विशाल—अरे वाह! पंडितजी, सुबह—सुबह इतनी जल्दी घर से कहाँ निकल पड़े ?
वैभव—विशाल! तुमने मुझे पण्डितजी क्या देखकर कहा ? मैं तो मंदिर में भगवान की पूजा करने जा रहा हूं।
विशाल—अच्छा, तो पुजारी जी कहूँ। इतने छोटे बच्चे पूजन नहीं करते हैं वैभव! पूजा पाठ तो बड़े, बूढ़ों का काम है। आओ तुम तो मेरे साथ गुल्ली डंडा खेलो, कहाँ धरम—करम के चक्कर में पड़ गये।
वैभव—नहीं मित्र! अब हम लोग छोटे नहीं हैं। देखो १४ वर्ष की तो मेरी ही उम्र हो गई है। एक महाराज जी का उपदेश मैंने सुना था कि ८ वर्ष के बाद प्रत्येक बालक में इतनी योग्यता आ जाती है कि वह दीक्षा धारण करके केवलज्ञान भी प्राप्त कर सकता है। फिर तुम्हीं बताओ विशाल! कि हम लोगों को कम से कम दीक्षा नहीं तो भगवान की पूजा तो करना ही चाहिए।
विशाल—तुम तो बड़े पण्डितों जैसी बातें करने लग गये और आज धोती दुपट्टा पहन कर पूजा करने चल दिए । पहले दर्शन करना तो सीख लो जो आज तक हमें तुम्हें किसी को नहीं आता हेै, केवल भगवान के सामने हाथ जोड़कर नमस्कार करके वापस आ जाते हैं।
वैभव—ऐ………क्या तुम्हें मंदिर में दर्शन करने की विधि नहीं मालूम है ? तब तो जैन परिवार में जन्म लेना ही निरर्थक है।
विशाल—अच्छा, तो तुमको यह सब कबसे मालूम हो गया ? जरा तुम्हीं बता दो कि दर्शन वैâसे किये जाते हैं ?
वैभव—अभी कुछ ही दिन पूर्व मेरे पिताजी हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप के दर्शन करने गये थे तब वहाँ से पू० गणिनीप्रमुख आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा लिखित बालविकास के ४ भाग लाए थे उन्होेंने हम सभी भाई—बहनोें को वे पुस्तकें पढ़ानी शुरू कर दी हैं। उसी बाल विकास के प्रथम भाग में ही देवदर्शन की पूरी विधि चित्र सहित है, उसके अनुसार ही हम भगवान् के मंदिर में प्रवेश करते ही ‘‘ॐ जय ३, निःसही ३, नमोऽस्तु ३ और णमोकार मंत्र पढ़कर भगवान को नमस्कार करके ठीक से सारा पाठ बोलकर विधिवत् चावल के पुंज चढ़ाकर ही दर्शन करते हैं।
विशाल—तो तुम मुझे भी वह किताब देना। मैं भी देखूंगा कि दर्शन पूजन वैâसे की जाती है ?
वैभव—जरूर दूंगा, यदि तुम चाहो तो मेरे घर आकर पिताजी से पढ़ भी सकते हो। आओ, मेरे साथ तुम भी धोती दुपट्टा पहनकर मंदिर चलो, वहाँ दोनों साथ— साथ पूजा करेंगे।
विशाल—पहले मैं वे बाल विकास की पुस्तकें पढ़ तो लूं। उसमें पूजन करने की विधि भी लिखी होगी ?
वैभव—पूजन विधि की पुस्तक तो दूसरी है वह भी माताजी ने लिखी है उसमें बड़ी सुन्दर पूजाएं हैं। विशाल! तुम उन पूजाओं को करके बस भक्ति संगीत में डूब जाओगे।
विशाल—अरे भाई! पूजाएं तो अच्छी होती ही हैं। देखो न, मेरे पिताजी सबेरे ७ बजे से मन्दिर जाते हैं और पूरे १० बजे पूजा करके लौटते हैं। वे तो कहते हैं कि इससे पहले पूजा समाप्त ही नहीं हो सकती। तो भैय्या! मुझे तो इतनी फुरसत है नहीं कि ३-३ घण्टे पूजा करूँ, आखिर स्कूल की पढ़ाई भी तो करनी है। मैं केवल दर्शन करके ही तृप्त हो जाता हूं।
वैभव—नहीं मित्र! ऐसी बात नहीं है कि २-३ घण्टे ही पूजन करी जाए। वह तो आधा घण्टे में भी की जा सकती है। पू० ज्ञानमती माताजी ने एक ‘‘नवदेवता’’ पूजा की रचना की है जिसको मात्र १ पूजा के रूप में ही कर लेने से उसमें सारी पूजाएं समाहित हो जाती हैं।
विशाल—मैं किसी देव की पूजा नहीं करूंगा। पूजा तो भगवान की होती है या देवी—देवताओं की ?
वैभव—हाँ भाई! तो मैं भी तो उन भगवानों के नाम ही बता रहा हूँ। तुमने तो देवता शब्द से कोई स्वर्ग का देव समझ लिया। आखिर भगवान भी तो सबसे बड़े देवता है।
विशाल—तो वे ९ देव कौन—कौन से हैं ?
वैभव—सुनो! मैं माताजी द्वारा रचित पूजा की पंक्तियों में ही तुम्हें सुनाता हूं—
अरहंत, सिद्धाचार्य, पाठक, साधु, त्रिभुवन वंद्य हैं।
जिनधर्म, जिनआगम, जिनेश्वरमूर्ति, जिनगृहवंद्य हैं।।
नव देवता ये मान्य जग में, हम सदा अर्चा करें।
आह्वान कर थापे यहाँ, मन में अतुल श्रद्धा धरें।।
बस इस पूजा को पूरी कर लेने से सभी पूजाएं हो जाती हैं। यह पूजा हस्तिनापुर से प्रकाशित पुस्तकोें में तो है ही, पूजन पाठ प्रदीप आदि जिनवाणी में भी छपी हुई है।
विशाल—अच्छा अब समझा कि अरहंत, सिद्ध आचार्य, उपाध्याय , सर्वसाधु, जिनधर्म, जिनागम, जिनचैत्य और चैत्यालय ये ९ देवता हैं। तब तो मैं अपने पिताजी से भी कहूंगा कि यही एक ‘‘नवदेवता’’ पूजा कर लिया करें, बाकी सारी पूजाएं न करें।
वैभव—यदि अपने पास समय है और इच्छा है तो और भी पूजाएँ अवश्य करें लेकिन इस एक पूजन को भक्ति संगीत और उपयोगपूर्वक कर लेने से ही काफी मानसिक शांति प्राप्त होती है।
विशाल—अच्छा… तो इतनी सुन्दर है नवदेवता पूजन। तुम कह रहे हो तो मैं भी किताब मंगवाकर अब पूजन किया करूंगा।
वैभव—बात यह है कि मैंने तो मात्र एक पूजन की मिशाल दी। अरे, ज्ञानमती माताजी द्वारा रचित ‘‘इन्द्रध्वज विधान’’ की धूम तो आज सारे हिन्दुस्तान में मची हुई है, जिसमें ५० पूजाएं हैं। उनकी लेखनी में तो मानो साक्षात् सरस्वती ही बसी हुई हैं। उनकी किसी भी पूजा को देख लो, सुन्दर—सुन्दर लयों में भक्ति का अप्रतिम रस छलकता रहता है।
विशाल—लेकिन एक बात तो बताओ विशाल! इन पूजाओं को कर लेने से फल क्या मिलेगा ? क्या हम क्लास में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हो जाएंगे ?
वैभव—बड़े आश्चर्य की बात है विशाल! भगवान की भक्ति से मोक्ष तक मिल जाता है तो इन छोटे—छोटे कार्यों में सफलता मिलना क्या बड़ी बात है ? बस यही है कि हमारा उपयोग स्थिर होना चाहिए । जैसा कि शास्त्रों में एक कथानक आता है न—
एक सेठजी प्रतिदिन घंटों भगवान की पूजा किया करते थे किन्तु मरते समय उनका मन अपनी पत्नी में बस गया ; जिसके फलस्वरूप वे मरकर अपने ही घर की बावड़ी में मेंढक हो गये। सेठानी जब पानी भरने जाती, मेंढक उसके ऊपर आता। एक दिन सेठानी ने एक मुनिराज से इसका कारण पूछा। तब मुनिराज ने बताया कि यह तुम्हारे पति का जीव है।
विशाल—ओ हो… सारी उमर पूजा करी, फिर जरा सी गलती में उस सेठ को मेंढक बनना पड़ा। इससे अच्छा तो यही है कि पूजा ही न करी जाय।
वैभव—तुम तो अच्छे रहे। अच्छाई लेने की बजाय बुराई लेने लग गए । जब तुम साइकिल चलाना सीख रहे थे तो कई बार गिर—गिर कर चोटें खाईं लेकिन चूँकि सीखने की इच्छा थी इसलिए चलाना तो नहीं छोड़ दिया तभी आज तुम एक साइकिल चालक बन सके हो । विशाल! अपनी करनी का फल तो सबको भोगना ही पड़ता है। सेठजी की पूजा कोई बेकार थोड़ी चली गई, आगे तुम सुनो तो—
जब मेंढक को सेठानी ने सम्बोधित किया तो उसे जातिस्मरण हो गया।
विशाल—हे भगवान्! बेचारे मेंढक को कितना पश्चाताप हुआ होगा।
वैभव—पश्चाताप होना तो स्वाभाविक ही था किन्तु उसके दिल में पुनः भगवान की पूजा की भावना जागृत हो गई और वह एक दिन बहुत सारे नर—नारियों को भगवान् महावीर के समवशरण में जाते देखकर एक कमल पांखुड़ी को मुंह में दबाकर चल पड़ा । तुमने भी तो सुना होगा कि वह मेंढक राजा श्रेणिक के हाथी के पैरों तले दबकर मर गया था।
विशाल—हाँ,सुना तो है कि मरकर वह तुरन्त देव बनकर भगवान् महावीर के समवशरण में श्रेणिक राजा से भी पहले पहँुच गया था।
वैभव—बिलकुल ठीक याद है तुम्हें विशाल! यह उस पूजा की भावना का ही फल था जो कि वह मेंढक से देव बन गया । वहाँ समवशरण में उसने स्वर्ग की दिव्य सामग्री से भगवान् की पूजा की।
इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि जब एक तुच्छ मेंढक भगवान की पूजा के भाव रख सकता है तो हम तो मनुष्य हैं जो पूजा के द्वारा परीक्षा में पास तो क्या स्वयं भी पूज्य बन सकते हैं अपने भावों के आधार पर । अरे! भगवान की पूजा से तो सभी मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं।
विशाल—ठीक है, अब प्रतिदिन हम दोनों साथ-साथ भगवान की पूजा किया करेंगे।
वैभव—हाँ, फिर हम अपना एक समूह तैयार करेंगे और सभी साथी हर रविवार को मिलकर ‘‘नव देवता’’ पूजा करके भक्तिसंगीत का आनन्द प्राप्त करेंगे।
अन्तर्यात्रा गीत
चलो मन को अन्तर की, यात्रा कराएं।
भटकते विचारों को, मन से हटाएं।। टेक.।।
मेरी आतमा सत्य, शिव सुन्दरम् है।
कुसंगति से उसमें, हुआ मति भरम है।।
पुरुषार्थ कर, शुद्ध आतम को ध्याएं।
भटकते विचारों को, मन से हटाएं।।१।।
ये यात्रा वचन मन, व तन शुद्ध करती।
ये यात्रा अमन चैन, परिपूर्ण करती।।
इसी यात्रा से, मन को तीरथ बनाएं।
भटकते विचारों को, मन से हटाएं।।२।।
न हम हैं किसी के, न कोई हमारा।
सभी से जुदा, आतमा है निराला।।
उसे ‘चंदना’, खोज करने से पाएं।
भटकते विचारों को, मन से हटाएं।।३।।
निज ध्यान करने से, आतमनिधि मिलती है।
तन मन की मुरझाई, कलियाँ खिलती हैं,
अन्तर के कोने में इक ज्योती जलती है।।निज.।।टेक.।।
संसार भयानक वन है-हाँ हाँ वन है,
तो भी वहाँ पर इक खिला धर्म उपवन है।
हमें पाना है उसकी छाया-हाँ हाँ छाया,
बस इसीलिए यह आतम ध्यान लगाया।
सुख शांती की प्राप्ति सदा इससे ही मिलती है,
अंतर के कोने में इक ज्योती जलती है।।निज.।।१।।
मेरा मन मंदिर निर्मल-हाँ हाँ निर्मल,
इसके अंदर इक कमल की वेदी सुन्दर।
जहाँ शांत विराजे भगवन्-हाँ हाँ भगवन्,
उस भगवन का ही करना है मुझे दर्शन।।
उस दर्शन से सच्ची दृष्टी हमको मिलती है,
अंतर के कोने में इक ज्योती जलती है।।निज.।।२।।
मैं ही ब्रह्मा मैं विष्णू-हाँ हाँ विष्णू,
मैं कष्टों को सहने में बनूँ सहिष्णू।
मैं अविचल अडिग सुमेरू-हाँ हाँ मेरू,
मैं निज मन को नहिं आकुलता से घेरूँ।
यह शक्ती ‘‘चन्दनामती’’ जिनवर से मिलती है,
अंतर के कोने में इक ज्योती जलती है।।निज.।।३।।
भोले प्राणी!
तेरी दुनिया में, है सब कुछ नश्वर, न कुछ अविनश्वर, शरीर भी न तेरा है।
फिर भी सबको तू कहे मेरा मेरा है।। टेक.।।
टंकोत्कीर्ण अमूर्तिक केवल, आत्मतत्त्व है अविनश्वर।
उससे जुड़े वचन मन काया, का व्यापार सभी नश्वर।।
क्षणभंगुर हैं जीवन के क्षण, मिले नहीं अक्षय कण,
तू है ज्ञानी, आत्मविज्ञानी, तत्त्वश्रद्धानी, शुद्धात्म तत्त्व तेरा है।
फिर भी सबको तू कहे मेरा मेरा है।।१।।
एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक, जीव अनन्तानन्त कहे।
हैं व्यवहार से संसारी सब, निश्चय से परमात्म रहें।।
सूर्योदय से भगे अंधेरा, पैâले स्वर्ण उजेरा।
यूँ ही ध्यानी, तू सुन प्रभु वाणी, परमकल्याणी, मिटे भव फेरा है।
फिर भी सबको तू कहे मेरा मेरा है।।२।।
अध्यातमवादी बनकर, व्यवहार क्रियाएँ मत छोड़ो।
पाप त्याग से पूर्व ‘चंदना’, पुण्य से नाता मत तोड़ो।।
सत्यम शिवम् सुन्दरम् को, पाने का यही है साधन,
हे श्रुतज्ञानी, न बन अज्ञानी, समझ सुन प्राणी, कर्मों ने डाला डेरा है।
फिर भी सबको तू कहे मेरा मेरा है।।३।।