जो सभी विकारों से रहित, सर्वज्ञ, वीतरागी और हितोपदेशी हैं, वे जिनेन्द्र भगवान कहलाते हैं। सभी कर्मों से मुक्त होकर वे भगवान लोक के अग्र भाग में शुद्ध परमात्मा रूप में विराजमान हैं। वह ज्ञाता- दृष्टा हैं किन्तु कर्ता-धर्ता नहीं।
जैन धर्म में 24 तीर्थंकर होते हैं, जबकि भगवान ऋषभदेव (आदिनाथ) अरबों वर्ष पूर्व अयोध्या में जन्मे थे, उनके पिता नाभिराय तथा माता मरुदेवी थीं। यशस्वी व सुनंदा से उनका विवाह हुआ। भरत-बाहुबली आदि उनके 101 पुत्र तथा ब्राह्मी-सुंदरी ये दो पुत्रियाँ थीं। उन्होंने राज्य करते हुए अपने पुत्र-पुत्रियों को भी अनेक कलाओं में पारंगत किया। बड़ी पुत्री ब्राह्मी को लिपि का ज्ञान कराया, जिससे ब्राह्मी लिपि प्रसिद्ध हुई। छोटी पुत्री सुंदरी को अंक ज्ञान कराया जिससे शून्य व अंकों का आविष्कार हुआ।
असि, मसि, कृषि, शिल्पकला, विद्या और वाणिज्य का उपदेश तथा अनेक महत्वपूर्ण कार्यों के कारण ऋषभदेव ही भारतीय संस्कृति में ब्रह्मा, विष्णु, महेश, विश्वकर्मा, प्रजापति आदि रूपों में प्रतिष्ठित हुए।
गृहस्थाश्रम त्याग कर श्रमण (संन्यास) जीवन स्वीकार कर उन्होंने घोर तपस्या की। केवलज्ञान प्राप्त कर संसार को धर्म मार्ग बताकर कैलाश (अष्टापद) पर्वत से उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। उनके प्रथम पुत्र चक्रवर्ती भरत के नाम से इस देश का नाम भारत पड़ा।
ऋषभदेव भगवान के बाद 23 तीर्थंकर और हुए जिनमें अंतिम 3 तीर्थंकर बहुत प्रसिद्ध हैं। 22वें नारायण कृष्ण के चचेरे भाई नेमिनाथ, 23वें बनारस के राजा अश्वसेन के पुत्र पार्श्वनाथ और 24 वें अहिंसा के अवतार भगवान महावीर स्वामी।
भगवान महावीर के पिता कुंडलपुर के राजा सिद्धार्थ थे, उनकी माता बैशाली गणतंत्र के अध्यक्ष राजा चेटक की पुत्री त्रिशलादेवी थीं। वर्धमान महावीर ने 30 वर्ष की आयु में संन्यास स्वीकार कर 12 वर्ष तक कठोर तपस्या कर केवलज्ञान पाया। 30 वर्ष तक अहिंसा, अनेकांत और सच्चे आत्मधर्म का देश-विदेश में उपदेश देकर 72 वर्ष की आयु में वे पावापुर (बिहार) से मोक्ष पधारे।
महावीर स्वामी जैन धर्म के संस्थापक नहीं अपितु 24वें तीर्थंकर थे। उनके बाद कोई तीर्थंकर नहीं हुआ, किन्तु आचार्यों के उपदेशों से उनके सिद्धांतों का प्रचार होता रहा, आज भी हो रहा है।