उत्तरपुराण ग्रन्थ के आधार से भगवान महावीर के पांचों नामों का वर्णन यहां बताया जा रहा है-
विदेहदेश के कुण्डपुर- कुंडलपुर नगर के राजा सिद्धार्थ की महारानी त्रिशला ने आषाढ़ शुक्ला षष्ठी तिथि को गर्भ में तीर्थंकर शिशु को धारण किया पुनः नवमाह बाद चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को तीर्थंकर पुत्र को जन्म दिया। त्रिशला माता का दूसरा नाम प्रियकारिणी था। रानी प्रियकारिणी ने उन जिनबालक को जन्म देकर मनुष्यों, तिर्यंचों और देवों पर बहुत भारी प्रेम उत्पन्न किया था इसीलिए उनका ‘‘प्रियकारिणी’’ यह नाम सार्थक हुआ था।
तभी सौधर्मेन्द्र ने जिनबालक को सुमेरुपर्वत पर ले जाकर प्रभु का 1008 कलशों से जन्माभिषेक महोत्सव किया पुनः वस्त्राभरणों से अलंकृत कर ‘‘वीर’’ और ‘‘वर्धमान’’ ऐसे दो नाम रखे थे। कहा भी है-
अलं तदिति तं भक्त्या, विभूष्योद्घविभूषणैः।
वीरः श्रीवर्धमानश्चेत्यस्याख्याद्वितयं व्यधात्।। 276।।
किसी समय ‘‘संजय’’ और ‘‘विजय’’ नाम के दो चारणऋद्धिधारी मुनियों को किसी पदार्थ में संदेह उत्पन्न हुआ तभी वे जन्म के बाद जिनबालक के समीप आए और उनके दर्शनमात्र से उनका संदेह दूर हो गया तभी उन्होंने बड़ी भक्ति से जिनशिशु का ‘‘सन्मति’’ यह नामकरण करके अतीव प्रसन्नता व्यक्त की थी। कहा भी है –
संजयस्यार्थसंदेहे संजाते विजयस्य च।
जन्मानन्तरमेवैन-मभ्येत्यालोकमात्रतः ।। 282।।
तत्संदेहे गते ताभ्यां चारणाभ्यां स्वभक्तितः।
अस्त्वेष सन्मतिर्देवो भावीति समुदाÐतः ।। 283।।
जिनबालक देव बालकों के साथ क्रीड़ा किया करते थे। एक समय की घटना है कि स्वर्ग में सुधर्मा सभा में प्रभु के गुणों की चर्चा हो रही थी साथ ही उनकी शूरवीरता की भी प्रशंसा हो रही थी तभी संगम नाम के एक देव ने उनकी परीक्षा करनी चाही। एक समय बालक वर्धमान अनेक राजकुमारों के साथ बगीचे में वृक्ष पर चढ़े हुए क्रीड़ा में तत्पर थे। यह देख संगमदेव ने उन्हें भयभीत करने की इच्छा से बहुत बड़े सांप का रूप धारणकर उस वृक्ष की जड़ से लेकर स्कंध तक लिपट गया। सब बालक उस सांप को देखकर भय से कांप उठे और शीघ्र ही डालियों से कूद – कूदकर इधर – उधर भाग गए। इस महाभय के उपस्थित होने पर भी तीर्थंकर के अवतार ‘‘वीर’’ ‘‘वर्धमान’’ किंचित् भी भयभीत नहीं हुए प्रत्युत् लहलहाती हुई सौ जिह्वाओं से अत्यन्त भयंकर ऐसे सर्प के फणा पर पैर रखकर खड़े हो गए और उसके साथ क्रीड़ा करते हुए नीचे उतर आए। वर्धमान कुमार की इस क्रीड़ा से प्रसन्न हो संगमदेव ने अपनी विक्रिया समेटकर भगवान की स्तुति की और प्रभु का ‘‘महावीर’’ यह नाम घोषित कर दिया।इस सन्दर्भ में उत्तरपुराण की पंक्ति देखिए-
ललज्जिह्वाशतात्युग्रमारुह्य तमहिं विभीः।
कुमारः क्रीडयामास मातृपर्यंकवत्तदा ।। 294।।
विजृंभमाणहर्षाम्भोनिधिः संगमकोऽरमः।
स्तुत्वा भवान्महावीर इति नाम चकार सः।। 295।।
भगवान महावीर जब तीस वर्ष की अवस्था में थे तब एक समय उन्हें पूर्वभव का ‘‘जातिस्मरण’’ हो गया। तत्क्षण ही उन्हें वैराग्य हो गया। लौकांतिक देवों द्वारा स्तुति को प्राप्त भगवान ने षण्डवन या ज्ञातृवन में ‘‘सालवृक्ष’’ के नीचे जैनेश्वरी दीक्षा ले ली।
उज्जयिन्यामथान्येद्युस्तं श्मशानेऽतिमुक्तके।
वर्धमानं महासत्त्वं प्रतिमायोग-धारिणम्।। 331।।
निरीक्ष्य स्थाणुरेतस्य दौष्ट्याद्धैर्यं परीक्षितुम्।
उत्कृत्य कृत्तिकास्तीक्ष्णाः प्रविष्टजठराण्यलम्।। 332।।
व्यात्ताननाभिभीष्माणि नृत्यन्ति विविधैर्लयैः।
तर्जयन्ति स्फुरद्ध्वानैः साट्टहासैर्दुरीक्षणैः।। 333।।
स्थूलवेतालरूपाणि निशि कृत्वा समन्ततः।
पराण्यपि फणीन्द्रेभसिंहवन्ह्यानिलैः समम्।। 334।।
किरातसैन्यरूपाणि पापैकार्जनपंडितः।
विद्याप्रभावसंभावितोपसर्गैर्भयावहैः।। 335।।
स्वयं स्खलयितुं चेतः समाधेरसमर्थकः।
समहतिमहावीराख्यां कृत्वा विविधाः स्तुतीः।। 336।।
उमया सममाख्याय नर्तित्वागादमत्सरः।
पापिनोऽपि प्रतुष्यन्ति प्रस्पष्टं दृष्टसाहसाः।। 337।।
कई वर्षों तक तपश्चरण करते हुए एक बार प्रभु उज्जयिनी नगरी के अतिमुक्तक नाम के श्मशान में प्रतिमायोग से विराजमान थे। उन्हें देखकर रूद्र ने उनके धैर्य की परीक्षा के लिए रात्रि में बड़े – बड़े वेतालों का रूप लेकर उपसर्ग करना शुरू कर दिया। ये वेताल भयंकर शब्दों को करते हुए अट्टहास और विकराल दृष्टि से डरा रहे थे। इनके सिवाय उसने सर्प, हाथी, सिंह, अग्नि और वायु के साथ भीलों की सेना बनाकर उपसर्ग किया। उस रूद्र द्वारा विद्या के बल से नाना प्रकार के भयंकर उपसर्गों से भी भगवान महावीर ध्यान से चलायमान नहीं हुए। तब उसने अपनी विद्या समेटकर भगवान की खूब स्तुति करते हुए उनका ‘‘महतिमहावीर’’ नाम रखा पुनः अपनी पत्नी के साथ-साथ प्रसन्नतापूर्वक नृत्य करते हुए प्रभु की भक्ति करके अपने स्थान पर चला गया।
कहीं-कहीं यह पांचवां नाम ‘‘अतिवीर’’ नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त है।इस प्रकार भगवान महावीर के ‘‘वीर’’ और ‘‘वर्धमान’’ ये दो नाम इन्द्र द्वारा रखे गए हैं। ‘‘सन्मति’’ नाम ‘‘संजय-विजय’’ नाम के चारणऋद्धिधारी मुनियों द्वारा रखा गया है। ‘‘संगमदेव’’ ने ‘‘महावीर’’ नाम रखा है एवं ‘‘रुद्र’’ ने ‘‘महतिमहावीर’’ नाम रखा है।
प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव की तीर्थंकर परम्परा में पांच नामों से विभूषित अंतिम एवं चैबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी हम और आप सबका कल्याण करें।