामी अर्थात् प्राणियों के स्वामी।
उत्तर—ॐ ह्रीं अर्हं णमो सयं बुद्धाणं।’’
उत्तर—रोहिणी देवी।
उत्तर—श्री दत्त वैश्य ने अंध कूप में तीन दिन तक की।
उत्तर—लोभ के कारण।
काव्य-11
उत्तर—एकटक अर्थात् बिना पलक झपाये देखना।
उत्तर—परमात्मा को देखने के बाद अन्य देवी—देवताओं के रूप से संतोष नहीं होता। अर्थात् देवाधि देव वीतराग प्रभु को देखने पर ही संतोष होता है।
उत्तर—क्योंकि अन्य देवों का रूप शाश्वत नहीं है, अन्य देवों में रागद्वेष की प्रचुरता भी पाई जाती है, जबकि देवाधिदेव रागद्वेष से रहित है।
उत्तर—समुद्र के खारे।
उत्तर—ॐ ह्रीं अर्हं णमो पत्तेय बुद्धाणं।।’’
उत्तर—तुरंग कुमार ने रत्नापुरी नगरी में की।
उत्तर—सम्राट रूपद्रसेन थे।
उत्तर—दिगम्बर मुनि चन्द्रर्कीित जी थे।
काव्य-12
उत्तर—देह को मोह, ममता, राग आदि के क्षय से उत्पन्न एवं प्रशांत रस की कांति वाले अर्थात् वीतराग भावना के उत्पादक परमाणुओं से निर्मापित कही है।
उत्तर—परम औदारिक।
उत्तर—५ प्रकार का होता है। प्रश्न ४. कृपया नाम बताइये ?
उत्तर—(१) औदारिक, (२) वैक्रियक, (३) आहारक, (४) तैजस, (५) कार्माण।
उत्तर—चार शरीर।
उत्तर—औदारिक, आहारक, तैजस, कार्माण।
उत्तर—दो शरीर।
उत्तर—हाँ ! हाँ ! तैजस और कार्मण। (विग्रह गति की अपेक्षा)
उत्तर—एकेद्रिय से पंचेन्द्रिय तक सभी तिर्यंच और मनुष्य के औदारिक, तैजस और कार्मण ये तीन शरीर होते हैं।
उत्तर—देव और नारकी।
उत्तर—नहीं ! तीन शरीर होते हैं, वैक्रियक, तैजस और कार्मण।
उत्तर—संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक विशिष्ट संयमी छठे गुणस्था वर्ती ऋद्धिधारी मुनिराज के चार शरीर हो सकते हैं। १. औदारिक, २. आहारक, ३. तैजस, ४. कार्माण।
भक्तामर स्तोत्र प्रश्नोत्तर काव्य – 13 से 24
काव्य-13
उत्तर—देव, मनुष्य एवं धरणेन्द्रों के नेत्र को हरण करने वाला है।
उत्तर—जिनेन्द्र प्रभु को उपमातीत अर्थात, सम्पूर्ण जगत् की सम्पूर्ण उपमाओं को जीतने वाला कहा है।
उत्तर—कलंक से मलिन एवं ढाक पत्र (पत्ते) समान पीला सफेद हो जाने वाला बताया है।
उत्तर—देवगति नामकर्म के उदर से जीव की पर्याय / अवस्था विशेष को देवगति कहते हैं, उपपाद शय्या एवं वैक्रियक शरीर से
उत्तर—मनुष्यगति नाम कर्म के उदय से होने वाली जीव की पर्याय / अवस्था विशेष को मनुष्य गति कहते हैं संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक, रजो—वीर्य से गर्भ जन्म वाले मनुष्य कहे जाते हैं।
उत्तर—भवनवासी देवों के १० भेद हैं उन भेदों में नागकुमार जाति के देव हैं, उन देवों के इन्द्र को धरणेन्द्र कहते हैं।
उत्तर—ॐ ह्रीं अर्हं णमो ऋजु मदीणं’’
काव्य-14
प्रश्न १. जिनेन्द्र भगवान के कितने गुण और कैसे गुणों की चर्चा की है ?
उत्तर—प्रभु की सर्वगुण सम्पन्ना यानि लोक व्यापी गुणों की चर्चा की है।
प्रश्न २. गुण किसे कहते हैं ?
उत्तर—जो वस्तु के अस्तित्व की पहिचान करायें अथवा जो द्रव्य के आश्रय रहते हैं वे गुण कहलाते हैं। जेसे–जीव के ज्ञानादि गुण, पुद्गल के रसादि गुण।
प्रश्न ३. वे गुण तीनों लोक में क्यों व्याप्त हो रहे हैं ?
उत्तर—क्योंकि उन्होंने अपना आश्रय/सहारा तीनलोक के नाथ का लिया है तब उन्हें त्रयलोक में व्याप्त होने से कौन रोक सकता है।
प्रश्न ४. ‘यथेष्टम् संचरत: का अर्थ स्पष्ट कीजिए ?
उत्तर—अपनी इच्छानुसार विचरण/भ्रमण/घूमने से।
प्रश्न ५. जिनेन्द्र प्रभु के गुणों को किसकी उपमा दी है ?
उत्तर—पूर्णिमा के चन्द्र की कलाओं के सदृश उज्जवल गुणों की उपमा दी है।
प्रश्न ६. काव्य नं. १४ का ऋद्धि मंत्र बता दीजिये ?
उत्तर—‘ॐ ह्रीं अर्हं णमो विउंल मदीणं।’’
काव्य-15
उत्तर—जिनेन्द्र प्रभु का पूर्ण निर्विकारिधना प्रस्तुत किया है।
उत्तर—मोह ग्रस्त मन में ही विकार उत्पन्न होता है।
उत्तर—मोहनीय कर्म के क्षय कर देने से क्योंकि जहाँ मोह नहीं वहाँ विकार नहीं।
उत्तर—दर्शनमोहनीय और चारित्र मोहनीय के भेद से दो प्रकार का होता है।
उत्तर—(१) मिथ्यात्व, (२) सम्यक् मिथ्यात्व, (३) सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व।
उत्तर—(१) केवलि अवर्णव्द, (२) श्रुत अवर्णवाद, (३) संघ अवर्णवाद, (४) धर्म अवर्णवाद, (५) देव अवर्णवाद, इनसे दर्शन मोहनीय का आश्रव होता है।
उत्तर—अंतरंग के कालुष्य परिणाम के कारण किसी में दोष नहीं होने पर भी उसको झूठा दोष लगाना, इसका नाम अवर्णवाद है।
उत्तर—मूल २ भेद उत्तर भेद २५ है।
उत्तर—(१) कषाय मोहनीय, (२) अकषाय मोहनीय।
उत्तर—१६ भेद हैं।
उत्तर—९ भेद हैं (१) हास्य, (२) रति, (३) अरति, (४) शोक, (५) भय, (६) जुगुप्सा, (७) स्त्रीवेद, (८) पुरुषवेद, (९) नपुंसक वेद।
उत्तर—७० कोड़ाकोड़ी सामर की है।
काव्य-16
उत्तर—अपूर्व दीपक की।
उत्तर—धुआं, बत्ती से एवं तेल की पूर्णता से रहित है।
उत्तर—केवलज्ञान का प्रतीत है।
उत्तर—केवलज्ञान असहाय अर्थात् अकेला है, जो तीन लोक के समस्त द्रव्य एवं उन द्रव्यों को समस्त पर्यायों को युगपत जानता है।
उत्तर—ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्मों का क्षय होते ही केवलज्ञान प्रकट होता है।
उत्तर—नष्ट/नाश / समाप्त होना।
उत्तर—नहीं / केवलज्ञान रूप अपूर्व दीपक को बुझाने में पर्वतों को चलायमान करने वाली प्रचण्ड वायु भी समर्थ नहीं है। फिर पंखे की हवा की क्या शक्ति ?
उत्तर—युवराज क्षेमंकर ने की।
उत्तर—जिनशासन की अधिष्ठाती चतुर्भुजी देवी।
उत्तर—पिता महीपचंद्र और माँ सोमश्री थीं।
उत्तर—रत्नमयी पार्श्वनाथ की प्रतिम्य के दर्शनोंपरान्त हो भोजन लेंगे।
उत्तर—पूज्य श्रीमती आर्यिका से।
काव्य-17
उत्तर—सूर्य से भी अधिक महिमाशाली कहा है।
उत्तर—लौकिक सूर्य / दिखने वाला सूर्य उदित होकर अस्त को प्राप्त हो जाता है, लेकिन हे जिनेन्द्र ! आप ऐसे अद्वितीय सूर्य हैं, जो कभी भी अस्त को प्राप्त नहीं होते हो। लौकिक सूर्य राहू के द्वारा ग्रस लिया जाता है, लेकिन हे जिनेन्द्र ! आप राहू के ग्रास गम्य नहीं हैं। लौकिक सूर्य सभी चराचर पदार्थों को प्रकाशित नहीं करता, किन्तु हे जिनेन्द्र ! आप ऐसे अलौकिक सूर्य हैं जो
उत्तर—राहु नवग्रहों में से एक ग्रह है, जो सूर्य तथा चन्द्रमा के ऊपर संक्रमण काल में अपनी छाया डालता है, उसे ही ग्रहण माना जाता है।
उत्तर—धवलाजी, षट्खण्डागम, लब्धिसार, क्षपणासार, गोम्मटसार, जीवकांड, त्रिलोकसार, तिलोयपण्णत्ति आदि सिद्धांत ग्रंथों की वाचना नहीं करनी चाहिए।
उत्तर—सूर्य—चन्द्रमा केवल मध्यलोक में ही हैं। स्वर्गों में, नरकों में, सिद्धालय भी में सूर्य नहीं है।
काव्य-18
उत्तर—जिनेन्द्र प्रभु का मुखकमल अद्वितीय चन्द्रबिम्ब की कांति के समान कहा है।
उत्तर—मोहरूपी महान् अज्ञान अंधकार का नाश करता है।
उत्तर—आचार्य मानतुंग स्वामी ने भगवान जिनेन्द्र की अपूर्व—चन्द्रमा निम्न कारणों से कहा— लौकिक चन्द्रमा तो मात्र रात्रि में उदित होता है, किन्तु हे जिनेन्द्र ! आप ऐसे अपूर्वचन्द्र हो, जो नित्य ही उदय को प्राप्त है अर्थात् आपका क्षायिक ज्ञान कभी अस्त को प्राप्त नहीं होता, सदा उदित रहता है।
उत्तर—‘‘ॐ ह्रीं अर्हं णमो विउव्व—इड्ठिपत्ताणं’’।
उत्तर—भद्रकुमार ने की।
उत्तर—वङ्काादेवी प्रकट हुईं।
उत्तर—माहेनीय कर्म।
काव्य-19
उत्तर—भगवान के मुखचन्द्र के समक्ष दिन सूर्य और रात्रि में चंद्रमा का निष्प्रयोजनाय माना है।
उत्तर—समस्त अंतरंग और बहिरंग अंधकार का नाश कर दिया।
उत्तर—आगमोक्त कथन है कि तीर्थंकर देव की कांति के कारण २४ घंटे तेज प्रकाश बना रहता है, अतएव वहाँ न तो रात्रि में चंद्रमा की और न ही दिन में सूर्य की कुछ आवश्यकता रहती है।
उत्तर—‘‘पवे हुये धान्य के खेत शोभाशाली होने पर’’
उत्तर—जल के भार से झुके हुये।
उत्तर—रात्रि में चन्द्रमा से।
उत्तर—‘‘ऊँ ह्रीं अर्हं णमो विज्जाहराणं’’।
उत्तर—सुखानंद जौहरी के द्वारा की गयी।
उत्तर—कारागार में ३ दिन तक की।
उत्तर—जिनशासन अधिष्ठात्री जम्बूमति देवी।
काव्य-20
उत्तर—भगवान जिनेन्द्र के केवलज्ञान का वर्णन किया है।
उत्तर—जिसका राग बीत गया है अर्थात् जो रागद्वेष से रहित हो गये हैं, ऐसे १८ दोषों से रहित भगवान वीतरागी हैं।
उत्तर—१. क्षुधा, २. प्यास, ३. बुढ़ापा, ४. रोग, ५. जन्म, ६.मरण, ७. भय, ८. मद्, ९. राग, १०, द्वेष, ११. मोह, १२. निद्रा, १३. शोक, १४. चिंता, १५. दु:ख, १६. आरत/अरति, १७. आश्चर्य, १८. स्वेद।
उत्तर—नहीं, सभी देव वीतरागी नहीं होते अपितु देवाधिदेव ही वीतरागी होते हैं तथा देवगति के समस्त देव सरागी होते हैं।
उत्तर—नहीं, वीतरागी नहीं अपितु सरागी देव हैं।
उत्तर—वीतरागी देव को जगमगाती महामिणयों के समान एवं सरागी देव को कांच के टुकड़ों के समान कहा है।
उत्तर—चार प्रकार के देवों का वर्णन है। (१) देव, (२) अदेव, (३) कुदेव, (४) देवाधिदेव।
उत्तर—मात्र देवाधिदेव को नमस्कार करना चाहिए।
काव्य-21
उत्तर—उन्हें देखकर उनके रागद्वेष, विषय कषायों से युक्त होना ही उनके अरुचि का कारण बना, सरागी हरिहर आदि देवों को देखने बाद ज्यों ही आपको यानि वीतरागी मुद्रा को देखा तो आपके/प्रभु के वीतरागी स्वरूप पर मैं संतुष्ट हो गया।
उत्तर—रागद्वेष आदि १८ दोषों से रहित देव वीतरागी एवं राग—द्वेष कषायों से युक्त देव सरागी होते हैं।
उत्तर—चुल्लू प्रमाण रह जाता है। ‘
उत्तर—जन्म—जन्मान्तरों में भी सरागी देवों के प्रति आर्किषत नहीं होती हैं।
उत्तर—जिसके अन्दर वीतरागता, हितोपदेशिता एवं सर्वज्ञपना हे, वही सच्चा देव है।
काव्य-22
उत्तर—तीर्थंकर की माता की श्रेष्ठता का वर्णन किया है।
उत्तर—तीर्थंकर को जन्म देने के कारण।
उत्तर—नहीं, तीर्थंकर जैसे प्रतापी पुत्र को अन्य/साधारण माताएँ जन्म नहीं दे सकतीं।
उत्तर—जिस प्रकार पूर्व दिशा ही प्रतापी सूर्य को जन्म दे सकती है, अन्य दिशायें नहीं, उसी प्रकार तीर्थकर की माँ ही तीर्थंकर को जन्म दे सकती है।
उत्तर—‘‘ॐ ह्रीं अर्हं णमो आगास—गामीणं।’’
काव्य-23
प्रश्न १. वीतराग अर्हंत को मुनिजन कैसा मानते हैं ?
उत्तर—मुनिजन सूर्य के समान तेजस्वी, निर्मल, अज्ञान अंधकार से रहित, मृत्युजंयी, मोक्ष के मार्ग को तथा लोकोत्तर/श्रेष्ठ पुरुष को वीतराग अर्हंत मानते हैं।
प्रश्न २. अर्हंत भगवान को अमल क्यों कहा ?
उत्तर—द्रव्यमल, भावमल आदि से रहित होने के कारण ‘अमल’ कहा है।
प्रश्न ३. अर्हंत भगवान को अंधकार रहित क्यों कहा है ?
उत्तर—ज्ञानावरणी कर्म को समूल नष्ट कर मोहान्धकार को समाप्त/ विध्वंस करने के कारण अर्हंत देव को अंधकार से रहित कहा है।
प्रश्न ४. अर्हंत प्रभु को मृत्युञ्जयी क्यों कहा है ?
उत्तर—उन्होंने मृत्यु यानि मरण को जीत लिया है और निर्वाण को प्राप्त होने वाले हैं अत: मृत्युविजयी होने से वे मृत्युञ्जयी कहलाते हैं।
प्रश्न ५. क्या हम भी मृत्युंजयी बन सकते हैं ?
उत्तर—हाँ ! यदि हम अर्हंत जिनेन्द्र की समीचीन शरण प्राप्त कर लें तो हम भी मृत्युंजयी बन सकते हैं।
प्रश्न ६. अर्हंत प्रभु को परम पुरुष क्यों कहा ?
उत्तर—उपर्युक्त लोकोत्तर अवस्थाओं को प्राप्त कर लेने के कारण प्रभु को पुरुषोत्तम/श्रेष्ठ पुरुष/परम पुरुष कहा है।
प्रश्न ७. काव्य नं. २३ का ऋद्धि मंत्र भी बता दीजिए ?
उत्तर—‘‘ॐ ह्रीं अर्हं णमो आसी—विसाणं’’।
प्रश्न ८. ‘‘उपलभ्य जयन्ति मृत्युं’’ का अर्थ स्पष्ट कीजिए ?
उत्तर—प्राप्त करके यानि आपको प्राप्त करके मृत्यु को जीतते हैं।
काव्य-24
उत्तर—आत्म ज्ञान का जो अलौकिक स्वरूप प्राप्त हुआ वह स्खलित/समाप्त या विनाश को प्राप्त नहीं होगा, अत: अव्यय कहकर पुकारा है।
उत्तर—प्रभु अंतरंग और बहिरंग ऐश्वर्य से सम्पन्न होने के कारण विभु हैं।
उत्तर—गुण और काल की संख्या से गणना रहित, असंख्य गुणों से सम्पन्न एवं असंख्य हृदयों में विराजमान रहने से प्रभु असंख्य हैं।
उत्तर—वर्तमान कर्मभूमि के आदिम तीर्थंकर, मोक्षमार्ग के आद्य प्रणेता, धर्मचक्र का प्रवर्तन करने वाले तीर्थंकरों में प्रथम तीर्थंकर होने से आद्य कहा है।
उत्तर—कर्मभूमि की सृष्टि आपके माध्यम से प्रारम्भ हुई अत: आप ब्रह्मा है। अथवा आप आत्मानंद/स्व में निमग्न रहने से आप ब्रह्मा हैं।
उत्तर—भगवान में अनन्त गुण हैं, जो मन की िंचतन धारा से परे/दूर मात्र वीतराग र्नििवकल्प समाधि द्वारा स्वानुभाव गम्य हैं। अत: उन्हें अचिन्त्य कहा।
उत्तर—अनन्त ज्ञानादि ऐश्वर्य से सम्पन्न होने से भगवान को ईश्वर कहा है।
उत्तर—भगवान अनन्त चतुष्टय के धारी हैं, अन्त अर्थात् मृत्यु से रहित हैं तथा गुणों का अन्त न होने से अनन्त कहा है।
उत्तर—अनंग यानि कामदेव और केतु यानि धूमकेतु, कामदेव का नाश करने वाले धूमकेतु के समान होने से भगवान को अनंग केतु कहा है।
उत्तर—भगवान को योगियों के स्वामी होने से योगीश्वर कहा है।
उत्तर—अष्टांग योग के पारगामी, पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, रूपातीत आदि ध्यान योगों का स्वरूप जानने और बतलाने से उन्हें विदित योग कहा है।
उत्तर—गुण और पर्यायों की अनेकता की अपेक्षा तथा एक हजार आठ नायों से सम्बोधित होने के कारण व अनेकान्त धर्म का निरूपण करने वाले होने से उन्हें अनेक कहा गया है।
उत्तर—जीवद्रव्य की अपेक्षा एक होने से एवं तीनों लोकों में आपके सदृश दूसरा न होने से भगवान को एक कहा है।
उत्तर—भगवान केवलज्ञान स्वरूप है यद्यपि प्रभु निश्चय से स्वयं को तथा व्यवहार से पर पदार्थों को जानते हैं। अन्तरंग में प्रतिक्षण विशुद्ध ज्ञान परिणमन हो रहा है। इसलिये भगवान को ज्ञान स्वरूप कहा है।
भक्तामर स्तोत्र प्रश्नोत्तर काव्य – 25 से 36
काव्य-25
उत्तर—जिनको सत् साधना से केवलज्ञान उत्पन्न हुआ, ऐसे केवलज्ञानी की आराधना, उपासना स्वयं इन्द्र ने पृथ्वी पर आकर की, आपने केवलज्ञान को उजागर किया है अत: आप बुद्ध हैं।
उत्तर—शं यानि सुख, शांति, कर यानि करने वाले अर्थात् तीनों लोकों के जीवों को सुख देने/करने वाले, वैलाश पर्वत से निर्वाण को प्राप्त होने वाले आप ही शंकार हो।
उत्तर—मोक्षमार्ग की विधि का विधान करने से तथा युग के प्रारम्भ में असि, मसि आदि विद्या के प्रदाता होने से आप विधाता है।
उत्तर—सर्वोत्कृष्ट पुरुषत्व अपनी पर्याय में व्यक्त कर लेने से आप समस्त पुरुषों में उत्तम ‘पुरुषोत्तम’ हैं।
उत्तर—सिद्ध पर्याय की उत्पत्ति से ‘ब्रह्मा’, संसार पर्याय नाश करने से ‘महेश’ तथा जीव द्रव्य सर्व पर्याय में वही होने से पालन कर्ता ‘विष्णु’ हैं।
काव्य-26
उत्तर—काव्य २६ के माध्यम से भगवान् जिनेन्द्र को नमस्कार किया है।
उत्तर—तीनों लोकों की पीड़ा, दु:ख हर्ता कह प्रभु को नमस्कार किया है।
उत्तर—हे क्षिति यानि पृथ्वी तल के निर्मल आभूषण आपको नमस्कार हो।
उत्तर—तीनों जगत के परमेश्वर कह नमस्कार किया है।
उत्तर—भगवान् के दर्शनमात्र से दीर्घ संसार चुल्लुभर, प्रमाण रह जाता है, अत: भगवान को भविंसधु शोषक कहा है।
काव्य-27
उत्तर—वीतरागी अर्हंत भगवान की निर्दोषता, निर्मलता और अनन्तगुणों से निर्वाचित होना दर्शाया है।
उत्तर—जहाँ उन्हें आश्रय मिलता है वहीं रहते हैं।
उत्तर—भगवान् जिनेन्द्र का आश्रय मिला ?
उत्तर—अन्य रागी देवी—देवताओं का आश्रय दोषों को प्राप्त हुआ।
उत्तर—जिसको जहाँ सम्मान मिलता है वह वहीं रहता है, दोषों को वीतरागी भगवान के पास सम्मान नहीं मिला, अत: वे भगवान् को छोड़कर स्वत: चले गये।
उत्तर—जब दोषों के द्वारा स्वप्न में भी नहीं देखे जाते तथा गुणों के द्वारा निर्वाचित कर लिये जाते हैं, तभी भगवान बनते हैं।
काव्य-28
उत्तर—‘‘अशोक वृक्ष’’ नाम के प्रथम प्रातिहार्य का वर्णन है।
उत्तर—भगवान जिनेन्द्र की महिमा विशेष का बोध कराने वाले समवसरण में स्थित ८ चिन्हों को प्रातिहार्य कहते हैं।
उत्तर—१. अशोक वृक्ष, २. सिंहासन, ३. चंवर, ४. त्रय छत्र, ५. देवदुन्दुभि, ६. पुष्पवृष्टि, ७. भामण्डल, ८. दिव्यध्वनि।
उत्तर—इन्द्र की आज्ञा से कुबेर द्वारा होती है।
उत्तर—जिस वृक्ष के नीचे भगवान योग धारण कर वैâवल्य को प्राप्त होते हैं वह अशोक वृक्ष कहलाता है।
उत्तर—यह वृक्ष शोक, संताप, रोग आदि दोषों का निवारक हो जाता है।
उत्तर—तीर्थंकरों की अवगाहना से १२ गुणा अवगाहना वाला होता है।
काव्य-29
उत्तर—सिंहासन प्रातिहार्य का वर्णन है।
उत्तर—उत्कृष्ट आसन ही सिंहासन कहलाता है।
उत्तर—विविध प्रकार की मणि—मुक्ताओं की चमचमाती, जगमग किरणों से दैदीप्यमान है।
उत्तर—सुवर्ण के समान दैदीप्यमान है।
उत्तर—अर्हंत भगवान के विराजमान होने से सिंहासन दैदीप्यमान है।
काव्य-30
उत्तर—चँवर नामक प्रातिहार्य का वर्णन है।
उत्तर—जो भगवान जिनेन्द्र के दोनों ओर व्यजन (पंखे) के समान आजू—बाजू से ढोरे जाते हैं, चँवर कहलाते हैं।
उत्तर—चौंसठ चँवर ढुराये जाते हैं।
उत्तर—कुंदपुष्प के समान अत्यन्त धवल, उज्जवल, शुभ्र होते हैं।
उत्तर—नहीं, नहीं ! चौंसठ देव चौंसठ चँवरों को ढोरते हैं।
उत्तर—चँवर की तरह मृदु, धवल एवं विनयी बनों, क्योंकि वो चँवर नीचे से ऊपर की ओर जाते हैं अर्थात् जो प्रभु चरणों में झुकता है, नतमस्तक होता है वहीं नियम से ऊपर अर्थात् मोक्ष में जाता है।
काव्य-31
उत्तर—त्रय छत्र नामक प्रातिहार्य का वर्णन है ?
उत्तर—जो धूप, वर्षा आदि को रोकने के लिये सिर के ऊपर लगाया जाता हे, वह छत्र कहलाता है।
उत्तर—नहीं ! नहीं ! भगवान को एक भी बाधा बाधित नहीं करतीं, अपितु उनकी बाह्य विभूति/ऐश्वर्य को निरूपित करती हैं।
उत्तर—सम्राटों के सम्राट, चक्रवर्ती तथा इन्द्रों के इंद्र अर्थात् इनके स्वामी पने को दर्शाते हैं।
उत्तर—तीन छत्र त्रयलोकों के एक छत्र राज्य के द्योतक हैं अर्थात् तीनों जगत के परमेश्वर पने को प्रगट करते हैं।
उत्तर—वह छत्र चंद्रमा की कांति के समान, मोतियों के समूह वाली झालर से युक्त, अत्यन्त शोभा को बढ़ाने वाले हैं।
उत्तर—नहीं, समवसरण में नारकी नहीं होते हैं।
काव्य-32
उत्तर—दुंदुभि वाद्य नामक प्रातिहार्य का वर्णन है।
उत्तर—मधुर, गूढ़ ऊँचे स्वर से निनादित होने वाले देवोपनीत दिव्य घोष को दुंदुभि कहते हैं।
उत्तर—देवगण।
उत्तर—भगवान् जिनेन्द्र देव समक्ष एवं विहार करते समय।
उत्तर—साढ़े बारह करोड़।
उत्तर—तीनों लोकों के प्राणियों को शुभ समाचार देने वाला है।
उत्तर—विषय कषाय से र्मूिच्छत प्राणी जागकर शुभ समागम के इच्छुक हो जाते हैं।
उत्तर—समीचीन धर्म और धर्मराज तीर्थंकर की जय—जयकार करने वाला तथा उनका यशोगान करने वाला है।
काव्य-33
उत्तर—पुष्पवृष्टि नामक प्रातिहार्य का वर्णन है।
उत्तर—देवगणों के द्वारा आकाश से होने वाली सुगन्धित जल मिश्रित मंद—मंद वायु के साथ पुष्पों की वर्षा ही पुष्पवृष्टि प्रातिहार्य है।
उत्तर—समवसरण में।
उत्तर—मंदार, सुन्दर, नमेरु, परिजात, और संतानक नाम के कल्पवृक्षों के सुन्दर—सुन्दर पुष्पों की वृष्टि करते हैं।
उत्तर—वह पुष्पवृष्टि ऊध्र्वमुखी अर्थात् पुष्पों के मुख ऊपर की ओर तथा डंठल भाग नीचे की ओर रहता है, इस प्रकार होती है।
उत्तर—अपनी इच्छा के योग्य पदार्थों को देने वाले कल्पवृक्ष कहलाते हैं। जो भोगभूमि और देवों के नन्दनवन में पाये जाते हैं।
उत्तर—नहीं, बाधा नहीं अपितु सुख की प्रतीति होती है।
काव्य-34
उत्तर—भामण्डल नामक प्रातिहार्य का।
उत्तर—भगवान जिनेन्द्र की देह से नि:सृत रश्मियों से जो अत्यन्त शोभनीय प्रभामण्डल बनता है वही दैदीप्यमान कांति का गोलाकार मण्डल ‘‘भामण्डल’’ कहलाता है।
उत्तर—समवसरण में विराजमान अर्हंत भगवान के मस्तक के पीछे बनी गोलाकार दर्पणवत् आकृति भामण्डल है।
उत्तर—भव्यजनों के ७—७ भवों को परिलक्षित करता है।
उत्तर—३ अतीत यानि भूतकाल के, ३ भविष्यकाल के और १ वर्तमान का।
उत्तर—तीनों लोकों के कांतिवान पदार्थों की कांति को लज्जित करने वाला है।
उत्तर—भामण्डल की कांति रात्रि को भी जीत रही हैं।
काव्य-35
उत्तर—दिव्य ध्वनि प्रातिहार्य का वर्णन हैं।
उत्तर—भगवान के परमौदारिक शरीर से खिरने वाली ऊँकार रूप वाणी दिव्यध्वनि कहलाती है।
उत्तर—दिव्यध्वनि प्रात:, मध्यान्ह, सांय/ अपरान्हि और मध्यरात्रि में छ: छ: घड़ी के अन्तराल से ४ बार खिरती हैं।
उत्तर—हाँ ! भगवान की दिव्यध्वनि चक्रवर्ती आदि पुण्य पुरुषों के कारण असमय में भी खिरती है।
उत्तर—गणधर परमेष्ठी के अभाव में।
उत्तर—एक योजन अर्थात् ४ कोस तक।
उत्तर—सर्वांग से या मुख से अनक्षरात्मक / अक्षरात्मक रूप खिरती हैं।
उत्तर—मागध जाति के देवों के माध्यम से सात सौ अठारह भाषाओं में परिणम हो सुनाई देती है।
काव्य-36
प्रश्न १. आचार्य भगवान् ने इस काव्य में किसका वर्णन किया है ?
उत्तर—देवोंकृत स्वर्ण कमल की रचना जो प्रभु के चरण तले होती है ऐसा देवकृत अतिशय का वर्णन है।
प्रश्न २. देवगण स्वर्णकाल की रचना कब करते हैं ?
उत्तर—भगवान जिनेन्द्र के विहार के समय।
प्रश्न ३. विहार के समय कितने स्वर्ण कमलों की रचना होती है ?
उत्तर—२२५ कमलों की रचना होती है।
प्रश्न ४. तो जिनेन्द्र प्रभू कमलों पर चरण रखते हुए विहार करते हैं ?
उत्तर—नहीं ! नहीं ! कमलों पर नहीं वरन् कमल से चार अंगुल ऊपर अधर में ही विहार करते हैं।
प्रश्न ५. भगवान किस आसन से विहार करते हैं ?
उत्तर—खड़गासन मुद्रा में ही विहार करते हैं।
प्रश्न ६. क्या भगवान का विहार सम्पूर्ण भरत क्षेत्र में होता है ?
उत्तर—नहीं, सम्पूर्ण भरतक्षेत्र में नहीं, अपितु भरतक्षेत्र के छहखंडों (पांच मलेच्छ खण्ड और एक आर्यखण्ड) में से मात्र एक आर्यखण्ड में ही होता है।
प्रश्न ७. भगवान जिनेन्द्र धरती से कितने ऊपर आकाश में विहार करते हैं ?
उत्तर—धरती से ५००० धनुष ऊपर।
भक्तामर स्तोत्र प्रश्नोत्तर काव्य – 37 से 48
काव्य-37
उत्तर—भगवान जिनेन्द्र देव के धर्मोपदेश के समय होने वाली अद्वितीय विभूति का वर्णन है ?
उत्तर—अंतरंग और बहिरंग के भेद से भगवान जिनेन्द्र की विभूति दो प्रकार की है।
उत्तर—अनन्त दर्शन आदि अनन्त चतुष्टय तो अंतरंग विभूति है और बहिरंग विभूति यानि समवसरण, अष्ट प्रातिहार्य आदि है।
उत्तर—केवलज्ञान होने के बाद कुबेर द्वारा प्रभु के धर्मदेशना स्थल को समवसरण कहते हैं।
उत्तर—(१) मुनिगण, (२) कल्पवासी देवियाँ, (३) आयरीकाएँ / श्राविकाएँ, (४) ज्योतिष देवियाँ, (५) व्यंतर देवियाँ, (६) भवनवासी देवियाँ, (७) भवनवासी देव, (८) व्यंतर देव, (९) ज्योतिष देव, (१०) कल्पवासी देव, (११) मनुष्य गण, (१२) तिर्यंच। पूर्व दिशा में से जानना चाहिये।
काव्य-38
उत्तर—ऐरावत हाथी के समान विशाल, उद्दण्ड, मद से युक्त, क्रोध से उन्मत्त ऐसे हाथी से निर्भयता प्रदान की है।
उत्तर—गण्डस्थल अथवा मस्तक पर मड़राते हुये भौरों के गुंजन से।
उत्तर—केवल भगवान जिनेन्द्र की शरण को प्राप्त भक्त भयभीत न होगा।
उत्तर—प्रभू की शरण को प्राप्त भक्त जन्म—जरा—मृत्यु पर विजय प्राप्त कर लेता है।
काव्य-39
उत्तर— सिंह से।
उत्तर—महापराक्रमी, ऐसासिंह जिसने हाथियों के गण्डस्थल अथवा मस्तक को विदीर्ण करके रक्त एवं धवल मोतियों से भूमि प्रदेश को शोभित कर दिया है।
उत्तर—भगवान जिनेन्द्र के द्वय चरण रूपी पर्वत का आश्रय लेने वाला।
उत्तर—बंधे पांव वाला सा हो जाता है।
उत्तर—वह खुंखारसिंह आक्रमण नहीं करता अर्थात् अपनी व्रूरता को छोड़ देता है।
उत्तर—हाँ ! अिंहसक भी हो सकता है। जिसका उदाहरण अमरचंद दीवान द्वारा जलेबी का भोजनसिंह को कराया गया।
काव्य-40
उत्तर—इस काव्य में दावाग्नि शमन की बात कर रहे हैं।
उत्तर—जंगल की भयंकर अग्नि को दावाग्नि कहते हैं।
उत्तर—प्रलयकाल की महावायु से उत्तेजित चारों ओर चिंगारियों को फैकती हुई हैं।
उत्तर—समस्त विश्व को मानों भस्म ही करना चाहती हैं।
उत्तर—लोक को विश्व कहते हैं।
उत्तर—लोक तीन होते हैं। (१) ऊध्र्व लोक, (२) मध्यलोक, (३) अधोलोक।
उत्तर—भगवन् जिनेन्द्र के नाम कीर्तन रूपी जल से शमन हो जाती है।
उत्तर—जिनेन्द्र देव के गुणों का गान, स्तुति, भक्ति आदि करना कीर्तन है।
काव्य-41
उत्तर—महाभयंकर सर्प के भय से मुक्त होने की बात कही है।
उत्तर—लाल—लाल नेत्रों वाला, कोयल कंठ के समान श्यामवर्णी और अत्यन्त क्रोध से उद्दण्ड है।
उत्तर—जिन मनुष्यों के हृदय में भगवान के नाम रूपी नाग दमनी नहीं है, वे मनुष्य ऐसे सर्प से भयभीत होते हैं।
उत्तर—नाग दमनी एक औषधिक है, जिसे नामदौन भी कहते हैं।
उत्तर—भगवान जिनेन्द्र के नाम रूपी नागदमनी की बात कही है
काव्य-42
उत्तर—भयंकर युद्ध में शत्रु सेना के तितर—बितर हो जाने की बात कही है।
उत्तर—जिसे पराजित करना शक्य न हो अथवा जो कभी पराजित न हुआ हो, वह अपराजेय कहलाता है।
उत्तर—‘‘आपका नाम रूपी कीर्तन’’
उत्तर—शीघ्रता ‘तत्काल।
काव्य-43
उत्तर—इस काव्य में भीषण संग्राम में विजयश्री हासिल करने की बात कही है।
उत्तर—उसके महा सुमट बरछी भाले के अग्रभाग से हाथियों के भाल क्षत—विक्षत कर उनसे बह रही रक्त की तीव्र धारा जो जल प्रवाह की तरह है उसको तेजी से पार करने को उतावले हैं इस प्रकार के महाभयंकर योद्धा है।
उत्तर—मोह राजा का आत्मा के साथ।
उत्तर—अनादिकाल से।
उत्तर—हाँ ! जितने भी अर्हंत है उन्होंने मोहराजा को पराजित कर अर्हंत अवस्था प्राप्त की है।
काव्य-44
उत्तर—भयंकर समुद्र से।
उत्तर—प्रलयकाल के प्रचण्ड तूफान से।
उत्तर—बड़वानल है।
उत्तर—समुद्र / जलाशय, अर्थात् जल का खजाना।
उत्तर—उछलती हुई लहरों के।
काव्य-45
प्रश्न १. काव्य नं. ४५ में आचार्य भगवन् ने क्या कहा है ?
उत्तर—दैहिक व्याधियों के निराकरण की।
प्रश्न २. दैहिक व्याधियों में किस व्याधि का कथन किया है ?
उत्तर—जलोदर आदि व्याधियों का।
प्रश्न ३. जलोदर व्याधि (रोग) क्या है ?
उत्तर—पेट में जल भरत जाये और पेट फूलता जाये, साथ ही साथ शरीर के अन्य अवयव गलते जाये, ऐसे असाध्य रोग विशेष को जलोदर कहा जाता है।
प्रश्न ४. जलोदर रोग होने पर शरीर कैसा हो जाता है ?
उत्तर—वजन से शरीर वक्र तथा हाथ—पैर दुबले होते जाते हैं। असाध्य जलोदर रोग होने पर मनुष्य दयनीय, सोचनीय दशा को प्राप्त हो जाता है और अपने जीवन की आशा त्याग देता है।
प्रश्न ५. ऐसे असाध्य बीमारी से मुक्त होने के लिये आचार्य श्री ने क्या विधि बताई है ?
उत्तर—असाध्य बीमारी से मुक्त होने के लिए जिनेन्द्र देव की चरण रज को अमृत मानकर देह पर लगाने की विधि बताई है।
प्रश्न ६. क्या भगवान की चरणरज से शारीरिक व्याधियाँ दूर होती है ?
उत्तर—शारीरिक व्याधियों के साथ—साथ जन्म, जरा, मृत्यु, जैसी महाव्याधियाँ भी दूर हो जाती है।
काव्य-46
उत्तर—बंधन के भय से।
उत्तर—जिनेन्द्र देव के नाम रूपी मंत्र के निरन्तर जाप्य की विधि बतलाई हैं।
उत्तर—हाँ ! चमत्कार होता है।
उत्तर—पहला उदाहरण कि आचार्य भगवन् ४६ वें काव्य को पढ़ते ही बंधन मुक्त हुए। दूसरा चंदनवाला भगवान के नाम का स्मरण, दर्शन करते ही बंधन रहित हो गई।
उत्तर—भगवान जिनेन्द्र देव के नाम रूपी मंत्र का जाप्य करने से मात्र बाहर के बंधनों से ही नहीं अपितु कर्म बंधनों से भी मुक्ति प्राप्त होती है।
काव्य-47
उत्तर—जो बुद्धिमान पुरुष भगवान जिनेन्द्र देव के इस भक्ति स्तोत्र को पढ़ता है उससे भय भी भयभीत हो जाता है।
उत्तर—मदोन्नत हाथी, विकराल सिंह, भभवती दावानल, भयंकर सर्प, वीभत्स संग्राम, विक्षुब्ध समुद्र, कष्ट साध्य जलोदर, बंधन
उत्तर—सर्वप्रकार के भय सर्वधा के लिए दूर हो जाते हैं।
उत्तर—भय संज्ञा होने से।
उत्तर—मदोन्मत्त हाथी।
काव्य-48
उत्तर—भक्तामार स्तोत्र का फल कहा है।
उत्तर—प्रभू के गुणों से।
उत्तर—नाना प्रकार के शब्द, स्वर, व्यंजन रूपी सुन्दर-सुन्दर पुष्प चुने गये हैं।
उत्तर—कंठ में तथा नित्य—निरन्तर अर्थात् केवलज्ञान न होने तक।
उत्तर—निरन्तर स्तुति, भक्ति पाठ करना।
उत्तर—विवश होकर।
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भक्तामर स्तोत्र प्रश्नोत्तर काव्य – 13 से 24
काव्य-13
प्रश्न १. भगवान जिनेन्द्र का मुख कैसा है ?
उत्तर—देव, मनुष्य एवं धरणेन्द्रों के नेत्र को हरण करने वाला है।प्रश्न २. किस उपमा से अलंकृत किया है ?
उत्तर—जिनेन्द्र प्रभु को उपमातीत अर्थात, सम्पूर्ण जगत् की सम्पूर्ण उपमाओं को जीतने वाला कहा है।प्रश्न ३. तो फिर भगवन् मानतुंग स्वामी ने चन्द्रमा का बिम्ब कैसा बताया है ?
उत्तर—कलंक से मलिन एवं ढाक पत्र (पत्ते) समान पीला सफेद हो जाने वाला बताया है।प्रश्न ४. देव किसे कहते हैं ?
उत्तर—देवगति नामकर्म के उदर से जीव की पर्याय / अवस्था विशेष को देवगति कहते हैं, उपपाद शय्या एवं वैक्रियक शरीर सेजन्म, अणिमादि ऋद्धि युत देव कहलाते हैं।प्रश्न ५. मनुष्य किसे कहते हैं ?
उत्तर—मनुष्यगति नाम कर्म के उदय से होने वाली जीव की पर्याय / अवस्था विशेष को मनुष्य गति कहते हैं संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक, रजो—वीर्य से गर्भ जन्म वाले मनुष्य कहे जाते हैं।प्रश्न ६. धरणेन्द्र किसे कहते हैं ?
उत्तर—भवनवासी देवों के १० भेद हैं उन भेदों में नागकुमार जाति के देव हैं, उन देवों के इन्द्र को धरणेन्द्र कहते हैं।प्रश्न ७. काव्य नं. १३ का ऋद्धिमंत्र बताइये ?
उत्तर—ॐ ह्रीं अर्हं णमो ऋजु मदीणं’’
काव्य-14
प्रश्न १. जिनेन्द्र भगवान के कितने गुण और कैसे गुणों की चर्चा की है ?
उत्तर—प्रभु की सर्वगुण सम्पन्ना यानि लोक व्यापी गुणों की चर्चा की है।प्रश्न २. गुण किसे कहते हैं ?
उत्तर—जो वस्तु के अस्तित्व की पहिचान करायें अथवा जो द्रव्य के आश्रय रहते हैं वे गुण कहलाते हैं। जेसे–जीव के ज्ञानादि गुण, पुद्गल के रसादि गुण।प्रश्न ३. वे गुण तीनों लोक में क्यों व्याप्त हो रहे हैं ?
उत्तर—क्योंकि उन्होंने अपना आश्रय/सहारा तीनलोक के नाथ का लिया है तब उन्हें त्रयलोक में व्याप्त होने से कौन रोक सकता है।प्रश्न ४. ‘यथेष्टम् संचरत: का अर्थ स्पष्ट कीजिए ?
उत्तर—अपनी इच्छानुसार विचरण/भ्रमण/घूमने से।प्रश्न ५. जिनेन्द्र प्रभु के गुणों को किसकी उपमा दी है ?
उत्तर—पूर्णिमा के चन्द्र की कलाओं के सदृश उज्जवल गुणों की उपमा दी है।प्रश्न ६. काव्य नं. १४ का ऋद्धि मंत्र बता दीजिये ?
उत्तर—‘ॐ ह्रीं अर्हं णमो विउंल मदीणं।’’
काव्य-15
प्रश्न १. आचार्य मानतुंग स्वामी ने १३वें काव्य के माध्यम से क्या कहा है ?
उत्तर—जिनेन्द्र प्रभु का पूर्ण निर्विकारिधना प्रस्तुत किया है।प्रश्न २. विकार कहाँ और कब उत्पन्न होता है ?
उत्तर—मोह ग्रस्त मन में ही विकार उत्पन्न होता है।प्रश्न ३. जिनेन्द्र प्रभु में पूर्ण निर्विकारीपना क्यों है ?
उत्तर—मोहनीय कर्म के क्षय कर देने से क्योंकि जहाँ मोह नहीं वहाँ विकार नहीं।प्रश्न ४. मोहनीय कर्म कितने प्रकार का होता है ?
उत्तर—दर्शनमोहनीय और चारित्र मोहनीय के भेद से दो प्रकार का होता है।प्रश्न ५. दर्शन मोहनीय के भेद बता दीजिये ?
उत्तर—(१) मिथ्यात्व, (२) सम्यक् मिथ्यात्व, (३) सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व।प्रश्न ६. दर्शन मोहनीय का आश्रव किन कारणों से होता है ?
उत्तर—(१) केवलि अवर्णव्द, (२) श्रुत अवर्णवाद, (३) संघ अवर्णवाद, (४) धर्म अवर्णवाद, (५) देव अवर्णवाद, इनसे दर्शन मोहनीय का आश्रव होता है।प्रश्न ७. अवर्णवाद किसे कहते हैं ?
उत्तर—अंतरंग के कालुष्य परिणाम के कारण किसी में दोष नहीं होने पर भी उसको झूठा दोष लगाना, इसका नाम अवर्णवाद है।प्रश्न ८. चारित्र मोहनीय के भेद बताइये ?
उत्तर—मूल २ भेद उत्तर भेद २५ है।प्रश्न ९. २ भेद कौन—२ से हैं ?
उत्तर—(१) कषाय मोहनीय, (२) अकषाय मोहनीय।प्रश्न १०. कषाय मोहनीय के कितने भेद हैं ?
उत्तर—१६ भेद हैं।प्रश्न ११. अकषाय मोहनीय के कितने भेद हैं ?
उत्तर—९ भेद हैं (१) हास्य, (२) रति, (३) अरति, (४) शोक, (५) भय, (६) जुगुप्सा, (७) स्त्रीवेद, (८) पुरुषवेद, (९) नपुंसक वेद।प्रश्न १२. मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति बताइये ?
उत्तर—७० कोड़ाकोड़ी सामर की है।
काव्य-16
प्रश्न १. जिनेन्द्र प्रभु को कैसे दीपक की उपमा दी है ?
उत्तर—अपूर्व दीपक की।प्रश्न २. वह अपूर्व दीपक कैसा है ?
उत्तर—धुआं, बत्ती से एवं तेल की पूर्णता से रहित है।प्रश्न ३. वह अपूर्व दीपक किसका प्रतीक है।
उत्तर—केवलज्ञान का प्रतीत है।प्रश्न ४. केवलज्ञान का तात्पर्य क्या है ?
उत्तर—केवलज्ञान असहाय अर्थात् अकेला है, जो तीन लोक के समस्त द्रव्य एवं उन द्रव्यों को समस्त पर्यायों को युगपत जानता है।प्रश्न ५. केवलज्ञान की प्राप्ति कब होती है ?
उत्तर—ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्मों का क्षय होते ही केवलज्ञान प्रकट होता है।प्रश्न ६. क्षय का तात्पर्य क्या हैं ?
उत्तर—नष्ट/नाश / समाप्त होना।प्रश्न ७. ‘‘कृत्स्नं जगत्रय’’ का क्या है ?
उत्तर—सम्पूर्ण तीनों लोक।प्रश्न ८. क्या पंखे आदि की हवा से अपूर्व दीपक बुझ जाता है।
उत्तर—नहीं / केवलज्ञान रूप अपूर्व दीपक को बुझाने में पर्वतों को चलायमान करने वाली प्रचण्ड वायु भी समर्थ नहीं है। फिर पंखे की हवा की क्या शक्ति ?प्रश्न ९. इस काव्य की आराधना किसने की ?
उत्तर—युवराज क्षेमंकर ने की।प्रश्न १०. कौन सी देवी उपस्थित हुई थीं ?
उत्तर—जिनशासन की अधिष्ठाती चतुर्भुजी देवी।प्रश्न ११. युवराज क्षेंमकर के माता—पिता का नाम बताइये ?
उत्तर—पिता महीपचंद्र और माँ सोमश्री थीं।प्रश्न १२. मित्राबाई ने क्या नियम लिया था ?
उत्तर—रत्नमयी पार्श्वनाथ की प्रतिम्य के दर्शनोंपरान्त हो भोजन लेंगे।प्रश्न १३. अध्ययन एवं नियम मित्राबाई ने किस आर्यिका से ग्रहण किया।
उत्तर—पूज्य श्रीमती आर्यिका से।
काव्य-17
प्रश्न १. आचार्य भगवन् ने जिनेन्द्र प्रभु को कैसा बताय है ?
उत्तर—सूर्य से भी अधिक महिमाशाली कहा है।प्रश्न २. किस कारण से सूर्य से अधिक महिमाशाली कहा है ?
उत्तर—लौकिक सूर्य / दिखने वाला सूर्य उदित होकर अस्त को प्राप्त हो जाता है, लेकिन हे जिनेन्द्र ! आप ऐसे अद्वितीय सूर्य हैं, जो कभी भी अस्त को प्राप्त नहीं होते हो। लौकिक सूर्य राहू के द्वारा ग्रस लिया जाता है, लेकिन हे जिनेन्द्र ! आप राहू के ग्रास गम्य नहीं हैं। लौकिक सूर्य सभी चराचर पदार्थों को प्रकाशित नहीं करता, किन्तु हे जिनेन्द्र ! आप ऐसे अलौकिक सूर्य हैं जोसमस्त चराचर पदार्थों तथा तीनों लोकों को शीघ्रता से एक साथ एक समय में ही प्रकाशित करते हो।प्रश्न ३. राहु क्या है ? और इससे कौन ग्रसा जाता है ?
उत्तर—राहु नवग्रहों में से एक ग्रह है, जो सूर्य तथा चन्द्रमा के ऊपर संक्रमण काल में अपनी छाया डालता है, उसे ही ग्रहण माना जाता है।प्रश्न ४. ग्रहणकाल में कौन—कौन से सिद्धांत ग्रंथ की वाचना / पढ़ना नहीं चाहिए ?
उत्तर—धवलाजी, षट्खण्डागम, लब्धिसार, क्षपणासार, गोम्मटसार, जीवकांड, त्रिलोकसार, तिलोयपण्णत्ति आदि सिद्धांत ग्रंथों की वाचना नहीं करनी चाहिए।प्रश्न ५. तीन लोकों में सूर्य—चन्द्रमा कहां—कहां है ?
उत्तर—सूर्य—चन्द्रमा केवल मध्यलोक में ही हैं। स्वर्गों में, नरकों में, सिद्धालय भी में सूर्य नहीं है।
काव्य-18
प्रश्न १. आचार्य भगवन् मानतुंग स्वामी ने जिनेन्द्र प्रभु का मुख कैसा बताया है ?
उत्तर—जिनेन्द्र प्रभु का मुखकमल अद्वितीय चन्द्रबिम्ब की कांति के समान कहा है।प्रश्न २. भगवान् जिनेन्द्र का मुख चंद्र क्या करता है ?
उत्तर—मोहरूपी महान् अज्ञान अंधकार का नाश करता है।प्रश्न ३. भगवान् के मुख कमल को अपूर्व चंद्रमा किन विशेषताओं के कारण बताया है ?
उत्तर—आचार्य मानतुंग स्वामी ने भगवान जिनेन्द्र की अपूर्व—चन्द्रमा निम्न कारणों से कहा— लौकिक चन्द्रमा तो मात्र रात्रि में उदित होता है, किन्तु हे जिनेन्द्र ! आप ऐसे अपूर्वचन्द्र हो, जो नित्य ही उदय को प्राप्त है अर्थात् आपका क्षायिक ज्ञान कभी अस्त को प्राप्त नहीं होता, सदा उदित रहता है।लौकिक चन्द्रमा तो चन्द्रग्रहण के समय राहु ग्रह द्वारा ग्रस लिया जाात हे, लेकिन हे जिनेन्द्र ! आपका अलौकिक मुखचंद्र शुभाशुभ कर्म रूपी राहुग्रह के द्वारा कभी भी नहीं ग्रसा जाता। लौकिक चन्द्रमा की ज्योत्सना बादलों के द्वारा पराभूत हो जाती है, किन्तु हे जिनेन्द्र ! आपके गुणों की शुभ्र ज्योत्सना बादलों के द्वारा भी अशक्य है। लौकिक चंद्रमा की कांति तो शुक्ल पक्ष की र्पूिणमा के पश्चात् क्रमश: क्षीण होती जाती है, किन्तु हे जिनेन्द्र ! आपका मुखचंद्र तो पूर्ण चंद्रमा के समान सदैव अनल्पकांति वाला ही रहता है।प्रश्न ४. काव्य नं. १८ का ऋद्धिमंत्र बताइये ?
उत्तर—‘‘ॐ ह्रीं अर्हं णमो विउव्व—इड्ठिपत्ताणं’’।प्रश्न ५. इस काव्य की आराधना किसने की ?
उत्तर—भद्रकुमार ने की।प्रश्न ६. कौन सी देवी प्रकट हुई ?
उत्तर—वङ्काादेवी प्रकट हुईं।प्रश्न ७. कर्मों का राजा कौन है ?
उत्तर—माहेनीय कर्म।
काव्य-19
प्रश्न १. आचार्य भगवन मानतुंग स्वामी ने काव्य नं १९ में भगवान जिनेन्द्रदेव के मुखचंद्र के समक्ष किसको निष्प्रयोजनीय माना है ?
उत्तर—भगवान के मुखचन्द्र के समक्ष दिन सूर्य और रात्रि में चंद्रमा का निष्प्रयोजनाय माना है।प्रश्न २. जिनेन्द्र प्रभु के मुखचंद्र ने किसका नाश किया ?
उत्तर—समस्त अंतरंग और बहिरंग अंधकार का नाश कर दिया।प्रश्न ३. प्रभु के मुखचंद्र के समक्ष सूर्य—चंद्र को निष्प्रयोजनी क्यों कहा ?
उत्तर—आगमोक्त कथन है कि तीर्थंकर देव की कांति के कारण २४ घंटे तेज प्रकाश बना रहता है, अतएव वहाँ न तो रात्रि में चंद्रमा की और न ही दिन में सूर्य की कुछ आवश्यकता रहती है।प्रश्न ४. ‘‘निष्पन्न-शालि-वन-शालिनि’’ का आशय बताइये ?
उत्तर—‘‘पवे हुये धान्य के खेत शोभाशाली होने पर’’प्रश्न ५. ‘‘जलभार नम्रै:’’ का अर्थ बता दीजिये ?
उत्तर—जल के भार से झुके हुये।प्रश्न ६. ‘‘शर्वरीषु शशिना’’ को स्पष्ट कीजिये ?
उत्तर—रात्रि में चन्द्रमा से।प्रश्न ७. काव्य नं १९ का ऋद्धिमंत्र बताइये ?
उत्तर—‘‘ऊँ ह्रीं अर्हं णमो विज्जाहराणं’’।प्रश्न ८. इस मंत्र की आराधना किसके द्वारा की गयी ?
उत्तर—सुखानंद जौहरी के द्वारा की गयी।प्रश्न ९. कहाँ और कितने दिन की गयी ?
उत्तर—कारागार में ३ दिन तक की।प्रश्न १०. कौन सी देवी ने उन्हें संकट मुक्त किया ?
उत्तर—जिनशासन अधिष्ठात्री जम्बूमति देवी।
काव्य-20
प्रश्न १. आचार्य भगवन् ने २० वें काव्य में भगवान के कौन से ज्ञान का वर्णन किया है ?
उत्तर—भगवान जिनेन्द्र के केवलज्ञान का वर्णन किया है।प्रश्न २. वीतरागी किसे कहते हैं ?
उत्तर—जिसका राग बीत गया है अर्थात् जो रागद्वेष से रहित हो गये हैं, ऐसे १८ दोषों से रहित भगवान वीतरागी हैं।प्रश्न ३. अठारह दोष कौन—कौन से हैं ?
उत्तर—१. क्षुधा, २. प्यास, ३. बुढ़ापा, ४. रोग, ५. जन्म, ६.मरण, ७. भय, ८. मद्, ९. राग, १०, द्वेष, ११. मोह, १२. निद्रा, १३. शोक, १४. चिंता, १५. दु:ख, १६. आरत/अरति, १७. आश्चर्य, १८. स्वेद।प्रश्न ४. क्या सभी देव वीतरागी होते हैं ?
उत्तर—नहीं, सभी देव वीतरागी नहीं होते अपितु देवाधिदेव ही वीतरागी होते हैं तथा देवगति के समस्त देव सरागी होते हैं।प्रश्न ५. क्या ब्रह्मा, विष्णु, महेश वीतरागी देव है ?
उत्तर—नहीं, वीतरागी नहीं अपितु सरागी देव हैं।प्रश्न ६. आचार्य भगवन् मानतुंग ने वीतरागी एवं सरागी देवों को किसके समान कहा है ?
उत्तर—वीतरागी देव को जगमगाती महामिणयों के समान एवं सरागी देव को कांच के टुकड़ों के समान कहा है।प्रश्न ७. आगम में कितने देवों का वर्णन हैं ?
उत्तर—चार प्रकार के देवों का वर्णन है। (१) देव, (२) अदेव, (३) कुदेव, (४) देवाधिदेव।प्रश्न ८. उपर्युक्त चार प्रकार के देवों में हमें नमस्कार किसे करना चाहिए।
उत्तर—मात्र देवाधिदेव को नमस्कार करना चाहिए।
काव्य-21
प्रश्न १. आचार्य भगवन् मानतुंग स्वामी ने हरिहर आदि देवों को देखना श्रेष्ठ क्यों समझा ?
उत्तर—उन्हें देखकर उनके रागद्वेष, विषय कषायों से युक्त होना ही उनके अरुचि का कारण बना, सरागी हरिहर आदि देवों को देखने बाद ज्यों ही आपको यानि वीतरागी मुद्रा को देखा तो आपके/प्रभु के वीतरागी स्वरूप पर मैं संतुष्ट हो गया।प्रश्न २. वीतरागी और सरागी देवों में क्या अन्त है।
उत्तर—रागद्वेष आदि १८ दोषों से रहित देव वीतरागी एवं राग—द्वेष कषायों से युक्त देव सरागी होते हैं।प्रश्न ३. पंच परावर्तन रूप संसार वीतराग प्रभु को देखने के बाद कितना रह जाता है ?
उत्तर—चुल्लू प्रमाण रह जाता है। ‘प्रश्न ४. सम्यग्दृष्टि आत्मा कैसी होती है ?
उत्तर—जन्म—जन्मान्तरों में भी सरागी देवों के प्रति आर्किषत नहीं होती हैं।प्रश्न ५. सच्चा देव किसको माना गया ?
उत्तर—जिसके अन्दर वीतरागता, हितोपदेशिता एवं सर्वज्ञपना हे, वही सच्चा देव है।
काव्य-22
प्रश्न १. इस काव्य में किसकी श्रेष्ठता का वर्णन किया है ?
उत्तर—तीर्थंकर की माता की श्रेष्ठता का वर्णन किया है।प्रश्न २. तीर्थंकर की माता का श्रेष्ठ क्यों माना है ?
उत्तर—तीर्थंकर को जन्म देने के कारण।प्रश्न ३. क्या अन्य माताएँ तीर्थंकर के समान पुत्र को जन्म नहीं दे सकती ?
उत्तर—नहीं, तीर्थंकर जैसे प्रतापी पुत्र को अन्य/साधारण माताएँ जन्म नहीं दे सकतीं।प्रश्न ४. इसके लिए आचार्य मानतुंग भगवन् ने कौन सा उदाहरण दिया है ?
उत्तर—जिस प्रकार पूर्व दिशा ही प्रतापी सूर्य को जन्म दे सकती है, अन्य दिशायें नहीं, उसी प्रकार तीर्थकर की माँ ही तीर्थंकर को जन्म दे सकती है।प्रश्न ५. इस काव्य का ऋद्धि मंत्र बताइये ?
उत्तर—‘‘ॐ ह्रीं अर्हं णमो आगास—गामीणं।’’
काव्य-23
प्रश्न १. वीतराग अर्हंत को मुनिजन कैसा मानते हैं ?
उत्तर—मुनिजन सूर्य के समान तेजस्वी, निर्मल, अज्ञान अंधकार से रहित, मृत्युजंयी, मोक्ष के मार्ग को तथा लोकोत्तर/श्रेष्ठ पुरुष को वीतराग अर्हंत मानते हैं।प्रश्न २. अर्हंत भगवान को अमल क्यों कहा ?
उत्तर—द्रव्यमल, भावमल आदि से रहित होने के कारण ‘अमल’ कहा है।प्रश्न ३. अर्हंत भगवान को अंधकार रहित क्यों कहा है ?
उत्तर—ज्ञानावरणी कर्म को समूल नष्ट कर मोहान्धकार को समाप्त/ विध्वंस करने के कारण अर्हंत देव को अंधकार से रहित कहा है।प्रश्न ४. अर्हंत प्रभु को मृत्युञ्जयी क्यों कहा है ?
उत्तर—उन्होंने मृत्यु यानि मरण को जीत लिया है और निर्वाण को प्राप्त होने वाले हैं अत: मृत्युविजयी होने से वे मृत्युञ्जयी कहलाते हैं।प्रश्न ५. क्या हम भी मृत्युंजयी बन सकते हैं ?
उत्तर—हाँ ! यदि हम अर्हंत जिनेन्द्र की समीचीन शरण प्राप्त कर लें तो हम भी मृत्युंजयी बन सकते हैं।प्रश्न ६. अर्हंत प्रभु को परम पुरुष क्यों कहा ?
उत्तर—उपर्युक्त लोकोत्तर अवस्थाओं को प्राप्त कर लेने के कारण प्रभु को पुरुषोत्तम/श्रेष्ठ पुरुष/परम पुरुष कहा है।प्रश्न ७. काव्य नं. २३ का ऋद्धि मंत्र भी बता दीजिए ?
उत्तर—‘‘ॐ ह्रीं अर्हं णमो आसी—विसाणं’’।प्रश्न ८. ‘‘उपलभ्य जयन्ति मृत्युं’’ का अर्थ स्पष्ट कीजिए ?
उत्तर—प्राप्त करके यानि आपको प्राप्त करके मृत्यु को जीतते हैं।
काव्य-24
प्रश्न १. भगवान को अव्यय क्यों कहा है ?
उत्तर—आत्म ज्ञान का जो अलौकिक स्वरूप प्राप्त हुआ वह स्खलित/समाप्त या विनाश को प्राप्त नहीं होगा, अत: अव्यय कहकर पुकारा है।प्रश्न २. तो विभु क्यों कहा है ?
उत्तर—प्रभु अंतरंग और बहिरंग ऐश्वर्य से सम्पन्न होने के कारण विभु हैं।प्रश्न ३. भगवान को असंख्य क्यों कहा ?
उत्तर—गुण और काल की संख्या से गणना रहित, असंख्य गुणों से सम्पन्न एवं असंख्य हृदयों में विराजमान रहने से प्रभु असंख्य हैं।प्रश्न ४. प्रभु को आद्य क्यों कहा ?
उत्तर—वर्तमान कर्मभूमि के आदिम तीर्थंकर, मोक्षमार्ग के आद्य प्रणेता, धर्मचक्र का प्रवर्तन करने वाले तीर्थंकरों में प्रथम तीर्थंकर होने से आद्य कहा है।प्रश्न ५. प्रभु को ब्रह्मा क्यों कहा ?
उत्तर—कर्मभूमि की सृष्टि आपके माध्यम से प्रारम्भ हुई अत: आप ब्रह्मा है। अथवा आप आत्मानंद/स्व में निमग्न रहने से आप ब्रह्मा हैं।प्रश्न ६. भगवान को अचिन्त्य क्यों कहा ?
उत्तर—भगवान में अनन्त गुण हैं, जो मन की िंचतन धारा से परे/दूर मात्र वीतराग र्नििवकल्प समाधि द्वारा स्वानुभाव गम्य हैं। अत: उन्हें अचिन्त्य कहा।प्रश्न ७. भगवान को ईश्वर क्यों कहा ?
उत्तर—अनन्त ज्ञानादि ऐश्वर्य से सम्पन्न होने से भगवान को ईश्वर कहा है।प्रश्न ८. भगवान को अनन्त क्यों कहा ?
उत्तर—भगवान अनन्त चतुष्टय के धारी हैं, अन्त अर्थात् मृत्यु से रहित हैं तथा गुणों का अन्त न होने से अनन्त कहा है।प्रश्न ९. भगवान को अनंगकेतु क्यों कहा ?
उत्तर—अनंग यानि कामदेव और केतु यानि धूमकेतु, कामदेव का नाश करने वाले धूमकेतु के समान होने से भगवान को अनंग केतु कहा है।प्रश्न १०. भगवान को योगीश्वर क्यों कहा ?
उत्तर—भगवान को योगियों के स्वामी होने से योगीश्वर कहा है।प्रश्न ११. भगवान को विदित योग क्यों कहा ?
उत्तर—अष्टांग योग के पारगामी, पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, रूपातीत आदि ध्यान योगों का स्वरूप जानने और बतलाने से उन्हें विदित योग कहा है।प्रश्न १२. भगवान को अनेक क्यों कहा ?
उत्तर—गुण और पर्यायों की अनेकता की अपेक्षा तथा एक हजार आठ नायों से सम्बोधित होने के कारण व अनेकान्त धर्म का निरूपण करने वाले होने से उन्हें अनेक कहा गया है।प्रश्न १३. भगवान को एक क्यों कहा ?
उत्तर—जीवद्रव्य की अपेक्षा एक होने से एवं तीनों लोकों में आपके सदृश दूसरा न होने से भगवान को एक कहा है।प्रश्न १४. भगवान को ज्ञान स्वरूप क्यों कहा ?
उत्तर—भगवान केवलज्ञान स्वरूप है यद्यपि प्रभु निश्चय से स्वयं को तथा व्यवहार से पर पदार्थों को जानते हैं। अन्तरंग में प्रतिक्षण विशुद्ध ज्ञान परिणमन हो रहा है। इसलिये भगवान को ज्ञान स्वरूप कहा है।- + 3
भक्तामर स्तोत्र प्रश्नोत्तर काव्य – 25 से 36
काव्य-25
प्रश्न १. आचार्य मानतुंग भगवन् ने प्रभु को बुद्ध कहकर क्यों पुकारा ?
उत्तर—जिनको सत् साधना से केवलज्ञान उत्पन्न हुआ, ऐसे केवलज्ञानी की आराधना, उपासना स्वयं इन्द्र ने पृथ्वी पर आकर की, आपने केवलज्ञान को उजागर किया है अत: आप बुद्ध हैं।प्रश्न २. भगवान को शंकर क्यों कहा ?
उत्तर—शं यानि सुख, शांति, कर यानि करने वाले अर्थात् तीनों लोकों के जीवों को सुख देने/करने वाले, वैलाश पर्वत से निर्वाण को प्राप्त होने वाले आप ही शंकार हो।प्रश्न ३. भगवान को विधाता क्यों कहा ?
उत्तर—मोक्षमार्ग की विधि का विधान करने से तथा युग के प्रारम्भ में असि, मसि आदि विद्या के प्रदाता होने से आप विधाता है।प्रश्न ४. भगवान को पुरुषोत्तम क्यों कहा ?
उत्तर—सर्वोत्कृष्ट पुरुषत्व अपनी पर्याय में व्यक्त कर लेने से आप समस्त पुरुषों में उत्तम ‘पुरुषोत्तम’ हैं।प्रश्न ५. भगवान जिनेन्द्र में ब्रह्मा, विष्णु, महेश पना कैसे घटित होता है।
उत्तर—सिद्ध पर्याय की उत्पत्ति से ‘ब्रह्मा’, संसार पर्याय नाश करने से ‘महेश’ तथा जीव द्रव्य सर्व पर्याय में वही होने से पालन कर्ता ‘विष्णु’ हैं।
काव्य-26
प्रश्न १. काव्य नं २६ में आचार्य भगवन् ने क्या किया है ?
उत्तर—काव्य २६ के माध्यम से भगवान् जिनेन्द्र को नमस्कार किया है।प्रश्न २. काव्य की प्रथम लाईन में क्या कहते हुए नमस्कार किया है ?
उत्तर—तीनों लोकों की पीड़ा, दु:ख हर्ता कह प्रभु को नमस्कार किया है।प्रश्न ३. दूसरे पद में क्या कहते हुए नमस्कार किया है ?
उत्तर—हे क्षिति यानि पृथ्वी तल के निर्मल आभूषण आपको नमस्कार हो।प्रश्न ४. वीतराग भगवान पृथ्वीतल के निर्मल आभूषण कैसे हैं ?
उत्तर—वीतरागी भगवान तीनों लोकों के शिरोमणि, रत्नत्रय से मण्डित, अनन्त—चतुष्टय के मणि, नव केवल लब्धियाँ आदि आत्म अलंकार से शोभित होने से आप पृथ्वी तल के निर्मल आभूषण हैं।प्रश्न ५. तृतीय पद में क्या कहते हुए नस्मकार किया है ?
उत्तर—तीनों जगत के परमेश्वर कह नमस्कार किया है।प्रश्न ६. भगवान् को भविंसधु शोषक क्यों कहा ?
उत्तर—भगवान् के दर्शनमात्र से दीर्घ संसार चुल्लुभर, प्रमाण रह जाता है, अत: भगवान को भविंसधु शोषक कहा है।
काव्य-27
प्रश्न १. आचार्य भगवन् ने काव्य २७ के माध्यम से क्या दर्शाया है ?
उत्तर—वीतरागी अर्हंत भगवान की निर्दोषता, निर्मलता और अनन्तगुणों से निर्वाचित होना दर्शाया है।प्रश्न २. गुण और दोष कहाँ रहते हैं ?
उत्तर—जहाँ उन्हें आश्रय मिलता है वहीं रहते हैं।प्रश्न ३. गुणों को किसका आश्रय मिला ?
उत्तर—भगवान् जिनेन्द्र का आश्रय मिला ?प्रश्न ४. दोषों को किसका आश्रय मिला ?
उत्तर—अन्य रागी देवी—देवताओं का आश्रय दोषों को प्राप्त हुआ।प्रश्न ५. भगवान जिनेन्द्र के पास दोष क्यों नहीं ठहरें ?
उत्तर—जिसको जहाँ सम्मान मिलता है वह वहीं रहता है, दोषों को वीतरागी भगवान के पास सम्मान नहीं मिला, अत: वे भगवान् को छोड़कर स्वत: चले गये।प्रश्न ६. भगवान कब बनते हैं ?
उत्तर—जब दोषों के द्वारा स्वप्न में भी नहीं देखे जाते तथा गुणों के द्वारा निर्वाचित कर लिये जाते हैं, तभी भगवान बनते हैं।
काव्य-28
प्रश्न १. काव्य नं २८ में किसका वर्णन है ?
उत्तर—‘‘अशोक वृक्ष’’ नाम के प्रथम प्रातिहार्य का वर्णन है।प्रश्न २. प्रातिहार्य किसे कहते हैं ?
उत्तर—भगवान जिनेन्द्र की महिमा विशेष का बोध कराने वाले समवसरण में स्थित ८ चिन्हों को प्रातिहार्य कहते हैं।प्रश्न ३. ८ प्रातिहार्य कौन—कौन से हैं ?
उत्तर—१. अशोक वृक्ष, २. सिंहासन, ३. चंवर, ४. त्रय छत्र, ५. देवदुन्दुभि, ६. पुष्पवृष्टि, ७. भामण्डल, ८. दिव्यध्वनि।प्रश्न ४. इन प्रातिहार्यों की रचना कौन करता है ?
उत्तर—इन्द्र की आज्ञा से कुबेर द्वारा होती है।प्रश्न ५. अशोक वृक्ष किसे कहते हैं ?
उत्तर—जिस वृक्ष के नीचे भगवान योग धारण कर वैâवल्य को प्राप्त होते हैं वह अशोक वृक्ष कहलाता है।प्रश्न ६. इस वृक्ष की कोई विशेषता बताइये ?
उत्तर—यह वृक्ष शोक, संताप, रोग आदि दोषों का निवारक हो जाता है।प्रश्न ७. यह वृक्ष कितना ऊँचा होता है ?
उत्तर—तीर्थंकरों की अवगाहना से १२ गुणा अवगाहना वाला होता है।
काव्य-29
प्रश्न १. काव्य नं. २९ में किसका वर्णन है ?
उत्तर—सिंहासन प्रातिहार्य का वर्णन है।प्रश्न २. सिंहासन किसे कहते हैं ?
उत्तर—उत्कृष्ट आसन ही सिंहासन कहलाता है।प्रश्न ३. वह सिंहासन कैसा हैं ?
उत्तर—विविध प्रकार की मणि—मुक्ताओं की चमचमाती, जगमग किरणों से दैदीप्यमान है।प्रश्न ४. अर्हंत भगवान का शरीर कैसा है ?
उत्तर—सुवर्ण के समान दैदीप्यमान है।प्रश्न ५. किसकी शोभा किससे दैदीप्यमान है ?
उत्तर—अर्हंत भगवान के विराजमान होने से सिंहासन दैदीप्यमान है।
काव्य-30
प्रश्न १. काव्य नं ३० में किसका वर्णन है ?
उत्तर—चँवर नामक प्रातिहार्य का वर्णन है।प्रश्न २. चँवर किसे कहते हैं ?
उत्तर—जो भगवान जिनेन्द्र के दोनों ओर व्यजन (पंखे) के समान आजू—बाजू से ढोरे जाते हैं, चँवर कहलाते हैं।प्रश्न ३. भगवान जिनेन्द्र के आजू—बाजू में कितने चँवर ढुराये जाते हैं ?
उत्तर—चौंसठ चँवर ढुराये जाते हैं।प्रश्न ४. चँवर किस वर्ण वाले होते हैं ?
उत्तर—कुंदपुष्प के समान अत्यन्त धवल, उज्जवल, शुभ्र होते हैं।प्रश्न ५. चँवर ढोरने वाले क्या मनुष्य होते हैं ?
उत्तर—नहीं, नहीं ! चौंसठ देव चौंसठ चँवरों को ढोरते हैं।प्रश्न ६. ढुरते हुए चँवरों से क्या शिक्षा मिलती हैं ?
उत्तर—चँवर की तरह मृदु, धवल एवं विनयी बनों, क्योंकि वो चँवर नीचे से ऊपर की ओर जाते हैं अर्थात् जो प्रभु चरणों में झुकता है, नतमस्तक होता है वहीं नियम से ऊपर अर्थात् मोक्ष में जाता है।
काव्य-31
प्रश्न १. काव्य नं. ३१ में किसका वर्णन है ?
उत्तर—त्रय छत्र नामक प्रातिहार्य का वर्णन है ?प्रश्न २. छत्र किसे कहते हैं ?
उत्तर—जो धूप, वर्षा आदि को रोकने के लिये सिर के ऊपर लगाया जाता हे, वह छत्र कहलाता है।प्रश्न ३. भगवान के ऊपर छत्र क्या वर्षा, धूप की बाधा को रोकने के लिए ही लगाये जाते हैं ?
उत्तर—नहीं ! नहीं ! भगवान को एक भी बाधा बाधित नहीं करतीं, अपितु उनकी बाह्य विभूति/ऐश्वर्य को निरूपित करती हैं।प्रश्न ४. भगवान् जिनेन्द्र के ऊपर लगे छत्र क्या दर्शाते हैं ?
उत्तर—सम्राटों के सम्राट, चक्रवर्ती तथा इन्द्रों के इंद्र अर्थात् इनके स्वामी पने को दर्शाते हैं।प्रश्न ५. भगवान् जिनेन्द्र के ऊपर तीन छत्र किसके प्रतीक हैं ?
उत्तर—तीन छत्र त्रयलोकों के एक छत्र राज्य के द्योतक हैं अर्थात् तीनों जगत के परमेश्वर पने को प्रगट करते हैं।प्रश्न ६. वह छत्र किस प्रकार की शोभा से युक्त हैं ?
उत्तर—वह छत्र चंद्रमा की कांति के समान, मोतियों के समूह वाली झालर से युक्त, अत्यन्त शोभा को बढ़ाने वाले हैं।प्रश्न ७. भगवान तीनों लोकों के स्वामी हैं तो क्या समवसरण में नारकी नहीं होते ?
उत्तर—नहीं, समवसरण में नारकी नहीं होते हैं।
काव्य-32
प्रश्न १. काव्य नं. ३२ में किसका वर्णन है ?
उत्तर—दुंदुभि वाद्य नामक प्रातिहार्य का वर्णन है।प्रश्न २. दुंदुभि किसे कहते हैं ?
उत्तर—मधुर, गूढ़ ऊँचे स्वर से निनादित होने वाले देवोपनीत दिव्य घोष को दुंदुभि कहते हैं।प्रश्न ३. ये दुंदुभि वाद्य कौन बजाता है ?
उत्तर—देवगण।प्रश्न ४. दुंदुभिवाद्य देवगण कहाँ पर बजाते हैं ?
उत्तर—भगवान् जिनेन्द्र देव समक्ष एवं विहार करते समय।प्रश्न ५. समवसरण में कितने वाद्य बजाते हैं ?
उत्तर—साढ़े बारह करोड़।प्रश्न ६. दुंदुभि वाद्य किसको क्या कहता है ?
उत्तर—तीनों लोकों के प्राणियों को शुभ समाचार देने वाला है।प्रश्न ७. दुंदुभि वाद्य सुनकर कौन से प्राणी जागते हैं ?
उत्तर—विषय कषाय से र्मूिच्छत प्राणी जागकर शुभ समागम के इच्छुक हो जाते हैं।प्रश्न ८. दुंदुभि वाद्य क्या करने वाला है ?
उत्तर—समीचीन धर्म और धर्मराज तीर्थंकर की जय—जयकार करने वाला तथा उनका यशोगान करने वाला है।
काव्य-33
प्रश्न १. काव्य नं. ३३ में किस प्रातिहार्य का वर्णन है ?
उत्तर—पुष्पवृष्टि नामक प्रातिहार्य का वर्णन है।प्रश्न २. पुष्पवृष्टि प्रातिहार्य क्या है ?
उत्तर—देवगणों के द्वारा आकाश से होने वाली सुगन्धित जल मिश्रित मंद—मंद वायु के साथ पुष्पों की वर्षा ही पुष्पवृष्टि प्रातिहार्य है।प्रश्न ३. पुष्पवृष्टि देवगण कहाँ पर करते हैं ?
उत्तर—समवसरण में।प्रश्न ४. कौन से पुष्पों की वृष्टि करते हैं ?
उत्तर—मंदार, सुन्दर, नमेरु, परिजात, और संतानक नाम के कल्पवृक्षों के सुन्दर—सुन्दर पुष्पों की वृष्टि करते हैं।प्रश्न ५. वह पुष्पवृष्टि किस प्रकार की होती है ?
उत्तर—वह पुष्पवृष्टि ऊध्र्वमुखी अर्थात् पुष्पों के मुख ऊपर की ओर तथा डंठल भाग नीचे की ओर रहता है, इस प्रकार होती है।प्रश्न ६. कल्पवृक्ष किसे कहते हैं ?
उत्तर—अपनी इच्छा के योग्य पदार्थों को देने वाले कल्पवृक्ष कहलाते हैं। जो भोगभूमि और देवों के नन्दनवन में पाये जाते हैं।प्रश्न ७. क्या इस पुष्पवृष्टि से समवसरण में भव्यजनों को बाधा नहीं होती ?
उत्तर—नहीं, बाधा नहीं अपितु सुख की प्रतीति होती है।
काव्य-34
प्रश्न १. आचार्य भगवान ने इस काव्य में किसका वर्णन किया है ?
उत्तर—भामण्डल नामक प्रातिहार्य का।प्रश्न २. भामण्डल किसे कहते हैं ?
उत्तर—भगवान जिनेन्द्र की देह से नि:सृत रश्मियों से जो अत्यन्त शोभनीय प्रभामण्डल बनता है वही दैदीप्यमान कांति का गोलाकार मण्डल ‘‘भामण्डल’’ कहलाता है।प्रश्न ३. यह भामण्डल कहाँ पर बनता है ?
उत्तर—समवसरण में विराजमान अर्हंत भगवान के मस्तक के पीछे बनी गोलाकार दर्पणवत् आकृति भामण्डल है।प्रश्न ४. भामण्डल की विशेषता क्या है ?
उत्तर—भव्यजनों के ७—७ भवों को परिलक्षित करता है।प्रश्न ५. वह सात भव कौन—कौन से हैं ?
उत्तर—३ अतीत यानि भूतकाल के, ३ भविष्यकाल के और १ वर्तमान का।प्रश्न ६. ये भामण्डल किसे लज्जित करने वाला है ?
उत्तर—तीनों लोकों के कांतिवान पदार्थों की कांति को लज्जित करने वाला है।प्रश्न ७. भामण्डल की कांति किसे जीत रही है ?
उत्तर—भामण्डल की कांति रात्रि को भी जीत रही हैं।
काव्य-35
प्रश्न १. इस काव्य में किसका वर्णन है ?
उत्तर—दिव्य ध्वनि प्रातिहार्य का वर्णन हैं।प्रश्न २. दिव्य ध्वनि किसे कहते हैं ?
उत्तर—भगवान के परमौदारिक शरीर से खिरने वाली ऊँकार रूप वाणी दिव्यध्वनि कहलाती है।प्रश्न ३. दिव्य ध्वनि कब खिरती हैं ?
उत्तर—दिव्यध्वनि प्रात:, मध्यान्ह, सांय/ अपरान्हि और मध्यरात्रि में छ: छ: घड़ी के अन्तराल से ४ बार खिरती हैं।प्रश्न ४. क्या असमय में भी खिरती हैं ?
उत्तर—हाँ ! भगवान की दिव्यध्वनि चक्रवर्ती आदि पुण्य पुरुषों के कारण असमय में भी खिरती है।प्रश्न ५. भगवान की दिव्यदेशना किसके अभाव में नहीं खिरती ?
उत्तर—गणधर परमेष्ठी के अभाव में।प्रश्न ६. भगवान की दिव्य ध्वनि कितनी दूर तक सुनाई पड़ती है ?
उत्तर—एक योजन अर्थात् ४ कोस तक।प्रश्न ७. दिव्य ध्वनि शरीर के किस अंग से खिरती है ?
उत्तर—सर्वांग से या मुख से अनक्षरात्मक / अक्षरात्मक रूप खिरती हैं।प्रश्न ८. भगवान की दिव्य ध्वनि किस भाषा में सुनाई पड़ती है ?
उत्तर—मागध जाति के देवों के माध्यम से सात सौ अठारह भाषाओं में परिणम हो सुनाई देती है।
काव्य-36
प्रश्न १. आचार्य भगवान् ने इस काव्य में किसका वर्णन किया है ?
उत्तर—देवोंकृत स्वर्ण कमल की रचना जो प्रभु के चरण तले होती है ऐसा देवकृत अतिशय का वर्णन है।प्रश्न २. देवगण स्वर्णकाल की रचना कब करते हैं ?
उत्तर—भगवान जिनेन्द्र के विहार के समय।प्रश्न ३. विहार के समय कितने स्वर्ण कमलों की रचना होती है ?
उत्तर—२२५ कमलों की रचना होती है।प्रश्न ४. तो जिनेन्द्र प्रभू कमलों पर चरण रखते हुए विहार करते हैं ?
उत्तर—नहीं ! नहीं ! कमलों पर नहीं वरन् कमल से चार अंगुल ऊपर अधर में ही विहार करते हैं।प्रश्न ५. भगवान किस आसन से विहार करते हैं ?
उत्तर—खड़गासन मुद्रा में ही विहार करते हैं।प्रश्न ६. क्या भगवान का विहार सम्पूर्ण भरत क्षेत्र में होता है ?
उत्तर—नहीं, सम्पूर्ण भरतक्षेत्र में नहीं, अपितु भरतक्षेत्र के छहखंडों (पांच मलेच्छ खण्ड और एक आर्यखण्ड) में से मात्र एक आर्यखण्ड में ही होता है।प्रश्न ७. भगवान जिनेन्द्र धरती से कितने ऊपर आकाश में विहार करते हैं ?
उत्तर—धरती से ५००० धनुष ऊपर।- + 4
भक्तामर स्तोत्र प्रश्नोत्तर काव्य – 37 से 48
काव्य-37
प्रश्न १. काव्य नं. ३७ में किसका वर्णन है ?
उत्तर—भगवान जिनेन्द्र देव के धर्मोपदेश के समय होने वाली अद्वितीय विभूति का वर्णन है ?प्रश्न २. भगवान जिनेन्द्र की अद्वितीय विभूति कौन सी है ?
उत्तर—अंतरंग और बहिरंग के भेद से भगवान जिनेन्द्र की विभूति दो प्रकार की है।प्रश्न ३. अंतरंग और बहिरंग विभूति का तात्पर्य स्पष्ट कर दीजिए ?
उत्तर—अनन्त दर्शन आदि अनन्त चतुष्टय तो अंतरंग विभूति है और बहिरंग विभूति यानि समवसरण, अष्ट प्रातिहार्य आदि है।प्रश्न ४. समवसरण किसे कहते हैं ?
उत्तर—केवलज्ञान होने के बाद कुबेर द्वारा प्रभु के धर्मदेशना स्थल को समवसरण कहते हैं।प्रश्न ५. समवरण में १२ सभाएं होती उनमें कौन और किस क्रम से बैठते हैं ?
उत्तर—(१) मुनिगण, (२) कल्पवासी देवियाँ, (३) आयरीकाएँ / श्राविकाएँ, (४) ज्योतिष देवियाँ, (५) व्यंतर देवियाँ, (६) भवनवासी देवियाँ, (७) भवनवासी देव, (८) व्यंतर देव, (९) ज्योतिष देव, (१०) कल्पवासी देव, (११) मनुष्य गण, (१२) तिर्यंच। पूर्व दिशा में से जानना चाहिये।
काव्य-38
प्रश्न १. आचार्य मानतुंग स्वामी ने काव्य नं. ३८ में क्या कहा है ?उत्तर—हाथी से भय मुक्त की बात कही है। .प्रश्न २. किस प्रकार के हाथी से भय मुक्त कराया है ?
उत्तर—ऐरावत हाथी के समान विशाल, उद्दण्ड, मद से युक्त, क्रोध से उन्मत्त ऐसे हाथी से निर्भयता प्रदान की है।प्रश्न ३. हाथी का क्रोध कैसे बढ़ा ?
उत्तर—गण्डस्थल अथवा मस्तक पर मड़राते हुये भौरों के गुंजन से।प्रश्न ४. ऐसे उद्दण्ड हाथी से भला कौन भयभीत न होगा।
उत्तर—केवल भगवान जिनेन्द्र की शरण को प्राप्त भक्त भयभीत न होगा।प्रश्न ५. क्या प्रभु का शरणागत केवल हाथी के भय पर ही विजय प्राप्त करता है या अन्य पर भी ?
उत्तर—प्रभू की शरण को प्राप्त भक्त जन्म—जरा—मृत्यु पर विजय प्राप्त कर लेता है।
काव्य-39
प्रश्न १. आचार्य भगवन ने इस काव्य में किससे निर्भय कराया है ?
उत्तर— सिंह से।प्रश्न २. कैसा है वह सिंह ?
उत्तर—महापराक्रमी, ऐसासिंह जिसने हाथियों के गण्डस्थल अथवा मस्तक को विदीर्ण करके रक्त एवं धवल मोतियों से भूमि प्रदेश को शोभित कर दिया है।प्रश्न ३. ऐसे संकट से मुक्त कोन हो सकता है ?
उत्तर—भगवान जिनेन्द्र के द्वय चरण रूपी पर्वत का आश्रय लेने वाला।प्रश्न ४. सच्चे भक्त के समक्ष सिंह कैसा हो जाता है ?
उत्तर—बंधे पांव वाला सा हो जाता है।प्रश्न ५. ‘‘बंधे पांव वाला हो जाता है’’ इसका तात्पर्य क्या है ?
उत्तर—वह खुंखारसिंह आक्रमण नहीं करता अर्थात् अपनी व्रूरता को छोड़ देता है।प्रश्न ६. क्या व्रूरता को छोड़ अिंहसक हो जाता है ?
उत्तर—हाँ ! अिंहसक भी हो सकता है। जिसका उदाहरण अमरचंद दीवान द्वारा जलेबी का भोजनसिंह को कराया गया।
काव्य-40
प्रश्न १. आचार्य भगवन् काव्य नं ४० में क्या कह रहे हैं ?
उत्तर—इस काव्य में दावाग्नि शमन की बात कर रहे हैं।प्रश्न २. दावाग्नि किसे कहते है। ?
उत्तर—जंगल की भयंकर अग्नि को दावाग्नि कहते हैं।प्रश्न ३. वह दावाग्नि वैकैसी है ?
उत्तर—प्रलयकाल की महावायु से उत्तेजित चारों ओर चिंगारियों को फैकती हुई हैं।प्रश्न ४. वह दावाग्नि क्या करना चाहती हैं ?
उत्तर—समस्त विश्व को मानों भस्म ही करना चाहती हैं।प्रश्न ५. विश्व किसे कहते हैं ?
उत्तर—लोक को विश्व कहते हैं।प्रश्न ६. लोक कितने होते हैं ?
उत्तर—लोक तीन होते हैं। (१) ऊध्र्व लोक, (२) मध्यलोक, (३) अधोलोक।प्रश्न ७. ऐसी महाभयंकर दावाग्नि किस प्रकार शमन होती है ?
उत्तर—भगवन् जिनेन्द्र के नाम कीर्तन रूपी जल से शमन हो जाती है।प्रश्न ८. कीर्तन किसे कहते हैं ?
उत्तर—जिनेन्द्र देव के गुणों का गान, स्तुति, भक्ति आदि करना कीर्तन है।
काव्य-41
प्रश्न १. मानतुंग स्वामी ने इस काव्य में क्या कहा है ?
उत्तर—महाभयंकर सर्प के भय से मुक्त होने की बात कही है।प्रश्न २. वह महाभयंकर विकराल सर्प कैसा है ?
उत्तर—लाल—लाल नेत्रों वाला, कोयल कंठ के समान श्यामवर्णी और अत्यन्त क्रोध से उद्दण्ड है।प्रश्न ३. कौन से मनुष्य ऐसे सर्प को देखकर भयभीत हो जाते हैं ?
उत्तर—जिन मनुष्यों के हृदय में भगवान के नाम रूपी नाग दमनी नहीं है, वे मनुष्य ऐसे सर्प से भयभीत होते हैं।प्रश्न ४. नागदमनी क्या है ?
उत्तर—नाग दमनी एक औषधिक है, जिसे नामदौन भी कहते हैं।प्रश्न ५. यहाँ पर कौन सी नाग दमनी की बात कही है ?
उत्तर—भगवान जिनेन्द्र के नाम रूपी नागदमनी की बात कही है
काव्य-42
प्रश्न १. काव्य नं. ४२ में क्या बताया गया है ?
उत्तर—भयंकर युद्ध में शत्रु सेना के तितर—बितर हो जाने की बात कही है।प्रश्न २. अपराजेय का क्या अर्थ है ?
उत्तर—जिसे पराजित करना शक्य न हो अथवा जो कभी पराजित न हुआ हो, वह अपराजेय कहलाता है।प्रश्न ३. ‘‘त्वत्कीर्तनात्’’ का अर्थ बताइये ?
उत्तर—‘‘आपका नाम रूपी कीर्तन’’प्रश्न ४. ‘आशु’ का क्या अर्थ है ?
उत्तर—शीघ्रता ‘तत्काल।
काव्य-43
प्रश्न १. काव्य नं ४३ में क्या कहा है ?
उत्तर—इस काव्य में भीषण संग्राम में विजयश्री हासिल करने की बात कही है।प्रश्न २. भीषण संग्राम क्यों कहा है?
उत्तर—उसके महा सुमट बरछी भाले के अग्रभाग से हाथियों के भाल क्षत—विक्षत कर उनसे बह रही रक्त की तीव्र धारा जो जल प्रवाह की तरह है उसको तेजी से पार करने को उतावले हैं इस प्रकार के महाभयंकर योद्धा है।प्रश्न ३. अन्तर्जगत में किसके साथ संग्राम होता है ?
उत्तर—मोह राजा का आत्मा के साथ।प्रश्न ४. यह संग्राम कब से है।
उत्तर—अनादिकाल से।प्रश्न ५. क्या कभी किसी ने मोह को पराजित किया है ?
उत्तर—हाँ ! जितने भी अर्हंत है उन्होंने मोहराजा को पराजित कर अर्हंत अवस्था प्राप्त की है।
काव्य-44
प्रश्न १. इस काव्य में किससे भय रहित किया है ?
उत्तर—भयंकर समुद्र से।प्रश्न २. समुद्र भयंकर / क्षुभित किस प्रकार होता है ?
उत्तर—प्रलयकाल के प्रचण्ड तूफान से।प्रश्न ३. उस समुद्र में किस प्रकार की अग्नि है ?
उत्तर—बड़वानल है।प्रश्न ४. ‘अम्मौनिधौ’ का अर्थ क्या है ?
उत्तर—समुद्र / जलाशय, अर्थात् जल का खजाना।प्रश्न ५. रंगतरंग’ का तात्पर्य?
उत्तर—उछलती हुई लहरों के।
काव्य-45
प्रश्न १. काव्य नं. ४५ में आचार्य भगवन् ने क्या कहा है ?
उत्तर—दैहिक व्याधियों के निराकरण की।प्रश्न २. दैहिक व्याधियों में किस व्याधि का कथन किया है ?
उत्तर—जलोदर आदि व्याधियों का।प्रश्न ३. जलोदर व्याधि (रोग) क्या है ?
उत्तर—पेट में जल भरत जाये और पेट फूलता जाये, साथ ही साथ शरीर के अन्य अवयव गलते जाये, ऐसे असाध्य रोग विशेष को जलोदर कहा जाता है।प्रश्न ४. जलोदर रोग होने पर शरीर कैसा हो जाता है ?
उत्तर—वजन से शरीर वक्र तथा हाथ—पैर दुबले होते जाते हैं। असाध्य जलोदर रोग होने पर मनुष्य दयनीय, सोचनीय दशा को प्राप्त हो जाता है और अपने जीवन की आशा त्याग देता है।प्रश्न ५. ऐसे असाध्य बीमारी से मुक्त होने के लिये आचार्य श्री ने क्या विधि बताई है ?
उत्तर—असाध्य बीमारी से मुक्त होने के लिए जिनेन्द्र देव की चरण रज को अमृत मानकर देह पर लगाने की विधि बताई है।प्रश्न ६. क्या भगवान की चरणरज से शारीरिक व्याधियाँ दूर होती है ?
उत्तर—शारीरिक व्याधियों के साथ—साथ जन्म, जरा, मृत्यु, जैसी महाव्याधियाँ भी दूर हो जाती है।
काव्य-46
प्रश्न १. काव्य नं. ४६ में किससे निर्भयता दिला रहे हैं ?
उत्तर—बंधन के भय से।प्रश्न २. बंधन भय से मुक्त होने की कौन सी विधि बतलाई हैं ?
उत्तर—जिनेन्द्र देव के नाम रूपी मंत्र के निरन्तर जाप्य की विधि बतलाई हैं।प्रश्न ३. भगवान के नाम रूपी मंत्र के निरन्तर जाप्य से क्या सचमुच ऐसा चमत्कार घटित होता है ?
उत्तर—हाँ ! चमत्कार होता है।प्रश्न ४. क्या कोई उदाहरण बता सकते हैं ?
उत्तर—पहला उदाहरण कि आचार्य भगवन् ४६ वें काव्य को पढ़ते ही बंधन मुक्त हुए। दूसरा चंदनवाला भगवान के नाम का स्मरण, दर्शन करते ही बंधन रहित हो गई।प्रश्न ५. भगवान का नाम जपने से क्या मात्र बाहर के बंधनों से ही मुक्ति मिलती है ?
उत्तर—भगवान जिनेन्द्र देव के नाम रूपी मंत्र का जाप्य करने से मात्र बाहर के बंधनों से ही नहीं अपितु कर्म बंधनों से भी मुक्ति प्राप्त होती है।
काव्य-47
प्रश्न १. आचार्य भगवन् ने इस काव्य में क्या कहा है ?
उत्तर—जो बुद्धिमान पुरुष भगवान जिनेन्द्र देव के इस भक्ति स्तोत्र को पढ़ता है उससे भय भी भयभीत हो जाता है।प्रश्न २. इस काव्य में आचार्य श्री ने कितने प्रकार के भय उल्लिखित किये हैं?
उत्तर—मदोन्नत हाथी, विकराल सिंह, भभवती दावानल, भयंकर सर्प, वीभत्स संग्राम, विक्षुब्ध समुद्र, कष्ट साध्य जलोदर, बंधनजनित भय इन आठ प्रकार के भयों का उल्लेख किया है।प्रश्न ३. भक्ति स्तोत्र नित्य श्रद्धा सहित पढ़ने से क्या अन्य भय दूर नहीं होते ?
उत्तर—सर्वप्रकार के भय सर्वधा के लिए दूर हो जाते हैं।प्रश्न ४. संसारी जीवों में भय क्यों पाया जाता है ?
उत्तर—भय संज्ञा होने से।प्रश्न ५. ‘‘मत्तद्विपेन्द्र’’ का अर्थ बता दीजिए ?
उत्तर—मदोन्मत्त हाथी।
काव्य-48
प्रश्न १. आचार्य श्री ने इस अंतिम काव्य में क्या कहा है ?
उत्तर—भक्तामार स्तोत्र का फल कहा है।प्रश्न २. वह माला किस प्रकार रची गई है ?
उत्तर—प्रभू के गुणों से।प्रश्न ३. इस स्तुति रूपी माला से किस प्रकार के पुष्प चुने गये हैं ?
उत्तर—नाना प्रकार के शब्द, स्वर, व्यंजन रूपी सुन्दर-सुन्दर पुष्प चुने गये हैं।प्रश्न ४. इस स्तुति माला को कहाँ और कब तक धारण करने को कहा है ?
उत्तर—कंठ में तथा नित्य—निरन्तर अर्थात् केवलज्ञान न होने तक।प्रश्न ५. कंठ में धारण करने से तात्पर्य क्या हैं ?
उत्तर—निरन्तर स्तुति, भक्ति पाठ करना।प्रश्न ६. बिना चारित्र ग्रहण किये मात्र स्तुति करने से मोक्ष कैसे होगा ?उत्तर—परम्परा से।प्रश्न ७. ‘‘अवशा’’ का तात्पर्य बताइये ?
उत्तर—विवश होकर।