रचयित्री- प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चन्दनामती
-स्थापना (शंभु छन्द)-
तीर्थ अयोध्या की धरती पर ऋषभदेव ने जन्म लिया।
उनके इक सौ इक पुत्रों ने, इस धरती को धन्य किया ।।
भरत बाहुबली आदि सभी, पुत्रों ने शिवपद प्राप्त किया ।
इन सबकी पूजन हेतू, हमने पूजन का थाल लिया।।१।।
-दोहा-
पुत्र एक सौ एक का, मन्दिर बना महान।
विश्वशांति मंदिर कहा, अवध धरा का धाम।।२।।
आह्वानन स्थापना, सन्निधिकरण प्रधान।
प्रभु पद में है कामना, करूँ आत्मविश्राम।।३।।
ॐ ेह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवस्य भरतबाहुबलि-आदिशतैकपुत्रसिद्धपरमेष्ठीसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट्।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवस्य भरतबाहुबलि-आदिशतैकपुत्रसिद्धपरमेष्ठीसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवस्य भरतबाहुबलि-आदिशतैकपुत्रसिद्धपरमेष्ठीसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं स्थापनं।
-अष्टक (शंभु छन्द)-
सरयू नदि का जल ले करके, प्रभुपद में त्रयधारा कर लूँ।
निज जन्म मृत्यु का क्षय करके, इक दिन प्रभुवर सम सुख वर लूँ।।
प्रभु ऋषभदेव के मोक्षप्राप्त, शत एक पुत्र का यजन करूँ।
उन जन्मभूमि शुभ तीर्थ अयोध्या, की धरती को नमन करूँ।।१।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवस्य भरतबाहुबलि-आदिशतैकपुत्रसिद्धपरमेष्ठिभ्य: जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
शीतल चन्दन कर्पूर मिलाकर, प्रभु पद में चर्चन कर लूँ ।
संसारताप विध्वंस हेतु, ले चन्दन प्रभु अर्चन कर लूँ।
श्री ऋषभदेव के मोक्षप्राप्त, शत एक पुत्र का यजन करूँ।
उन जन्मभूमि शुभ तीर्थ अयोध्या, की धरती को नमन करूँ।।२।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवस्य भरतबाहुबलि-आदिशतैकपुत्रसिद्धपरमेष्ठिभ्य: संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
मोतीसम उज्ज्वल अक्षत ले, जिनवर चरणों में पुंज धरूँ।
वरदान यही चाहूँ प्रभु से, मैं भी अक्षय पद प्राप्त करूँ।।
श्री ऋषभदेव के मोक्षप्राप्त, शत एक पुत्र का यजन करूँ।
उन जन्मभूमि शुभ तीर्थ अयोध्या, की धरती को नमन करूँ।।३।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवस्य भरतबाहुबलि-आदिशतैकपुत्रसिद्धपरमेष्ठिभ्य: अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
बेला गुलाब गेंदा आदिक, पुष्पों को चुन चुन थाल भरूँ।
जिनवर चरणों में चढ़ा उन्हें, निज कामव्यथा को शांत करूँ।।
श्री ऋषभदेव के मोक्षप्राप्त, शत एक पुत्र का यजन करूँ।
उन जन्मभूमि शुभ तीर्थ अयोध्या, की धरती को नमन करूँ।।४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकर-श्रीऋषभदेवस्य भरतबाहुबलि-आदिशतैकपुत्रसिद्ध-परमेष्ठिभ्य: कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
घृतमय मीठे पकवान बना, उनसे पूजन का थाल भरूँ।
जिनवर चरणों में अर्पण कर, निज क्षुधारोग को शांत करूँ।।
श्री ऋषभदेव के मोक्षप्राप्त, शत एक पुत्र का यजन करूँ।
उन जन्मभूमि शुभ तीर्थ अयोध्या, की धरती को नमन करूँ।।५।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवस्य भरतबाहुबलि-आदिशतैकपुत्रसिद्धपरमेष्ठिभ्य: क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घृतमय दीपक की ज्योति जलाकर, जिनवर की आरति कर लूँ।
मोहांधकार हो जाय नाश, यह भाव हृदय धारण कर लूँ।।
श्री ऋषभदेव के मोक्षप्राप्त, शत एक पुत्र का यजन करूँ।
उन जन्मभूमि शुभ तीर्थ अयोध्या, की धरती को नमन करूँ।।६।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवस्य भरतबाहुबलि-आदिशतैकपुत्रसिद्धपरमेष्ठिभ्य: मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।
चन्दन अगरू की धूप जला, कर्मों को शीघ्र दहन कर लूँ।
पूजन में प्रभुवर के सम्मुख, आत्मा का भाव प्रगट कर लूँ।।
श्री ऋषभदेव के मोक्षप्राप्त, शत एक पुत्र का यजन करूँ।
उन जन्मभूमि शुभ तीर्थ अयोध्या, की धरती को नमन करूँ।।७।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवस्य भरतबाहुबलि-आदिशतैकपुत्रसिद्धपरमेष्ठिभ्य: अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।
केला अंगूर सरस मीठे, फल थाल सजा पूजन कर लूँ।
इक दिन मुझको फल मिले मोक्ष, प्रभु सम्मुख भाव प्रगट कर लूँ।।
श्री ऋषभदेव के मोक्षप्राप्त, शत एक पुत्र का यजन करूँ।
उन जन्मभूमि शुभ तीर्थ अयोध्या, की धरती को नमन करूँ।।८।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवस्य भरतबाहुबलि-आदिशतैकपुत्रसिद्धपरमेष्ठिभ्य: मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।
जल चन्दन अक्षत पुष्प चरू ले, दीप धूप फल थाल भरूँ।
यह अर्घ्य थाल ‘‘चन्दनामती’’ प्रभु सम्मुख रख निज सौख्य वरूँ।।
श्रीऋषभदेव के मोक्षप्राप्त, शत एक पुत्र का यजन करूँ।
उन जन्मभूमि शुभ तीर्थ अयोध्या, की धरती को नमन करूँ।।९।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवस्य शतैकपुत्रसिद्धपरमेष्ठियो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। शान्तये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
जय जय तीर्थंकर ऋषभदेव के, श्री चरणों में करूँ नमन।
उनके शिवपद को प्राप्त सभी, पुत्रों के पद में करूँ नमन।।
युग की आदी में नगरि अयोध्या, की धरती का भाग्य जगा।
इन्द्रों के द्वारा वंद्य भूमि पर, महल सर्वतोभद्र बना।।१।।
उस महल में राजा नाभिराय, मरुदेवी सुख से रहते थे।
उनकी सेवा में देव देवियाँ, सदा ही तत्पर रहते थे।।
इक बार महारानी मरुदेवी, ने सोलह सपने देखे।
पति से उनके फल को सुनकर, धन्य हुईं सचमुच ही वे।।२।।
उन सपनों के फल में माँ ने, तीर्थंकर प्रभु को जन्म दिया।
श्री ऋषभदेव ने आदिनाथ, बनकर धरती को धन्य किया।
श्री यशस्वती व सुनंदा दो, कन्याओं के संग ब्याह हुआ।
धरती के सर्वप्रथम राजा से, सारा विश्व सनाथ हुआ।।३।।
अद्भुत संयोग बना ऐसा, प्रभु ने तो शिवपद प्राप्त किया।
उनके सब इक सौ इक पुत्रों ने, भी मुक्ती का लाभ लिया।।
इसलिए सभी की पूजन कर, जयमाल का अर्घ्य बनाया है।
भरतादि एक सौ एक प्रभू की, छवि को मन में बसाया है।।४।।
भरतेश प्रथम चक्रीश हुए, अरु कामदेव थे बाहुबली।
गणधर पद प्राप्त तृतीय पुत्र, श्रीवृषभसेन जी महामुनी।।
थे पुत्र चतुर्थ अनंतविजय, जो दीक्षा लेकर सिद्ध बने।
पंचम थे पुत्र अनंतवीर्य, जो प्रथम मोक्षगामी प्रभु थे।।५।।
अच्युत नामक थे षष्ठ पुत्र, उनने भी शिवपद प्राप्त किया।
सातवें वीर-वरवीर आठवें, ने भी सिद्धि का लाभ लिया।।
ये आठ नाम आगमवर्णित, पर सबने शिवपथ अपनाया।
पितु के बतलाये पथ पर चल, सबने ही शिवपद को पाया।।६।।
सबने ही सर्वतोभद्र महल में, जन्म लिया कुल धन्य किया।
राजा बनकर सब त्याग दिया, इक्ष्वाकुवंश को धन्य किया।।
इक्ष्वाकुवंश का पावन यह, इतिहास हमें बतलाता है।
चौदह लख नृप की दीक्षा का, क्रम उससे जाना जाता है।।७।।
श्री आदिपुराण से आदिनाथ, भगवान का जीवन पढ़ना है।
राजा भी राज्य त्याग करके, दीक्षा लेते ये समझना है।।
इसलिये अयोध्या तीर्थ पे इक सौ, एक प्रभू का मंदिर है।
तीर्थंकर प्रभु के मोक्षप्राप्त, पुत्रों की प्रतिमा सुंदर हैं।।८।।
श्री गणिनी ज्ञानमती माता की, यही प्रेरणा रहती है।
इतिहास करो साकार धरा पर, यही सदा वे कहती हैं।।
उनकी शिष्या ‘‘चंदनामती’’ ने, भाव वही दरशाया है।
जयमाला अर्घ्य चढ़ाने हेतू, पूजन थाल सजाया है।।९।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवस्य मोक्षप्राप्तशतैकपुत्रसिद्धपरमेष्ठिभ्य: जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
-दोहा-
घाति अघाती नाशकर, मोक्ष गये भगवान।
उनकी भक्ति से मिले, हमें भी आतमज्ञान।।१।।
इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि:।