नाभिराज और उनकी रानी मरुदेवी के पुण्यप्रभाव से इंद्र ने ‘‘अयोध्या’’ नगरी की रचना की थी। इनके समय में प्राय: कल्पवृक्षों का अभाव हो गया था, तब नाभिराज ने प्रजा को अच्छे फल आदि खाने को बताए और ईख को पेलकर रस पीने को बताया इसलिये वे इक्ष्वाकुवंशी कहलाये। रानी मरुदेवी ने तीर्थंकर वृषभदेव को जन्म दिया। तब देव और इन्द्रों ने मिलकर भगवान को सुमेरु पर्वत पर ले जाकर जन्माभिषेक उत्सव मनाया।
युवावस्था में प्रवेश करने पर भगवान का यशस्वती और सुनंदा कन्याओं के साथ विवाह सम्पन्न हुआ। यशस्वती ने भरत चक्रवर्ती को और निन्यानवे पुत्रों को तथा ब्राह्यी कन्या को जन्म दिया। सुनंदा रानी ने बाहुबली कामदेव और सुन्दरी कन्या को जन्म दिया। अवधिज्ञानधारी भगवान वृषभदेव ने सभी पुत्र-पुत्रियों को संपूर्ण विद्याओं और कलाओं में निपुण कर दिया।
किसी समय व्याकुल हुई प्रजा को सान्त्वना देकर करुणामूर्ति आदिनाथ भगवान ने अपने अवधिज्ञान से विचार किया-
पूर्वापर विदेहेषु या स्थिति: समवस्थिता।
साद्य प्रवर्तनीयात्र ततो जीवन्त्यमू: प्रजा:।।
अर्थात् पूर्व अपर विदेहक्षेत्र में जैसी व्यवस्था है वैसी ही यहाँ पर व्यवस्था करनी चाहिए। उस समय भगवान की आज्ञा से इंद्र ने आकर क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र वर्ण की व्यवस्था की तथा नगर, ग्राम आदि की रचना कर दी। भगवान ने प्रजा को आजीविका के उपाय बताते हुए असि, मषि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प और विद्या इन षट् क्रियाओं का उपदेश दिया इसलिये भगवान आदिपुरुष, ब्रह्मा, युगादिपुरुष, युगस्रष्टा, प्रजापति आदि कहलाए।
किसी समय नीलांजना अप्सरा के नृत्य को देखते हुए भगवान विरक्त हो गए और वन में जाकर पंचमुष्टि लोच करके जैनेश्वरी दीक्षा ले ली । उस समय भरत इस पृथ्वी पर एकछत्र शासन करके छह खंड पृथ्वी के स्वामी चक्रवर्ती कहलाए और इस पृथ्वी का ‘‘भारत’’ यह नाम सार्थक कर दिया। भगवान ने छह महीने का योग समाप्त करके आहार के लिये भ्रमण किया किंतु आहारदान की विधि किसी को मालूम न होने से छह महीने और निकल गये। एक दिन हस्तिनापुर के राजा सोमप्रभ और श्रेयांसकुमार ने भगवान को विधिवत् इक्षुरस का आहारदान दिया था। राजा श्रेयांस को पूर्व भवों का स्मरण हो जाने से दान देने की विधि उन्हें मालूम हो गई थी। यह आहारदान का दिन ‘‘वैशाख शुक्ला तृतीया’’ का था। उस दान के निमित्त से आज भी यह दिन ‘‘अक्षय तृतीया’’ के नाम से विख्यात है।
हजार वर्ष के तपश्चरण के बाद भगवान ने लोक और अलोक को एक साथ जानने वाला केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। उस समय इंद्र ने भगवान के अर्हंत पद की पूजा की । समवसरण की बारह सभा में मुनि, आर्यिकाओं, देव, देवियों और मनुष्य, तिर्यचों ने भी भगवान के उपदेश का लाभ लिया। भगवान ने सर्वत्र विहार करके असंख्यों भव्य जीवों को धर्मामृत का पान कराया। अनंतर वैâलाश पर्वत पर जाकर योग निरोध कर सम्पूर्ण कर्मों का विनाश करके मोक्ष को प्राप्त हो गए।
भगवान वृषभदेव के मोक्ष जाने के पश्चात् तीन वर्ष, साढ़े आठ मास बीत जाने के बाद चतुर्थकाल का प्रवेश हो गया। इसके बाद अंसख्यातों करोड़ वर्षों के बीत जाने पर द्वितीय तीर्थंकर भगवान अजितनाथ का जन्म हुआ था। अनंतर असंख्यातों वर्षों के अन्तराल से क्रमश: संभवनाथ, अभिनंदन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ, पुष्पदंत, शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनंत, धर्म, शांति, कुंथु, अर, मल्लि, मुनिसुव्रत और नमि तीर्थंकर हुए ।
नमिनाथ तीर्थंकर की उत्पत्ति के अनंतर ५०,९००० वर्षों के बीत जाने पर नेमिनाथ भगवान का जन्म हुआ। ये नेमिनाथ भगवान श्रीकृष्ण के चचेरे भाई थे। इन तीर्थंकर की उत्पत्ति के पश्चात् ८४,६५० वर्ष बीत जाने पर श्री पार्श्वनाथ भगवान का जन्म हुआ। पार्श्वनाथ की उत्पत्ति के पश्चात् दो सौ अठहत्तर (२७८) वर्ष बीत जाने पर श्री महावीर भगवान का जन्म हुआ है।
छत्रपुर नगर का नंद नाम का राजा था, वह प्रोष्ठिल गुरु के समीप दीक्षा लेकर आचारांग आदि शास्त्रों का अध्ययन करके घोर तपश्चरण करने लगा। दर्शनविशुद्धि, विनयसंपन्नता, शीलव्रतेश्वनतिचार आदि सोलह भावनाओं का चिंतन करते हुए तथा ‘‘किस प्रकार से मैं इन संसारी, दु:खी प्राणियों को दु:ख से निकाल कर उत्तम सुख में पहूँचा दूँ’’ इस प्रकार की उत्कट अपायविचय धर्मध्यान की भावना से इन्होंने तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लिया। अंत में सल्लेखना विधि से शरीर त्याग कर अच्युत स्वर्ग के पुष्पोत्तर विमान में इंद्र हो गये ।
विदेह देश के कुंडलपुर नगर में नाथवंशी राजा सिद्धार्थ की रानी का नाम त्रिशला था। उपर्युक्त अच्युतेन्द्र का जीव रानी त्रिशला के गर्भ में आ गया। उस दिन आषाढ़ सुदी षष्ठी थी।
नव मास के अनंतर चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन रानी त्रिशला ने महान् पुण्यशाली तीन लोक के नाथ ऐसे पुत्ररत्न को जन्म दिया। इंद्रादि देवों ने मिलकर जिनबालक को सुमेरु पर्वत पर ले जाकर भगवान का जन्माभिषेक महोत्सव मनाया। उस समय सर्वत्र विश्व में ही क्या तीनों लोकों में एक हर्ष की लहर दौड़ गई थी। यहाँ तक कि नरक धरा में उन नारकी जीवों को भी एक क्षण के लिये शांति सुख का अनुभव हुआ था। उस समय इंद्र ने भगवान का नाम ‘‘वीर ’’ रखा और जन्म से दशवें दिन राजा ने शिशु का नाम ‘‘वर्धमान’’ रखा था।
एक बार संजय और विजय दो मुनियों को किसी तत्व में संदेह हुआ । वीर बालक को देखने मात्र से ही उनका संदेह दूर हो जाने पर उन्होंने ‘‘सन्मति’’ नाम रखा था।
तीस वर्ष की अवस्था में प्रवेश करने पर भगवान महावीर सहसा विरक्त हो गये । तब लौकांतिक देवों द्वारा पूजा, स्तुति को प्राप्त हुए । भगवान ‘‘षण्ड’’ नामक वन में पहुँचे और अपने हाथों से केशों को लोच करके सर्व परिग्रह का त्याग करके जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली तथा घोरातिघोर तपश्चरण करते हुए बारह वर्ष व्यतीत कर दिये। तब भगवान को दिव्य केवलज्ञान प्रगट हो गया।
वह दिन वैशाख शुक्ला दशमी का था। इन्द्र ने कुबेर को समवसरण रचने की आज्ञा दी। इस समवसरण में बारह सभायें थीं जिसमें क्रम से
(१) गणधर ऋषि, मुनिगण, | (२) कल्पवासिनी देवियां | (३) आर्यिकायें और श्राविकायें, | (४)ज्योतिषी देवियां , | (५)व्यंतर देवियां, | (६) भवनवासिनी देवियां, |
(७) भवनवासी देव, | (८) व्यंतर देव, | (९) ज्योतिषीदेव, | (१०) कल्पवासी देव, | (११) चक्रवर्ती राजा, अन्य मनुष्य आदि | (१२) हाथी, सिंह आदि तिर्यंच । |
इस प्रकार असंख्यातों भव्य जीव बैठकर धर्मोपदेश श्रवण करते हैं।
छ्यासठ दिन तक भगवान की दिव्यध्वनि नहीं खिरी तब इन्द्र युक्तिपूर्वक इन्द्रभूति नाम के विद्वान ब्राह्मण को वहाँ ले आया। वे विद्वान वहाँ आते ही भगवान के शिष्य बन गये और जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। उस समय श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के दिन महावीर भगवान की दिव्यध्वनि प्रगट हुई, इसी कारण से आज भी इस दिन ‘‘वीरशासन दिवस’’ मानकर जयंती उत्सव मनाया जाता है। भगवान का उपदेश मुख्य रूप से सात सौ अठारह भाषाओं में हुआ था। प्रत्येक श्रोता अपनी-अपनी भाषा में प्रभु का उपदेश समझ लेते थे।
इन्द्रभूति गौतम गणधर ने भगवान् की दिव्यध्वनि को बारह अंग रूप से ग्रथित किया था। काशी, कुरुजांगल, मध्यप्रदेश आदि अनेक देशों में विहार कर भगवान् ने धर्मामृत की वर्षा करते हुये असंख्य भव्य जीवों को संतर्पित किया था। भगवान का सिद्धांत स्याद्वादमय है। अहिंसा आदि पाँच अणुव्रत और पाँच महाव्रत रूप से पूर्णतया दयामय है। इस मत में कर्मसिद्धांत प्रधान है, किसी ईश्वर के सिर पर किसी को सु:ख-दु:ख देने का भार नहीं डाला जाता है। प्रत्येक प्राणी जैसा कर्म करता है उसी के अनुसार उसे दु:ख- सुख भोगना पड़ता है। प्रत्येक प्राणी कर्मों का नाश करके अपने आपको परमात्मा भगवान महावीर बना सकता है।
स्याद्वाद-प्रत्येक वस्तु अनंत धर्मात्मक है, उसको प्रमाण और नयों के द्वारा समझा जाता है। प्रमाण सामान्यविशेषात्मक वस्तु को ग्रहण करता है और नय प्रमाण के द्वारा ग्रहीत वस्तु के एक-एक अंश को ग्रहण करता है। जीव में नित्य-अनित्य, एक-अनेक, अस्तित्व-नास्तित्व आदि अनेकों धर्म हैं। द्रव्यार्थिक नय जीव को नित्य और एक सिद्ध करता है तथा पर्यायार्थिक नय जीव को अनित्य और अनेक सिद्ध करता है। जीव स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से अस्तिरूप है और परद्रव्य क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से नास्ति रूप है। जैसे-एक सेठ में पिता-पुत्र, चाचा-भतीजा, मामा-भांजा आदि अनेक संबंध मौजूद हैं। वह सेठ जिसका पिता है उसी का पुत्र नहीं है, अपने पुत्र का पिता और पिता का पुत्र है उसी प्रकार से
अपनी-अपनी अपेक्षा से प्रत्येक वस्तु अनेकों धर्म वाली हैं। स्याद्वाद के द्वारा उन अनेकों धर्मों का संग्रह करना, समन्वय करना अनेकांत है। इस अनेकांत को समझ लेने से दृष्टि सम्यक्चारित्र हो जाती है।
विश्व में अनंतानंत जीव हैं। प्रत्येक जीव का अस्तित्व अलग-अलग है।’’ मैं सुखी हूँ, मैं दु:खी हूँ इत्यादि अनुभव में जो ‘‘मैं’’ शब्द से ‘‘अहं प्रत्यय’’ का ज्ञान होता है वही आत्मा का अस्तित्व है। आत्मा ज्ञान, दर्शन स्वभाव वाला है। अनादिकाल से कर्मों से बद्ध होने से यह संसारी है, जब स्वयं कर्मों का नाश करके मुक्त हो जाता है तब पूर्ण सुखी सिद्ध परमात्मा कहलाता है।
इस जीव के साथ कर्मों का संबंध अनादिकाल से हो रहा है। यह जीव स्वयं राग, द्वेष आदि परिणामों के द्वारा कर्मों को ग्रहण करता रहता है और उन कर्मों का उदय आने पर सुख-दु:ख आदि फल को भोगता रहता है। कर्म के निमित्त से नर, नारकादि पर्यायों में पराधीन हो रहा है। अपने द्वारा किये गये शुभ, अशुभ परिणाम ही पुण्य और पाप रूप से बंध को प्राप्त हो जाते हैं और समय आने पर जीव को सुख-दु:ख रूप फल का अनुभव कराते हैं।
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों की एकता ही मोक्ष का मार्ग है।
सम्यग्दर्शन-सच्चे देव, शास्त्र, गुरु का श्रद्धान करना और अर्हंतदेव द्वारा कहे हुए अजीव आदि तत्त्वों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है।
सम्यग्ज्ञान-सम्यग्दर्शन के अनंतर जो भी ज्ञान है वह सम्यग्ज्ञान है, उस ज्ञान की वृद्धि के लिये प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग इन चारों अनुयोगों का स्वाध्याय करना, पढ़ना-पढ़ाना तथा संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय रहित तत्त्वों को जानना सम्यग्ज्ञान है।
सम्यक्चारित्र-अशुभ से छूटकर शुभ में प्रवृत्ति करना सम्यक्चारित्र है। उसके दो भेद हैं-सकल चारित्र और विकल चारित्र।
सकल चारित्र-हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पांचों पापों का सम्पूर्णतया त्याग कर देना पांच महाव्रत रूप सकल चारित्र कहलाता है।
विकल चारित्र-इन्हीं हिंसादि पांचों पापों का एकदेश त्याग करना विकल चारित्र या पंच अणुव्रत कहलाता है।
हिंसा के त्याग करने के इच्छुक भव्य जीवों का कर्त्तव्य है कि सबसे पहले मद्य( मदिरा ), मांस, मधु(शहद), बड़, पीपल, पाकर, कठूमर और गूलर इन आठों का त्याग कर देवें क्योंकि इनका सेवन करने से त्रस जीवों का घात होता है। एक बिंदु मात्र भी मधु का सेवन करने से सात गाँव को जलाने का पाप लगता है ऐसा ग्रन्थकारों का कथन है। मांस और मदिरा तो स्पष्ट रूप में ही घृणित, निंद्य और त्रस जीवों की हिंसा का स्थान है। इन आठों का त्याग करना आठ मूलगुण कहलाता है।
(१) मद्य,
(२) मांस,
(३) मधु,
(४) रात्रि भोजन,
(५) पंच उदुंबर फल, इनका त्याग करना
(६) जीवदया का पालन करना
(७) जल छानकर पीना
(८) और पंच परमेष्ठी को नमस्कार करना श्रावकों के ये आठ मूलगुण हैं ऐसा समझना।
सप्त व्यसन-जुआ खेलना, मांस खाना, मदिरा पीना, वेश्यागमन करना, शिकार खेलना, चोरी करना और परस्त्री सेवन करना ये सात व्यसन महा दु:खदायी हैं, इनका भी त्याग कर देना चाहिये।
अहिंसाणुव्रत-अहिंसा रूप यह धर्म अमृतस्वरूप परम रसायन है, ऐसा समझकर भी जो पूर्णतया हिंसा का त्याग करने में असमर्थ हैं अर्थात् यदि वे स्थावर हिंसा का त्याग नहीं कर सकते हैं तो वे त्रसहिंसा का त्याग अवश्य ही कर देवें ऐसी जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा है।
मन, वचन, काय से कृत, कारित, अनुमोदना से संकल्पपूर्वक होने वाली त्रस हिंसा का त्याग कर देना अिंहसाणुव्रत है। श्रावक के आरम्भ, उद्योग और विरोध में होने वाली हिंसा का त्याग नहीं हो सकता है अत: श्रावक संकल्पी हिंसा का पूर्णतया त्यागी होता है।
सत्याणुव्रत-दूसरे को प्राणघातक, कठोर, निंद्य, अप्रशस्त वचन नहीं बोलना सत्याणुव्रत है। इस व्रत को धारण करने वाला श्रावक ऐसा सत्य भी नहीं बोले कि जिससे धर्म या धर्मात्मा का घात हो या अपमान हो अथवा किसी प्राणी का घात हो जावे ।
अचौर्याणुव्रत-दूसरे की वस्तु को बिना दिये ग्रहण नहीं करना अचौर्याणुव्रत है। इस व्रत का धारक श्रावक किसी की गिरी, पड़ी, भूली या रखी आदि वस्तु को भी नहीं लेता है, न उठाकर दूसरों को देता है।
ब्रह्मचर्याणुव्रत-अपनी स्त्री के सिवाय अन्य समस्त स्त्रियों से विरक्त होना, उन्हें माता, बहन और पुत्रीवत् समझना ब्रह्मचर्याणुव्रत है, इस व्रत के धारकों का मनुष्य तो क्या देव भी पूजा-सत्कार करते हैं।
परिग्रह परिमाणाणुव्रत-अपनी आवश्यकता और सामर्थ्य को देखकर धन,धान्य आदि वस्तुओं का परिमाण करके अल्प परिग्रह रखना और उसके सिवाय शेष परिग्रह में निस्पृह रहना, अपनी इच्छाओं को अपने आधीन करना परिग्रह परिमाणाणुव्रत कहलाता है।
यह पंच अणुव्रत ऐसे उत्तम निधिरूप हैं कि अतिचार रहित धारण करने से यह जीव नियम से स्वर्ग में ही जाता है। यदि किसी ने पहले नरक, तिर्यंच या मनुष्य की आयु बांध ली है तो वह पंच अणुव्रत नहीं ले सकता है।
इन पाँच अणुव्रतों का पालन प्रत्येक गृहस्थ के लिये बहुत ही उपयोगी है।