पोदनपुर के राजा अरविंद के कमठ और मरुभूति नाम के दो मंत्री थे। ये दोनों सगे भाई होकर भी विष और अमृत से बने हुए के समान थे। एक समय राज्यकार्य से मरुभूति बाहर गया था उस समय कमठ ने मरुभूति की स्त्री के साथ व्यभिचार का प्रयास किया। राजा अरविंद ने इस बात को जानकर कमठ को दण्डित करके देश से निकाल दिया। वह कमठ अपमान से दु:खी होकर किसी तापस आश्रम में जाकर हाथ में पत्थर की शिला लेकर कुतप करने लगा। कुछ दिन बाद मरुभूति भाई के प्रेम से वहाँ पहुँचा।
उसे देखते ही क्रोध से कमठ ने उसके सिर पर शिला पटक दी। मरुभूति मरकर हाथी हो गया। एक दिन अरविंद महाराज मुनि होकर संघ सहित यात्रा पर जा रहे थे। मार्ग में पड़ाव में उपद्रव करते हुए हाथी वहाँ आया और अरिंवद मुनिराज को देखते ही उसे जातिस्मरण हो गया, तब वह शान्त हो गया। मुनिराज के उपदेश से उसने सम्यक्त्व और पाँच अणुव्रत ग्रहण कर लिए। एक दिन वह सूखे प्रासुक पत्ते खाकर नदी में पानी पीने गया। वहाँ कीचड़ में फंस गया। उसी समय कमठ के जीव (सर्प) ने उसे काट लिया और हाथी महामंत्र का स्मरण करते हुए मरकर देव हो गया। वह सर्प मरकर नरक चला गया। देव का जीव वहाँ से आकर रश्मिवेग राजा हुआ।
पुन: मुनि होकर तपश्चरण करके स्वर्ग में देव हुआ। पुन: वहाँ से आकर वङ्कानाभि चक्रवर्ती हुआ है। पुन: दीक्षा लेकर भील का (कमठ के जीव का) उपसर्ग सहन करके ग्रैवेयक में अहमिन्द्र हो गया। वहाँ से आकर आनन्द नाम का मंडलेश्वर राजा हुआ। उसने सूर्य विमान को बनवाकर जिन प्रतिमाएं विराजमान कीं।
चतुर्मुख, सर्वतोभद्र, कल्पवृक्ष नाम वाली महापूजाएं कीं। पुन: दीक्षा लेकर सोलह कारण भावनाओं के भाने से तीर्थंकर प्रकृति को बांध लिया। अंत में मरकर सोलहवें स्वर्ग में इन्द्र हो गये। काशी देश की बनारस नगरी में राजा विश्वसेन के घर में महारानी वामा देवी के गर्भ में वह इन्द्र का जीव आ गया। पौष कृष्णा एकादशी के दिन बालक का जन्म हुआ। इन्द्रों ने जन्माभिषेक करके शिशु का नाम ‘पार्श्वनाथ’ रखा। इनकी आयु सौ वर्ष की थी। शरीर का वर्ण मरकत मणि के समान हरा था एवं शरीर की ऊँचाई नौ हाथ प्रमाण थी। ये उग्रवंशी थे।
बनारस के भेलूपुर में भगवान पार्श्वनाथ के जन्मस्थल का प्रतीक विशाल जिनमंदिर निर्मित है। वहाँ प्रतिवर्ष पौष कृ. ११ के दिन पार्श्वनाथ जनमकल्याणक महोत्सव मनाया जाता है। किसी समय भगवान क्रीड़ा के लिए शहर के बाहर गये थे। वहाँ उनका नाना कुतापसी पंचाग्नि तप कर रहा था।
प्रभु ने कहा-इसमें नागयुगल जल रहे हैं। उसने क्रोध के आवेश में लकड़ी चीर डाली। वे सर्प युगल तड़फने लगे। प्रभु ने उन्हें उपदेश दिया, जिससे वे दोनों धरणेन्द्र और पद्मावती नाम के भवनवासी देव हो गये। इस घटना से वह तापसी पार्श्वनाथ पर अधिक क्रोध करने लगा। अन्त में मरकर ‘शंवर’ नाम का ज्योतिषी देव हो गया। भगवान पार्श्वनाथ ने विवाह नहीं किया था। वे दिगम्बर मुनि बनकर तपश्चरण कर रहे थे। एक समय प्रभु ध्यान में लीन थे। वह शंवर ज्योतिषी उधर से निकला।
क्रोध के संस्कार से प्रभु पर भयंकर उपसर्ग करने लगा। भयंकर रूप बनाकर आग उगलने लगा। भयंकर आंधी पुन: मूसलाधार वर्षा करने लगा। भगवान के ध्यान के प्रभाव से धरणेन्द्र का आसन कंपायमान हो गया। वे धरणेन्द्रपद्मावती अवधिज्ञान से सब जानकर प्रभु के निकट आये। पद्मावती ने प्रभु को उठा लिया तथा धरणेन्द्र ने प्रभु के मस्तक पर फण का छत्र कर दिया। प्रभु ने घातिया कर्मों का नाश कर दिया जिससे उन्हें केवलज्ञान प्रगट हो गया और तत्काल वहाँ आकाश में अधर समवसरण बन गया।
जहाँ पर भगवान को केवलज्ञान हुआ था उस स्थान का नाम ‘‘अहिच्छत्र’’ तीर्थ है यह उत्तरप्रदेश के बरेली जिले में स्थित है। इस तीर्थ पर अतिशयकारी भगवान पार्श्वनाथ का विशाल मंदिर है तथा वहाँ मेरी प्रेरणा से निर्मित ११ शिखर वाले तीस चौबीसी मंदिर में ७२० भगवन्तों की प्रतिमाएं विराजमान हैं।
तब कमठ ने भी अपने कृत्यों का पश्चाताप करते हुए धर्मग्रहण कर लिया। कहाँ तो कमठ का निष्कारण बैर? तथा कहाँ ऐसी पार्श्वनाथ की शांति और क्षमा? जहाँ भगवान ने उपसर्ग सहन किया है आज भी वह क्षेत्र ‘अहिच्छत्र’ नाम से प्रसिद्ध है। देखो! हाथी ने धर्म के प्रसाद से सप्त परमस्थान को प्राप्त कर लिया है। अत: धर्म ही जगत में सार है।
अर्थात् सज्जाति-माता-पिता के वंश की शुद्धि। सद्गार्हस्थ्य-सम्यग्दर्शन और देशव्रतों का पालन करने वाला सच्चा गृहस्थ होना। पारिव्राज्य-दीक्षा लेकर मुनि बनना।
सुरेन्द्रता-सुरेन्द्र पद प्राप्त करना। साम्राज्य-चक्रवर्ती पद को प्राप्त करना। आर्हन्त्य-तीर्थंकर पद को प्राप्त कर समवसरण की विभूति का स्वामी अर्हंत होना। परिनिर्वाण-अन्त में निर्वाण पद प्राप्त कर लेना। ये सात परम स्थान कहलाते हैं। हाथी ने क्रम से रश्मिवेग राजा होकर सज्जाति प्राप्त की, सद्गृहस्थ बने, मुनि बने, इन्द्र हुए, चक्रवर्ती हुए। अनंतर तीर्थंकर होकर अर्हंत बने और सिद्ध हो गये हैं।
पार्श्वनाथ के पाँचों कल्याणक देवों ने मनाये हैं। प्रश्न-क्या सज्जाति के बिना आगे के स्थान नहीं हो सकते हैं? उत्तर-नहीं! सज्जाति के बिना कोई भी गृहस्थ भगवान की पूजा और मुनि को आहार दान देने का अधिकारी नहीं है, न मुनि दीक्षा लेने का ही अधिकारी है। अतएव जाति और कुल को पवित्र रखने में बहुत ही सावधान रहना चाहिए।