-प्रथम दृश्य-
(मंच पर सामूहिक प्रार्थना)
धरती का तुम्हें नमन है, आकाश का तुम्हें नमन है।
तीन लोक के सौ इन्द्रों ने, किया तुम्हें वंदन है।।
सौ-सौ बार नमन है-२
पार्श्वनाथ प्रभु के चरणों में, सौ-सौ बार नमन है।।टेक.।।
तीन तीर्थ माने हैं जिनके, पंचकल्याण से पावन,
वाराणसि, अहिच्छत्र और सम्मेदशिखर मनभावन।
इनके दर्शन से भक्तों के, पावन होते मन हैं,
सौ-सौ बार नमन है, पार्श्वनाथ प्रभु……….।।१।।
वर्तमान में पार्श्वनाथ का, अतिशय खूब बखाना,
अंतरिक्ष, शिरपुर, चंवलेश्वर, मक्सी, अडिन्दा जाना।
अतिशायी कचनेर में जाकर, करो प्रभू दर्शन है,
सौ-सौ बार नमन है, पार्श्वनाथ प्रभु…….।।२।।
कर्नाटक के बीजापुर में, सहस्रफणा पारस हैं,
जम्बूद्वीप हस्तिनापुर में, चिन्तामणि पारस हैं।
भारत के अनेक नगरों में, पारस प्रभु मंदिर हैं,
सौ-सौ बार नमन है, पार्श्वनाथ प्रभु………।।३।।
गणिनी ज्ञानमती माता, कहती हैं सब भक्तों को,
पारस प्रभु के अतिशय से, परिचित करवाओ सब को।
सभी ‘‘चन्दनामती’’ वर्ष भर, उत्सव करो सफल है,
सौ-सौ बार नमन है, पार्श्वनाथ प्रभु………।।४।।
राजदरबार का दृश्य
राजदरबार लगा हुआ है। मध्य में स्वर्ण सिंहासन पर अपने अतुलित वैभव के साथ पोदनपुर के महाराजा अरविन्द विराजमान हैं। मंत्रीगण अपने-अपने स्थान पर विराजमान हैं। तभी अतिशय कुशल प्रौढ़ मंत्री महोदय गंभीर मुद्रा को लिए हुए महाराज के पास आते हैं।)
मंत्री विश्वभूति-प्रणाम महाराज!
महाराज-(मधुर मुस्कान से उनकी ओर देखते हुए यथोचित आसन पर बैठने का इशारा करते हैं) आइए मंत्रिवर! कहिए! राज्य में सर्वत्र कुशल तो है ना?
मंत्री-(बैठते हुए) हाँ महाराज! आपके प्रसाद से सर्वत्र कुशल मंगल है। सचमुच में इस समय पोदनपुर आपके प्रसाद को प्राप्त कर साक्षात् भगवान बाहुबली के राज्यसुख का स्मरण किया करती है। शहर में अनीति तो प्रवेश ही नहीं कर पाती है क्योंकि नीतिदेवी ने उसका इस शहर से बहिष्कार ही कर दिया है। आपकी यश सुरभि दशों दिशाओं में पैâल रही है।
(अरविंद महाराज एकटक मंत्री के मुख को देख रहे हैं। मंत्री जी कुछ क्षण सोचते हैं पुन: बोलते हैं)
मंत्री-महाराज! आज मैं आपसे सदा के लिए विदाई लेने आया हूँ।
महाराज-(आश्चर्य चकित होते हुए) ऐं!! मंत्री जी क्या-क्या, आपने क्या कहा? क्या मुझसे कोई नाराजगी का प्रसंग आया है?
मंत्री-नहीं-नहीं महाराज! आप अन्यथा न सोचें। प्रभो! आपके पिता और पितामह आदि बुजुर्गों ने तथा मेरे माता-पिता, पितामह आदि बुजुर्गों ने जिस आश्रम को अंत में स्वीकार किया है और जो सनातन परम्परा रही है मैं भी उस गृह कारावास को छोड़कर सन्यस्थ आश्रम में प्रवेश करना चाहता हूँ।
महाराज-मगर……।
मंत्री-महाराज! आप प्रसन्न होइए और मुझे अब शीघ्र ही आज्ञा प्रदान कीजिए।
(महाराज कुछ क्षण को स्तब्ध हो जाते हैं पुन: मंत्री की भार्या अनुंधरी व युगल पुत्रों के बारे में सोचने लगते हैं)
महाराज-(मन में) क्या मंत्रिवर वास्तव में हमारे असीम प्रेम को ठुकरा देंगे? हो सकता है! जब मनुुष्य को वैराग्य हो जाता है तब उसे यह सारा विश्व का सौन्दर्य ओसबिंदु के समान चंचल दिखाई देने लगता है। तो क्या ये मंत्री जी उसी वैराग्य को प्राप्त कर चुके हैं?
(मंत्री महाराज को सोच में निमग्न देखकर महाराज के हृदय के मोह को समझ गए और बोले)
मंत्री-(खड़े होकर) महाराज! इस संसार में इस जीव का किसके साथ संंबंध नहीं हुआ है। यहाँ किस-किसको मैंने अपना स्वामी नहीं बनाया? अथवा मैं किस-किसका स्वामी नहीं हुआ? कितनी बार मैंने चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण किया होगा? किस-किस योनि में नहीं गया होऊँगा? लेकिन प्रभो! अब तक मुझे शांति नहीं मिली, बस, अब मैं उस अक्षय शांति की खोज में अपने आपको लीन कर लेना चाहता हूँ।’’
महाराज-मंत्रिवर! क्या आपने अपने परिवारजनों से आज्ञा ले ली है? क्या आपके पुत्रों ने खुशी-खुशी आपको वन में भटकने की और घर-घर में भिक्षावृत्ति की आज्ञा दे दी है?
मंत्री-हे राजन! जब वे दोनों पुत्र आपकी आज्ञा में हैं तब वे आपके अनुकूल ही चलेंगे पुन: वे आपकी आज्ञा के बाद आज्ञा क्यों नहीं देंगे? दूसरी बात यह है कि पत्नी-पुत्रादि सभी स्वार्थ के सगे हैं, सब परमार्थ से रोकने वाले हैं, पर क्या ये मुझे यमराज के मुख से बचा सकेंगे? यदि नहीं, तो फिर इनके मोह में फंसने का क्या लाभ? ना जाने कितने भवों में मैंने कितने परिवारों को रोते-बिलखते छोड़ा होगा। यह शरीर जड़ है, विनश्वर है, इसी से मैं अविनश्वर सुख का मार्ग बना लूँ अत: मेरे पुत्रों की रक्षा कीजिए।
(राजा अरविंद विवश हैं किन्तु मौनपूर्वक स्वीकृति देते हैं और परम्परा से आगत मंत्रीपद पर कमठ एवं मरुभूति पुत्रों को नियुक्त कर देते हैं)
(महाराज अरविंद चिंतित मुद्रा में मंत्रशाला में बैठे विचार-विमर्श कर रहे हैं)
महाराजा-मंत्रीगण! राजा वङ्कावीर्य अब बिल्कुल निरंकुश हो चुका है अत: उसको जीतने के लिए शीघ्र ही प्रस्थान कर देना चाहिए।
मंत्रीगण-जो आज्ञा महाराज।
(आज्ञा पाते ही सभी सैनिक युद्ध के लिए सज-धजकर तैयार हो रहे हैं। तभी सेनापति प्रवेश करते हैं)
सेनापति-महाराज! सब व्यवस्था हो चुकी है। अब आप हाथी पर सवार हाेइए, सामने हाथी खड़ा है।
महाराज-(मंत्री कमठ से) मंत्रिवर! चूँकि हम युद्ध के लिए प्रस्थान कर रहे हैं अत: आज से पोदनपुर की सारी व्यवस्था की जिम्मेदारी हम आपके ऊपर डाल रहे हैं।
कमठ-आपकी आज्ञा शिरोधार्य है महाराज।
निर्देशक-(माता अनुंधरी की कुक्षि से जन्मे दोनों पुत्रों में धरती-आसमान का अंतर था, एक पाप था, दूसरा पुण्य, एक विष था दूसरा अमृत, अर्थात् कमठ अत्यन्त कुटिल परिणामी, कुनीति में कुशल दुष्टात्मा था और मरुभूति अत्यन्त सरल स्वभावी, अतिशय निपुण धर्मात्मा था। मंत्री कमठ समय पाकर निरंकुश हो गया और स्वयं को राजा घोषित कर अन्याय का साम्राज्य पैâला दिया)
कमठ-(अट्टहास करता हुआ) हा हा हा हा! मैं पोदनपुर का राजा हूँ, सबको मेरी आज्ञा में ही रहना पड़ेगा। (तभी किसी युवती के नूपुरों की झंकार सुनाई देती है)
कमठ-(मन में) ओह! ये नूपुरों की आवाज! सामने हंस गति से चलने वाली सुंदर रत्नआभूषणों से अपने सौन्दर्य को द्विगुणित करती हुई यह युवती कौन है? क्या यह नागकन्या है या देवकन्या है या कोई अप्सरा है?
(निर्णय होने के बाद) ओह! यह तो मेरे लघुभ्राता की भार्या वसुंधरी है। (एक क्षण को सहम जाता है, फिर मन ही मन स्वयं को धिक्कारने लगा) अरे रे! पगले! यह तो अपनी पुत्रवधू के समान है, यह वैâसे मिल सकती है?
(कमठ वसुंधरी के निकल जाने के बाद भी उससे अपना ध्यान नहीं हटा पाता है और उसका मन विह्वल हो रहा है। वह वहाँ से निकलकर सोने की चेष्टा करता है)
(कमठ शैय्या पर लेटा है। निद्रा के न आने से उसके नेत्र एकदम लाल हो रहे हैं तभी उसका अभिन्न मित्र कलहंस प्रवेश करता है। मित्र की ऐसी दुरवस्था देखकर वह एकदम घबरा उठा)
कलहंस-ओहो मित्र! यह क्या स्थिति बना ली है और मुझे सूचना तक नहीं है कि आपका स्वास्थ्य कुछ अस्वस्थ है। हाँ, मै शीघ्र ही राजवैद्य को बुलाकर लाता हूँ।
कमठ-नहीं-नहीं मित्र। नहीं, मुझे कुछ व्याधि नहीं है, तुम आओ और मेरे पास बैठो। अरे, राजवैद्य मेरा क्या इलाज करेगा? मेरी औषधि तो तुम्हीं हो जो कि समय पर आ गए हो।
(कलहंस कमठ से इधर-उधर की बातें करने लगता है पुन: उसके व्याकुल तथा मुरझाए हुए चेहरे को देखकर धीरे से पूछता है)
कलहंस-कहो मित्र! आखिर तुम्हें किस मानसिक व्यथा ने पीड़ित किया है? स्पष्ट कहो, मैं शीघ्र ही उस वेदना का प्रतिकार करूँगा।
कमठ-क्या कहूँ मित्र! जब से मैंने लघुभ्राता की पत्नी उस वसुंधरी को देखा है तभी से मुझे कामज्वर ने घेर लिया है। उस अंगना का स्पर्श कराकर तुम मुझे शीघ्र ही स्वस्थ करो।
(यह सुनकर कलहंस घबराकर दोनों हाथों से कानोें को बंद कर लेता है। पुन: कुछ क्षण बाद कहता है)
कलहंस-कमठ! तुमने यह क्या अतिसाहस का विचार किया है? क्या यह संभव है? क्या राजा अरविंद जैसे न्यायप्रिय और लोकप्रिय राजा के रहते हुए यह अनर्थ कर सकते हो? क्या वह पुत्री सदृश अनुंधरी तुम्हारे भोगने योग्य है? मित्र! छोड़ो-छोड़ो, इस दुराग्रहरूपी पिशाच का पल्ला छोड़ो और अपने स्वभाव में आओ! देखो! क्या हमारी भाभी ‘वरुणा’ सौन्दर्य में किसी से कम है? वह यह सुनेंगी तो क्या सोचेंगी? इस चरित्रहीनता से आपकी कितनी हानि होगी? क्या गति होगी? क्या आपने इस पर विचार किया?
(कमठ मित्र की शिक्षास्पद बातें सुनकर क्रोध से भभक उठा, उसका चेहरा तमतमा उठा)
कमठ-(आवेश में) मित्र! बस-बस रहने दो! बस, तुम्हारी शिक्षाओं को रहने दो, मैं तुमसे भी अधिक शिक्षाओं को जानता हूँ किन्तु मैं राजा हूँ। यह वसुंधरी ही क्या इस पोदनपुर में जो-जो सुंदर वस्तु होगी उसे भी क्षणमात्र में हस्तगत कर सकता हूँ। देखो! राजा अरविंद और भाई मरुभूति तो हैं नहीं! राज्यसत्ता मेरे ही हाथ में है। बस, शीघ्रता करो।
कलहंस-लेकिन मित्र! एक बार पुन: विचार कर लो।
कमठ-देखो! यदि तुम मेरे सच्चे-अभिन्न मित्र हो तो शीघ्र ही उस सुन्दरी से मेरा समागम करा दो।
(कलहंस-मित्र के दुराग्रह को पूर्ण करने के लिए उपाय सोचता है और कहता है)
कलहंस-मित्र कमठ! मैं तुम्हारा कार्य बहुत शीघ्र ही सिद्ध किए देता हूँ। तुम चिंता छोड़ो और भोजन करो।
कमठ-(प्रसन्न होकर) धन्यवाद मित्र।
(पोदनपुर का उद्यान) (लताकुंज में वसुंधरी का प्रवेश। कमठ गुलाब के पुष्पों की शय्या पर लेटा है। उसे देखते ही हर्षित मन होता हुआ बोलता है)
कमठ-आओ, आओ, प्रिय वल्लभे आओ!! तुम्हारी विरहाग्नि से झुलसे हुए इस शरीर को और मन को शीघ्र ही अधरामृत से सिंचित करो, शांत करो।
(वसुंधरी अकस्मात् इस वातावरण को देखकर घबराकर कांपने लगती है और भगवान का स्मरण करने लगती है)
वसुंधरी-(हाथ जोड़कर इष्टप्रार्थना करते हुए) हे प्रभो! इस दुष्ट कलहंस ने मुझे वैâसे फंसाया। मेरे साथ क्या छल रचा। हाय! हाय! अब मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ? वैâसे मेरी रक्षा होगी?
(इधर वह अपनी रक्षा का उपाय सोच ही रही थी कि पापी कलहंस बाहर से दरवाजा बंद कर देता है तथा दुष्टात्मा कमठ शीघ्र ही उठकर दोनों हाथों से उठाकर उसे अपनी पुष्पशय्या पर बिठा लेता है। तब वह साहस बटोर कर कहती है)
वसुंधरी-(प्रार्थना भरे स्वर में) तात! आप मेरे पतिदेव के बड़े भ्राता होने से मेरे पूज्य पितातुल्य हैं। आपको यह नीच कृत्य करना शोभा नहीं देता है। अरे! सर्वत्र शहर में आपकी दुष्टता की चर्चा है। फिर उसमें आप एक और कलंकी बनने का साहस कर रहे हैं। मैं इस समय आपसे अपने सतीत्व की, शील की भिक्षा मांगती हूँ।
कमठ-प्राणप्रिये! देखो तो सही, तुम्हारे बिना मेरा रोम-रोम व्यथित हो रहा है। यह धर्मचर्चा का समय नहीं है।
निर्देशक-(कुछ क्षण के अनंतर वसुंधरी ने अपने अमूल्य शीलरत्न को खो दिया और अब प्रणय बंधन में दोनों कुल कलंकियों के दिन गुजर रहे हैं)
निर्देशक-(इधर महाराज अरविंद राजा वङ्कावीर्य को जीतकर वापस आ रहे हैं। वे आज बहुत ही प्रसन्न हैं क्योंकि वे विजय के नगाड़ों से दिशाओं को प्रतिध्वनित करते हुए वापस आ रहे हैंं। पूरे पोदनपुर में महाराज के स्वागत की जोरदार तैयारी चल रही है।)
(अगले दिन राजसभा लगती है)-
(महाराज मरुभूति को अपने पास बुुलाते हैं)
महाराज-(मरुभूति से)-मंत्रिवर! क्या यह बात सही है जो कि गुप्तचरों और विश्वस्तजनों के द्वारा हमें मिली है।
(मंत्री निरुत्तर िंकतु माथा नीचे किये चुपचाप खड़े हैं। राजा पुन: पूछते हैं)
महाराज-तो फिर बताओ उस दुष्ट कमठ को क्या दण्ड देना चाहिए?
मरुभूति-(हाथ जोड़कर) महाराज! एक बार आप उसे क्षमा प्रदान करें मेरी यही आपसे विनती है।
महाराज-(क्रोधित मुद्रा में) क्षमा, क्षमा!! अशक्य है, असंभव है। मंत्री जी! व्यभिचार जैसे पाप में भाई, बंधु और पुत्र का मोह न्याय संगत नहीं है। न्यायप्रिय राजा अन्याय में अपने पुत्र को भी प्राणदंड देने से नहीं चूकते हैं और तभी वे यशस्वी होते हैं।
(अनन्तर राजा कोतवाल को बुलाकर आज्ञा देते हैं)
महाराज-(कोतवाल से)-कोतवाल! अतिशीघ्र ही पापी कमठ का सिर मुंडाकर इसका मुख काला कर गधे पर बिठाकर पूरे शहर में घुमाओ ताकि लोग जान सकें कि दुष्कृत्य का क्या फल मिलता है।
कोतवाल-जो आज्ञा महाराज।
(कोतवाल राजाज्ञा का पालन करता है। आगे-आगे ढोल बज रहा है और पीछे-पीछे कमठ गधे पर सवार है, सभी कमठ के इस अपमान को देख-देखकर हंस रहे हैं)
ढोलक वाला-(आगे-आगे चलते हुए) जो भी ऐसा दुष्कर्म करेगा उसको ऐसा ही दण्ड दिया जाएगा।
पुरवासी-अरे! देखो तो! इस पापी को इसके किये की वैâसी सजा मिली है।
एक-(हँसकर) हाँ भाई! ऐसा दुष्कर्म करने वाले के लिए यह सजा कम ही है।
कुछ बच्चे-चल, चल, भाई! इस गंजे को कंकड़-पत्थर मार कर मजे लेते हैं। (ऐसा कहकर कंकड़ मारते हुए बच्चे खूब मजे लेते हैं)
(कोतवाल ने इस विधि से उसे अपमानित कर देश से निकाल दिया। महादण्ड को भोगकर अपमानित कमठ भूताचल पर्वत पर तापसियों के आश्रम में पहुँचता है)
भूताचल पर्वत का दृश्य
निर्देशक-(अनेक तापसी समीचीन ज्ञान के बिना मात्र अपने शरीर का शोषण करते हुए तप कर रहे हैं, कोई-कोई पंचाग्नि तप कर रहे हैं, कोई शरीर में भस्म रमा रहे हैं इत्यादि। कमठ उन्हें नमस्कार कर प्रमुख गुरु के पादमूल में पहुँचकर तापसी दीक्षा ले लेता है)
कमठ-प्रणाम गुरुदेव!
तापसी-आयुष्मान भव वत्स।
कमठ-गुरुदेव! मुझे भी तापसी दीक्षा प्रदान कर कृतार्थ करें।
तापसी-ठीक है वत्स!
निर्देशक-(कमठ दीक्षा लेकर हाथ में पत्थर की शिला लेकर खड़ा होकर तपश्चरण करने लगा। इधर मरुभूति भाई से मिलने की उत्कंठा से उसे ढूँढ़ता हुआ वहीं पहुँच जाता है। दूर से तापसियों के बीच प्यारे भाई को देखकर पहचानकर, ऐसी रूक्ष और विवर्ण दशा को देखकर दु:खी हुआ मरुभूति कमठ के पास जाकर निवेदन करता है)
मरुभूति-(प्रार्थना भरे स्वर में) हे भाई! तुम्हारा हृदय विशाल है। जो कुछ हुआ वह सब अपराध क्षमा करो और घर चलो।
(कमठ उसकी ओर क्रोधित दृष्टि से देखता है)
मरुभूति-(पुन: कहता है)-हे बंधु! जो कुछ हुआ वह सब अपराध क्षमा करो। तुम्हारे बिना मुझे घर में अच्छा नहीं लगता है।
(इतना बोलते हुए सरल मन से मरुभूति कमठ के पैरों में गिरकर नमस्कार करने लगा। बस, उसी समय कमठ के मन में क्रोध उत्पन्न हुआ)
कमठ-अरे! यह दुष्टात्मा पहले तो मुझे खूब अपमानित कर चुका है और अब बातें बनाकर सफाई देने आया है। अभी बताता हूँ इसे। (इतना कहकर क्रोध में अंधा वह तापसी कमठ शीघ्र ही अपने हाथ की शिला छोटे भाई के सिर पर पटक देता है)
कमठ-ले दुष्ट! मैं यह शिला तेरे सिर पर पटक कर तेरा काम खत्म किये देता हूँ।
(भाई के सिर पर वङ्का सदृश शिला के पड़ते ही खून के फव्वारे निकल पड़े। निकट ही तपस्या में रत हुए तापसियों से यह कुकृत्य देखा न गया और वे हाहाकार कर उठे)
एक तापसी-अरे देखो तो! इस नये साधु ने क्या अनर्थ कर दिया। विनय से युत अपने भाई को ही मार डाला।
दूसरा तापसी-धिक्कार है, धिक्कार है। अरे जल्दी कोई गुरुदेव को सूचना दो। इस पापी ने यह क्या किया?
तीसरा तापसी-साधु होकर हत्या, अरे इतनी कषाय?
(तभी किसी के द्वारा सूचना प्राप्त होने पर प्रमुख तापसी गुरु आ जाते हैं और क्रोधित हो उठते हैं)
तापसी गुरु-अरे दुष्ट! क्या तूने इसीलिए दीक्षा ली थी। अरे! ऐसा ही निंद्य कृत्य करना था तो तू यहाँ आया ही क्यों था। धिक्कार है, तूने हम सब पर कलंक लगा दिया। (पुन: आदेशात्मक स्वर में) जा! निकल जा यहाँ से! आज से इस आश्रम में तेरे लिए कोई स्थान नहीं है।
(ऐसा कहकर तापसी गुरु ने उसे तत्क्षण ही आश्रम से बाहर निकाल दिया। वहाँ से निकलकर वह दुष्ट वन में जाकर भीलों से मिल गया और चोरी, डवैâती करने लग गया। एक बार वह राज्य में चोरी करने गया।
कमठ-(अपने साथियों से) चलो मित्रों! आज किसी बड़े सेठ के यहाँ चोरी करने चलते हैं।
भील साथी-चलो यार! जब तुम जैसा साथी हो तो किस बात का डर।
(सभी चोरी के लिए जाते हैं लेकिन कोतवाल के द्वारा पकड़ लिए जाते हैं)
कोतवाल-बहुत दिनों से इन चोरों ने नाक में दम कर रखा है। आज तो इन्हें पकड़कर ही रहूँगा। (तभी उसे पास के घर से कुछ आहट सुनाई देती है)
अच्छा तो आज पकड़ में आ ही गए। अभी बताता हूँ। (एक किनारे छुप जाता है और चोरी करके घर से निकलते हुए उन चोरों को पकड़ लेता है)
(सभी को बंदी बनाकर) अब पकड़ में आए बच्चू! काफी दिनों से चकमा देकर भाग जाते थे, आज खबर लूँगा तुम सबकी। (सभी को खूब मारता है और ले जाकर कारागार में डाल देता है)
निर्देशक-(इस प्रकार वह पापी कमठ नाना प्रकार के दु:खों को भोगता हुआ अपनी आयु पूर्ण कर तीव्र पापकर्म के उदय से सल्लकी नामक वन में विशाल सर्प हो जाता है और मरुभूति का जीव मोहकर्म के उदय से मरकर उसी वन में विशालकाय हाथी हो जाता है।)