‘‘इस भरतक्षेत्र में भगवान ऋषभदेव के द्वितीय पुत्र भगवान बाहुबली ने भी एक वर्ष का योग धारण किया था।’ वे भावलिंगी मुनि थे। उन्हें अनेक ऋद्धियाँ प्रगट हो गयी थीं और मन:पर्ययज्ञान भी प्रकट हो गया था। यह मन:पर्ययज्ञान द्रव्यलिंगी मुनि के असंभव है। उनके मन में मिथ्याशल्य न होकर यह विकल्प अवश्य हो जाया करता था कि ‘भरत चक्रवर्ती को मुझसे क्लेश हो गया है।’ यही कारण था कि भरत सम्राट् के द्वारा पूजा होते ही उनका विकल्प दूर हो गया और वे क्षपकश्रेणी पर आरोहण करके केवली हो गये। भगवज्जिनसेनाचार्य ने इस बात को आदिपुराण में स्पष्टरूप से कहा है। यथा-
‘मतिज्ञान की प्रकर्षता से उन्हें बुद्धि आदि ऋद्धियाँ प्रकट हो गयी थीं, श्रुतज्ञान की प्रकर्षता से समस्त अंगों और पूर्वों के जानने आदि की शक्ति का विस्तार हो गया था, अवधिज्ञान में वे परमावधि को उल्लंघन कर सर्वावधि को प्राप्त हुए थे और मन: पर्ययज्ञान में विपुलमति मन:पर्यय के स्वामी हो गये थे।
वह भरतेश्वर मुझसे संक्लेश को प्राप्त हो गया है’ यह विचार बाहुबली के हृदय में विद्यमान रहता था, इसलिए केवलज्ञान ने भरत द्वारा पूजा की अपेक्षा की थी अर्थात् भरत के द्वारा पूजा होते ही उनका उपर्युक्त विकल्प दूर हो गया और उन्हें केवलज्ञान प्रगट हो गया था।” ये बाहुबली भगवान भी जिनकल्पी सदृश ध्यान में तत्पर रहे थे।