(श्री अग्रवाल दिगम्बर जैन मंदिर राजाबाजार, कनॉट प्लेस, दिल्ली के प्रांगण में बने हुए कीर्तिस्तंभ में उत्कीर्ण विषय)
भगवान महावीर २६००वाँ जन्मकल्याणक महोत्सव वर्ष के अन्तर्गत सान्निध्य–
चारित्रचक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज (दक्षिण) की परम्परा के प्रथम पट्टाचार्यश्री वीरसागर जी महाराज की सुशिष्या-गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी एवं संघस्थ प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी, पीठाधीश क्षुल्लकरत्न श्री मोतीसागर जी महाराज, क्षुल्लिका श्री श्रद्धामती माताजी, कर्मयोगी ब्र. रवीन्द्र कुमार जैन (अध्यक्ष) दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर तथा ब्रह्मचारिणी बहनें।
स्थापना-शरदपूर्णिमा, वीर नि. सं. २५२७, दिनाँक-२ नवम्बर २००१
लाला श्री महावीर प्रसाद जैन ठेकेदार (स्व.) दिल्ली के सुपुत्र स्व. श्री शामलाल जैन स्व. श्री अजित प्रसाद जैन, श्री महेन्द्र प्रसाद जैन,
पौत्रगण-जिनेन्द्र प्रसाद जैन, रवीन्द्र कुमार जैन, अरुण कुमार जैन, अशोक कुमार जैन, सुरेन्द्र कुमार जैन, मुकेश जैन, राजीव जैन
प्रपौत्र-अनिल कुमार जैन, सुदर्शन जैन, सुनील जैन, मनीष जैन, रजनीश जैन, आयुष जैन, नितिश जैन, नमित जैन, रोहित, सिद्धार्थ, नमो, अंकुर, गौरव जैन तथा महावीर प्रसाद जैन चेरीटेबल ट्रस्ट के आर्थिक सहयोग एवं ट्रस्ट के ट्रस्टी बिजेन्द्रप्रसाद जैन व नरेन्द्र कुमार जैन के सहयोग से किया गया।
स्थापना-शरदपूर्णिमा, वीर नि. सं. २५२७, दिनाँक-१ नवम्बर २००१
भगवान ऋषभदेव अन्तर्राष्ट्रीय निर्वाण महामहोत्सव का उद्घाटन माघ कृ. चतुर्दशी, वीर नि. सं. २५२६, दिनाँक ४ फरवरी २००० को भारत की राजधानी दिल्ली के लालकिला मैदान से दिगम्बर जैन समाज की सर्वोच्च साध्वी पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से उनके ससंघ सान्निध्य में प्रधानमंत्री श्री अटलबिहारी वाजपेयी द्वारा हुआ।
इस महामहोत्सव का प्रधान कार्यालय राजाबाजार कनॉट प्लेस, दिल्ली में स्थित अग्रवाल दि. जैन मंदिर की धर्मशाला में खोला गया। यहाँ से इस महोत्सव वर्ष की धर्मप्रभावना की सारी गतिविधियाँ संचालित की गई। महोत्सव उद्घाटन के अनन्तर सप्तदिवसीय पंचकल्याणक प्रतिष्ठा एवं ऋषभदेव जैन मेला आदि कार्यों के सम्पन्न होने के बाद ‘‘ऋषभदेव निर्वाण ज्योति’’ को वहाँ से लाकर यहाँ जैनमंदिर के मुख्य द्वार के ऊपर वह ज्योति स्थापित की गई। सन् १९९९ का वर्षायोग भी गणिनी माताजी का यहीं सम्पन्न हुआ है। पुन: इसी निर्वाण महोत्सव वर्ष के अन्तर्गत दि. जैन त्रिलोक शोध संस्थान, जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर (मेरठ) उ.प्र. के कार्यकर्ताओं द्वारा भगवान ऋषभदेव की दीक्षाभूमि एवं केवलज्ञानभूमि प्रयाग में निर्मित तीर्थंकर ऋषभदेव तपस्थली नामक तीर्थ पर पूज्य माताजी के ससंघ सान्निध्य में दि. ४ फरवरी से ८ फरवरी २००१ तक पंचकल्याणक एवं भगवान ऋषभदेव महाकुंभ मस्तकाभिषेक महोत्सव सम्पन्न करके इस निर्वाण महामहोत्सव वर्ष का समापन किया गया।
युग की आदि में अयोध्या में महाराजा नाभिराय की रानी मरुदेवी ने सोलह स्वप्न देखें। पुन: नव माह बाद तीर्थंकर प्रभु को जन्म दिया। कुबेर ने गर्भागम से छह माह पूर्व से जन्म लेने तक माता के आंगन में १५ महीने तक रत्नवृष्टि की थी। इंद्रों ने जन्मजात बालक का सुमेरु पर्वत पर जन्माभिषेक करके ‘‘ऋषभदेव’’ यह नाम रखा।प्रभु ने एक दिन राजसभा में अपनी ब्राह्मी-सुंदरी पुत्रियों को अक्षर विद्या एवं अंक विद्या सिखाया। अनंतर प्रजा को असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प ऐसी षट् क्रियाओं का उपदेश देकर कर्मभूमि की आदि में जीने की कला सिखाई।
प्रभु ने नृत्य करती हुई नीलांजना की मृत्यु देखकर विरक्त हो प्रयाग में जाकर वटवृक्ष के नीचे जैनेश्वरी दीक्षा लेकर ध्यान किया। अनंतर एक वर्ष ३९ दिन बाद हस्तिनापुर में राजा श्रेयांस द्वारा इक्षुरस का आहार लिया, वह तिथि ‘‘अक्षयतृतीया’’ हो गई।प्रयाग में वटवृक्ष के नीचे ही प्रभु ने केवलज्ञान प्राप्त किया, तब धनकुबेर ने आकाश में अधर समवसरण की रचना कर दी, जिसमें असंख्य भव्यों ने भगवान का दिव्य उपदेश सुना। अनन्तर भगवान ने कैलाश पर्वत से निर्वाण प्राप्त किया है। जैनधर्म में भगवान ऋषभदेव प्रथम तीर्थंकर एवं भगवान महावीर अंतिम चौबीसवें तीर्थंकर हुए हैं।
In the beginning of the age, Marudevi, the wife of the king nabhiraj of ayodhya, saw sixteen dreams later she gave birth to tirthankar prabhu after nine months. kuber showered jewels in the courtyard of mata for fifteen months from six months before the conception upto birth. indras performed the janmabhishek (bathing at birth) of the new born child on sumeru mountain and named him as rishabhdeva.
one day bhagwan originated knowledges by teaching alphabets and numerals to his brahmi and sundari daughters in his court assembly. later he guided about the way of leading life by teaching asi (Defence) Masi (writing), Krishi (agriculture), vidya (knowledge) vanijya (commerce) and shilp (craft) to the public in the beginning of the karmabhumi.
Seeing the death of dancing neelanjana, bhagwan got alienated from worldly objects. he started maditation after taking jaineshwari deeksha below vat-vriksha (banyan tree) at prayag. later he took the ahar of sugarcane juice from king shreyans at hastinapur, after one year and thirt nine days, that day (tithi) became akshaya tritiya.
bhagwan got kevalgyan (enlightenment) below vatvriksha at prayag. then kuber formed samavsaran in the mid sky. innumerable bhavya jivas listened to the divine sermon of bhagwan there. later bhagwan At tained nirvan from kailash parvat. in jain dharma bhagwan rishabhdeva has been the first tirththankar & bhagwan mahavir, the last & the 24th tirthankar.