(आदिपुराण ग्रंथ से)
तृतीयकालशेषेऽसावशीतिश्चतुरुतरा ।
पूर्वलक्षास्त्रिवर्षाष्टमासपक्षयुतास्तदा।।१६३।।
अवतीर्य युगाद्यंते ह्यखिलार्थविमानत:।
आषाढसितपक्षस्य द्वितीयायां सुरोत्तम:।।१६४।।
उत्तराषाढनक्षत्रे देव्या गर्भसमाश्रित:।
स्थितो यथा विवाधोऽसौ मौक्तिकं शुक्तिसंपुटे।।१६५।।
ज्ञात्वा तदा स्वचिन्हेन सर्वेऽप्यागु: सुरेश्वरा:।
पुरं प्रदक्षिणीकृत्य तद्गुरूंश्च ववंदिरे।।१६६।।
संगीतकं समारब्धं वङ्किाणा हि सहामरै:।
क्वचिद्गीतं क्वचिद्वाद्यं क्वचिन्नृत्यं मनोहरं।।१६७।।
तत्प्रांङ्गणं समाक्रांतं नाकलोवैâरिहागतै:।
कृत्वा गर्भकल्याणं पुनर्जग्मुर्यथायथं१।।१६८।।
जब अवसर्पिणी काल के तीसरे सुषमदु:षमकाल में चौरासी लाख पूर्व तीन वर्ष साढ़े आठ महीना बाकी रहे थे। उस समय असाढ़ शुक्ला द्वितीया के दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्र में वङ्कानाभि अहमिंद्र अपनी आयु पूर्ण कर सर्वार्थसिद्धि विमान से चयकर श्रीमती मरुदेवी के गर्भ में आये और जिस प्रकार सीप के संपुट में मोती रहता है। उसी प्रकार सब तरह की बाधारहित जहाँ विराजमान हुए।।१६३-१६४-१६५।। इन्द्रादिक देवों ने अपने-अपने चिन्हों से भगवान के गर्भ में आने के समाचार जान लिये और तुरंत ही वे आये। प्रथम ही आकर उन्होंने नगर की प्रदक्षिणा दी तथा भगवान के माता-पिता को नमस्कार किया।।१६६।। सौधर्म इन्द्र ने देवों के साथ-साथ संगीत प्रारंभ किया, कहीं गीत होने लगे, कहीं बाजे बजने लगे और कहीं मनोहर नृत्य होने लगा।।१६७।। महाराज नाभिराज का आंगन स्वर्ग से आये हुए देवलोगों से भर गया। वे देव भगवान का गर्भकल्याणक उत्सव कर अपने-अपने स्थान पर चले गये।।१६८।।