-गणिनी ज्ञानमती
-मंगलाचरण-
प्रभो: ऋषभदेवस्य, समवादिसृतिर्भुवि।
श्रीविहारोऽपि देवस्य, सर्वमंगलकारणम्।।
भगवान ऋषभदेव ने पुरिमतालपुर के उद्यान में ध्यान के बल से जब घातिया कर्मों पर विजय प्राप्त कर ली तब उसी क्षण उन्हें केवलज्ञान प्रगट हो गया। तत्क्षण ही तीनों लोकों में आनंद की लहर छा गई। भगवान पृथ्वी से अधर आकाश में दो हजार हाथ ऊपर पहुँच गये। भगवान को वटवृक्ष के नीचे केवलज्ञान हुआ था, आज वह ‘प्रयाग’ (इलाहाबाद) में विद्यमान हैं।
उसी क्षण स्वर्गों में कल्पवासी देवों के यहाँ अपने आप बिना बजाये घंटे बजने लगे, ज्योतिषी देवों के यहाँ सिंहनाद होने लगा, व्यंतर देवों के घरों में भेरी बजने लगीं और भवनवासी देवों के यहाँ शंख ध्वनि होने लगी।
तभी समस्त इंद्रों के आसन कंपायमान हो गये, इंद्रों के मुकुट स्वयमेव झुक गये। कल्पवृक्षों से अपने आप पुष्प बरसने लगे और देवों के हाथी सूंड में कमल उठाकर ऊपर करके नाचने लगे। सभी दिशाएँ स्वच्छ हो गईं और मंद-सुगंध पवन चलने लगी।
सौधर्म इन्द्र ने तत्क्षण ही अवधिज्ञान से जान लिया कि ‘भगवान ऋषभदेव’ को केवलज्ञान प्रगट हो गया। तभी उसने सिंहासन से उतरकर सात पैंड आगे बढ़कर परोक्ष से ही भगवान को नमस्कार किया और कुबेर को आज्ञा दी-
हे धनपते! तुम शीघ्र ही पुरिमतालपुर के उद्यान में पहुँचकर भगवान ऋषभदेव के समवसरण की रचना कर दो। कुबेर ने उसी समय अर्धनिमिष में आकाश में अधर समवसरण की रचना कर दी। उस समवसरण में भगवान कमलासन पर चार अंगुल अधर विराजमान हो गये।सौधर्म इन्द्र का आगमन-अनन्तर सौधर्मेन्द्र ने भगवान का केवलज्ञान महोत्सव मनाने के लिए मध्यलोक में चलने के लिए देवों को आज्ञा दी। तभी प्रस्थान काल की सूचना देने के लिए जोर-जोर से नगाड़े बजाये गये। उसी क्षण ‘बलाहक’ नाम के देव ने एक ‘कामग’ नाम का विमान बनाया और आभियोग्य जाति के देवों में मुख्य ऐसे ‘नागदत्त’ नाम के देव ने विक्रिया ऋद्धि से एक ‘ऐरावत’ नाम का हाथी बनाया। इस हाथी का वर्ण सफेद था।उस ऐरावत हाथी के बत्तीस मुख थे, प्रत्येक मुख में आठ-आठ दाँत थे, एक-एक दाँत पर एक-एक सरोवर था, एक-एक सरोवर में एक-एक कमलिनी थी, एक-एक कमलिनी में बत्तीस-बत्तीस कमल थे, एक-एक कमल में बत्तीस-बत्तीस दल थे। इन लंबे-लंबे दलों पर बत्तीस-बत्तीस अप्सराएँ नृत्य कर रही थीं।
सौधर्म इन्द्र अपनी इन्द्राणी और ऐशान इंद्र के साथ-साथ ऐसे ऐरावत हाथी पर बैठकर चल पड़ा। उसी समय सभी इन्द्रगण व देवगण अपने-अपने परिवारदेव व देवियों के साथ अपने-अपने वाहनों में बैठकर इन्द्र के साथ निकल पड़े। उस समय इन्द्र के सामने भी अनेक देव अप्सराएँ नृत्य कर रही थीं और किन्नरी देवियाँ श्रीऋषभदेव के विजय गीत गा रही थीं। ऐसे बत्तीस इंद्रों की सेनाएँ उस समय ध्वजा, छत्र, चंवर आदि से विभूषित हुई आकाश मंडल में छा गई थीं।
सबसे आगे किल्विषक जाति के देव जोर-जोर से सुंदर नगाड़े बजा रहे थे। उनके पीछे इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश, पारिषद, आत्मरक्ष, लोकपाल, अनीक और प्रकीर्णकजाति के देव अपने-अपने वाहनों पर आरूढ हो सौधर्मेन्द्र के पीछे-पीछे चल रहे थे। उस समय अप्सराएँ नृत्य कर रही थीं, गंधर्वदेव बाजे बजा रहे थे और किन्नरी जाति की देवियाँ भगवान के गुणानुवादरूप गीत गा रही थीं।
यहाँ इन्द्र आदि देवों के संक्षिप्त लक्षण बताते हैं-
इन्द्र-जो अन्य देवों में नहीं पाये जाने वाले ऐसे आज्ञा, ऐश्वर्य आदि गुणों से सहित हैं, वे ‘इन्द्र’ हैं।
सामानिक-जो आज्ञा और ऐश्वर्य के बिना अन्य गुणों से इन्द्र के समान हैं और इन्द्र भी जिसे बड़ा मानते हैं, वे ‘सामानिक’ हैं।
त्रायस्त्रिंश-जो पुरोहित, मंत्री और अमात्यों के समान होते हैं उन्हें ‘त्रायस्त्रिंश’ कहते हैं। ये संख्या में तेंतीस-तेंतीस ही इन्द्रों की सभा में होते हैं।
पारिषद-जो इन्द्र की सभा में उपस्थित रहते हैं और इन्द्र का उन पर अतिशय प्रेम रहता है, वे ‘पारिषद’ हैं।
आत्मरक्ष-जो देव अंगरक्षक के समान इन्द्र के चारों ओर तलवार लेकर घूमते रहते हैं वे ‘आत्मरक्ष’ हैं। यद्यपि इन्द्र को स्वर्ग में कुछ भी भय नहीं रहता है फिर भी ये इन्द्र का वैभव दिखलाने के लिए ही वहाँ रहते हैं।
लोकपाल-जो दुर्गरक्षक के समान स्वर्गलोक की रक्षा करते हैं, वे ‘लोकपाल’ हैं।
अनीक-जो सेना के समान हैं, वे ‘अनीक’ हैं। इनके सात भेद हैं-हाथी, घोड़े, रथ, पदाति, बैल, गंधर्व और नर्तकी। ये सात प्रकार के देवों की सेनाएँ हैं।
प्रकीर्णक-नगर तथा देशों में रहने वालों के समान जो देव हैं, वे ‘प्रकीर्णक’ कहलाते हैं।
आभियोग्य-जो नौकर-चाकरों के समान हैं, वे ‘आभियोग्य’ देव हैं।
किल्विषक-और जो इन्द्र की सभा से बाहर रहते हैं, वे ‘किल्विषक’ कहलाते हैं।
इस तरह स्वर्गों में दश प्रकार के देव होते हैं।
स्वर्ग में हाथी, बैल आदि पशु हंस, तोते आदि पक्षी नहीं होते हैं। वहाँ पर वे देव ही विक्रिया से पशु-पक्षियों के रूप बनाते हैं।
यहाँ पर जो अल्प पुण्य करते हैं, या तपस्वी साधु आदि बड़ों का अपमान करते हैं अथवा व्रतों में दूषण लगाते हैं, गुरु की आज्ञा उल्लंघन कर स्वच्छंद प्रवृत्ति करते हैं इत्यादि कारणों से ही मनुष्य अल्पपुण्य से मरकर देवगति में पहुँच जाते हैं किन्तु वहाँ पर आभियोग्य या किल्विषक देवों में जन्म ले लेते हैं, ऐसा समझना।
ऐसे असंख्य वैभव से सहित इन्द्र भी जिनकाr सेवा करते हैं ऐसे जिनेन्द्र भगवान श्री ऋषभदेव तीनों लोकों में श्रेष्ठ माने गये हैं।
अथवा यों कहिये कि सौधर्मेन्द्र आदि सौ इन्द्रों से वंदित होने से ही भगवान तीर्थंकर श्रेष्ठ माने गये हैं।
अथवा इन्द्रों द्वारा भक्ति की जाने से, समवसरण सभा के रचे जाने से और किंकर बनकर व्यवस्था करते रहने से ही भगवान सर्वश्रेष्ठ गिने गये हैं।
श्री मानतुंगस्वामी ने कहा भी है-
इत्थं यथा तव विभूतिरभूज्जिनेन्द्र! धर्मोपदेशन विधौ न तथा परस्य।
यादृक् प्रभा दिनकृत: प्रहतांधकारा, तादृक् कुतो ग्रहगणस्य विकासिनोऽपि।
हे जिनेन्द्रदेव! धर्म के उपदेश के समय समवसरण में जैसी आप की विभूति थी, वैसी अन्य किसी की नहीं हो सकती है। सो सच ही है-जैसी प्रभा सूर्य की होती है जो कि अंधकार को दूर कर देती है, वैसी प्रभा गृह, नक्षत्र, ताराओं की नहीं हो सकती है।
इन्द्र ने ऐरावत हाथी पर बैठकर स्वर्ग से प्रयाण कर अर्धनिमिष में मध्यलोक में आकर भगवान ऋषभदेव के समवसरण को दूर से ही देखा।
यह बारह योजन-छ्यानवे मील का विस्तृत गोलाकार था और इन्द्रनील मणि से बना हुआ था।
इसको घेरकर चारों ओर पंचवर्णी रत्नों से निर्मित ‘धूलिसाल’ नाम का परकोटा था।
अहो! जिस समवसरण की रचना का सूत्रधार स्वयं इन्द्र था, उस समवसरण का वर्णन भला कौन कर सकता है ?
इस समवसरण में अनेक नाट्यशालाएँ बनी हुई थीं, जहाँ देवांगनाएँ भगवान के गुणों का गान करते हुए नृत्य करती रहती थीं। अनेक सुंदर उपवन-बगीचे थे जो नंदनवन से भी अधिक सुंदर थे, अनेक बावड़ियाँ थीं, अनेक स्तूप ऐसे थे जो मध्यलोक, स्वर्गलोक, तीनलोक आदि की रचनाओं को दिखला रहे थे। जगह-जगह नवनिधियाँ थीं जो सभी को इच्छित फल देने वाली थीं। इसी प्रकार कल्पवृक्षों से, अनेक ध्वजाओं से इसकी सुंदरता ऐसी अद्भुत थी कि तीन लोक में भी ऐसी दर्शनीय वस्तुएँ मिलना असंभव था।
यह सभी वैभव सभी जीवों के मन को हरण करने वाला था।
यही कारण है कि आज भी पंचकल्याणक प्रतिष्ठा, कल्पद्रुम विधान आदि धार्मिक कार्यक्रमों में अनेक सांस्कृतिक कार्यक्रम-धार्मिक नाटक, भजन, नृत्य आदि आयोजित किये जाते हैं जो कि लोगों का मनोरंजन भी करते हैं और धर्म में प्रीति एवं पापों से भय भी उत्पन्न कराते हैं।अब यहाँ संक्षेप में तिलोयपण्णत्ति गं्रथ के आधार से समवसरण का वर्णन करते हैं-
समवसरण रचना-समवसरण के वर्णन में इक्तीस प्रकरण अधिकार जानने योग्य हैं-१. सामान्य भूमि का प्रमाण २. सोपानों का प्रमाण ३. विन्यास ४. वीथी ५. धूलिसाल कोट ६. चैत्यप्रासाद भूमि
७. नृत्यशाला ८. मानस्तंभ ९. वेदी १०. खातिकाभूमि ११. वेदी १२. लताभूमि १३. साल १४. उपवनभूमि
१५. नृत्यशाला १६. वेदी १७. ध्वजाभूमि १८. साल १९. कल्पभूमि २०. नृत्यशाला २१. वेदी
२२. भवनभूमि २३. स्तूप २४. साल २५. श्रीमंडपभूमि २६. ऋषि आदि द्वादशगणों का विन्यास २७. वेदी
२८. प्रथम कटनी २९. द्वितीय कटनी ३०. तृतीय कटनी ३१. गंधकुटी का प्रमाण।
अथवा सरलता से समझने के लिए इसमें चार परकोटे, पाँच वेदियाँ, आठ भूमियाँ एवं तीन कटनी हैं। तीसरी कटनी पर गंधकुटी है। इसमें भी आठ भूमियों को समझ लेने से सब समझ में आ जाता है।
सामान्य भूमि-सामान्यरूप से यह समवसरण भूमि गोल है, आकाश में अधर है, इन्द्रनीलमणिमयी है और बारह योजन प्रमाण है। इसके आगे भगवान अजितनाथ से लेकर भगवान नेमिनाथपर्यन्त आधा-आधा योजन अर्थात् दो-दो कोश कम होती गई है तथा पार्श्वनाथ एवं महावीर भगवान की योजन के चतुर्थ भाग-एक-एक कोश कम थी। यह जो सामान्य भूमि का प्रमाण बतलाया है, वह अवसर्पिणी काल के तीर्थंकरों की समवसरण भूमि का है। उत्सर्पिणी काल में इससे विपरीत है। विदेह क्षेत्र के सभी तीर्थंकरों की समवसरण भूमि का प्रमाण बारह योजन ही है क्योंकि वहाँ हमेशा चतुर्थकाल के प्रारंभ जैसी ही कर्मभूमि की व्यवस्था रहती है।
१. भगवान ऋषभदेव का समवसरण १२ योजन (९६ मील)
२. भगवान अजितनाथ का समवसरण ११ (१/२ योजन) (९२ मील)
३. भगवान संभवनाथ का समवसरण ११ योजन (८८ मील)
४. भगवान अभिनंदननाथ का समवसरण १० १/२ योजन (८४ मील)
५. भगवान सुमतिनाथ का समवसरण १० योजन (८० मील)
६. भगवान पद्मप्रभु का समवसरण ९ १/२ योजन (७६ मील)
७. भगवान सुपार्श्वनाथ का समवसरण ९ योजन (७२ मील)
८. भगवान चंद्रप्रभु का समवसरण ८ १/२ योजन (६८ मील)
९. भगवान पुष्पदंतनाथ का समवसरण ८ योजन (६४ मील)
१०. भगवान शीतलनाथ का समवसरण ७ १/२ योजन (६० मील)
११. भगवान श्रेयांसनाथ का समवसरण ७ योजन (५६ मील)
१२. भगवान वासुपूज्यनाथ का समवसरण ६ १/२ योजन (५२ मील)
१३. भगवान विमलनाथ का समवसरण ६ योजन (४८ मील)
१४. भगवान अनंतनाथ का समवसरण ५ १/२ योजन (४४ मील)
१५. भगवान धर्मनाथ का समवसरण ५ योजन (४० मील)
१६. भगवान शांतिनाथ का समवसरण ४ १/२ योजन (३६ मील)
१७. भगवान कुंथुनाथ का समवसरण ४ योजन (३२ मील)
१८. भगवान अरनाथ का समवसरण ३ १/२ योजन (२८ मील)
१९. भगवान मल्लिनाथ का समवसरण ३ योजन (२४ मील)
२०. भगवान मुनिसुव्रतनाथ का समवसरण २ १/२ योजन (२० मील)
२१. भगवान नमिनाथ का समवसरण २ योजन (१६ मील)
२२. भगवान नेमिनाथ का समवसरण १ १/२ योजन (१२ मील)
२३. भगवान पार्श्वनाथ का समवसरण १ १/४ योजन (१० मील)
२४. भगवान महावीर का समवसरण १ योजन (८ मील)
सोपान रचना-यह समवसरण इस भूमितल से ५०० धनुष अर्थात् २००० हाथ ऊँचाई पर रहता है अत: पृथ्वी तल से एक हाथ ऊपर से सीढ़ियाँ शुरू हो जाती हैं। देव, मनुष्य और तिर्यंचों के चढ़ने के लिए आकाश में चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में ऊपर-उâपर, एक-एक हाथ ऊँची ऐसी सुवर्णमयी बीस हजार सीढ़ियाँ बनी हुई हैं।
समवसरण का ऐसा माहात्म्य है कि अंधे, लंगड़े, लूले, बालक, वृद्ध, युवा, बीमार आदि सभी जन इन
सीढ़ियों को अंतर्मुहूर्त-४८ मिनट में ही पार कर जाते हैं।
विन्यास-इस समवसरण में चार कोट, पाँच वेदियाँ, इनके बीच में आठ भूमियाँ थीं, पुन: तीन कटनी थीं।
समवसरण में चारों दिशाओं में वीथी-गलियाँ बनी थीं, ये गलियाँ दो-दो कोश विस्तार वाली हैं। यह वीथियों का प्रमाण श्री ऋषभदेव के समवसरण का है।
आठों भूमियों के मूल में वङ्कामय कपाटों से सुशोभित एवं देव, मनुष्य और तिर्यंचों के गमनागमन से सहित ऐसे बहुत से तोरणद्वार बने हुए थे।
धूलिसाल परकोटा-इस समवसरण भूमि में, जो कि आकाश में अधर है उसमें सबसे बाहर ‘धूलिसाल’ नाम का परकोटा है। यह पंचवर्णी रत्नों से निर्मित है, इसमें मार्ग बने हैं, अट्टालिकाएँ हैं और पताकाएँ फहरा रही हैं। इस परकोटे में पूर्व आदि दिशाओं में क्रम से विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजित नाम के चार गोपुर द्वार होते हैं। ये द्वार तीन खन के थे और मणिमय माला आदि से सुंदर सजे हुए थे।
प्रत्येक ‘गोपुर’ के बाहर और मध्य भाग में द्वार के दोनों पार्श्व भागों में आठ मंगल द्रव्य, नवनिधियाँ रखी रहती हैं। बहुत पुत्तलिकाएँ बनी हुई थीं जिनके मस्तक पर धूपघट रखे हुए थे। इन धूपघटों में हमेशा अग्नि जलती रहती थी व देवगण धूप खेया करते थे।
मंगलद्रव्य-झारी, कलश, दर्पण, चामर, ध्वजा, व्यजन, छत्र और सुप्रतिष्ठ ये आठ मंगलद्रव्य प्रत्येक १०८-१०८ वहाँ रहते हैं।
नवनिधियाँ-काल, महाकाल, पांडु, माणवक, शंख, पद्म, वैडूर्य, पिंगल और नानारत्न ये नवनिधियाँ प्रत्येक १०८-१०८ समवसरण में रहती हैं। ये काल आदि निधियाँ क्रम से ऋतु के योग्य द्रव्य, (मालादिक) भाजन, धान्य, आयुध, वादित्र, वस्त्र, महल, आभूषण और संपूर्ण रत्नों को देती हैं।
एक-एक पुतली के मस्तक पर एक-एक धूपघट रहता है१।
नाट्यशालाएँ-इन गोपुर द्वारों के बीच दोनों पार्श्वभागों में नाट्यशालाएँ बनी थीं, रत्नों से निर्मित इन नाट्यशालाओं में हमेशा देवांगनाएँ नृत्य करती रहती थीं।
इस धूलिसाल कोट की ऊँचाई भगवान ऋषभदेव की ऊँचाई से चौगुनी थी। इसके तोरणों की ऊँचाई चौगुनी परकोटे की ऊँचाई से अधिक थी एवं गोपुर द्वारों की ऊँचाई उनसे भी अधिक थी।
द्वाररक्षक देव-इस धूलिसाल के चारों गोपुरद्वारों पर उत्तम दण्डरत्नों को हाथ में लेकर ज्योतिषी देव द्वाररक्षक थे।
आठ भूमियाँ समवसरण में-१. चैत्यप्रासाद भूमि २. खातिका भूमि ३. लताभूमि ४. उपवनभूमि
५. ध्वजाभूमि ६. कल्पभूमि ७. भवनभूमि ८. श्रीमंडपभूमि ये आठ भूमियाँ मानी हैं।
चैत्यप्रासादभूमि-इस धूलिसाल के अभ्यंतर भाग में चारों तरफ से वेष्टित ऐसी प्रथम चैत्यप्रासादभूमि है। इसमें एक-एक जिनमंदिर ऊँचे-ऊँचे बने थे और एक-एक मंदिर के अन्तराल में पाँच-पाँच प्रासाद बने थे। ये नाना प्रकार के उद्यान, बावड़ी, कूप आदि से मनोहर थे। इन जिनमंदिरों की और देवप्रासादों की ऊँचाई तीर्थंकर ऋषभदेव की ऊँचाई से बारहगुनी मानी है।
नाट्यशालाएँ-इस प्रथमभूमि में चारों तरफ गलियों में दोनों पार्श्वभागों में सुवर्ण-रत्नों से निर्मित दो-दो नाट्यशालाएँ बनी रहती हैं। प्रत्येक नाट्यशाला में बत्तीस रंगभूमियाँ हैं और एक-एक रंगभूमि में बत्तीस-बत्तीस भवनवासिनी देवांगनाएँ तीर्थंकरों के विजयगीत गाती हुई नृत्य करती रहती हैं और पुष्पांजलि क्षेपण करती हैं। प्रत्येक नाट्यशाला में नाना प्रकार की सुगंधि से युक्त दो-दो धूपघट रहते हैं।
मानस्तंभ-प्रथम पृथिवी के बहुमध्यभाग में चारों गलियों के बीचों-बीच मानस्तंभ भूमियाँ हैं। इन मानस्तंभ भूमि के चारों तरफ गोपुर द्वारों से सहित परकोटा है। इसके मध्य वनखंड हैं। इनके मध्य पूर्व आदि दिशाओं में क्रम से ‘सोम, यम, वरुण और कुबेर’ इन लोकपालों से सुंदर क्रीड़ानगर बने रहते हैं। इसके अभ्यंतर भाग में ‘कोट’ है उसके आगे वन वापिकाएँ हैं जिनमें कमल खिले रहते हैं। उनके बीच में अपनी-अपनी दिशा और विदिशाओं में भी दिव्य क्रीड़नपुर बने रहते हैं। उनके अभ्यंतर भाग में चार गोपुरों से सहित तीसरा ‘कोट’ है।
इसके बीच में अर्थात् तीन परकोटों में से अभ्यंतर कोट के बीच में मानस्तंभ के लिए प्रथम, द्वितीय और तृतीय पीठ अर्थात् तीन कटनी बनी हुई हैं।
प्रथम कटनी वैडूर्यमणिमय, द्वितीय कटनी सुवर्णमय और तृतीय कटनी नाना रत्नों से निर्मित नानावर्णमय होती है। प्रथम कटनी में आठ सीढ़ियाँ हैं, दूसरी में चार एवं तीसरी पर चढ़ने के लिए भी चार ही सीढ़ियाँ हैं। तीसरी कटनी पर बीचों बीच में ‘मानस्तंभ’ खड़े हुए हैं। ये मानस्तंभ अपने तीर्थंकर की ऊँचाई से बारह गुने ऊँचे रहते हैं। भगवान ऋषभदेव के शरीर की ऊँचाई पाँच सौ धनुष-दो हजार हाथ थी अत: ये मानस्तंभ छह हजार धनुष ऊँचे-चौबीस हजार हाथ ऊँचे थे अर्थात् तीन कोश ऊँचे थे।
प्रत्येक मानस्तंभ के मूलभाग का विस्तार दो हजार धनुष है, वङ्कामय द्वारों से युक्त है और मध्यभाग स्फटिकमणि से निर्मित है और गोलाकार है। मानस्तंभ के उपरिम भाग वैडूर्यमणिमय हैं इनमें चंवर, घंटा, किंकणी, रत्नहार एवं ध्वजाएँ शोभा बढ़ाती रहती हैं।
इन मानस्तंभों में ऊपरी भाग में प्रत्येक दिशा में एक-एक जिनेन्द्र प्रतिमाएँ विराजमान हैं। इन प्रतिमाओं में आठ-आठ प्रातिहार्य रहते हैं। ऊपर में शिखर बने हुए हैं जिनमें ध्वजाएँ फहरा रही हैं।
इन मानस्तंभों के देखने मात्र से मिथ्यादृष्टी एवं महामानियों का भी मान गलित हो जाता है इसीलिए इनका ‘मानस्तंभ’ यह सार्थक नाम है।
अन्यत्र ग्रंथ में लिखा है-
‘‘ये मानस्तंभ बारह योजन की दूरी से (९६ मील से) दिखाई देते हैं। पालिका के अग्रभाग पर जो कमल हैं उन्हीं पर स्थित हैं। इनका मूल भाग हीरे का, मध्यभाग स्फटिक मणि का और अग्रभाग वैडूर्यमणि का है। ये मानस्तंभ दो-दो हजार कोणों से दो-दो हजार पहलू वाले हैं। चारों दिशाओं में ऊपर में सिद्धों की प्रतिमाएँ विराजमान हैं तथा उनकी रत्नमयी बड़ी-बड़ी पालिकाएँ हैं। पालिकाओं के अग्रभाग पर जो कमल हैं उन पर सुवर्ण के देदीप्यमान घट हैं, उन घटों के अग्रभाग से लगी हुई सीढ़ियाँ हैं तथा उन सीढ़ियों पर लक्ष्मी देवी के अभिषेक की शोभा दिखलाई गई है। वे मानस्तंभ लक्ष्मी देवी के चूड़ारत्न के समान अपनी कांति से ‘बीस योजन’ तक का क्षेत्र प्रकाशमान करते हैं तथा जिनका मन अहंकार से युक्त है ऐसे देव और मनुष्यों को वहीं रोक देने वाले हैं।१’’
१६ सरोवर-पूर्वदिशा के मानस्तंभ की चारों दिशाओं में तीनों परकोटों के बाहर क्रम से नन्दोत्तरा, नंदा, नंदिमती और नंदिघोषा ये चार द्रह (वापिकाएँ) हैं। दक्षिण दिशा के मानस्तंभ में चारों दिशाओं में विजया, वैजयंता, जयंता और अपराजिता नाम की बावड़ियाँ हैं। पश्चिम दिशा के मानस्तंभ के चारों तरफ अशोका, सुप्रबुद्धा, कुमुदा और पुण्डरीका नाम की वापिकाएँ हैं। उत्तर के मानस्तंभ में चारों दिशाओं में क्रम से हृदयानंदा, महानंदा, सुप्रतिबुद्धा और प्रभंकरा ये चार द्रह हैं।
ये सभी द्रह समचतुष्कोण हैं, वेदिका और तोरण द्वारों से सहित हैं। इसमें कमल आदि फूल खिल रहे हैं और हंस आदि क्रीड़ा कर रहे हैं।
प्रत्येक द्रहों में तटों पर जलक्रीड़ा के योग्य मणिमयी सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। इन द्रहों में भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी और कल्पवासी देव क्रीड़ा किया करते हैं और मनुष्यों के लिए भी वे क्रीड़ा के लिए हैं। प्रत्येक द्रह के आश्रित निर्मल जल से परिपूर्ण दो-दो कुंड होते हैं जिसमें देव, मनुष्य और तिर्यंच अपने पैरों की धूलि धोकर आगे जाते हैं।
आदिपुराण में वर्णित मानस्तंभ-इन मानस्तंभों के ऊपर तीन छत्र फिर रहे थे, इन्द्र के द्वारा बनाये जाने के कारण उनका (मानस्तंभों का) ‘इन्द्रध्वज’ यह नाम भी रूढ़ हो गया था। उनके दर्शन से मिथ्यादृष्टी जीवों का सब मान नष्ट हो जाता है, वे बहुत ऊँचे प्रमाण वाले थे और तीनों लोकों के जीव उनका सम्मान करते थे इसलिए उनका ‘मानस्तंभ’ यह नाम सार्थक था।
कहा भी है-
हिरण्मयांगा: प्रोत्तुंगा मूधर््िनच्छत्रत्रयांकिता:।
सुरेन्द्रनिर्मितत्त्वाच्च प्राप्तेन्द्रध्वजरूढिका:।।१०१।।
मानस्तंभान्महामान-योगात्त्रैलोक्यमाननात्।
अन्वर्थसंज्ञया तज्ज्ञैर्मानस्तंभा: प्रकीर्तिता:१।।१०२।।
प्रथम वेदी-इस चैत्यप्रासादभूमि को वेढ़कर प्रथम वेदी है। इसमें भी रत्नमय ध्वजाएँ हैं, तोरण द्वार हैं। उन पर तोरण बंधे हुए हैं और घंटे लटक रहे हैं। इस वेदी के भी चार गोपुर द्वार हैं, द्वारों के आजू-बाजू १०८-१०८ मंगलद्रव्य व नवनिधियाँ शोभित हो रही हैं, पुत्तलिकाओं के मस्तक पर धूपघट शोभायमान हैं। इसके मूल और उपरिम भाग का विस्तार धूलिसाल के मूल विस्तार के समान है और ऊँचाई तीर्थंकर देव की ऊँचाई से चौगुनी-धूलिसाल के समान है।
द्वितीयखातिकाभूमि-इस प्रथम वेदी के आगे स्वच्छजल से भरी खातिका-खाई है। यह अपने तीर्थंकर की ऊँचाई से चतुर्थ भाग प्रमाण गहरी है। इसमें मणिमय सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। कुमुद, कुवलय आदि फूल खिल रहे हैं और हंस आदि पक्षी कलरव ध्वनि कर रहे हैं। चैत्यप्रासादभूमि के विस्तार के समान ही इस भूमि का विस्तार है।
कोई-कोई आचार्य ‘चैत्यप्रासाद’ भूमि नहीं स्वीकार करते। उनके आदेशानुसार भगवान ऋषभदेव के समवसरण में खातिका भूमि का विस्तार एक योजन प्रमाण था और शेष तीर्थंकरोें का क्रम से हीन था।
महापुराण में श्रीजिनसेनस्वामी ने भी चैत्यप्रासादभूमि२ नहीं मानी है।
द्वितीयवेदी-दूसरी वेदी इस खातिकाभूमि को वेष्टित किये है यह प्रथम वेदी के समान ही है, मात्र इसका विस्तार प्रथम वेदी से दुगुना है।
तृतीय लताभूमि-इस वेदी के आगे लताभूमि है इसमें पुन्नाग, नाग, कुम्बक, शतपत्र आदि की बेलें पुष्पों से सुंदर दिखती हैं। इसमें अनेक क्रीड़ा पर्वत बने हुए हैं और जलभरी बावड़ियाँ भी बनी हुई हैं इनमें भी फूल खिले हुए हैं तथा मणियों की सीढ़ियाँ बनी हुई हैं।
द्वितीय कोट-इस लतावन को घेरकर आगे दूसरा कोट-परकोटा है। यह सुवर्णमयी है और ऊँचाई, गोपुरद्वार आदि में धूलिसाल के समान है। परन्तु इतना विशेष है कि इसका विस्तार दुगुना है एवं द्वार रजतमयी है। इनके रक्षक यक्षजाति के देव हैं।
हरिवंशपुराण में कहा है-
इस कोट के गोपुर द्वारों के रक्षक व्यन्तर जाति के देव द्वारपाल हैं जो कटक आदि आभूषणों से सुंदर हैं, हाथ में मुद्गर लिये रहते हैं और अपने प्रभाव से अयोग्य व्यक्तियों को दूर हटाते रहते हैं१।
इस परकोटे के गोपुर द्वारों के मणिमय तोरणों के दोनों ओर १०८-१०८ मंगल द्रव्य आदि हैं। इस कोट के आगे गली के दोनों ओर तीन-तीन खण्ड की दो-दो नाट्यशालाएँ हैं, जिसमें बत्तीस-बत्तीस देवांगनाएँ नृत्य करती रहती हैं।
चतुर्थ उपवन भूमि-इसके आगे चौथी उपवन भूमि है इसमें पूर्व आदि के क्रम से अशोक, सप्तच्छद, चंपा और आम के बगीचे हैं। इन चारों वनों-बगीचों में छोटी-छोटी नदियाँ हैं, उन पर पुल बने हुए हैं, कहीं क्रीड़ा पर्वत हैं तो कहीं पर बावड़ियाँ बनी हुई हैं और कहीं-कहीं सुंदर हिंडोले लगे हुए हैं।चैत्यवृक्ष-इन चारों वनों के बीच-बीच में एक-एक चैत्यवृक्ष हैं। ये तीर्थंकर देव की ऊँचाई से बारहगुने ऊँचे हैं। इन चैत्यवृक्षों में एक-एक में चारों दिशाओं में एक-एक अर्हंत देव की मणिमय प्रतिमाएँ विराजमान हैं। इन प्रतिमाओं के आश्रित आठ महाप्रातिहार्य बने हुए हैं।एक-एक चैत्यवृक्ष के आश्रित-प्रतिमाओं के सामने एक-एक मानस्तंभ बने हुए हैं, ये मानस्तंभ तीन परकोटे से वेष्टित व तीन कटनी के ऊपर रहते हैं। एक-एक मानस्तंभ में भी चार-चार प्रतिमाएँ विराजमान हैं अर्थात् एक चैत्यवृक्ष में चार प्रतिमाएँ और चार मानस्तंभ हो गये हैं।ये चैत्यवृक्ष वनस्पतिकायिक नहीं हैं प्रत्युत् पृथिवीकायिक रत्नों से निर्मित होते हैं। इन मानस्तंभों के आश्रित भी वापियाँ होती हैं। वहाँ कहीं पर रमणीय भवन, कहीं क्रीड़नशाला और कहीं नाट्यशालाएँ बनी हुई हैं। अनेक रत्नों से निर्मित भवनों में देव-मनुष्य आदि विचरण करते हैं।
उपवनभूमि में बनी वापिकाओं में स्नान करने से मनुष्य अपना एक भव देख लेते हैं और उन वापिकाओं के जल में अपना मुख देखने से वे अपने पूर्व के तीन, वर्तमान का एक और भविष्यत् के तीन ऐसे सात भव देख लेते हैं२।
हरिवंशपुराण में बावड़ियों का वर्णन बहुत ही सुन्दर है-उपवनभूमि में पूर्व दिशा के अशोक वन में नन्दा, नन्दोत्तरा, आनन्दा, नन्दवती, अभिनंदिनी और नंदिघोषा ये छह बावड़ियाँ हैं। दक्षिण के सप्तपर्ण वन में विजया, अभिजया, जैत्री, वैजयंती, अपराजिता और जयोत्तरा ये छह वापिकाएँ हैं। पश्चिम में चंपकवन में कुमुदा, नलिनी, पद्मा, पुष्करा, विश्वोत्पला और कमला ये छह वापिकाएँ हैं। उत्तर में आम्रवन में प्रभासा, भास्वती, भासा, सुप्रभा, भानुमालिनी और स्वयंप्रभा ये छह वापिकाएँ हैं। पूर्व दिशा की वापिकाएँ अपनी पूजा करने वाले मनुष्यों को उदयफल प्रदान करती हैं। दक्षिण दिशा की वापियाँ विजय फल को, पश्चिम दिशा की वापियाँ प्रीति फल को एवं उत्तर दिशा की वापियाँ ख्याति फल को देती हैं। इन-इन फलों के इच्छुक मनुष्य इन वापिकाओं की पूजा करते हैं१। अर्थात् इनके जल का आदरपूर्वक सेवन करते हैं।क्रम के जानने वाले भक्तजन उन बावड़ियों से फूलों को लेकर क्रम-क्रम से स्तूपों तक जिनेन्द्रदेव की प्रतिमाओं की पूजा करते हुए आगे प्रवेश करते हैं।
उदय और प्रीतिरूप फल को देने वाली वापिकाओं के बीच के मार्ग के दोनों ओर तीन खंड वाली सुवर्णमय बत्तीस नाट्यशालाएँ हैं। ये डेढ़ कोश चौड़ी हैं, इनकी भूमियाँ रत्नों से निर्मित हैं और दीवालें स्फटिक की हैं। उनमें ज्योतिषी देवों की बत्तीस-बत्तीस देवांगनाएँ नृत्य करती रहती हैं।२
महापुराण में लिखा है कि अशोक चैत्यवृक्ष में नीलमणियों के पत्ते हैं और पद्मरागमणियों से निर्मित फूलों के गुच्छे शोभित हो रहे हैं एवं सुवर्ण से बनी हुई ऊँची-ऊँची शाखाएँ हैं, ये हवा के झकोरे से हिलते हैं, इस चैत्यवृक्ष के मूलभाग में चारों दिशाओं में जिनेन्द्रदेव की चार प्रतिमाएँ हैं, जिनका इन्द्र स्वयं अभिषेक-पूजन करते हैं।
इस वृक्ष के ऊपर घंटे लटक रहे हैं, ध्वजाएँ फहरा रही हैं और मोतियों की झालरों से सहित छत्रत्रय लगे हुए हैं३।
नाट्यशालाएँ-इन चारों वनों के आश्रित चारों गलियों के दोनों पार्श्वभागों में दो-दो नाट्यशालाएँ हैं ऐसे सोलह नाट्यशालाएँ हो गईं। इनमें से आदि की आठ नाट्यशालाओं में भवनवासिनी देवांगनाएँ एवं आगे की आठ नाट्यशालाओं में कल्पवासिनी देवकन्याएँ (देवांगनाएँ) नृत्य किया करती हैं।
इस उपवनभूमि का विस्तार प्रथम चैत्यप्रासाद भूमि से दूना माना गया है।
तृतीय वेदी-यह तीसरी वेदी इस चतुर्थ उपवनभूमि को घेरकर स्थित है। इसका भी पूरा वर्णन दूसरी वेदी के समान है।
यहाँ पर द्वाररक्षक यक्षेन्द्र देव हैं।
पंचमी ध्वजाभूमि-इस तृतीयवेदी के आगे ‘ध्वजाभूमि’ है, इसमें दिव्यध्वजाएँ हैं। ये दश प्रकार के चिन्हों से चिन्हित हैं। सिंह, गज, बैल, गरुड़, मयूर, चन्द्र, सूर्य, हंस, पद्म और चक्र ये दश चिन्ह माने गये हैं। चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में इन दश प्रकार की ध्वजाओं में से एक-एक प्रकार की एक सौ आठ-एक सौ आठ रहती हैं। इनमें से भी प्रत्येक ध्वजा अपनी एक सौ आठ क्षुद्रध्वजाओं से सहित होती हैं।
इस प्रकार भगवान ऋषभदेव के समवसरण में (महाध्वजा १०²१०८²४·४३२०। क्षुद्रध्वजा १०²१०८²१०²४·४६६५६०। समस्त ध्वजा ४३२०±४६६५६०·४७०८८०) कुल चार लाख सत्तर हजार आठ सौ अस्सी हैं।
ये ध्वजाएँ रत्नों से निर्मित होकर भी हवा से हिलती हैं, नाना प्रकार के रत्नों से सुंदर हैं। ये ध्वजाएँ रत्नों से खचित सुवर्णमय स्तंभों में लगी हुई हैं। इन स्तंभों की ऊँचाई भी तीर्थंकर ऋषभदेव की ऊँचाई से बारह गुणी है।
यहाँ पर लताभूमि के विस्तार से दूना ध्वजाभूमि का विस्तार समझना चाहिए।
तृतीयकोट-इस ध्वजाभूमि के आगे चांदी के समान तीसरा कोट-परकोटा है। यह कोट धूलिसाल से दूना है और गोपुरद्वार, मंगलद्रव्य, नवनिधि, धूपघट, नाट्यशाला आदि की व्यवस्था पूर्ववत् हैं। इसके द्वाररक्षक भवनवासी देव हैं।
छठी कल्पभूमि-इस तृतीय रजत परकोटे के बाद कल्पभूमि है। इसमें दश प्रकार के कल्पवृक्ष लगे हुए हैं।
यह भूमि अपनी ध्वजभूमि के सदृश विस्तार वाली है। इसमें भी उत्तम वापिकाएँ हैं जिनमें कमल फूल रहे हैं। कहीं पर सुंदर प्रासाद हैं, कहीं पर क्रीड़नशालाएँ, कहीं प्रेक्षणशालाएँ-चित्रशालाएँ आदि बनी हुई हैं। इस भूमि में पानांग, तूर्यांग, भूषणांग, वस्त्रांग, भोजनांग, आलयांग, दीपांग, भाजनांग, मालांग और तेजांग नाम के कल्पवृक्ष हैं। ये अपने-अपने नाम के अनुसार ही वस्तुएँ प्रदान करते रहते हैं।
इस भूमि में भी चारों दिशाओं में क्रम से एक-एक सिद्धार्थ वृक्ष हैं। उनके नाम क्रम से नमेरू, मंदार, संतानक और पारिजात हैं। ये सिद्धार्थवृक्ष तीन कोटों के अंदर हैं और तीन मेखलाओं के ऊपर स्थित हैं।
इनमें से प्रत्येक वृक्ष के मूलभाग में चारों दिशाओं में एक-एक, ऐसी चार सिद्धों की प्रतिमाएँ विराजमान हैं जो कि वंदना करने वालों के समस्त पाप नष्ट करने वाली हैं। एक-एक सिद्धार्थवृक्ष के आश्रित तीन कोटों से सहित व तीन कटनी के ऊपर चार-चार मानस्तंभ बने हुए हैं अर्थात् एक-एक सिद्धप्रतिमा के सामने एक-एक मानस्तंभ हैं। ये सिद्धार्थ वृक्ष भी भगवान ऋषभदेव की ऊँचाई से बारहगुने ऊँचे हैं।
नाट्यशालाएँ-कल्पतरुभूमि के पार्श्व भागों में प्रत्येक वीथी-गली के आश्रित चार-चार नाट्यशालाएँ हैं। ये चैत्यवृक्षों के सदृश ऊँची हैं, पाँच खण्ड वाली हैं, बत्तीस रंगभूमियों से सहित हैं। इनमें ज्योतिषी देवियाँ नृत्य करती रहती हैं।
चतुर्थ वेदी-इस छठी भूमि को घेरकर चौथी वेदी बनी हुई है। यह अपनी प्रथम वेदी के सदृश ही है।
यहाँ भवनवासी देव द्वारों की रक्षा करते हैं।
सातवीं भवनभूमि-इस चतुर्थवेदी के आगे भवनभूमि है। इसमें ऊँचे-ऊँचे भवन बने हुए हैं जो कि रत्नों से निर्मित हैं, ध्वजाओं से सहित हैं और तोरणों से युक्त हैं। इन भवनों में जिनप्रतिमाएँ विराजमान हैं, देवगण जिनका नित्य अभिषेक करते रहते हैं। इस भूमि में भी उपवन, लताएँ, क्रीड़ाग्रह, क्रीड़ापर्वत आदि बने हुए हैं।
स्तूपरचना-भवनभूमि के पार्श्वभागों में प्रत्येक वीथी-गली के मध्य में जिन और सिद्धों की अनुपम प्रतिमाओं से सहित नौ-नौ स्तूप हैं। इन स्तूपों पर छत्र फिर रहे हैं, ध्वजाएँ फहरा रही हैं और आठ मंगल द्रव्य रखे हुए हैं। ये स्तूप रत्नों से निर्मित हैं।
एक-एक स्तूप के बीच में मकर के आकार के सौ-सौ तोरण होते हैं। इन स्तूपों की ऊँचाई अपने चैत्यवृक्षों के बराबर है। इन स्तूपों की लम्बाई और विस्तार का प्रमाण इस समय नष्ट हो चुका है१।
भव्यजीव इन स्तूपों का अभिषेक, पूजन और प्रदक्षिणा करते रहते हैं।
ये स्तूप ऐसे दिखते थे कि मानों भगवान की नौ केवललब्धियाँ ही हों।२
हरिवंशपुराण में कहा है-ये नौ-नौ स्तूप पद्मराग मणियों से निर्मित हैं तथा उनके समीप नाना प्रकार के सभागृह हैं जो कि स्वर्ण और रत्नों के बने हुए हैं। ये मुनियों के योग्य और देवों के योग्य हैं।१
चतुर्थकोट-इस भवनभूमि को घेरकर आकाशस्फटिक से निर्मित चतुर्थ कोट है इसके चारों गोपुरद्वार मरकत मणि से बने हुए हैं।
इन गोपुरद्वारोें पर कल्पवासी देव हाथ में रत्नदण्ड लेकर द्वारपाल बनकर खड़े रहते हैं।
आठवीं श्रीमंडपभूमि-स्फटिक परकोटे से आगे श्रीमण्डपभूमि है। इसमें बारह कोठे बने हुए हैं। निर्मल स्फटिक मणि से सोलह दीवालों के बीच में ये बारह कोठे हैं क्योंकि चारों दिशाओं में जो विशाल वीथी-गलियाँ हैं उनके भी आजू-बाजू में दीवाले हैं अत: सोलह हो गई हैं अर्थात् चार-चार दीवालों के बीच तीन-तीन कोठे होने से बारह कोठे होते हैं।
द्वादशगण व्यवस्था-इन बारह कोठों में पूर्वदिशा आदि से-प्रदक्षिणा के क्रम से ऋषि आदि बारहगण बैठते हैं-
१. प्रथम कोठे में अक्षीण ऋद्धि आदि के धारक गणधरदेव आदि दिगम्बर मुनि बैठते हैं। २. स्फटिकमणि की दीवाल से व्यवहित दूसरे कोठे में कल्पवासिनी देवियाँ बैठती हैं। २. स्फटिकमणि की दीवाल से व्यवहित दूसरे कोठे में कल्पवासिनी देवियाँ बैठती हैं। ३. तीसरे कोठे में आर्यिकाएँ तथा श्राविकाएँ बैठती हैं इसी में क्षुल्लिकाएँ, ब्रह्मचारिणियाँ शामिल हैं। ४. चतुर्थ कोठे में ज्योतिषी देवियाँ। ५. पाँचवें में व्यन्तर देवियाँ। ६. छठे में भवनवासिनी देवियां। ७. सातवें में भवनवासी देव। ८. आठवें में व्यन्तर देव। ९. नवमें में ज्योतिष्क देव। १०. दसवें में सौधर्म स्वर्ग से लेकर सोलहवें स्वर्ग तक के कल्पवासी देव। ११. ग्यारहवें में चक्रवर्ती, मांडलिक आदि राजागण व श्रावक बैठते हैं इसी में ऐलक, क्षुल्लक सम्मिलित हैं, जो कि यथायोग्य बैठते हैं और
१२. बारहवें कोठे में हाथी, सिंह, व्याघ्र, हरिण आदि पशुगण बैठते हैं।
इन सभी कोठों में बैठने वाले भव्यजीव पूर्व बैर को छोड़कर परस्पर में मैत्री भाव को धारण कर लेते हैं।
पाँचवीं वेदी-इसके आगे स्फटिक पाषाण से निर्मित पाँचवीं वेदी है जो कि चतुर्थ कोट के सदृश विस्तार वाली है।
हरिवंशपुराण में स्तूपों का कुछ विशेष वर्णन आया है उसे यहाँ संक्षेप से दिखाते हैं।
स्फटिकमणि से निर्मित तृतीय कोट है। इसके चारों गोपुरद्वारों के क्रम से विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजित ये नाम हैं।
इन द्वारों के पसवाड़ों में उत्तम रत्नमय आसनों के मध्य में स्थित मंगलरूप दर्पण हैं जो देखने वालों के पूर्वभव दिखलाते हैं। ये दर्पण गाढ़ अंधकार को दूर करते हैं। ‘विजय’ आदि गोपुरों में यथायोग्य ‘जय हो, कल्याण हो’ इन शब्दों का उच्चारण करते हुए कल्पवासी देव द्वारपाल रहते हैं। उसके आगे नानावृक्षों और लतागृहों से व्याप्त मंच, प्रेंखागिरि और प्रेक्षागृहों से सुशोभित अन्तर्वन हैं।
कल्याणजय-वीथियों-गलियों के बीच में ‘कल्याणजय’ नाम का आँगन है, उसमें केले के वृक्ष लगे हुए हैं। उन्हीं के भीतर नाटकशाला है जिसमें लोकपाल की देवांगनाएँ नृत्य करती हैं। उनके मध्य दूसरा ‘पीठ’ है। उसके आगे ‘सिद्धार्थवृक्ष’ हैं इसमें सिद्धों की प्रतिमाएँ विराजमान हैं।
बारहस्तूप-उसके आगे एक मंदिर है जिसे पृथिवी के आभूषणस्वरूप ‘बारहस्तूप’ सुशोभित कर रहे हैं। इनके आगे चारों दिशाओं में शुभ वापिकाएँ हैं-नन्दा, भद्रा, जया और पूर्णा ये इनके नाम हैं उन वापिकाओं में स्नान करने से जीव अपना पूर्वभव जान लेते हैं। इनमें अपना प्रतिबिम्ब देखने से जीव अपने सात भव देख लेते हैं।
जयांगण-वापिकाओं से आगे एक ‘जयांगण’ बना हुआ है जो कि एक कोश ऊँचा और एक योजन चौड़ा है। इसमें तोरण बंधे हुए हैं, यह तीन लोक की विजय का आधार है, इसमें बीच-बीच में मूंगाओं की लाल-लाल बालुका का अंतर देकर मोतियों की सफेद बालू बिछी हुई है। वह ‘जयांगण’ अनेक चित्रावली, अनेक भवन, मंडप व निवास स्थानों से सहित है।
इन्द्रध्वज-उस जयांगण के मध्य स्वर्णमयी पीठ पर ‘इन्द्रध्वज’ सुशोभित है। उस पर मणियों से सुंदर एक ऊँची ‘पताका’ लगी हुई है। रत्नों की माला, किंकणी आदि से सुशोभित वह पताका जब आकाश में फहराती है, तब इन्द्रादिक देव भी बड़े ही कौतुक से उसे देखते हैं।
श्रुतदेवता-उसके आगे एक हजार खंभों पर खड़ा हुआ ‘महोदय’ नाम का मंडप है जिसमें ‘मूर्तिमती श्रुतदेवता’ विद्यमान रहती हैं। उस श्रुतदेवता को दाहिने भाग में करके ‘श्रुतकेवली’ महामुनि श्रुत का व्याख्यान करते रहते हैं। महोदय मंडप से आधे विस्तार वाले चार परिवार मंडप और हैं जिसमें कथा कहने वाले ‘आक्षेपणी आदि कथाएँ कहते रहते हैं। इन मंडपों के समीप में नाना प्रकार के और स्थान भी बने रहते हैं जिनमें बैठकर महाऋद्धियों के धारक ऋषिगण इच्छुकजनों के लिए उनकी इष्ट वस्तुओं का निरूपण करते हैं।
उसके आगे एक सुवर्णमय पीठ है जिसकी भव्यजीव समयानुसार पूजा करते हैं। उस पीठ का ‘श्रीपद’ नाम का द्वार है, उस द्वार के दोनों ओर ‘प्रभासक’ नाम के दो मंडप हैं जिनमें निधियों के स्वामी दो देव स्थित हैं।
प्रमदा नाट्यशालाएँ-
उनके आगे ‘प्रमदा’ नाम की दो विशाल नाट्यशालाएँ हैं जिनमें कल्पवासिनी अप्सराएँ नृत्य करती रहती हैं।
लोकस्तूप-
१. लोकस्तूप-विजयांगण के कोनों में चार ‘लोकस्तूप’ होते हैं जो एक योजन ऊँचे हैं, इन पर पताकाएँ फहराती रहती हैं। ये लोकस्तूप तीन लोक की रचना दिखलाते हैं। ये नीचे वेत्रासन के समान, मध्य में झालर के समान, ऊपर मृदंग के समान और अंत में तालवृक्ष के समान लंबी ‘त्रसनाली’ से सहित हैं। इनका स्वच्छ स्फटिक के समान रूप है अत: ये अपने भीतर की रचना स्पष्ट झलकाते हैं।
२. मध्यलोकस्तूप-इन लोकस्तूपों से आगे ‘मध्यलोक’ नाम से प्रसिद्ध स्तूप है। जिनमें मध्यलोक की रचना स्पष्ट दिखती है।
३. मन्दरस्तूप-आगे मंदराचल के समान ‘मंदरस्तूप’ हैं जिन पर चारों दिशाओं में भगवान की प्रतिमाएँ विराजमान हैं।
४. कल्पवासस्तूप-उनके आगे कल्पवासियों की रचना से युक्त ‘कल्पवासस्तूप’ है जो देखने वालों को कल्पवासी देवों की विभूति दिखलाते हैं।
५. ग्रैवेयकस्तूप-उनके आगे ग्रैवेयकों के समान आकार वाले ‘ग्रैवेयकस्तूप’ हैं जो मनुष्यों को ग्रैवेयकों की शोभा दिखाते हैं।
६. अनुदिशस्तूप-उनके आगे ‘अनुदिश’ नाम के नौ स्तूप सुशोभित हैं जिनमें प्राणी नौ अनुदिशों को प्रत्यक्ष देख लेते हैं।
७. सर्वार्थसिद्धिस्तूप-आगे चलकर चारों दिशाओं में विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजित विमानों से सुशोभित समस्त प्रयोजनों को सिद्ध करने वाले ‘सर्वार्थसिद्धि’ स्तूप हैं।
८. सिद्धस्तूप-उनके आगे स्फटिक के समान निर्मल ‘सिद्धस्तूप’ हैं जिनमें सिद्धों के स्वरूप को प्रगट करने वाली दर्पणों की छाया दिखाई देती है।
९. भव्यकूट-उनके आगे देदीप्यमान शिखरों से युक्त ‘भव्यकूट’ नाम के स्तूप रहते हैं जिन्हें अभव्यजीव नहीं देख पाते हैं क्योंकि इनके प्रभाव से उनके नेत्र अंधे हो जाते हैं।
१०. प्रमोहस्तूप-उनके आगे ‘प्रमोहस्तूप’ हैं जिन्हें देखकर लोग अत्यधिक भ्रम में पड़ जाते हैं और चिरकाल से अभ्यस्त भी गृहीत वस्तु को भूल जाते हैं।
११. प्रबोधस्तूप-आगे चलकर ‘प्रबोधस्तूप’ हैं जिन्हें देखकर लोग प्रबोध को प्राप्त हो जाते हैं और तत्त्व को प्राप्तकर साधु बनकर भी संसार से छूट जाते हैं।
इस प्रकार जिनकी वेदिकाएँ एक-दूसरे से सटी हुई हैं तथा जो तोरणों से समुद्भासित हैं, ऐसे अत्यंत ऊँचे दश स्तूप क्रम-क्रम से परिधि तक सुशोभित हैं।
वहाँ पर गणधर महामुनि की इच्छा करते ही एक ‘दिव्यपुर’ बन जाता है उसके त्रिलोकसार, श्रीकांत आदि अनेक नाम माने गये हैं। भगवान के प्रभाव से वह पुर तीनलोक के समस्त पदार्थों को धारण करने में समर्थ होता है।१
अब तीन कटनी का वर्णन करते हैं-
१. प्रथम कटनी-इस स्फटिकमयी पाँचवीं वेदी के आगे ‘वैडूर्यमणि’ से निर्मित प्रथम पीठ-कटनी है। बारह कोठों से आगे और चारों वीथियों के आगे सोलह स्थानों के सामने प्रथम कटनी पर चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई हैं, ये सीढ़ियाँ भी सोलह-सोलह हैं।धर्मचक्र-प्रथम कटनी पर चारों दिशाओं में एक-एक यक्षेन्द्र अपने मस्तक पर ‘धर्मचक्र’ को लेकर स्थित रहते हैं। इसी कटनी पर अष्टमंगलद्रव्य और पूजाद्रव्य रखे हुए हैं।
गणधर गुरु, अनेक ऋषिगण, देव-देवियाँ आदि इसी प्रथम कटनी पर चढ़कर भगवान की प्रदक्षिणा देकर जिनेन्द्रदेव के सन्मुख होते हुए पूजा करते हैं।
इस प्रथम कटनी की ऊँचाई चार धनुष-सोलह हाथ वâी है।
२. द्वितीय कटनी-प्रथम कटनी के ऊपर चारोें दिशाओं में चढ़ने के लिए आठ-आठ सीढ़ियाँ होती हैं। इस द्वितीय कटनी पर मणिमय स्तंभों पर लटकती हुई महाध्वजाएँ रहती हैं इन ध्वजाओं के चिन्ह-सिंह, बैल, कमल, चक्र, माला, गरुड़, हाथी और ध्वजा ये आठ प्रकार के माने हैं। यह कटनी स्वर्णमयी मानी गई है।
३. तृतीय कटनी-इस द्वितीय कटनी के ऊपर उतनी ही ऊँची तीसरी कटनी है, यह अनेक रत्नों से निर्मित है। दूसरी कटनी से चढ़ने के लिए इसमें भी आठ-आठ सीढ़ियाँ होती हैं।
गंधकुटी-इसी तृतीय पीठ पर एक सुंदर ‘गंधकुटी’ होती है। इस गंधकुटी की चौड़ाई और लम्बाई भगवान ऋषभदेव के समवसरण में छह सौ धनुष प्रमाण थी और ऊँचाई नौ सौ धनुष थी।
इस गंधकुटी में चंवर, किंकिणी, वंदनमाला, हार आदि सुशोभित रहते हैं और सुंदर ध्वजाएँ फहराती रहती हैं। मलय, चंदन, गोशीर, कालागरु आदि सुगंधित धूपों से सहित धूप घट रखे रहते हैं।
इस गंधकुटी के मध्य स्फटिक मणि से निर्मित भगवान की ऊँचाई के योग्य रमणीय सिंहासन है। भगवान ऋषभदेव उस सिंहासन के ऊपर आकाश में चार अंगुल अधर विराजमान थे।
श्री विष्णुसेन द्वारा रचित समवसरण स्तोत्र में सिंहासन के ऊपर कमल का वर्णन आया है।
तन्मध्यस्थितसिंहासन-मध्ये शोणमंबुजं रमणीयं।
दशशतदलसंयुक्तं, तन्मध्ये कनककर्णिकायामुपरि१।।
गंधकुटी के मध्य सिंहासन है उस सिंहासन के बीच में लाल कमल है जो अतिशय सुंदर है, उसमें एक हजार दल हैं, उस कमल की कर्णिका के ऊपर चार अंगुल अधर तीर्थंकर प्रभु विराजमान रहते हैं।
गंधकुटी के ऊपर शिखर रहते हैं, जिन पर करोड़ों विजयपताकाएँ-ध्वजाएँ बंधी हुई हैं, ऐसे ऊँचे शिखरों से सहित वह गंधकुटी नाना प्रकार के रत्नों से निर्मित है२।
इससे स्पष्ट है कि समवसरण में गंधकुटी वेदी के समान शिखरों से सहित होती है।
आठ प्रातिहार्य-भगवान के समवसरण में आठ प्रातिहार्य होते हैं-अशोक वृक्ष, सुरपुष्पवृष्टि, छत्रत्रय, चामर, देवदुंदुभि, भामंडल, सिंहासन और दिव्यध्वनि।
१. जिस वृक्ष के नीचे भगवान को केवलज्ञान होता है, वही वृक्ष अशोक वृक्ष कहलाता है। भगवान ऋषभदेव का यह वृक्ष वटवृक्ष है३।
२. देवों द्वारा कल्पवृक्षों के सुंदर-सुंदर पुष्प बरसाये जाते हैं।
३. भगवान के मस्तक के ऊपर तीन छत्र फिरते हैं ये भगवान के तीन लोक की प्रभुता बतलाते हैं।
४. भगवान के आजू-बाजू यक्षेन्द्र चौंसठ चंवर ढोरते हैं। तीर्थंकरों के सिवाय अन्य चक्रवर्ती आदि के चंवरों की संख्या उनके-उनके राजदरबार में आधी-आधी मानी गई है४।
५. देवगण आकाश में स्थित होकर जो पणव, शंख, नगाड़े आदि करोड़ों प्रकार के वाद्य बजाते हैं, वह ‘देवदुंदुभि’ है।
६. भगवान के पीछे कांति के समूह से निर्मित, करोड़ों देवों के तेज को फीका करता हुआ भामंडल देदीप्यमान होता है, इसमें भव्यजीव अपने सात भव देख लेते हैं५।
७. रत्नों से निर्मित सिंहासन होता है जिस पर भगवान विराजमान रहते हैं।
८. भगवान के मुख से दिव्यध्वनि प्रगट होती है। यह एक प्रकार की होकर भी समस्त मनुष्यों की भाषाओं में श्रोताओं के भेद से अनेक प्रकार की हो जाती है। यह दिव्यध्वनि अक्षररूप ही है६।
तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ में इस दिव्यध्वनि को केवलज्ञान के अतिशय में लिया है और प्रातिहार्य में इस स्थान पर कहा है-
‘‘गाढ़ भक्ति में आसक्त देव मनुष्य आदि द्वादशगण के भव्यजीव, हाथ जोड़े हुए, प्रसन्नमुख होकर तीर्थंकर भगवान को घेरकर स्थित रहते हैं, यह एक प्रातिहार्य है१।’’
तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ में चौंतीस अतिशयों का वर्णन बहुत ही सुंदर है-जन्म के अतिशय-तीर्थंकर भगवान के जन्म से ही दश अतिशय विशेष माने हैं-१. स्वेद रहित होना-पसीना नहीं होना २. मल-मूत्र रहितशरीर ३. दूध के समान श्वेत रुधिर ४. वङ्काऋषभनाराच संहनन ५. समचतुरस्र संस्थान ६. अनुपम रूप ७. नवचंपक के समान उत्तम अतिशय सुगंधित शरीर ८. शरीर में एक हजार आठ उत्तम लक्षण ९. अनंत बल १० और हित-मित-प्रियवचन।
केवलज्ञान के १० अतिशय-तीर्थंकर भगवान को जब केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है, तब दश अतिशय प्रगट हो जाते हैं-
१. अपने पास से चारों दिशाओं में एक सौ योजन-आठ सौ मील तक सुभिक्ष रहता है। २. भगवान का आकाश में गमन होता है। ३. वहाँ हिंसा नहीं होती-किसी जीव को कोई मार नहीं सकता है। ४. भगवान भोजन-आहार नहीं करते हैं। ५. भगवान के ऊपर कोई उपसर्ग नहीं कर सकता है। ६. भगवान का पूर्व या उत्तर में एक ही मुख रहता है फिर भी चारों तरफ मुख दीखने से सभी ऐसा समझते हैं कि भगवान का मुख मेरी ओर है। यह चतुर्मुख हो जाना भी एक अतिशय है। ७. भगवान के शरीर की छाया नहीं पड़ती है। ८. भगवान की पलकें नहीं झपकती हैं। ९. भगवान सर्व विद्याओं के ईश्वर होते हैं-तीन लोक की सर्वविद्याओं के स्वामी होते हैं। १०. भगवान के केवलज्ञान के बाद नख और केश नहीं बढ़ते हैं। ११. भगवान की दिव्यध्वनि सात सौ लघु भाषा और अठारह महाभाषारूप से खिरती है तथा और भी जो संज्ञी-मनसहित जीवों की अक्षर-अनक्षर भाषाएँ हैं उन सबमें भगवान की दिव्यध्वनि परिणत हो जाती है इसलिए यह ‘सर्वभाषामय’ मानी गई है।
भगवान की दिव्यध्वनि जिस समय खिरती है, उस समय भगवान के तालु, दांत, कंठ और ओष्ठ नहीं हिलते हैं। भगवान की वह ध्वनि अस्खलित और अनुपम है, तीनों संध्या कालों में नव मुहूर्तों तक खिरती है-एक-एक बार तीन-तीन मुहूर्त२ तक खिरती है और एक योजन-आठ मीलपर्यन्त जाती है।कहीं-कहीं चार बार मानने से अर्धरात्रि में भी तीन मुहूर्त तक खिरती है, ऐसा माना है। वहाँ समवसरण में दिन-रात्रि का भेद नहीं रहता है। वहाँ भगवान के प्रभामंडल के प्रकाश में व दिव्य रत्नों के प्रकाश में अनेक सूर्यों के प्रकाश भी फीके पड़ जाते हैं।यह दिव्यध्वनि स्वभाव से तीन या चार बात तो खिरती ही है इससे अतिरिक्त समय में श्रीगणधर देव, इन्द्र या चक्रवर्ती के प्रश्नों के निमित्त से असमय में भी खिर जाती है।भगवान को केवलज्ञान होने के बाद उनकी इच्छाएँ समाप्त हो जाती हैं अतएव भगवान की दिव्यध्वनि बिना इच्छा के स्वयमेव भव्यजीवों के पुण्य के निमित्त से खिर जाती है, यह ऐसा स्वभाविक ही है। कहा भी है
अनात्मार्थं बिना रागै:, शास्ता शास्ति सतो हितम्।
ध्वनन् शिल्पिकरस्पर्शान्-मुरज: किमपेक्षते३।।
किसी के प्रति किंचित् भी राग-प्रेम के बिना और अपने किसी भी प्रयोजन के बिना भी शास्ता-सच्चे उपदेशक भगवान सज्जन पुरुषों के हित के लिए उपदेश देते हैं जैसे कि शिल्पी के हाथ से ताड़ित हुआ मृदंग स्वयं कुछ भी अपेक्षा नहीं करता है।यह दिव्यध्वनि भव्यजीवों को छह द्रव्य, नव पदार्थ, सात तत्त्व आदि का उपदेश देती है, स्वर्ग और मोक्ष के मार्ग का उपदेश देती है श्रावक और मुनिधर्म का कथन करती है, भव्यजीवों के लिए उनके पूर्व भव-भविष्यकाल आदि का वर्णन करती है स्वर्ग, नरक, मध्यलोक, जम्बूद्वीप, कर्मभूमि, भोगभूमि आदि समस्त तीनलोक का कथन करती है।भगवान को जब केवलज्ञान हो जाता है, उस काल में एक समय मात्र में भगवान तीनों लोकों और तीनों कालों को युगपत् जान लेते हंैं।इस प्रकार तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ में केवलज्ञान के ग्यारह अतिशय माने हैं और अन्यत्र ग्रंथों में दश अतिशय माने हैं अत: तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ में भगवान के केवलज्ञान के अनन्तर देवों द्वारा किए गए तेरह अतिशय ही माने हैं।देवकृत तेरह अतिशय-१. तीर्थंकर भगवान के माहात्म्य से संख्यात योजनों तक वन-उद्यान असमय में पत्ते, फूल और फलों से वृद्धिंगत हो जाते हैं। २. सुखदायक हवा चलने लगती है जो कि धूलि, कंटक आदि को दूर कर देती है। ३. सभी जीव पूर्व वैर को छोड़कर मैत्रीभाव धारण कर लेते हैं। ४. भूमि दर्पण के समान स्वच्छ और रत्नमय हो जाती है। ५. सौधर्मेन्द्र की आज्ञा से मेघकुमार देव सुगंधित जल की वर्षा करते हैं।
६. देवगण विक्रिया से फलों के भार से झुकी हुई शालि, जौ आदि की खेती को बना देते हैं। ७. सर्व जीवों को नित्य ही आनंद उत्पन्न होता रहता है। ८. वायुकुमार देव विक्रिया से शीतल पवन चलाते हैं। ९. कुएँ, तालाब, सरोवर आदि निर्मल जल से परिपूर्ण हो जाते हैं। १०. आकाश धुएँ आदि से रहित निर्मल हो जाता है। ११. सभी जीवों को रोगादि की बाधाएँ नहीं होती हैं। १२. यक्षेन्द्र मस्तक पर किरणों से देदीप्यमान हजार आरों वाले धर्मचक्र को धारण करते हैं। १३. तीर्थंकर के चारों दिशाओं व विदिशाओं में छप्पन सुवर्णकमल, एक पादपीठ एवं विविध प्रकार के पूजन द्रव्य होते हैं।
अन्यत्र-नंदीश्वर भक्ति में चौदह अतिशय निम्न प्रकार से हैं१-
अर्द्ध्रमागधी भाषा होती, सब जन मैत्री भाव सदा।
सब ऋतु के फल-फूल खिले, तरुलता सुशोभित हुए मुदा।।४२।।
पृथ्वी रत्नमयी दर्पणवत्, शोभित हुई चमकशाली।
परमानन्द करें सब जन को, मंद सुगंधित पवन चली।।४३।।
वायुकुमार सुगंधित वायु, से योजन तक पृथ्वी को।
धूलि-कंटक-तृण-पत्थर से, रहित स्वच्छ कर दिया अहो।।४४।।
मेघकुमार देव भी विद्युन्माला की बहु शोभा से।
इन्द्राज्ञा से सुरभि सुगंधित, गंधोदक वृष्टि करते।।४५।।
जहाँ चरण प्रभु धरें वहाँ है, उत्तम स्वर्ण कमल खिलते।
आगे पीछे सात-सात, सौगंधित अतुल सुखद होते।।४६।।
शालि आदिक खेती के फल, भारों से झुकती पृथ्वी।
त्रिभुवनपति का वैभव लखकर, हर्षित हो रोमांच हुई।।४७।।
शरद ऋतु सम विमल सरोवर, सम निर्मल आकाश अहो।
सभी दिशाएँ तत्क्षण ही, तमरहित प्रकाशें सब थल को।।४८।।
आओ!आओ! देव! भवन-व्यंतर-ज्योतिष-वैमानिक सब।
इंद्राज्ञा से सभी तरफ से, त्वरित बुलावें सुरगण तब।।४९।।
हजार आरों से सुंदर बहु, रत्न किरणयुत अति चमके।
रविमंडल को हंसने वाला, धर्मचक्र चलता आगे।।५०।।
इस विधि मंगल आठ कहें, दर्पण आदिक अनुपम सुविशेष।
भक्तिराग युत देवेन्द्रों से, कल्पित बहुविध महा विशेष।।५१।।
भगवान के समवसरण में भगवान के सान्निध्य में यक्ष-यक्षिणी विद्यमान रहते हैं इन्हें शासन देव-देवी भी कहते हैं-
उनके नाम तिलोयपण्णत्ति में कहे हैं-
‘‘गोवदणमहाजक्खा……..
१. गोवदन २. महायक्ष ३. त्रिमुख ४. यक्षेश्वर ५. तुंबुरव ६. मातंग ७. विजय ८. अजित ९. ब्रह्म
१०. ब्रह्मेश्वर ११. कुमार १२. षण्मुख १३. पाताल १४. किन्नर १५. किंपुरुष १६. गरुड़ १७. गंधर्व
१८. कुबेर १९. वरुण २०. भ्रकुटि २१. गोमेध २२. पार्श्व २३. मातंग-धरणेन्द्र २४. गुह्यक।
इस प्रकार ये भक्ति से संयुक्त चौबीस यक्ष हैं। ये ऋषभ आदि तीर्थंकरों के पास में स्थित रहते हैं।
१. चक्रेश्वरी २. रोहिणी ३. प्रज्ञप्ति ४. वङ्काशृंखला ५. वङ्काांकुशा ६. अप्रतिचक्रेश्वरी ७. पुरुषदत्ता
८. मनोवेगा ९. काली १०. ज्वालामालिनी ११. महाकाली १२. गौरी १३. गांधारी १४. वैरोटी १५. सोलसा
१६. मानसी १७. महामानसी १८. जया १९. विजया २०. अपराजिता २१. बहुरूपिणी २२. कूष्मांडी-अम्बिका २३. पद्मावती और २४. सिद्धायिनी, ये यक्षिणियाँ भी क्रमश: ऋषभादि चौबीस तीर्थंकरों के समीप रहा करती हैं१।
समवसरण की महिमा-यद्यपि समवसरण का क्षेत्र और वहाँ बने हुए बारह कोठों का स्थान सीमा में रहता है फिर भी वहाँ असंख्यातोें देव, देवियाँ, संख्यातों मनुष्य और संख्यातों तिर्यंच समा जाते हैं। ये सभी भव्यजीव जिनेन्द्र भगवान के माहात्म्य से ही एक-दूसरे से अस्पृष्ट-अबाधित रहते हैं।जिनेन्द्रदेव की महिमा ही ऐसी है कि वहाँ अवगाहनशक्ति विशेष हो जाती है।एक अक्षीणमहालय ऋद्धिधारी मुनि जहाँ बैठते हैं, उनके चारों ओर छोटे से स्थान में भी असंख्यातों जीव बैठकर उपदेश सुन सकते हैं तो पुन: अर्हंत देव तीर्थंकर की महिमा से यह सब अतिशय हो जावे, तो आश्चर्य ही क्या है ?समवसरण के माहात्म्य से बालक, वृद्ध आदि सभी जीव वहाँ प्रवेश करने अथवा निकलने में अन्तर्मुहूर्त काल के भीतर ही संख्यात योजन चले जाते हैं और उन्हें थकान नहीं होती है।वहाँ कोठों में मिथ्यादृष्टि, अभव्य और मनरहित असंज्ञी जीव कदापि नहीं होते हैं तथा संदेह आदि से सहित व विपरीत बुद्धि वाले जीव नहीं रहते हैं तथा वहाँ पर जिनेन्द्र भगवान के प्रभाव से आतंक, रोग, मरण, उत्पत्ति, वैर, कामबाधा, क्षुधा, तृषा और तृष्णा आदि नहीं होते हैं१।हरिवंशपुराण में भी कहा है-वहाँ समवसरण में पापी, विरोधी, विरुद्ध कार्य करने वाले, शुद्र, पाखंडी, नपुंसक, विकलांग, दो इन्द्रिय, तीन इंद्रिय, चार इन्द्रिय जीव तथा भ्रान्तचित्त के धारक मनुष्य बाहर ही घूमते रहते हैं, ये अन्दर प्रवेश नहीं कर पाते हैं२।वहाँ समवसरण के भीतर भगवान के प्रभाव से न मोह रहता है, न राग-द्वेष उत्पन्न होते हैं, न उत्कंठा, रति एवं मात्सर्य रहते हैं, न अंगड़ाई और जमुहाई आती है, न नींद आती है, न तन्द्रा सताती है, न क्लेश होता है, न भूख लगती है, न प्यास लगती है और न सदा समस्त दिन कभी अन्य समस्त प्रकार के अमंगल ही होते हैं३।
समवसरण में गणधरदेव-इधर भगवान ऋषभदेव को केवलज्ञान प्रगट हुआ, उधर अयोध्या में भरत को तीन समाचार एक साथ प्राप्त हुए-पिता को केवलज्ञान, आयुधशाला में चक्ररत्न की उत्पत्ति और अन्त:पुर में पुत्ररत्न की प्राप्ति। भरत महाराज ने निर्णय किया कि पहले पिता श्री ऋषभदेव भगवान के केवलज्ञान की पूजा करना है अत: वे तत्क्षण ही समवसरण में आ गये और विधिवत् भगवान की वंदना-पूजा की।
इधर पुरिमताल नगर के स्वामी भरत के छोटे भाई ऋषभसेन समवसरण में आये, भगवान के दर्शन कर जैनेश्वरी दीक्षा लेकर भगवान के प्रथम गणधर हो गये। उसी समय हस्तिनापुर के राजा सोमप्रभ, श्रेयांसकुमार भी दीक्षित हो गणधर हो गये।भरत की छोटी बहन ब्राह्मी एवं बाहुबली की छोटी बहन सुंदरी ने भी आर्यिका दीक्षा ले ली, तभी ‘‘प्रथम पुत्री’’ ब्राह्मी सर्व आर्यिकाओं में प्रधान गणिनी हो गईं। उस समय अनेक राजाओं ने एवं राजकन्याओं ने-महिलाओं ने दीक्षा ली थी। भरत के भाई अनंतवीर्य ने भी दीक्षा ले ली। वे इस अवसर्पिणी में सर्वप्रथम मोक्ष गये हैं। भगवान की दीक्षा के समय जो चार हजार राजा दीक्षित होकर तप से भ्रष्ट हो गये थे, उनमें से ‘मरीचिकुमार’ को छोड़कर सभी ने वहाँ समवसरण में दीक्षा ले ली।दिव्यध्वनि-भगवान की दिव्यध्वनि से असंख्य भव्यप्राणियों ने धर्मामृत का पान किया। वहीं पर ‘श्रुतकीर्ति’ नाम के पुरुष ने श्रावक के उत्तम व्रत ग्रहण कर श्रावकों में प्रमुख कहलाये। प्रियव्रता नाम की श्राविका, श्रावक के उत्तम व्रतों को धारण करके श्राविकाओं में प्रमुख हुईं एवं उस समवसरण के मुख्य श्रोता भरतचक्रवर्ती प्रसिद्ध हुए हैं।
सहस्रनामस्तोत्र-वहाँ इन्द्रराज ने भगवान की स्तुति करते हुए एक हजार आठ नामों से भगवान की स्तुति की थी। महापुराण में वर्णित स्तुति ही ‘सहस्रनाम स्तोत्र’ नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त है।
भगवान का श्रीविहार-जब भगवान ऋषभदेव के श्रीविहार का समय आया तब सौधर्मेन्द्र ने हाथ जोड़कर प्रार्थना की-
‘‘हे भगवन्! भव्यजीवरूप धान्य पापरूपी अनावृष्टि से सूख रहे हैं, सो हे प्रभो! आप ‘तीर्थविहार’ करके धर्मरूपी अमृत से उन्हें सींचकर उनके लिए आप ही शरण होइये।’’ हे त्रैलोक्यनाथ! आपकी विजय के उद्योग को सिद्ध करने वाला यह ‘धर्मचक्र’ तैयार है।इस प्रकार प्रार्थना करने के बाद भगवान का ‘तीर्थविहार’ प्रारंभ हुआ।वास्तव में भगवान न तो इच्छापूर्वक विहार करते हैं और न इन्द्र की प्रार्थना से भी करते हैं, उनका श्रीविहार निसर्गत: होता है फिर भी यह सब व्यवस्था नियोगरूप ही है।
जैसे ही भगवान तीर्थविहार के लिए खड़े हुए, वैसे ही करोड़ों देव इधर-उधर व्यवस्था में लग गए। इंद्रगण भी भगवान के दिग्विजय के समय आगे-आगे हो गए।
उस समय आगे-आगे की पृथिवी दर्पण के समान स्वच्छ हो गई। पवनकुमार जाति के देवों ने एक योजन तक की भूमि को धूलि आदि से साफ कर दिया। मेघकुमार देवों ने सुगंधित जल की कण-कणरूप से वर्षा कर पृथ्वी को रजरहित सुगंधित कर दिया।शालि आदि खेत लहलहाने लगे। सभी वृक्षों व लताओं में एक साथ छहों ऋतुओं के फल, फूल आ गए। सभी मनुष्य व पशु-पक्षीगण भी आपस में मैत्री भाव को प्राप्त हो गए। भगवान के माहात्म्य से चार सौ कोश तक पृथ्वी पर सुभिक्ष हो गया, सब प्रकार से कल्याण व आरोग्य हो गया। पृथ्वी प्राणियों की हिंसा से रहित हो गई, करोड़ों ध्वजाएं फहराने लगीं। देवों ने गंभीर दुुंदुभि बजाना प्रारंभ कर दिया। आकाशरूपी रंगभूमि में देवांगनाएँ नृत्य करने लगीं। किन्नर जाति के देव मनोहर गीत गा रहे थे और गंधर्व आदि देव वीणा बजा रहे थे।
धर्मचक्र-उस समय हजार आरों से सहित करोड़ों सूर्यों की प्रभा को लज्जित करने वाला धर्मचक्र भगवान के आगे-आगे चल रहा था।
भगवान के चरण कमलों के नीचे सुगंधित सुवर्णमयी कमल खिलते जा रहे थे। देवों के जय-जयकारों से आकाश भी व्याप्त हो गया था।
हरिवंशपुराण में लिखा है-भगवान के श्रीविहार के समय कुबेर ने घोषणा शुरू कर दी कि-‘जिसको जिस वस्तु की इच्छा हो, यहाँ आकर ले ले।’ उस समय कामधेनु के समान इच्छित फल देने वाली भूमि मणिमयी बनाई गई।
आकाश से धन की बड़ी मोटी धारा मेघ के जल के समान बरसने लगी, जिससे वसुंधरा अपने सार्थक नाम व्ाâो प्राप्त हो गई।
प्रावृषेण्याम्बुधारेव, वसुधारा वसुंधरां।
दिवोऽन्वर्थाभिधानत्वं, नयतीन्यपतत्पथि१।।५।।
सभी लोकपाल देव समस्त दिग्भागों के साथ सबकी रक्षा कर रहे थे। कितने ही देव समस्त हिंसक जीवों को दूर से ही भगा रहे थे।
जिनके परिवार की देवियों ने मंगलद्रव्य धारण किए हुए थे तथा जिन्होंने अपने हाथों में कमल लिए हुए थे, ऐसी पद्मा और सरस्वती देवी भगवान की प्रदक्षिणा देकर उनके आगे-आगे चल रही थीं।
इन्द्र हाथ जोड़कर वहाँ-वहाँ के राजाओं के साथ आगे-आगे चल रहे थे। उस समय कुबेर मार्ग को सुशोभित करता हुआ आगे चल रहा था।
आकाशमार्ग में धर्मचक्र भगवान के आगे-आगे चल रहा था। ऋषिगण भगवान के पीछे चल रहे थे। इन्द्र प्रतीहार बनकर आठ वसुदेवों के साथ भगवान के आगे-आगे चलते थे। इन्द्र के आगे तीन लोक की उत्कृष्ट विभूति से युक्त ‘लक्ष्मी’ नामक देवी, मंगलद्रव्य लिए शची देवी के साथ-साथ जा रही थी। तदनंतर श्री देवी से सहित समस्त एवं परिपूर्ण मंगलद्रव्य विद्यमान थे, क्योंकि मंगलमय भगवान की मंगलमय यात्रा मंगलद्रव्यों से युक्त ही होती है। उनके आगे जिन पर देदीप्यमान मुकुट के धारक प्रमुख देव बैठे थे, ऐसी शंख और पद्म नाम की दो निधियाँ चलती थीं। ये निधियाँ समस्त जीवों को इच्छित वस्तुएँ प्रदान करने वाली थीं तथा सुवर्ण और रत्नों की वर्षा करती जाती थीं। उनके आगे फणाओं पर चमकते हुए मणियों की किरणरूप दीपकों से युक्त नागकुमार जाति के देव चलते थे। उनके आगे धूपघटों को धारण करने वाले समस्त अग्निकुमार देव चल रहे थे। धूपघटों में खेयी गई सुगंधित धूप की सुगंधि लोक के अन्त तक पैâल रही थी। वह जिनेन्द्रदेव के यश की सुगंधि को ही पैâला रही थी। तदनंतर शांत और तेज गुण को धारण करने वाले, भगवान के भक्त चन्द्र और सूर्य जाति के देव अपनी प्रभा के समूहरूप मंगलमय दर्पण को धारण करते हुए चल रहे थे।
धर्मचक्र का माहात्म्य-जहाँ-जहाँ भगवान का धर्मचक्र चल रहा था, वहाँ-वहाँ किसी का असमय में मरण नहीं होता था। भगवान के विहार क्षेत्र में स्थित समस्त त्रस और स्थावर जीव सुख को प्राप्त हो रहे थे। जो जीव भगवान की इस दिव्ययात्रा में साथ-साथ जाते थे, पृथ्वी पर उन्हें धन आदि समस्त आश्चर्यों की प्राप्ति हो जाती थी। जिस देश में भगवान का श्रीविहार होता था, उस देश में भगवान की आज्ञा न होने से ही मानों किसी को न तो मानसिक और शारीरिक पीड़ाएँ होती थीं और न अतिवृष्टि आदि ईतियाँ ही होती थीं। वहाँ अंधे रूप देखने लगते थे, बहरे शब्द सुनने लगते थे, गूंगे स्पष्ट बोलने लगते थे और लंगड़े चलने लगते थे। वहाँ न अत्यधिक गर्मी होती थी, न अत्यधिक ठंड पड़ती थी, न दिन-रात का विभाग होता था और न अन्य अशुभ कार्य अपनी अधिकता दिखला सकते थे। सब ओर शुभ ही शुभ कार्यों की वृद्धि होती थी।
भगवान जिस-जिस दिशा में पहुँचते थे, उसी-उसी दिशा के दिक्पाल पूजन की सामग्री लेकर भगवान के स्वागत के लिए आ पहुँचते थे। भगवान जिस-जिस दिशा से वापस जाते थे, उस-उस दिशा के दिक्पाल मंगलद्रव्य लिये अपनी-अपनी सीमा तक पहुँचाने आते थे, क्योंकि भगवान तीनलोक के सार्वभौम स्वामी थे१।
सो ठीक ही है क्योंकि-‘‘तित्थयरस्स विहारो लोयसुहो।’’
तीर्थंकर भगवान श्री ऋषभदेव का श्रीविहार सम्पूर्ण लोक के सुख के लिए ही होता है। हरिवंशपुराण में लिखा है-
आसंवत्सर-मात्मांगै:, प्रथयन्प्राभवीं गतिं।
भासते रत्नवृष्ट्याध्वा-भरोत्यैरावतो यथा।।१०५।।
विहारानुगृहीतायां, भूमौ न डमरादय:।
दशाभ्यस्तयुगं भर्तुरहोऽत्र महिमा महान्।।१०८।।
अर्थात् जिस मार्ग से भगवान का विहार हो जाता है वह मार्ग, अपने चिन्हों से एक वर्ष तक यह प्रगट करता था कि यहाँ भगवान का विहार हुआ है तथा रत्नवृष्टि से वह मार्ग ऐसा सुशोभित होता था जैसे नक्षत्रों के समूह से ऐरावत हाथी सुशोभित होता है। उस समय मंद बुद्धि के धारक मनुष्य तीक्ष्ण बुद्धि के धारक हो गये थे। समस्त िंहसक जीव प्रभावहीन हो गये थे और भगवान के समीप रहने वालों को खेद, पसीना, पीड़ा और चिंता आदि कुछ भी उपद्रव नहीं होते थे। भगवान से अनुगृहीत भूमि में दो सौ योजन तक विप्लव आदि नहीं होते थे। अथवा दश से गुणित युग अर्थात् पचास वर्ष तक उस भूमि में कोई भी उपद्रव आदि नहीं होते थे। यह भगवान की बहुत ही महान महिमा समझनी चाहिए।१
भगवान के समवसरण में दर्शन का प्रभाव-एक बार भगवान के समवसरण में विवर्द्धनकुमार आदि नव सौ तेईस राजकुमार, जो कि चक्रवर्ती भरत के पुत्र थे, यह वहाँ पहुँचकर दर्शन कर बोल पड़े और भगवान की स्तुति कर दीक्षा ग्रहण कर ली। ये निगोद से आये थे, इन्होंने इसके पूर्व कभी त्रसपर्याय पाई ही नहीं थी। समवसरण के प्रभाव से वे प्रतिबोध को प्राप्त हो गये और एकदम दीक्षा ले ली, ये उसी भव से मोक्ष गये हैं।
सूर्यवंश-भगवान ऋषभदेव इच्छ्वाकुवंशी थे। भरत के पुत्र अर्ककीर्ति के नाम से इसी वंश को सूर्यवंश नाम से भी जाना जाने लगा।
भगवान के भरत चक्रवर्ती, कामदेव बाहुबली, वृषभसेन गणधर आदि सभी एक सौ पुत्रों ने दीक्षा ली है और मोक्षपद प्राप्त किया है।
इस वंश में भरत को आदि लेकर चौदह लाख राजा लगातार मोक्ष गये हैं। इसके बाद एक राजा दीक्षा लेकर सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हुआ, फिर अस्सी राजा मोक्ष गये, इत्यादिरूप से स्वर्ग-मोक्ष की परम्परा चलती रही है२।
यदि कोई कहे कि साक्षात् भगवान के समवसरण की जो महिमा है, सो आज पंचमकाल में जिनप्रतिमा के दर्शन से नहीं हो सकती है ?
यद्यपि यह सत्य है, फिर भी जिनप्रतिमा के दर्शन का फल भी अचिन्त्य है। उदाहरण के लिए देखिए-‘षट्खण्डागम’ महान ग्रंथराज की ‘धवला’ टीका में लिखा है-
जिणबिंबदंसणेण, णिधत्तणिकाचिदस्स वि।
मिच्छत्तादिकम्मकलावस्स खयदंसणादो३।।
जिनप्रतिमा के दर्शन से निधत्त और निकाचित भी मिथ्यात्वादि कर्मसमूह का विनाश देखा जाता है, अतएव जिनबिम्बदर्शन प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति में बहिरंग कारण माना गया है।
दर्शनेन जिनेन्द्राणां, पापसंघातकुंजरम्।
शतधा भेदमायाति, गिरिर्वङ्काहतो यथा४।।
जिनेन्द्रदेव के दर्शन से पापों के समूह के सौ-सौ खंड हो जाते हैं जैसे कि वङ्का के प्रहार से पर्वत के टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं।
द्युति नाम के महान् आचार्य अयोध्या में श्रीरामचन्द्र के वन में चले जाने के बाद खिन्नमना ‘भरत’ को समझाते हुए कहते हैं कि-
हे भरत! जब रामचंद्र वन से लौटकर आयेंगे, तब तुम दीक्षा ले लोगे तुमने यह प्रतिज्ञा की है, सो तो ठीक ही है फिर उनके आने तक तुम गृहस्थ धर्म का पालन करो क्योंकि यह गृहस्थधर्म-श्रावक धर्म भी मुनिधर्म का छोटा भाई है। उसी के अन्तर्गत वे आचार्यदेव जिनदर्शन की महिमा का फल बतलाते हुए कहते हैं-
फलं ध्यानाच्चतुर्थस्य, षष्ठस्योद्यानमात्रत:।
अष्टमस्य तदारम्भे, गमने दशमस्य तु।।
द्वादशस्य तत: किंचिन्मध्ये पक्षोपवासजम्।
फलं मासोपवासस्य, लभते चैत्यदर्शनात्।।
चैत्यांगणं समासाद्य, याति षाण्मासिकं फलम्।
फलं वर्षोपवासस्य, प्रविश्य द्वारमश्नुते।।
फलं प्रदक्षिणीकृत्य, भुक्ते वर्षशतस्य तु।
दृष्ट्वा जिनबिम्बमाप्नोति, फलं वर्षसहस्रजम्।।
अनन्तफलमाप्नोति, स्तुतिं कुर्वन् स्वभावत:।
नहि भक्तेजिनेन्द्राणां, विद्यते परमुत्तमम्।।
कर्म भक्त्या जिनेन्द्राणां, क्षयं भरत गच्छति।
क्षीणकर्मा पदं याति, यस्मिन्ननुपमं सुखं१।।’’
‘‘जो मनुष्य जिनप्रतिमा के दर्शन का चिंतवन करता है वह बेला का, जो गमन का अभिलाषी होता है वह तेला का, जो जाने का आरंभ करता है वह चौला का, जो जाने लगता है वह पाँच उपवास का, जो कुछ दूर पहुँच जाता है वह बारह उपवास का, जो बीच में पहुँच जाता है, वह पन्द्रह उपवास का, जो मंदिर के दर्शन करता है वह मासोपवास का, जो मंदिर के आँगन में प्रवेश करता है वह छह मास के उपवास का, जो द्वार में प्रवेश करता है वह वर्ष के उपवास का, जो प्रदक्षिणा देता है वह सौ वर्ष के उपवास का, जो जिनेन्द्रदेव के मुख का दर्शन करता है वह हजार वर्ष के उपवास का, और जो स्वभाव से स्तुति करता है वह अनन्त उपवास का फल प्राप्त करता है। यथार्थ में जिनभक्ति से बढ़कर उत्तम पुण्य नहीं है। आचार्य कहते हैं कि हे भरत! जिनेन्द्रदेव की भक्ति से कर्म क्षय को प्राप्त हो जाते हैं और जिसके कर्म क्षीण हो जाते हैं, वह अनुपम सुख से सम्पन्न परम पद को प्राप्त कर लेता है।’’
जिनमंदिर की व जिनप्रतिमा की पूजा के फल में अनेक कथाएँ प्रसिद्ध हैं-
जम्बूद्वीप के पूर्वविदेह में वत्सकावती देश में ‘सुसीमा’ नगरी है। उसके राजा चक्रवर्ती वरदत्त थे। एक समय नगर के बाहर ‘‘गंधमादन’’ पर्वत पर ‘शिवघोष’ तीर्थंकर भगवान के समवसरण में चक्रवर्ती आदि भव्य जीव दर्शन करने लगे। वहाँ पहुँचकर वंदना-पूजा करके अपने-अपने कोठे में बैठ गए। उसी समय स्वर्ग से प्रधान देवों ने ‘दो देवियों’ को साथ में लाकर सौधर्मेन्द्र से कहा-हे इन्द्रराज! ये आपकी देवियाँ हैं। ऐसा कहकर उन्हें समर्पित कर दिया। यह देख चक्रवर्ती ने पूछा-
भगवन्! इन देवियों को पीछे से क्यों लाया गया है ? तभी तीर्थंकर की दिव्यध्वनि सुनकर गणधर देव ने कहा-
सम्राट्! सुनो, इनका चरित मैं सुनाता हूँ। इसी नगर में कुसुमावती और पुष्पलता नाम की दो बहनें एक माली की कन्याएँ थीं। वे प्रतिदिन ‘पुष्पकरंडक’ वन से पुष्पों को चुनकर ले जाते समय मार्ग में स्थित जिनमंदिर की देहली पर एक-एक पुष्प चढ़ाकर दर्शन करके घर जाती थीं। आज उस वन में पहुँचने पर उन दोनों को सर्प ने काट दिया, इससे मरकर वे अन्तर्मुहूर्त में ही प्रथम स्वर्ग में देवियाँ उत्पन्न हुई हैं।
दूसरी कथा इस प्रकार है-इसी आर्यखंड में कुंतलपुर देश में एक ‘तेरपुर’ नगर था। वहाँ वसुमित्र सेठ के ग्वाले ने एक बार एक तालाब से एक ‘सहस्रदल-हजार पांखुडी वाला कमल तोड़ दिया। तभी एक देवी ने प्रगट होकर कहा-जो सबसे अधिक पूज्य हो, उसे ही यह कमल देना। ग्वाले ने आकर अपने सेठ से कहा, सेठ ने राजा से कहा-राजा सेठ और ग्वाले को साथ लेकर ‘सहस्रकूट’ जिनमंदिर पहुँचे, वहाँ विराजमान ‘सुगुप्त’ मुनि से पूछा-भगवन्! लोक में सर्वश्रेष्ठ कौन हैं ? मुनि ने कहा-सर्वश्रेष्ठ जिनेन्द्र भगवान हैंं जिनकी प्रतिमाएँ यहाँ मंदिर में विराजमान हैं। तभी ग्वाले ने जिनेन्द्र भगवान के सामने वह कमल चढ़ा दिया और नमस्कार करके घर आ गया। कालान्तर में यह ग्वाला इस पुण्य के फल से राजा ‘करकण्डु’ हुआ है।
इसकी कथा ‘पुण्यास्रव’ कथाकोश से पढ़ना चाहिए।
ऐसे ही जिनेन्द्रदेव की प्रतिमा के अपमान से कितने कटुकर्म बंधते हैं। उसकी संक्षिप्त कथा सुनो-
जब अंजना ने गर्भवती अवस्था में वसंतमाला सखी वâे साथ घोर जंगल में एक गुफा में विराजमान मुनिराज के दर्शन करके अपने पूर्वभव पूछे, तब महामुनि ने अपने अवधिज्ञान से कहा-पुत्रि! पूर्व भव में तू महारानी ‘कनकोदरी’ थी। लक्ष्मीमती नामक अपनी सौत से क्रोध करके अभिमानवश हो उसके घर चैत्यालय में विराजमान जिनप्रतिमा को उठवाकर घर के बाहर फिकवा दिया। इसी बीच वहाँ ‘संयमश्री’ आर्यिका आहार के लिए आई थीं। इस घटना को जानकर उन्होंने मौन छोड़कर आहार का त्यागकर दिया और रानी कनकोदरी को समझाया और कहा-
हे रानी! तू इस पाप से नरकों में जाकर घोर कष्ट को भोगेगी अत: मेरे कहने से तू इस पाप का प्रायश्चित्त कर और धर्म में चित्त लगा। आर्यिकाश्री के सम्बोधन से रानी नरक जाने से डर गई और ‘जिनप्रतिमा’ को वापस मँगाकर यथास्थान विराजमान करा दिया पुन: आर्यिकाश्री से धर्मश्रवण कर अपनी शक्ति के अनुसार व्रत-तप आदि स्वीकार किये। इस पुण्य के फल से वह आयु के अंत में मरकर स्वर्ग में देवी हुई पुन: वहाँ से च्युत हो महेन्द्रनगर के राजा महेन्द्र की रानी मनोयोगा से पुत्री अंजना हुई है। पूर्वभव के जिनप्रतिमा के अपमान से इसने बाईस वर्ष तक पति के वियोग का दु:ख सहा है। पुनरपि पाप शेष रहने से यह झूठा कलंक लगाकर सास के द्वारा निकाली गई है अब इसके पुत्र रत्न के जन्म के पश्चात् सर्वसुख प्राप्त होंगे। इत्यादि।इस प्रकार जिनप्रतिमा के दर्शन, पूजन की महिमा को जानकर व उनके अपमान का महान दु:खदायी फल जानकर संसार के दु:ख से डरने वालों को भगवान की भक्ति करके मनुष्यपर्याय को सफल करना चाहिए।