(मालवा प्रान्त के उज्जैन नगर में राजा भोज राज्य करते थे। राजा गुणग्राही और विद्याप्रेमी थे। संस्कृत विद्या में तो उनकी प्रगाढ़ रुचि थी। उनके राज्य में सभी लोकव्यवहार में संस्कृत भाषा का प्रयोग करते थे। स्वयं उनकी राज्यसभा में संस्कृत के बड़े-बड़े विद्वान थे जिनमें कालिदास, वररुचि आदि प्रमुख थे) एक दिन उसी नगर के श्रेष्ठी सुदत्त अपने पुत्र मनोहर को लेकर राज्यसभा में पहुँचे—
राजश्रेष्ठी—महाराज की जय हो ! आपका शासन अमर रहे।
श्रेष्ठी—महाराज ! मेरा भी प्रणाम स्वीकार करें।
राजा भोज—आइए श्रेष्ठिवर ! कहिए ! आप कुशल तो हैं, यह आपके साथ आपका पुत्र है ?
श्रेष्ठी—जी स्वामिन् ! सब आपकी कृपा है, आज मैं अपने पुत्र को आपके दर्शनार्थ लाया हूँ।
राजा—सेठ जी ! आपका यह होनहार बालक क्या पढ़ता है ?
श्रेष्ठी—राजन् ! अभी इसने अध्ययन प्रारम्भ ही किया है, धनञ्जय नाममाला के इसने केवल श्लोक ही कंठस्थ किए हैं।
राजा—(आश्चर्य से) धनञ्जय नाममाला! सेठजी ! इस ग्रंथ का नाम मैंने पहले कभी नहीं सुना। इसके रचयिता कौन हैं ?
श्रेष्ठी—महाराज ! स्याद्वाद विद्या में पारंगत महाकवि धनञ्जय की कृपा का यह प्रसाद है, जिन्हें पाकर आपकी यह नगरी धन्य हुई है।
राजा—अरे ! आश्चर्य है ! ऐसे विद्वान के आपने मुझे अभी तक दर्शन भी नहीं कराए। मुझे एक बार उनके दर्शन करना ही है।
श्रेष्ठी—अवश्य राजन् ! अवश्य। (राजा और सेठजी के मध्य वार्तालाप हो रहा था जिसे जैनियों से स्वाभाविक द्वेष रखने वाले कवि कालिदास सुन रहे थे अत: वह बीच में ही बोल पड़े)
कालिदास—महाराज ! बीच में बोलने के लिए क्षमा चाहता हूँ परन्तु वैश्य महाराज भी संस्कृत विद्या में पारंगत हो सकते हैं ? उन्हें तो कमाने और खाने के अलावा कुछ भी नहीं आता, यह तो हम विद्वानों का अपमान है। (कालिदास का द्वेष उबल पड़ा परन्तु गुणज्ञ राजा पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। राजा ने धनञ्जय कवि को बुलवाया।)
राजा भोज—(हंसकर) श्रेष्ठिवर ! आप कल हमारी राज्यसभा में उन्हें सम्मान सहित लेकर पधारें, हम उनके दर्शन करना चाहते हैं।
श्रेष्ठी—स्वामिन्! आपकी आज्ञा शिरोधार्य है। (प्रणाम कर चले जाते हैं)
—अगला दृश्य—
राजश्रेष्ठी कवि धनञ्जय के साथ पधारे और राजसभा में पहुँचते ही आशीर्वादात्मक सुन्दर श्लोक सुनाया, जिसे सुनकर राजा व सभाजन बहुत आनन्दित हुए। तब राजा ने उन्हें विशेष मान-सम्मान से बैठाया और कुशलक्षेम पूछी।
राजा—आइए कविवर ! आसन ग्रहण कीजिए।
धनञ्जय कवि—जी राजन् ! (बैठ जाते हैं)
राजा—कहिए ! आप कुशल तो हैं ? आपकी विद्वता लोक में प्रसिद्ध है परन्तु अभी तक हमें आपका दर्शन नहीं मिला।
धनञ्जय कवि—महाराज ! आपकी कृपा से मैं कुशलतापूर्वक हूँ। हे कृपानाथ ! पृथ्वीपति ! आप जैसे पुण्यात्मा पुरुष का दर्शन बिना पुण्य के कैसे मिल सकता है ? आज मेरा भाग्य है जो आपके साक्षात् दर्शन कर मेरा मनोरथ सफल हुआ है।
राजा भोज—कविवर ! आप इतने बड़े विद्वान हैं फिर इतना छोटा ‘‘नाममाला’’ ग्रंथ आपको शोभा नहीं देता। आपने अवश्य किसी बड़े ग्रंथ की रचना की होगी अथवा करना प्रारम्भ किया होगा। (इससे पहले कि धनञ्जय कवि कुछ बोलते, द्वेषी कालिदास उनकी इतनी प्रशंसा सहन नहीं कर सका और उसने शीघ्र ही कहा)
कालिदास—(क्रोध से) महाराज ! नाममाला हम लोगों की है। इसका यथार्थ नाम ‘‘नाममंजरी’’ है। ब्राह्मण ही इसके रचयिता हैं, वणिकों में इतनी बुद्धि कहाँ ?
धनञ्जय कवि—(शांत स्वर में) महाराज ! यह कृति मैंने बालकों के पठनार्थ रची है। हो सकता है इन लोगों ने मेरा नाम लोप करके अपना नाम रख लिया हो और नाममंजरी बना ली हो।
राजा भोज—(चितन की मुद्रा में) हे विद्वानों ! कृपया आप लोग शांत रहें, मैं अभी ग्रंथ मंगवाकर उसकी परीक्षा करता हूँ। (ग्रंथ मंगवाकर राजा परीक्षा करते हैं और अन्य विद्वत्मंडली से भी जब समर्थन पा जाते हैं तब कालिदास से कहते हैं।)
राजा—(कालिदास से) आपने यह बड़ा अनर्थ किया है। आप ही बताइए कि दूसरों की कृति को छिपाकर अपनी कृति के नाम से प्रसिद्ध कर देना चोरी नहीं तो और क्या है ?
कालिदास—(बिगड़कर क्रोध में) हे राजन् ! ये धनंजय तो अभी कल उस मानतुंग के पास पढ़ता था जिसमें ज्ञान की गंध भी नहीं है, आज यह इतना विद्वान कैसे हो गया, जो ग्रंथ रचने लगा। उस मानतुंग को ही बुलाइए और उससे शास्त्रार्थ करवा कर देख लीजिए तब स्वयं ही इनके पाण्डित्य की परीक्षा हो जाएगी। (अब तो धनञ्जय कवि को भी गुरु के प्रति कहे गए अनादरपूर्ण वचन सहन नहीं हुए और वे कुपित होकर बोल उठे)—
धनञ्जय कवि—(खड़े होकर) अरे ! ऐसा कौन विद्वान् है जो मेरे गुरू पर आक्षेप करता है। पहले मेरे सामने आवे, पीछे गुरुवर का नाम लेना। (चूँकि कालिदास को अपने ज्ञान का अभिमान था अत: उसने धनञ्जय कवि से शास्त्रार्थ छेड़ दिया और निरुत्तर होकर खिसिया गया। तब उसने राजा से कहा—
कालिदास—राजन् ! मैं इन जैसों से क्या शास्त्रार्थ करूँ, मैं तो इनके गुरू से शास्त्रार्थ करूंगा। (यद्यपि राजा धनञ्जय के पक्ष को प्रबल जान रहे थे पर कालिदास के संतोष के लिए एवं शास्त्रार्थ का कौतुक देखने के लिए उन्होंने मानतुंग मुनि के निकट अपने दूत भेजे।)
—अगला दृश्य—
मानतुंगाचार्य शास्त्र स्वाध्याय में लीन हैं, तभी दो दूत उनके पास पहुंचकर उन्हें प्रणाम करते हैं)— दूत—हे मुनिवर ! हमारा प्रणाम स्वीकार करें।
मानतुंगाचार्य—कल्याण हो वत्स ! कहिए, किस प्रयोजन से आपका यहाँ आना हुआ ?
दूत—हे भगवन ! माधव देश के अधिपति राजा भोज ने आपकी बहुत ख्याति सुनी है अत: आपके दर्शनों की अभिलाषा से आपको राजदरबार में बुलाया है सो कृपाकर चलिए।
मानतुंगाचार्य—देखो भाई ! दिगम्बर साधु को भला राजदरबार से क्या प्रयोजन! हम साधुओं को राजा से कुछ संबंध नहीं है अत: हम उनके पास नहीं जा सकते हैं। (दूत हताश होकर लौट आया। राजा ने दूत के वचन सुनकर पुन: उन्हें लाने को भेजा। इस प्रकार चार बार दूत खाली हाथ लौटे तो कालिदास ने राजा को उकसा दिया)—
—अगला दृश्य—
(राजदरबार में दूत प्रवेश करते हैं और कहते हैं)
दूत—(राजा से) हे राजन् ! मैं चार बार जाकर लौट आया, वे मुनिराज यहाँ आना ही नहीं चाहते, अब आपकी क्या आज्ञा है ?
कालिदास—(राजा को भड़काते हुए) देखा महाराज ! मैं न कहता था कि उनको किसी प्रकार का ज्ञान नहीं है, वह धनञ्जय कवि झूठ बोलता है। उसने तो आपका अपमान किया है।
राजा—(कुपित होकर) सेवकों ! जाओ ! और जिस भी तरह हो सके उन महाराज को पकड़कर ले आओ। (परेशान सेवक तो यही चाहते ही थे अत: उन्हें पकड़ने के लिए चल पड़े)—
दूत—(साधु के पास जाकर) महाराज ! देखिये, अब आप ठीक प्रकार से चलें अन्यथा हमें आपको बन्दी बनाकर ले जाना पड़ेगा।
मुनिवर—वत्स ! मुझे उससे कोई फर्क नहीं पड़ता, मैं फिर कहता हूं मेरा राजदरबार से क्या प्रयोजन ! (आखिरकार सेवकों ने उन्हें बन्दी बना लिया और ले जाकर राज्यसभा में खड़ा कर दिया। साधुराज ने उपसर्ग समझकर मौन धारण किया और समताभाव का आलम्बन लिया। राजा ने बहुत चाहा कि वे कुछ बोलें किन्तु धीर-वीर, गम्भीर दिगम्बर सन्त सुमेरुवत् अटल रहे। उनके मुंह से एक अक्षर भी नहीं निकला)—
राजा भोज—हे मुनिवर ! आपको हमारा प्रणाम हो ! हमने आपकी बहुत प्रशंसा सुनी है अत: आपके मुख से हम कुछ सुनना चाहते हैं (मुनिराज को मौन देखकर) कृपया अपना मौन भंगकर हमें कुछ सुनाइए (जब राजा के बार—बार कहने पर भी वे नहीं बोले तब कालिदास व अन्य द्वेषी ब्राह्मण उठ खड़े हुए और बोले)—
कालिदास व अन्य ब्राह्मण—(एक साथ) राजन् ! हमने कहा था यह महामूर्ख है, आपकी सभा को देखकर यह इतना भयभीत हो चुका है कि इसके मुख से एक शब्द भी नहीं निकल रहा है।
कुछ गुरुभक्त—(सभा में हाथ जोड़कर गुरुवर से प्रार्थना करते हुए)—हे गुरुदेव ! आप सन्त हैं, आप महान हैं, ज्ञानी हैं, इस समय थोड़ा धर्मोपदेश दीजिए, राजा विद्याविलासी है उपदेश सुनकर सन्तुष्ट होगा।
राजा—(मुनिराज को धीर-वीर-अडोल-अकम्प देखकर क्रोधित हो) अच्छा ! तो इन मुनि को इतना घमण्ड, जरूर इन्हें कुछ नहीं आता है, ये सब झूठे हैं। (सैनिकों से) सैनिकों ! इन्हें हथकड़ी और बेड़ियाँ पहनाकर अड़तालीस कोठरियों के भीतर बन्दीगृह में डाल दो तब इन्हें समझ में आएगा कि राजा की अवज्ञा का क्या दुष्परिणाम होता है।
सैनिक—जो आज्ञा स्वामिन् ! (सैनिक मुनिराज को ले जाकर अड़तालीस कोठरियों के भीतर बन्दीगृह में डाल देते हैं और मजबूत ताले लगाकर पहरेदार बैठा देते हैं। मुनिश्री तीन दिनों तक बन्दीगृह में रहे पुन: चौथे दिन उन्होंने आदिनाथ स्तोत्र की रचना की, जो यन्त्र-मन्त्र से गर्भित है और ज्यों ही स्वामिन् ने एक बार पाठ पढ़ा चमत्कार हो गया।
—अगला दृश्य—
(मुनिराज बन्दीगृह में बैठे स्तोत्र रचना कर रहे हैं। बाहर पहरेदार घूम रहे हैं। ज्यों ही स्तोत्र पूर्ण हुआ, मुनिवर ने एक बार पूरा स्तोत्र पढ़ा और— मानतुंगाचार्य—भक्तामर प्रणत मौलिमणि प्रभाणा ……….।(उनकी हथकड़ी, बेड़ियाँ और सब ताले खुल गए और खट-खट दरवाजे खुल गए। मुनिराज बाहर निकलकर चबूतरे पर आ विराजे, तब पहरेदारों को बड़ी चिन्ता हुई)—
पहरेदार—(आश्चर्य से) अरे ! इन्हें तो मैंने ४८ तालों के भीतर कैद किया था फिर यह बाहर कैसे आ गए, जरूर ताला बन्द करने में कोई भूल हुई होगी। (पुन: मुनि से) चलिए, चलिए, अंदर चलिए, आप बाहर कैसे आ गए, राजा जान जाएंगे तो हमें दण्ड देंगे। (पहरेदारों ने मुनिवर को पुन: कैद कर दिया पर इस बार भी मुनिश्री बाहर आ गए, सेवकों ने पुन: कैद कर दिया पर इस बार भी मुनिश्री बाहर आ गए। अब सेवक परेशान हो गए और राजा के पास जाकर सारा वृतान्त कह सुनाया)
—अगला दृश्य—
(राजदरबार लगा है। पहरेदार पहुँचकर राजा को समाचार देते हैं)
पहरेदार—कृपानिधान की जय हो, जय हो।।
राजा—कहिए, क्या बात है ?
पहरेदार—राजन् ! आश्चर्य हो गया, चमत्कार हो गया। जरूर वह मुनि कोई विद्या जानते हैं अथवा मायावी हैं, तभी तो वह ४८ तालों के बन्द होने के बाद भी बाहर आ गए।
राजा—(आश्चर्य से) क्या ! बाहर आ गए ? जरूर तुम सभी से कोई भूल हुई है।
पहरेदार—नहीं स्वामिन् ! हमारे देखते-देखते स्वयं ही १-१ करके सारे ताले टूट गए, हमने मुनिवर को पुन: अंदर बंद कर दिया पुन: ताले टूट गए, हमने फिर कैद किया और फिर ताले टूट गए और मुनिराज बाहर आ गए।
राजा—(आश्चर्य से)—क्या ! ऐसा कैसे हो सकता है, शायद तुम सबसे कोई प्रमाद हुआ है, जाओ, उन्हें पुन: कैद कर दो। और हाँ ! अच्छी तरह निगरानी रखो, समझ गए। (सेवकों ने उन्हें जाकर पुन: कैद कर दिया परन्तु फिर वही पूर्ववत् स्थिति बनी रही। सकलव्रती मुनिराज इस बार सीधे बाहर आकर राज्यसभा में पहुँच गए। तब राजा का हृदय कांप गया) (राजदरबार में मुनिराज का प्रवेश)
राजा—(मुनि के दिव्य शरीर की प्रभा देखकर कांप जाते हैं) ओह ! इन मुनिवर के शरीर की आभा कैसी अद्भुत है, जरूर मुझसे कोई भूल हुई है। मुझसे कोई अनर्थ हुआ है। (पुन: कालिदास को बुलाकर) कविराज ! मेरा आसन अब कम्पित हो रहा है। मैं अब इस सिंहासन पर एक क्षण भी ठहर नहीं सकता। आप शीघ्र ही कुछ करिए। (द्वेषी कालिदास कालीदेवी का भक्त था अत: उसने कालीदेवी का स्मरण किया, वह तुरन्त प्रगट हो गयीं)
कालिदास—(हाथ जोड़कर मन में) हे देवी ! शीघ्र प्रकट हो और संकट का निवरण करो।
काली देवी—(प्रगट होकर) वत्स ! बोलो ! क्या बात है ? तुमने मुझे क्यों स्मरण किया।
कालिदास—देवी ! इस मुनिराज को सबक सिखाना है, कृपया शीघ्र कोई उपाय करो। (इससे पहले कि कालीदेवी कुछ करती, मुनिराज के समीप स्वत: ही चक्रेश्वरी देवी प्रगट हुईं और उनके दर्शन किये। मुनिराज प्रसन्न मुद्रा में खड़े हैं, चक्रेश्वरी देवी आकर उनको झुककर प्रणाम करती हैं।
सभासद—ओह ! यह क्या हो रहा है। यह दोनों ही देवियाँ हैं किन्तु एक का इतना सुन्दर सौम्य, मनोहारी रूप और एक कालिका का विकराल चण्डी रूप। कितना आश्चर्य है !)
चक्रेश्वरी देवी—(कालिका को फटकारते हुए) अरी कालिके ! तूने यह क्या ठानी है, क्या तू मुनि पर उपसर्ग करना चाहती है ? यदि ऐसा है तो तू देख लेना कि मैं तेरी क्या दशा करूंगी।
कालिका देवी—(कांपकर) हे सम्यग्दर्शन से सेवित माते ! आपको मेरा सादर प्रणाम। मुझसे बहुत भारी भूल हुई, कृपया मुझे क्षमा करें। आप धन्य हैं जो सदा जिनशासन की रक्षा में संलग्न रहती हैं। मैं बारम्बार आपसे अपने अपराध के लिए क्षमा मांगती हूँ। (हाथ जोड़कर क्षमायाचना करती है) चक्रेश्वरी—देवी ! यह दिगम्बर मुद्राधारी मुनिराज परम पूज्य है। देव-देवी भी जिस संयम रत्न के लिए तरसते हैं यह उस संयम को अपने जीवन में धारण कर शाश्वत सुख की प्राप्ति में लगे हैं। इनके लिए शत्रु-मित्र सभी समान हैं। देखो तो ! ये कितने धैर्यशाली-क्षमाशील हैं जो इतना उपसर्ग होने पर भी किसी को कुछ नहीं कहकर सभी को समान आशीर्वाद दे रहे हैं। तू इनसे क्षमा मांगकर अपने पापों का प्रायश्चित्त कर और भविष्य में कभी जिनशासन की सेवा करने वाले प्राणी पर उपसर्ग करके अपना अहित मत कर बैठना।
कालिका—हे देवी ! मैं सचमुच शर्मिन्दा हूँ। आज के बाद मैं कभी किसी जिनशासन की सेवा में तत्पर मुनि—आर्यिका, श्रावक-श्राविका आदि पर कोई उपसर्ग नहीं करूंगी और हे कालिदास ! तुम भी इन मुनिराज से क्षमायाचना करो, यह तो समता की मूर्ति हैं, तुमने अकारण इनसे द्वेष कर महान पाप कर्म का बंध किया है। (पुन: मुनि के चरणों में झुककर) हे मुनिवर ! मेरे अपराध को क्षमा करिये। (मुनिराज उसे आशीर्वाद देते हैं। दोनों देवियाँ अन्तध्र्यान हो जाती हैं। राजा भोज व कालिदास भी मुनि का प्रताप देखकर क्षमा मांगते हैं)
राजा—(मुनि के चरणों में लेटकर) हे त्रैलोक्यपूज्य गुरुवर ! हमसे महान अपराध हुआ, मुझ अज्ञानी ने आपकी महिमा को नहीं जाना और एक कवि के कहने में आकर आप पर इतना उपसर्ग किया, पता नहीं दैव मुझे क्या दण्ड देगा। हे प्रभो ! मुझे क्षमा करो—३।
मुनिराज—(उन्हें आशीर्वाद देकर) हे भव्यात्मन् ! उठो ! प्राणी का पश्चात्ताप ही उसका सबसे बड़ा प्रायश्चित्त है, आप दु:खी न हों और जिनधर्म की शरण ग्रहण करें। वह ही सभी जीवों को इस संसार समुद्र से पार निकालने वाला है।
राजा—हे मुनिश्रेष्ठ ! आपके उपदेश ने हमें नई राह दिखाई हैं, मैं आज से जिनधर्म, जिनागम और वीतराग देव पर दृढ़ श्रद्धान करूंगा। हे प्रभो ! आपको मेरा नमस्कार हो, नमस्कार हो, नमस्कार हो।
कालिदास—(मुनिराज के चरणों में नत होकर) हे प्रभो ! मैंने अकारण ही जिनधर्म एवं जैन साधुओं से द्वेष किया जिससे मुझे महान पाप कर्म का बन्ध हुआ है। स्वामी ! अब आप ही मुझे संसार से पार लगा सकते हैं। कृपया मेरे अपराधों को क्षमा करें और सच्चा मार्ग दिखाएं।
मुनिवर—हे कविवर ! जिनेन्द्रदेव के वचनों पर अगाध श्रद्धा करना, जिनवाणी का विनय करना, ईष्र्या, द्वेष, राग, मत्सरता आदि से दूर रहना तथा दिगम्बर साधु-साध्वियों की भक्ति करना, इससे तुम्हारा कल्याण होगा और तुम शीघ्र ही संसार समुद्र से पार हो जाओगे।
कालिदास—जय हो, प्रभो ! आपकी जय हो ! आज से क्या मैं अभी से जिनधर्म की शरण को ग्रहण करता हूँ (पुन:-पुन: नमस्कार करता है।)
मुनिवर—(राजा भोज से) राजन् ! आप आज से श्रावक के व्रतों को ग्रहण कीजिए। ५ अणुव्रत, ३ गुणव्रत और ४ शिक्षाव्रत ये श्रावक के १२ व्रत होते हैं।
राजा भोज—स्वामिन् ! मैं आज से इन व्रतों को ग्रहण करता हूं और जीवनपर्यन्त इनका परिपालन करते हुए सदैव जिनधर्म की सेवा में संलग्न रहूंगा।
सभी सभासद—जय बोलो जैनधर्म की जय, मानतुंग मुनिराज की जय।
(इस प्रकार राजा भोज ने तब से लेकर जीवनपर्यन्त राज्य में जैनधर्म का खूब प्रचार-प्रसार किया और तभी से यह भक्तामर स्तोत्र अतिशयकारी होकर जगप्रसिद्ध हो गया।)—जय बोलिए मानतुंग आचार्य की जय—