भक्ति के सापान
भक्ति विभिन्न रूपों में प्रकाशित होती है। पहला है श्रद्धा | लोग मंदिरों और पवित्र स्थानों के प्रति श्रद्धा प्रकट करते हैं, क्योंकि वहां भगवान की पूजा होती है। श्रद्धा का मूल है प्रेम । हम जिसे प्रेम नहीं करते, उसके हो सकते। इसके बाद है प्रीति अर्थात
न प्रति श्रद्धालु नहीं ईश्वर चिंतन में आनंद। इसके उपरांत आता है विरह । विरह प्रेमास्पद के अभाव में उत्पन्न होने वाला तीव्र दुख है। यह दुख समस्त दुखों में सबसे मधुर है। भगवान को पा सकने की तीव्र वेदना की दशा को विरह कहते हैं । प्रेम की इससे भी उच्च अवस्था है, जब भगवान के लिए ही प्राण धारण करना सार्थक समझा जाता है। ऐसे प्रेमी के लिए भगवान के बिना एक क्षण भी रहना असंभव हो उठता है। उन प्रियतम का चिंतन हृदय में सदैव रहने के कारण ही उसे जीवन मधुर प्रतीत होता है। शास्त्रों ने इसी अवस्था को तदर्थप्राणसंस्थान कहा है । तदीयता तब आती है, जब साधक भक्ति मत के अनुसार पूर्णावस्था को प्राप्त हो जाता है। जब वह श्रीभगवान के चरणारविंदों का स्पर्श कर धन्य और कृतार्थ हो जाता है, तब उसकी प्रकृति विशुद्ध हो जाती है। श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि जो लोग हरि को प्राप्त कर संसार की सारी वस्तुओं से तृप्त हो गए हैं, वे भगवान की निष्काम भक्ति करते हैं। जब मनुष्य स्वयं को भूल जाता है और उसे यह भी ज्ञान नहीं रहता कि कोई चीज अपनी है, तभी उसे यह तदीयता की अवस्था प्राप्त होती है। तब सब कुछ उसके लिए पवित्र हो जाता है, क्योंकि सब उसके प्रेमास्पद का ही तो है।