इसके बाद महावीर स्वामी यद्यपि छः मास पर्यंत अनशन तप करने में पूर्ण योग्य थे तथापि अन्य मुनीश्वरों को चर्या-मार्ग की प्रवृत्ति दिखलाने की इच्छा से उन्होंने ‘पारणा’ कर लेने का निश्चय किया। यह पारणा (उपवास के बाद का आहार) शरीर की स्थिति को शक्ति प्रदान करती है। महावीर प्रभु ईर्यापथ की शुद्धि को ध्यान में रखकर विचरने लगेµ‘आहार-दान देनेवाला निर्धन है या धनवान? इत्यादि विकल्प न करके वे अपने चित्त में तीन प्रकार के वैराग्य का चिन्तवन करते हुए अनेक दानियों को अपनी चर्या से सन्तुष्ट करते हुए स्वयं विशुद्ध आहार की खोज में घूमने लगे। वे न तो मन्दगति से चलते थे एवं न एकदम तीव्रगति से ही। साधारण-सी चाल से पैरों को बढ़ाते हुए उन्होंने ‘कूल’ नाम के एक सुन्दर नगर में प्रवेश किया। उस नगर का राजा ‘कूल1’ अत्यन्त परिश्रम के बाद प्राप्त हुए प्रिय धन-कोष (खजाना) की तरह अनायास ही आये हुए जिनदेव जैसे उत्तम पात्र को देखकर परम प्रसन्न हुआ। राजा ‘कूल’ ने महावीर स्वामी की तीन प्रदक्षिणा दी एवं भूमि पर पाँचों अंगों को फैला कर प्रणाम किया। बाद में आनन्दोल्लास के कारण ‘तिष्ठ-तिष्ठ’ (ठहरिये-ठहरिये) ऐसा कहा। धर्म-बुद्धि राजा ने प्रभु को एक पवित्र एवं ऊँचे स्थान पर बैठाया एवं उनके कमल जैसे सुन्दर एवं कोमल चरणों को पवित्र जल से धोया। उन प्रभु के पाद-प्रक्षालित जल को राजा ने अपने सम्पूर्ण अंगों में लगाया। इसके बाद राजा ने जलादि आठ प्रकार के प्रासुक द्रव्यों से प्रभु की भक्तिपूर्वक पूजा की। राजा ने अपने मन में विचारा कि आज घर में सुपात्र उत्तम अतिथि के आ जाने से मेरा गार्हस्थ्य-जीवन सफल हुआ। मैं पुण्यकर्मा हूँ। इस पवित्र विवेक से राजा का मन विशेष रूप से पवित्र हो गया। ‘हे देव! हे प्रभो! आज आपके आगमन से मैं धन्य हो गया, आपने मेरे घर को परम पवित्र बना दिया’µऐसा कहने से राजा का वचन पवित्र हो गया। ‘पात्रदान करने से मेरा हाथ एवं शरीर पवित्र हो गया’µऐसा सोचने से राजा की काय-शुद्धि हो गयी। उसने कृत आदि दोषों से हीन प्रासुक अन्न से होनेवाले विमल आहार-दान से ‘एषणा’ को शुद्ध किया। इस प्रकार उस राजा ‘कूल’ ने नवधा-भक्तिपूर्वक महान पुण्य का उपार्जन किया।
‘यह परम दुर्लभ उत्तम पात्र मेरे भाग्य से प्राप्त हुआ है; इसलिये मेरा यह आहार-दान सविधि एवं पूर्णरूपेण सम्पूर्ण है’ऐसा श्रेष्ठ विचार करके वह राजा अत्यन्त श्रद्धावान बन कर अपनी शक्ति के अनुसार पात्र-दान के महान उद्योग में लग गया। उस महादान के प्रभाव से उत्पन्न अजस्त्र रत्नवृष्टि एवं कीर्ति की अभिलाषा उस राजा ने नहीं की थी। वह सेवा-पूजा इत्यादि के द्वारा प्रभु की भक्ति में लग गया एवं धर्म-सिद्धि के निमित्त वह जो अन्य कर्मों को किया करता था, उन सबको तिलांजलि दे दी। उस राजा ने सोचा कि यह प्रासुक आहार है एवं दान देने का यही श्रेष्ठ समय है। यह संयमशील पुरुष उपवासों के उन असह्य क्लेशों को धैर्यपूर्वक सहन कर लेते हैं, इसलिये इन्हें उत्तम विधि से आहार देना ही चाहिये। इस प्रकार राजा ने महान फल को देनेवाले श्रेष्ठ-दाता के उत्तम गुणों को अपने में ग्रहण किया। इसके बाद राजा ने हितकारक उत्तम पात्र को मनसा-वाचा-कर्मणा से पवित्र होकर श्रद्धा-भक्ति के साथ विधिपूर्वक खीर का आहार-दान दिया। वह विशुद्ध आहार प्रासुक एवं स्वादिष्ट था, निर्मल तप को बढ़ानेवाला था एवं क्षुधा-पिपासा को शांत करनेवाला था।
उस राजा के दान से देवता लोग बहुत प्रसन्न हुए एवं पुण्योदय के कारण राज-प्रासाद के आँगन में रत्नों की अविरल वर्षा हुई। उस रत्न-वर्षा के साथ-ही-साथ पुष्प-वृष्टि एवं जल-वृष्टि भी हुई। उसी समय आकाश-मंडल में ‘दुन्दुभि’ इत्यादि वाद्यों की गम्भीर तुमुल ध्वनि हुई। उन वाद्यों के मधुर स्वरों को सुनने से ऐसा जान पड़ता था, मानो वे राजा के पुण्य एवं उत्तम यश का गम्भीर स्वर में गान कर रहे हों। उसी समय देव भी ‘जय-जय’ इत्यादि शुभ शब्दों का उच्चारण करते हुए कहने लगेµ‘हे प्राणियों! यह परमोत्तम पात्र (महावीर प्रभु) दाता को इस संसार-रूपी महासमुद्र से अनायास ही पार उतार देनेवाले हैं। वह दाता निश्चय ही अत्यन्त भाग्यशाली एवं धन्य है, जिसके यहाँ जिनराज स्वयं पहुँच जायें। ऐसे उत्तम दान के प्रभाव से दाता को स्वर्ग एवं मोक्ष दोनों ही कालक्रम से प्राप्त होते हैं। इहलोक में तो आपने देखा कि उत्तम पात्र को दान देने से बहुमूल्य अपार रत्न-राशि की प्राप्ति होती है एवं विमल यश का विस्तार होता है; वैसे ही परलोक में भी स्वर्ग-सम्पदायें एवं भोग-विभूतियाँ प्राप्त होती हैं, जिनके द्वारा चिरकाल तक आनन्दोपभोग किया जाता है।’
रत्न-वृष्टि के कारण राज-महल का आँगन भर गया। आँगन में पड़े हुए उन रत्नों के ढेर को देखकर बहुत-से लोग परस्पर कहने लगे कि देखो, दान का फल कैसा उत्तम होता है? नेत्रों से देखते-ही-देखते यह राज-प्रासाद बहुमूल्य रत्नों की वर्षा से भर गया। दूसरे ने कहाµ यहाँ क्या देखते हो? इस अत्यन्त सामान्य फल को ही तुम अपने नेत्रों से देख रहे हो। उत्तम पात्र-दान से तो स्वर्ग एवं मोक्ष के अक्षय सुख भी अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं। इन लोगों के कथोपकथन को सुनकर एवं अपने नेत्रों से प्रत्यक्ष पात्र-दान की महिमा को देखकर बहुत-से जीव स्वर्ग एवं मोक्ष की कल्पना करने लगे एवं पात्र-दान की महत्ता में विश्वास रखने लगे।आहार-दान के समय वीतरागी तीर्थंकर महावीर ने अपने शरीर की स्थिति के विचार से अंजलिरूपी पात्र के द्वारा खीर का आहार ग्रहण किया तथा इस आहार-ग्रहण के उत्तम फल से राजा को अनुगृहीत कर एवं उसके घर को पवित्र कर पुनः वन को चले गये। राजा ने भी अपने जन्म, घर एवं धन को अप्रत्याशित पुण्योदय से प्राप्त हुआ समझा एवं इसे वे अपना अहोभाग्य समझने लगे। इस श्रेष्ठ दान का मन-वचन-काय द्वारा अनुमोदन करने के कारण अर्थात् दाता एवं पात्र की प्रशंसा करके बहुत से लोगों ने दाता के समान ही उत्तम पुण्य का उपार्जन कर लिया।