यत्खुलु कषाय योगा आणानां-द्रव्यभावरूपाणाम्।
व्यपरोपणस्य करणं सुनिश्चिता भवति सा हिंसा।।
(श्री अमृतचन्द्र सूरि)
कषाय के योग से जो द्रव्य और भाव रूप दो प्रकार के प्राणों का घात करना है वह सुनिश्चित ही हिंसा कहलाती है अर्थात् अपने और पर के भावप्राण और द्रव्य प्राण के घात की अपेक्षा हिंसा के चार भेद हो जाते हैं।
स्व भाव हिंसा :- जब क्रोधादि कषायों की उत्पत्ति होती है तब स्वयं के शुद्ध ज्ञान, दर्शन रूप भाव प्राणों का घात होता है यह स्व भाव हिंसा है।
स्व द्रव्य हिंसा :-कषायों की तीव्रता से दीर्घ श्वासोच्छ्वास से हस्त पाद से अपने अंग को कष्ट पहुँचाना अथवा आत्मघात कर लेना, अपने द्रव्य प्राणों के घात से यह द्रव्य हिंसा कहलाती है।
पर भाव हिंसा :-मर्मवेधी कुवचन आदि से दूसरे के अंतरंग में पीड़ा पहुँचाना अथवा दूसरे को कषाय उत्पन्न कराना पर के भावों की हिंसा है।
पर द्रव्य हिंसा :-कषायादि से पर के द्रव्य प्राणों का घात करना या उसको मार देना पर के प्राणों का हनन करने से यह पर द्रव्य हिंसा है।
अहिंसा :- अपने से राग-द्वेष आदि भावों का प्रगट न होना ही निश्चय से अहिंसा है और रागादि भावों का उत्पन्न होना ही हिंसा है ऐसा जैन सिद्धान्त का सार है क्योंकि सावधानीपूर्वक प्रवृत्ति करने वाले साधुओं के रागादि भावों के बिना कदाचित् किसी प्राणी को बाधा हो जाने मात्र से ही हिंसा का पाप नहीं लगता है तथा जिस समय आत्मा में कषायों की उत्पत्ति होती है उसी समय आत्मघात हो जाता है। पीछे यदि अन्य जीवों का घात हो या न हो, वह घात तो उसके कर्मों के आधीन है परन्तु आत्मघात तो कषायों के उत्पन्न होते ही हो जाता है।
इस हिंसा के विषय में भी अन्य चार बातें ज्ञातव्य हैं।
हिंस्य, हिंसक, हिंसा और हिंसा का फल ।
हिंस्य :-जिनकी हिंसा की जावे ऐसे अपने अथवा अन्य जीवों के द्रव्य प्राण और भाव प्राण अथवा एकेंद्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक प्राणी समुदाय।
हिंसक :-हिंसा करने वाला जीव ।
हिंसा :-हिंस्य-जीवों के प्राणों का प्रीणन अथवा प्राणों का घात।
हिंसाफल :-हिंसा से प्राप्त होने वाला नरक, निगोद आदि फल ।
इन चारों बातों को समझकर हिंसा का त्याग करने की भावना करने वालों का कर्तव्य है कि वे मद्य, मांस , मधु इन तीनों का तथा बड़, पीपल, पाकर, कठूमर, गूलर इन पांच फलों का ऐसी आठ वस्तुओं का अवश्य ही त्याग कर देवें।
मद्य :-रस से उत्पन्न हुये बहुत से जीवों की योनिस्वरूप है अत: उसके पीने से सभी जीवोें की हिंसा हो जाने से महान पाप का बंध होता है।
मांस :-प्राणियों के कलेवर को मांस कहते हैं, यह मांस बिना जीवघात के असंभव है। यद्यपि स्वयं मरे हुये बैल, भैंस आदि जीवों के कलेवर को भी मांस कहते हैं किन्तु उस मांस के भक्षण में भी उस मांस के आश्रित रहने वाले उसी जाति के असंख्य निगोद जीवों का घात हो जाने से महान हिंसा होती है। बिना पके, पके हुये तथा पकते हुये भी मांस के टुकड़ों में उसी जाति के निगोदिया जीव निरंतर ही उत्पन्न होते हैं इसलिये मांसाहारी महापातकी है।
मधु :-जो मधुमक्खी के छत्ते से स्वयं भी टपका हुआ है, ऐसा भी शहद अनंत जीवों का आश्रयभूत होने से निषिद्ध है। मधु के एक बिन्दु के खाने से भी सात गाँव के जलाने का पाप लगता है अत: इसका त्याग ही श्रेयस्कर है।
मद्य, मांंस, मधु और मक्खन (४८ मिनट के अनंतर की लोनी) ये चारों पदार्थ अहिंसक को नहीं खाने चाहिये क्योंकि इसमें उसी-उसी वर्ण के जीव उत्पन्न होते रहते हैं तथा चर्म स्पर्शित घी-तेल-जल एवं अचार आदि भी नहीं खाने चाहिये।
बड़-पीपल-उâमर-कठूमर और पाकर फल ये भी त्रस जीवों की योनिभूत हैं इनको सुखाकर भी नहीं खाना चाहिये।
१-आमां वा पक्वां खादति स्पृशति वा पिश्तिपैशीम्।
स निहंति सततनिचितं पिण्डं बहु जीव कोटीनाम्।।६८।।
श्री अमृतचन्द्र सूरि
मद्य, मांस, मधु और पांच उदुम्बर फल ये आठों पदार्थ महापाप के कारण हैं, इनका त्याग करने पर ही मनुष्य जिनेन्द्र भगवान के उपदेश को सुनने का पात्र हो सकता है अन्यथा नहीं ।
विदेहक्षेत्र के मधु नाम के वन में किसी समय श्री सागरसेन नाम के एक दिगम्बर मुनिराज मार्ग भूलकर भटक रहे थे। उस समय एक पुरुरवा नाम का भील उन्हें मृग समझकर बाण से मारने को उद्यत हुआ कि उसी समय उसकी स्त्री ने कहा कि इन्हें मत मारो, ये वनदेवता विचरण कर रहे हैं। तब भील ने मुनि के पास आकर उन्हें नमस्कार किया और उन्हें मार्ग बता दिया। मुनिराज ने उसे भद्र समझकर मद्य-मांस-मधु का त्याग करा दिया। जिसके फलस्वरूप वह भील जीवन भर पालन कर अंत में मरकर सौधर्म स्वर्ग में देव हो गया। देव के वैभव और सुखों को भोगकर वह भील का जीव इसी अयोध्या नगरी में भगवान वृषभदेव के पुत्र चक्रवर्ती भरत महाराज की अनंतमती रानी से मरीचि कुमार नाम का पुत्र हो गया।
इस मरीचि कुमार ने पाखंडमत का प्र्रचार करने से कालांतर में बहुत काल तक संसार के दु:ख भोगे।
अनंतर सिंह की पर्याय में मुनिराज से सम्यक्त्व और अहिंसाणुव्रत आदि पंच अणुव्रत ग्रहण करसल्लेखना से मरकर देव हो गया। इस सिंह पर्याय से दशवें भव में यही जीव भगवान महावीर हुआ है।
देखिये! अहिंसा धर्म ही इस जीव की उन्नति करके इसे स्वर्गादि के उत्तम-उत्तम सुखों को देकर क्रमश: इस जीव को परमात्मा बना देता है।
अष्टावनिष्टदुस्तर दुरितायतनान्यमूनि परिवर्ज्य।
जिनधर्मदेशनाया भवंति पात्राणि शुद्धधिय:।।७४।।
श्री अमृतचन्द्र सूरि