विश्वपति, मन्दरागी उन महाप्रभु ने तीस वर्ष का समय मानो क्षणभर में ही व्यतीत कर दिया। एक बार अच्छे होनहार के कारण चारित्र-मोह-कर्म के क्षयोपशम से उन्हें स्वतः अपने पूर्व के करोड़ों जन्मों का संसार-भ्रमण ज्ञात हो गया। वे इस प्रकार की पूर्व-घटित घटनाओं पर विचार कर बड़े ही क्षुब्ध हुए। उन्हें तत्काल ही वैराग्य उत्पन्न हो गया। वे विचार करने लगे कि मोहरूपी महान शत्रु का सर्वनाश करने के लिए रत्नत्रयरूप तप का पालन ही श्रेयस्कर है। उन्होंने सोचाµचारित्र के अभाव में मेरा इतने दिन का समय व्यर्थ ही व्यतीत हो गया, जो अब लौट नहीं सकता। पूर्वकाल में ऋषभादि जितने भी तीर्थंकर हो गये हैं, उनकी आयु पर्याप्त दीर्घ थी, इसलिये वे सब कुछ कर सकने में समर्थ हुए थे, पर हम सरीखे थोड़ी-सी आयुवाले मनुष्य सांसारिक कार्य कुछ भी नहीं कर सकते। वे श्री नेमिनाथादि तीर्थंकर धन्य हैं, जिन्होंने अपने जीवन की अवधि थोड़ी-सी समझकर अल्पायु में ही मोक्ष के उद्देश्य से तपोवन की ओर प्रस्थान किया था अतः संसार हित चाहनेवाले थोड़ी आयुवाले व्यक्तियों को एक क्षण भी संयम के बिना व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिए।
वस्तुतः वे बड़े अज्ञानी हैं, जो थोड़ी आयु पाकर भी तपस्या के बिना अपने अमूल्य समय को नष्ट कर देते हैं। वे यहाँ तो दुःख भोगते ही हैं एवं नरकादि में यातनायें भी। मैं ज्ञानी होते हुए भी संयम के अभाव में एक अज्ञानी की भांति भटक रहा हूँ। अब गृहस्थाश्रम में रहकर समय व्यतीत करना उपयुक्त नहीं कहा जा सकता। वे तीनों ज्ञान ही किस काम के, जिनके द्वारा आत्मा को एवं कर्मों को अलग-अलग न किया जाय तथा मोक्षरूपी लक्ष्मी की उपासना न की जाय? ज्ञान प्राप्त करने का उत्तम फल उन्हीं महापुरुषों को प्राप्त है, जो निष्पाप तप का आचरण करते रहते हैं। दूसरों का ज्ञान तप के बिना नितान्त निष्फल है।
उस व्यक्ति के नेत्र निष्फल हैं, जो नेत्र होते हुए भी अन्धकूप में गिरता है। वही दशा ज्ञानी पुरुषों की है जो ज्ञान होते हुए भी मोहरूपी कूप में गिरे रहते हैं। वस्तुतः अज्ञान (अनजान) में किये गये पाप से छुटकारा तो ज्ञान प्राप्त होने पर मिल भी जाता है, पर ज्ञानी (जानकार) का पाप से मुक्त होना बड़ा ही दुष्कर होता है। अतएव ज्ञानी पुरुषों को मोहादि निंद्य कर्मों के द्वारा किसी प्रकार पाप का बंध नहीं करना चाहिये। इसका कारण यह है कि मोह से राग-द्वेष उत्पन्न होते हैं एवं राग-द्वेष से घोर पाप होता है। उस पाप के फलस्वरूप जीव को बहुत दिनों तक दुर्गतियों में भटकना पड़ता है। वह भटकना भी साधारण नहीं, अनन्तकाल तक का, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता।
ऐसा समझ कर ज्ञानियों को चाहिये कि वे मोहरूपी शत्रु को वैराग्यरूपी खड्ग से मार दें। कारण, यह मोह ही सारे अनर्थों की जड़ है, पर यह स्मरण रहे कि यह मोह गृहस्थों द्वारा नहीं छोड़ा जा सकता इसलिये पाप के बन्धन गृह को तो त्यागना ही पड़ेगा। गृह-बन्धन बाल्यावस्था में तथा यौवनावस्था में सारे अनर्थ उत्पन्न करता रहता है। अतः धीर-वीर पुरुष मोक्ष की प्राप्ति के उद्देश्य से गृह-बन्धन का सर्वथा परित्याग कर देते हैं। वे संसार में पूज्य एवं महापुरुष हैं, जो यौवनावस्था में दुर्जेय कामदेव को भी परास्त करने में समर्थ होते हैं।
यौवनावस्थारूपी राजा ने कामदेव को पंचेन्द्रिय आदि चारों काय के जीवों के जीवन को विकृत करने के लिए भेजा है; पर जब यौवन की अवस्था मन्द हो जाती है, तब उसके साथ बुढ़ापेरूपी फन्दे में बंधे हुए वे कामदेवादि भी ढीले पड़ जाते हैं। अतएव यह उचित होगा कि मैं यौवनावस्था में ही उग्र तप आरम्भ कर दूँ, जिससे कामदेव एवं पंचेन्द्रिय विषयरूपी शत्रुओं का सर्वनाश हो। इस प्रकार की चिन्ता कर वे महाबुद्धिमान महावीर प्रभु अपने चित्त को निर्मल कर राज्य-भोगादि से विरक्त हुए एवं मोक्ष-साधन में संलग्न हो गये।