भक्तामर स्तोत्र के बुन्देली पद्यानुवाद पर एक दृष्टि
प्रो. (डॉ.) रतनचन्द जैन, संपादक ‘जिन भाषित’
आचार्यश्री मानतुंग रचित भक्तामर स्तोत्र संस्कृत जैन स्तोत्र साहित्य में अत्यन्त प्रसिद्ध एवं सर्वाधिक समादरणीय कृति है। इसका प्रत्येक पद्य मंत्र तुल्य माना गया है और विघ्नों के विनाश एवं विपत्तियों पर विजय प्राप्ति हेतु भक्तिपूर्वक इसका पाठ किया जाता है। इसके पाठ से परिणाम शुद्ध होते हैं, जिनके बल से विपत्तिजनक असातावेदनीय कर्म का दय टल जाता है अथवा आसात संक्रमित होकर साता में बदल जाता है, जिससे विपत्तियाँ दूर हो जाती है। भक्तामर स्तोत्र में हुआ तो वस्तुत: प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ के गुणों का स्तवन है, किन्तु इस स्तोत्र का आरंभिक शब्द ‘भक्तामर’ (भक्त अमर अर्थात भक्ति देव) है, इसलिये यह आदिनाथ स्तोत्र के नाम से प्रसिद्ध न होकर भक्तामर स्तोत्र के नाम से प्रसिद्ध हुआ है। दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों में यह इतना लोकप्रिय हुआ कि इसका पद्यानुवाद अनेक भाषाओं में हो चुका है। फिर भी बुंदेली, छत्तीसगढ़ी जैसी मधुर लोकभाषाओं में इसका पद्यानुवाद अभी तक प्रतीक्षित था। इनमें से बुंदेली पद्यानुवाद की कमी बुंदेली भाषा के सुप्रसिद्ध कवि एवं साहित्यकार श्री कैलाश मड़बैया जी ने दूर कर दी है । भक्तामर स्तोत्र उनका अत्यन्त प्रिय स्तोत्र है । ये बाल्यावस्था से ही इसका प्रतिदिन पाठ करते आ रहे हैं । उनका साहित्यिक बुंदेली मन बहुत समय से इस स्तोत्र को बुंदेली वस्त्र — पहनाने के लिये कुलबुला रहा था। आखिरकार वे इस कार्य को करने में सफल हो गये। बुंदेली लोकभाषा वैसे ही मधुर है इस पर जब उसे बुंदेली माटी में सने श्री कैलाश मड़बैया जैसे सिद्ध कवि के रससिक्त कण्ठ और कलम का आश्रय मिल जाये, तब उसके माधुर्य में चार चाँद लग जाना स्वाभाविक है। मड़बैया जी ने भक्तामर स्तोत्र के प्रत्येक पद्य का जो बुंदेली रूपान्तरण किया है वह बुंदेली के सहज, सटीक शब्दों से विभूषित है। वस्तुत: उन्होंने शब्दानुवाद न कर भावानुवाद किया है, इसलिये उनकी लेखनी से भावानुकूल बुंदेली शब्द स्वत: निकलते गये हैं जिससे पद्यानुवाद अत्यन्त स्वाभाविक एवं मधुर बन गया है। कुछ अंश दर्शनीय है—
चीखों जिन क्षीर समुन्दर को, वे गुन गाउत न बैन रूके। वे काय पिये खारो पानी, जिन नैन कऊँ न चैन चुके।।
इन बुंदेली शब्द में यह संस्कृत पंक्तियाँ अत्यन्त स्वाभाविक रूप से अवतरित हुई हैं—
पीत्वा पय शशिकर द्युति दुग्धिंसधो। क्षारं जल जलनिधेरिंसतु क इच्छेत्।
यहाँ ‘पीत्वा’ के लिये चीखों शब्द का प्रयोग मानतुंगाचार्य के हृदयगत भाव को और भी अच्छी तरह प्रकट कर देता है।
इन पंक्तियों का भाव भी बुंदेली की निम्नलिखित शब्द योजना में बड़ी हृदय स्पर्शी रीति से अभिव्यक्त हुआ है—
पूनों के चन्दा से खिलते, गुन प्रभु के इतै उतै विचरै। तीर्थंकर महाकलानिधि है,तीनऊँ लोकन छापें छितरै।
“ऐसे अनेक उदाहरण बुंदेली पद्यानुवाद से भरे पड़े हैं । बुंदेली शब्दों का सटीक प्रयोग बिना हृदयाहृादक है, यह निम्नलिखित उदाहरणों से ज्ञातव्य है—
‘निंह औरहु घाँई कुमारग हो’ (२३) ‘नैंनो नीको सब आप में है’ (२५) ‘बन्न बन्न के फूल’……..(३३) ‘हिनहिनाय घुरवा बमकावैं।’ (४२) ‘करमबन्ध कट जावैं तुरतई।’ (४६)
इन उदाहरणों में घांई (समान), नैंनो (अच्छा), बन्न — बन्न के (तरह—तरह के), घुरवा (घोड़े), तुरतई (तुरन्त) ये बुंदेली अनुवाद को पूरी तरह बुंदेली रंग में रंग देते हैं । यह बुन्देली अनुवाद कवि श्री कैलाश मड़बैया की काव्य प्रतिभा और सटीक स्वाभाविक अनुवाद कला को पूरी क्षमता के साथ उजागर करता है। बुंदेली प्रेमियों में भक्तामर स्तोत्र का यह बुंदेली अनुवाद (बुंदेली भक्तामर) लोकप्रिय होगा ऐसी पूर्ण आशा है।