-अथ स्थापना-अडिल्ल छंद-
संभवनाथ तृतीय जिनेश्वर ख्यात हैं।
भववारिधि से तारण तरण जिहाज हैं।।
भक्तिभाव से करूँ यहाँ प्रभु थापना।
पूजूँ श्रद्धाधार करूँ हित आपना।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीसंभवनाथतीर्थंकर! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीसंभवनाथतीर्थंकर! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीसंभवनाथतीर्थंकर! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक-स्रग्विणी छंद-
कर्ममल धोय के आप निर्मल भये।
नीर ले आप पदकंज पूजत भये।।
तीर्थकरतार संभव प्रभू को जजूँ।
कर्मनिर्मूल कर स्वात्म अमृत चखूँ।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मोहसंताप हर आप शीतल भये।
गंध से पूजते सर्व संकट गये।।
तीर्थकरतार संभव प्रभू को जजूँ।
कर्मनिर्मूल कर स्वात्म अमृत चखूँ।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ अक्षयसुखों की निधी आप हो।
शालि के पुंज धर पूर्ण सुख प्राप्त हो।।
तीर्थकरतार संभव प्रभू को जजूँ।
कर्मनिर्मूल कर स्वात्म अमृत चखूँ।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
काम को जीतकर आप शंकर बने।
पुष्प से पूजकर हम शिवंकर बने।।
तीर्थकरतार संभव प्रभू को जजूँ।
कर्मनिर्मूल कर स्वात्म अमृत चखूँ।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
भूख तृष्णादि बाधा विजेता तुम्हीं।
मिष्ट पक्वान्न से पूज व्याधी हनी।।
तीर्थकरतार संभव प्रभू को जजूँ।
कर्मनिर्मूल कर स्वात्म अमृत चखूँ।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दोष अज्ञानहर पूर्ण ज्योती धरें।
दीप से पूजते ज्ञान ज्योती भरें।।
तीर्थकरतार संभव प्रभू को जजूँ।
कर्मनिर्मूल कर स्वात्म अमृत चखूँ।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
शुक्लध्यानाग्नि से कर्मभस्मी किये।
धूप से पूजते स्वात्म शुद्धी किये।।
तीर्थकरतार संभव प्रभू को जजूँ।
कर्मनिर्मूल कर स्वात्म अमृत चखूँ।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
पूर्ण कृतकृत्य हो नाथ! इस लोक में।
मैं सदा पूजहूँ श्रेष्ठ फल से तुम्हें।।
तीर्थकरतार संभव प्रभू को जजूँ।
कर्मनिर्मूल कर स्वात्म अमृत चखूँ।।८।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्वसंपत्ति-धर नाथ! अनमोल हो।
अर्घ्य से पूजते स्वात्म कल्लोल हो।।
तीर्थकरतार संभव प्रभू को जजूँ।
कर्मनिर्मूल कर स्वात्म अमृत चखूँ।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-सोरठा-
भवहर संभवनाथ! तुम पद में धारा करूँ।
हो आत्यंतिक शांति, चउसंघ में भी शांति हो।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
हरसिंगार गुलाब, सुरभित करते दश दिशा।
निजसुख संपति लाभ, पुष्पांजलि से पूजते।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
-शंभु छंद-
संभवजिन अधो ग्रैवेयक तज, नगरी श्रावस्ती में आये।
दृढ़रथ पितु मात सुषेणा के, वर गर्भ बसे जन हरषाये।।
फागुन सुदि अष्टमि तिथि उत्तम, मृगशिर नक्षत्र समय शुभ था।
इन्द्रों ने गर्भोत्सव कीया, पूजत ही पापकर्म नशता।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं फाल्गुनशुक्लाष्टम्यां गर्भकल्याणकप्राप्ताय श्रीसंभवनाथ-तीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जब प्रभु ने जन्म लिया भू पर, देवों के आसन काँप उठे।
झुक गये मुकुट सब देवों के, माँ उत्तर देती युक्ती से।।
कार्तिक पूना मृगशिर नक्षत्र में, संभवप्रभु ने जन्म लिया।
मेरू पर सुरगण न्हवन किया, तिथि जन्म जजत सुख प्राप्त किया।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं कार्तिकशुक्लापूर्णिमायां जन्मकल्याणकप्राप्ताय श्रीसंभवनाथ-तीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मेघों का विभ्रम देख विरक्त, हुए संभव मगसिर पूनम।
लौकांतिक सुर ने स्तुति की, सिद्धार्था पालकि सजि उस क्षण।।
इक सहस नृपति सह दीक्षा ली, उद्यान सहेतुक में प्रभु ने।
सुरपति ने उत्सव किया तभी, मैं नमूँ नमूँ प्रभु चरणों में।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं मार्गशीर्षशुक्लापूर्णिमायां दीक्षाकल्याणकप्राप्ताय श्रीसंभवनाथ-तीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपमाीति स्वाहा।
कार्तिक वदि चौथी के मृगशिर, नक्षत्र रहा अपराण्ह समय।
उद्यान सहेतुक शाल्मलितरु, के नीचे केवल सूर्य उदय।।
संभव जिनवर का तरु अशोक, वर समवसरण में शोभ रहा।
भव भ्रमण निवारण हेतू मैं, पूजूँ केवल तिथि आज यहाँ।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं कार्तिककृष्णाचतुर्थ्यां केवलज्ञानकल्याणकप्राप्ताय श्रीसंभवनाथ-तीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शुभ चैत सुदी षष्ठी तिथि थी, अपराण्ह काल में ध्यान धरा।
इक सहस साधु सह कर्मनाश, निज सौख्य लिया प्रभु शिवंकरा।।
सम्मेदशिखर भी पूज्य बना, तिथि पूज्य बनी सुरगण आये।
निर्वाणकल्याणक पूजा की, हम अर्घ्य चढ़ाकर गुण गायें।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं चैत्रशुक्लाषष्ठ्यां मोक्षकल्याणकप्राप्ताय श्रीसंभव्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अथ प्रत्येक अर्घ्य
-दोहा-
हे संभवजिन! आपमें, गुण अनंत विलसंत।
अष्टोत्तर शत गुण जजूँ, पुष्पांजलि विकिरंत।।१।।
अथ मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
(१०८ अर्घ्य)
—रोला छंद—
पूजा योग्य महान्, सम्यग्दर्शन गुण हैं।
इस युत जन धनवान, पा लेते निज गुण हैं।।
इस गुण से तीर्थेश संभवनाथ बने हैं।
नमूँ नमूँ भगवंत, मिलते सुगुण घने हैं।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं सम्यक्त्वगुणाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वच्छ अतुल गुण श्रेष्ठ, पूजा योग्य जिन्हों में।
वे अर्हत्परमेष्ठि, सिद्धिरमा रत उनमें।।
मिले हमें गुण स्वच्छ, नमूँ नमूँ गुण गाऊँ।
अर्घ्य चढ़ा प्रत्यक्ष, जिन गुण संपति पाऊँ।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं स्वच्छगुणाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
द्वादशांग श्रुतज्ञान, पूजा योग्य जिन्हों का।
दिव्यध्वनी अमलान, पाते भवदधि नौका।।
प्राप्त करूँ श्रुतज्ञान, साम्य सुधारस पाऊँ।
नित्य करूँ गुणगान, आत्मगुणांबुधि पाऊँ।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं द्वादशांगाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अतिशय पूजा योग्य, मती ज्ञान को पाके।
केवलज्ञान मनोज्ञ, पाया ज्योति जलाके।।
आभिनिबोधिक ज्ञान, पूर्ण करो शिर नाऊँ।
संभव जिन भगवान, अर्घ्य चढ़ा सुख पाऊँ।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं आभिनिबोधकाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रुतमय अवधीज्ञान, अंगपूर्व से पूरण।
पाते भेदविज्ञान, कर लेते गुण पूरण।।
निज में ज्ञान विकास, बने त्रिजग परमात्मा।
पूजूँ शुद्ध प्रकाश, बनूँ नित्य शुद्धात्मा।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रुतावधिगुणाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अवधिज्ञान महान, पूजा योग्य गुणाकर।
इससे प्रभु गुणवान, बने श्रेष्ठ रत्नाकर।।
संभव जिन भगवंत, चरणकमल को पूजूूँ।
निजगुण से विलसंत, भव भव दुख से छूटूँ।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं अवधिगुणाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मनपर्यय को पाय, अर्हत् पदवी पाई।
इन्द्रों ने शिर नाय, पूजा भक्ति रचाई।।
मैं भी पूजूँ नित्य, झुक झुक शीश नमाऊँ।
पाऊँ अविचल सौख्य, तीर्थंकर गुण गाऊँ।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हं मन:पर्ययभावाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
केवल गुण असहाय, पर की नहीं अपेक्षा।
ऐसे गुण को पाय, जग की करी उपेक्षा।।
संभव जिन को पूज, केवल ज्योति जगाऊँ।
सौ इन्द्रों से पूज्य, नमूँ नमूूँ गुण गाऊँ।।८।।
ॐ ह्रीं अर्हं केवलगुणाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
केवलज्योति स्वरूप, संभव प्रभु का गुण है।
श्रेष्ठ शुद्ध चिद्रूप, परमहंस का गुण है।।
नमूँ नमूँ शिर टेक, अर्घ्य चढ़ाकर पूजूँ।
मिले निजातम एक, सर्व दुखों से छूटूँ।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हं केवलस्वरूपाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
केवल दर्शन श्रेष्ठ, त्रिभुवन पूज्य कहाता।
नमत मिले पद ज्येष्ठ, मिटती सर्व असाता।।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय, नमूँ नमूँ शिर नाऊँ।
पाऊँ गुण समुदाय, संभव प्रभु को ध्याऊँ।।१०।।
ॐ ह्रीं अर्हं केवलदर्शनीय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
केवलज्ञानी श्री अरिहंत, लोकालोक सकल जानंत।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, जजूँ तुम्हें संभव भगवंत।।११।।
ॐ ह्रीं अर्हं केवलज्ञानाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अर्हन् केवल वीर्य धरंत,प्रगट किया निज शक्ति अनंत।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, जजूँ तुम्हें संभव भगवंत।।१२।।
ॐ ह्रीं अर्हं केवलवीर्याय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिभुवन के मंगल करतार,श्री अरहंत देव सुखकार।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, जजूँ तुम्हें संभव भगवंत।।१३।।
ॐ ह्रीं अर्हं मंगलाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज आत्मा अवलोकनकार, अर्हन् मंगल दर्शनसार।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, जजूँ तुम्हें संभव भगवंत।।१४।।
ॐ ह्रीं अर्हं मंगलदर्शनाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूर्णज्ञान मंगलमय मान्य, अर्हत् पूजा योग्य महात्म्य।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, जजूँ तुम्हें संभव भगवंत।।१५।।
ॐ ह्रीं अर्हं मंगलज्ञानाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संभवप्रभु का वीर्य महान, मंगलदायी सर्वप्रधान।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, जजूँ तुम्हें संभव भगवंत।।१६।।
ॐ ह्रीं अर्हं मंगलवीर्याय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मंगल द्वादशांग श्रुतज्ञान, अर्हत् पद का मूल निदान।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, जजूँ तुम्हें संभव भगवंत।।१७।।
ॐ ह्रीं अर्हं मंगलद्वादशांगाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मतिज्ञान के भेद असंख्य, मंगल अर्हत् पद दें वंद्य।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, जजूँ तुम्हें संभव भगवंत।।१८।।
ॐ ह्रीं अर्हं मंगलाभिनिबोधकाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
द्रव्य भाव श्रुत मंगल सेतु, अर्हत्पद में माना हेतु।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, जजूँ तुम्हें संभव भगवंत।।१९।।
ॐ ह्रीं अर्हं मंगलश्रुताय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अवधिज्ञान मंगलमय मूर्ति, कर देता अर्हत् गुणपूर्ति।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, जजूँ तुम्हें संभव भगवंत।।२०।।
ॐ ह्रीं अर्हं मंगलावधिज्ञानाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मनपर्यय मंगलवरज्ञान, अर्हत्पद का मूल निदान।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, जजूँ तुम्हें संभव भगवंत।।२१।।
ॐ ह्रीं अर्हं मंगलमन:पर्ययज्ञानाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मंगल केवलज्ञान समस्त, अरिहंतों का सुगुण प्रशस्त।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, जजूँ तुम्हें संभव भगवंत।।२२।।
ॐ ह्रीं अर्हं मंगलकेवलेश्वराय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अर्हन् मंगल केवल ईश, गणधर मुनिगण नावें शीश।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, जजूँ तुम्हें संभव भगवंत।।२३।।
ॐ ह्रीं अर्हं मंगलकेवलज्ञानाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मंगल केवल दर्शन श्रेष्ठ, अर्हंतों का गुण है एक।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, जजूँ तुम्हें संभव भगवंत।।२४।।
ॐ ह्रीं अर्हं मंगलकेवलदर्शनाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अर्हत् मंगल केवल इष्ट, घातिकर्म को किया विनष्ट।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, जजूँ तुम्हें संभव भगवंत।।२५।।
ॐ ह्रीं अर्हं मंगलकेवलाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
केवलरूप स्वभाव महान्, अर्हंतों का सर्वप्रधान।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, जजूँ तुम्हें संभव भगवंत।।२६।।
ॐ ह्रीं अर्हं मंगलकेवलरूपाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्म जगत में मंगल धन्य, अर्हंतों में गुण अभिवंद्य।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, जजूँ तुम्हें संभव भगवंत।।२७।।
ॐ ह्रीं अर्हं मंगलधर्माय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मंगल धर्मस्वरूप जिनेश, त्रिभुवन के पति नमें हमेश।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, जजूँ तुम्हें संभव भगवंत।।२८।।
ॐ ह्रीं अर्हं मंगलधर्मस्वरूपाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम मंगल श्रीजिनराज, वंदन से पूरे सब काज।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, जजूँ तुम्हें संभव भगवंत।।२९।।
ॐ ह्रीं अर्हं मंगलोत्तमाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व लोक में उत्तम ईश, अर्हंतों को नाऊँ शीश।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, जजूँ तुम्हें संभव भगवंत।।३०।।
ॐ ह्रीं अर्हं लोकोत्तमाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—नरेन्द्र छंद—
तीन भुवन में उत्तम गुण जो, उसे धरें अरहंता।
कर्म अघाती भी विनाश कर, भये सिद्ध भगवंता।।
संभव जिन के चरण जजूँ मैं, हृदय कमल में ध्याऊँ।
सर्व अमंगल दूर भगाकर, नित नव मंगल पाऊँ।।३१।।
ॐ ह्रीं अर्हं लोकोत्तमगुणाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोक अलोक प्रकाशी उत्तम, ज्ञान लोक में माना।
इसे प्राप्त कर सिद्ध भये जो, लोक अग्र शिवथाना।।
संभव जिन के चरण जजूँ मैं, हृदय कमल में ध्याऊँ।
सर्व अमंगल दूर भगाकर, नित नव मंगल पाऊँ।।३२।।
ॐ ह्रीं अर्हं लोकोत्तमज्ञानाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोक अलोक विलोके दर्शन, उत्तम है त्रिभुवन में।
इसे पाय अर्हंत बने फिर, तिष्ठें लोक शिखर में।।
संभव जिन के चरण जजूँ मैं, हृदय कमल में ध्याऊँ।
सर्व अमंगल दूर भगाकर, नित नव मंगल पाऊँ।।३३।।
ॐ ह्रीं अर्हं लोकोत्तमदर्शनाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीन लोक में सर्वश्रेष्ठ जो, वीर्य अनंती शक्ती।
इसे पाय अर्हंत बने फिर, मिली कर्म से मुक्ती।।
संभव जिन के चरण जजूँ मैं, हृदय कमल में ध्याऊँ।
सर्व अमंगल दूर भगाकर, नित नव मंगल पाऊँ।।३४।।
ॐ ह्रीं अर्हं लोकोत्तमवीर्याय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीन जगत में अतिशय उत्तम, स्मृति पूज्य जिन्हों की।
अर्हत् सिद्ध बने उनकी यह, पूजा श्रेष्ठ गुणों की।।
संभव जिन के चरण जजूँ मैं, हृदय कमल में ध्याऊँ।
सर्व अमंगल दूर भगाकर, नित नव मंगल पाऊँ।।३५।।
ॐ ह्रीं अर्हं लोकोत्तमाभिनिबोधकाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अवधिज्ञान त्रिभुवन में उत्तम, तीर्थंकर पददाता।
इसे पाय अर्हंत सिद्ध हों, नमत मिले सुखसाता।।
संभव जिन के चरण जजूँ मैं, हृदय कमल में ध्याऊँ।
सर्व अमंगल दूर भगाकर, नित नव मंगल पाऊँ।।३६।।
ॐ ह्रीं अर्हं लोकोत्तमअवधिबोधाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोकोत्तम मनपर्यय पाके, अर्हत् लक्ष्मी पाई।
सिद्ध बने लोकाग्र विराजे, नमूँ स्वात्म सुखदायी।।
संभव जिन के चरण जजूँ मैं, हृदय कमल में ध्याऊँ।
सर्व अमंगल दूर भगाकर, नित नव मंगल पाऊँ।।३७।।
ॐ ह्रीं अर्हं लोकोत्तममन:पर्ययाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीन लोक में सर्वोत्तम है, केवलज्ञान प्रभू का।
इसको पाय नियम से शिवपद, इन भक्ती भव नौका।।
संभव जिन के चरण जजूँ मैं, हृदय कमल में ध्याऊँ।
सर्व अमंगल दूर भगाकर, नित नव मंगल पाऊँ।।३८।।
ॐ ह्रीं अर्हं लोकोत्तमकेवलज्ञानाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तिहुँजग में केवल स्वरूप ही, सर्वोत्तम मुनि कहते।
इसे पाय शिवधाम प्राप्त हो, इन भक्ती दुख दहते।।
संभव जिन के चरण जजूँ मैं, हृदय कमल में ध्याऊँ।
सर्व अमंगल दूर भगाकर, नित नव मंगल पाऊँ।।३९।।
ॐ ह्रीं अर्हं लोकोत्तमकेवलस्वरूपाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घातिकर्म हन केवल असहायी पर्याय प्रगट हो।
लोकोत्तम अर्हत्पद से शिवपद भी स्वयं प्रगट हो।।
संभव जिन के चरण जजूँ मैं, हृदय कमल में ध्याऊँ।
सर्व अमंगल दूर भगाकर, नित नव मंगल पाऊँ।।४०।।
ॐ ह्रीं अर्हं लोकोत्तमकेवलपर्यायाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—दोहा—
संभव जिन का द्रव्य ही, केवलद्रव्य प्रधान।
इसे पाय शिवतिय वरें, नमूँ नमूँ धर ध्यान।।४१।।
ॐ ह्रीं अर्हं केवलद्रव्याय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिभुवन में उत्तम कहा, केवल द्रव्य जिनेश।
इसे पाय शिवतिय वरें, नमूूँ तुम्हें परमेश।।४२।।
ॐ ह्रीं अर्हं लोकोत्तमकेवलद्रव्याय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
केवलद्रव्य स्वरूप हैं, लोकोत्तम अर्हंत।
संभव जिन को नित नमूँ, बन जाऊँ गुणवंत।।४३।।
ॐ ह्रीं अर्हं लोकोत्तमकेवलद्रव्यरूपाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ध्रुवस्वभाव अर्हंत हैं, लोकोत्तम अभिराम।
सिद्धिरमा के पति बनें, शत शत करूँ प्रणाम।।४४।।
ॐ ह्रीं अर्हं लोकोत्तमध्रौव्यभावाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तमभाव धरें सदा, संभवजिन भगवान।
सिद्धिरमा के पति बने, नमूँ सदा धर ध्यान।।४५।।
ॐ ह्रीं अर्हं उत्तमभावाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिभुवन में उत्तम कहा, स्थिर भाव अनूप।
तीर्थंकर भगवंत में, नमूँ नमूँ शिवभूप।।४६।।
ॐ ह्रीं अर्हं लोकोत्तमस्थिरभावाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संभवप्रभु जग में शरण, शरणागत हैं भव्य।
सिद्धिरमापति को नमूँ, मिले स्वात्मसुख नव्य।।४७।।
ॐ ह्रीं अर्हं शरणाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४७।।
शरणरूप संभवप्रभू, सिद्धिरमा के नाथ।
नमूँ भक्ति से मैं यहाँ, कीजे मुझे सनाथ।।४८।।
ॐ ह्रीं अर्हं शरणरूपाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संभवप्रभु के गुण शरण, शरण में जग में और।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय के, मिले चरण में ठौर।।४९।।
ॐ ह्रीं अर्हं गुणशरणाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संभवप्रभु का ज्ञान ही, शरण जगत में मान्य।
सिद्धि रमापति को नमूँ, मिले स्वात्मगुण साम्य।।५०।।
ॐ ह्रीं अर्हं ज्ञानशरणाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिभुवन युगपत् देखते, लिया शरण अतएव।
नमूँ तीर्थकर आपको, करो अमंगल छेव।।५१।।
ॐ ह्रीं अर्हं दर्शनशरणाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संभवप्रभु की शक्ति ही, शरणभूत तिहुँकाल।
अर्हत्प्रभु ही सिद्ध हो, नमूूँ नमूँ तिहुँकाल।।५२।।
ॐ ह्रीं अर्हं वीर्याय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५२।।
द्वादशांग श्रुत शरण है, इससे शिवपद होय।
ज्ञानकली विकसित करो, नमूँ भक्तिवश होय।।५३।।
ॐ ह्रीं अर्हं द्वादशांगशरणाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मतीज्ञान की शरण ले, पद अर्हंत धरंत।
तीर्थंकर प्रभु को जजूँ, भेदज्ञान विलसंत।।५४।।
ॐ ह्रीं अर्हं आभिनिबोधशरणाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
द्रव्यभावश्रुत शरण ले, तीर्थंकर पद पाय।
सिद्ध हुये उनको नमूँ, ज्ञानकली खिल जाय।।५५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रुतशरणाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अवधिज्ञान को प्राप्त कर, तीर्थंकर भगवान।
शरण इन्हीं की है मुझे, नमूँ नमूँ गुणखान।।५६।।
ॐ ह्रीं अर्हं अवधिबोधशरणाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मनपर्ययवरज्ञान ही, शरण इन्द्र शत वंद्य।
इससे अर्हत् सिद्ध हों, नमूँ नमूँ अभिनंद्य।।५७।।
ॐ ह्रीं अर्हं मन:पर्ययशरणाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
केवलज्ञान महान् ही, शरण अन्य नहिं कोय।
संभव जिनवर को नमूँ, पाप कर्ममल धोय।।५८।।
ॐ ह्रीं अर्हं केवलशरणाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संभव केवलज्ञान ही, शरण स्वरूप प्रधान।
तीर्थंकर प्रभु को नमूँ, मिले निजातम ज्ञान।।५९।।
ॐ ह्रीं अर्हं केवलशरणस्वरूपाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अर्हत्केवलधर्म ही, शरण भव्य को जान।
तीर्थंकर प्रभु को नमूँ, मिले स्वपर विज्ञान।।६०।।
ॐ ह्रीं अर्हं केवलधर्मशरणाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अर्हत्प्रभु हैं केवली, मंगल गुण भंडार।
भव्यों के ये ही शरण, जजूूँ भक्ति उर धार।।६१।।
ॐ ह्रीं अर्हं केवलमंगलगुणशरणाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनवर मंगल गुण कहे, शरणभूत हैं एक।
जजूँ अर्घ्य ले भक्ति से नमूँ सदा शिर टेक।।६२।।
ॐ ह्रीं अर्हं मंगलगुणशरणाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर का ज्ञान ही, मंगलदायी सिद्ध।
शरणभूत है जगत में, नमत करूँ यम विद्ध।।६३।।
ॐ ह्रीं अर्हं मंगलज्ञानशरणाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मंगलमय दर्शन शरण, श्रीजिनवर का श्रेष्ठ।
मेरी भी रक्षा करो, नमूँ नमूँ गुण ज्येष्ठ।।६४।।
ॐ ह्रीं अर्हं मंगलदृष्टिशरणाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीजिनवर का बोध ही, मंगल शरण स्वरूप।
बोधि समाधी हेतु मैं, जजूँ शुद्ध चिद्रूप।।६५।।
ॐ ह्रीं अर्हं मंगलबोधशरणाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—सखी छंद—
संभवप्रभु मंगलकारी, वैâवल्यज्ञान के धारी।
मैंने ली है प्रभु शरणा, पूजन से भवदधि तरना।।६६।।
ॐ ह्रीं अर्हं मंगलकेवलशरणाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीनों लोकों में उत्तम, जिनवर की शरण अनूपम।
मैंने ली है प्रभु शरणा, पूजन से भवदधि तरना।।६७।।
ॐ ह्रीं अर्हं लोकोत्तमशरणाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोकोत्तम गुण जिनवर के, हैं शरण सभी भक्तों के।
मैंने ली है प्रभु शरणा, पूजन से भवदधि तरना।।६८।।
ॐ ह्रीं अर्हं लोकोत्तमगुणशरणाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिभुवन में उत्तम शक्ती, तीर्थंकर प्रभु में प्रगटी।
मैंने ली है प्रभु शरणा, पूजन से भवदधि तरना।।६९।।
ॐ ह्रीं अर्हं लोकोत्तमवीर्यशरणाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोकोत्तम वीरजगुण है, जिनवर में प्रगट अतुल है।
मैंने ली है प्रभु शरणा, पूजन से भवदधि तरना।।७०।।
ॐ ह्रीं अर्हं लोकोत्तमवीर्यगुणशरणाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब कुश्रुत रहित लोकोत्तम, जिन द्वादशांग श्रुत उत्तम।
मैंने ली है प्रभु शरणा, पूजन से भवदधि तरना।।७१।।
ॐ ह्रीं अर्हं लोकोत्तमद्वादशांगशरणाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब कुमति कुनय से विरहित, मतिज्ञान शरण उत्तम नित।
इससे तीर्थेश हुये हैं, हम पूजत कर्म दहे हैं।।७२।।
ॐ ह्रीं अर्हं लोकोत्तमआभिनिबोधशरणाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोकोत्तम अवधि शरण से, अर्हंत सिद्ध हों प्रगटे।
इनके चरणों की शरणा, पूजत ही पातक हरना।।७३।।
ॐ ह्रीं अर्हं लोकोत्तमअवधिशरणाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मनपर्यय ज्ञान शरण है, लोकोत्तम जिनपद दे है।
तीर्थंकर सिद्ध हुये हैं, हम पूजत सौख्य लिये हेैं।।७४।।
ॐ ह्रीं अर्हं लोकोत्तममन:पर्ययशरणाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आवरणरहित केवल है, जग में सर्वोच्च शरण है।
जिन होकर सिद्ध हुये जो, जो पूजें सौख्य लहें वो।।७५।।
ॐ ह्रीं अर्हं लोकोत्तमकेवलशरणाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुरकृत वैभव अनुपम है, अंतर वैभव निजगुण हैं।
जिन विभव पाय शिव पहुँचे, पूजत ही निजगुण चमकें।।७६।।
ॐ ह्रीं अर्हं लोकोत्तमविभूतिप्रधानाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वर वैभव समवसरण में, जिनधर्म शरण त्रिभुवन में।
तीर्थंकर प्रभु को पूजूूँ, भव भव के दुख से छूटूं।।७७।।
ॐ ह्रीं अर्हं विभूतिधर्मशरणाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आनंत्य चतुष्टय गुण है, सुख दर्श ज्ञान वीरज हैं।
चउघाति नशें गुण प्रगटे, पूजत ही निजगुण प्रगटें।।७८।।
ॐ ह्रीं अर्हं अनंतचतुष्टयाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो गुणअनंत संपन्ना, उसमें गुण चार प्रधाना।
श्री संभवनाथ जजूँ मैं, अगणित गुणरत्न भजॅँॅू मैं।।७९।।
ॐ ह्रीं अर्हं अनंतगुणचतुष्टयाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु गर्भ विषे त्रय ज्ञानी, अर्हंत स्वयंभू नामी।
गुरु बिन ज्ञानी शिवकंता, मैं नमूँ नमूँ भगवंता।।८०।।
ॐ ह्रीं अर्हं त्रिज्ञानस्वयंभुवे श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जन्में दश अतिशय धारी, तीर्थेश वरी शिवनारी।
पूजत अतिशय गुण पाऊँ, सब तन की व्याधि नशाऊँ।।८१।।
ॐ ह्रीं अर्हं दशातिशायिस्वयंभुवे श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दश अतिशय घाती क्षय से, प्रगटें तीर्थंकर जिन के।
अर्हंत बने फिर सिद्धा, पूजत पाऊँ गुण सिद्धा।।८२।।
ॐ ह्रीं अर्हं घातिक्षयदशातिशयाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चौदह अतिशय सुरकृत हैं, अर्हत्प्रभु का वैभव है।
फिर निश्चित सिद्ध बने हैं, हम पूजत कर्म हने हैं।।८३।।
ॐ ह्रीं अर्हं देवकृतचतुर्दशातिशयाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चौंतिस अतिशय जिनवर के, तीर्थंकर वैभव चमके।
फिर सिद्ध बने मुनि वंदें, हम पूजें मन आनंदे।।८४।।
ॐ ह्रीं अर्हं चतुस्त्रिंशत्अतिशयविराजमानाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अर्हंत अनंत गुणों युत, फिर सिद्ध बने यम को हत।
हम पूजें ध्यावें नित ही, पायें जिनगुण की निधि ही।।८५।।
ॐ ह्रीं अर्हं अनंतगुणाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तरगुण लाख चुरासी, सब तप के अंतर्भासी।
संभव जिनवर को वंदूं, निजगुण पाके आनंदूं।।८६।।
ॐ ह्रीं अर्हं तपोऽनंतगुणाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वरध्यान में ध्येय अनंते, कर्मारि हना ध्यायंते।
तीर्थंकर प्रभु का वंदन, करता भव भव का खंडन।।८७।।
ॐ ह्रीं अर्हं ध्यानानंतध्येयाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आत्मा अनंत गुणधारी, वह परमहंस अविकारी।
तीर्थेश गुणों की अर्चा, मेटे भव दुख की चर्चा।।८८।।
ॐ ह्रीं अर्हं अनंतगुणात्मने श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो परम श्रेष्ठ परमात्मा, सौ इंद्र वंद्य सिद्धात्मा।
उनकी पूजा भक्ती से, तर जाते भववारिधि से।।८९।।
ॐ ह्रीं अर्हं परमात्मने श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अर्हत्स्वरूप में गुप्ती, कर देती भव से मुक्ती।
तीर्थेश गुणों की भक्ती, करने से प्रगटे शक्ती।।९०।।
ॐ ह्रीं अर्हं स्वरूपगुप्तये श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—सोरठा—
राग आदि से हीन, साम्यस्वभावी देव हो।
जजूँ भक्ति में लीन, समरस सुख झरना मिले।।९१।।
ॐ ह्रीं अर्हं साम्यस्वभावाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं िनर्वपामीति स्वाहा।
साम्यस्वरूप महान्, समतादिक गुण के निलय।
नमूँ नमूँ गुणखान, साम्यरूप होवे प्रगट।।९२।।
ॐ ह्रीं अर्हं साम्यस्वरूपाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुण अनंत की राशि, परमशुद्ध परमातमा।
नमत मिले सुख राशि, दोष अनंत समाप्त हो।।९३।।
ॐ ह्रीं अर्हं अनंतगुणाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुण अनंत अभिराम, आप रूप हो परिणमे।
शत शत करूँ प्रणाम, मिले नंतगुण संपदा।।९४।।
ॐ ह्रीं अर्हं अनंतगुणस्वरूपाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्म अनंत धरंत, अनेकांत के नाथ हो।
तुम पद भक्ति करंत, समकित निधि अनुपम मिले।।९५।।
ॐ ह्रीं अर्हं अनंतधर्माय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्म अनंत समेत, आप स्वरूप महान् है।
जजूँ स्वात्म पद हेतु, निजस्वरूप विकसित करो।।९६।।
ॐ ह्रीं अर्हं अनंतधर्मस्वरूपाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
राग द्वेष से दूर, शम स्वभाव भगवान् हो।
ज्ञान सुधारस पूर, भर दीजे भक्ती करूँ।।९७।।
ॐ ह्रीं अर्हं शमस्वभावाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शम से तुष्ट महान, सब विभाव से दूर हो।
जजत बनूँ धनवान्, स्वात्म सौख्य भंडार हो।।९८।।
ॐ ह्रीं अर्हं शमतुष्टाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नहिं धन से संतोष, उपशम से ही शांति हो।
मिले स्वात्म संतोष, जजत कषायों को हनूँ।।९९।।
ॐ ह्रीं अर्हं शमसंतोषाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
साम्यभाव स्थान, परमानंद प्रदानकृत्।
सप्तपरमस्थान, संभवप्रभु जजते मिले।।१००।।
ॐ ह्रीं अर्हं साम्यस्थानाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—स्रग्विणी छंद—
कर्म आठोें सभी जीव को दु:ख दें।
मुक्ति साम्राज्य को छीन लीया प्रभो।।
स्वात्म सिद्धी मिले ज्ञानज्योती जगे।
आप को पूजते सर्व व्याधी टले।।१०१।।
ॐ ह्रीं अर्हं कर्र्माष्टकरहिताय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
एक सौ आठ चालीस प्रकृती कही।
आपने नाशके मोक्षलक्ष्मी लिया।।
कर्म से शून्य परमात्मसुख के लिये।
मैं जजूँ आपको लब्धियां नौ मिलें।।१०२।।
ॐ ह्रीं अर्हं शताष्टचत्वारिंशत्कर्मप्रकृतिमुक्ताय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्म के भेद संख्यात हों आठ के।
नाश के आपने सिद्धिकांता वरी।।
स्वात्मसिद्धी मिले ज्ञानज्योती जगे।
आपको पूजते सर्व व्याधी टले।।१०३।।
ॐ ह्रीं अर्हं संख्यातकर्मछेदकाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्म के ही असंख्यात भी भेद हों।
नित्य संसार में ये रुलाते रहें।।
आपने नाश के सिद्धिकन्या वरी।
मैं नमूँ आपको स्वात्मसंपद मिले।।१०४।।
ॐ ह्रीं अर्हं असंख्यातकर्मरहिताय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्म के भेद ये जो अनंते कहे।
सौख्य मेरा अनंता इन्होंने हरा।।
आपने नाश के सिद्धिकांता वरी।
मैं नमूँ आपको स्वात्मसंपद मिले।।१०५।।
ॐ ह्रीं अर्हं अनंतकर्मविमुक्ताय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्म नाशे अनंते अनंते सभी।
आप ही ज्ञान आनन्त्य सिंधू कहे।।
मैं अनंतों गुणों को स्वयं ही वरूँ।
शक्ति ऐसी मिले आपकी भक्ति से।।१०६।।
ॐ ह्रीं अर्हं अनन्तानन्तकर्मरहिताय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नित्य आनंद के हो स्वभावी तुम्हीं।
सौख्य शाश्वत मिले आपकी भक्ति से।।
वर्ण गंधादि से शून्य शुद्धात्मा।
मैं जजूँ आपको आश पूरो प्रभो!।।१०७।।
ॐ ह्रीं अर्हं नित्यानंदस्वभावाय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परम आनंद धर्मा गुणांभोधि हो।
स्वात्मआनंद पाऊँ प्रभो भक्ति से।।
कल्पतरु आपसे याचना मैं करूं।
दीजिये तीन ही रत्न पूजूँ तुम्हेंं।।१०८।।
ॐ ह्रीं अर्हं परमानंदधर्माय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-
(तर्ज—चलो बंधुओं तुम्हें दिखायें…..)
तीर्थंकर की करें वंदना, जो अनंत गुणवान हैं।
जन्म मरण के दु:ख मिटाकर, बने सिद्ध भगवान् हैं।।
वंदे जिनवरं, वंदे जिनवरं, वंदे जिनवरं, वंदे जिनवरं।।
एक शुद्ध निज आत्मा ध्याकर, शुद्ध बुद्ध कृतकृत्य बने।
चतुर्गती का भ्रमण दूर कर, शेष अघाती कर्म हनें।।
ऐसे संभव जिन को पूजूँ, वे ही पूज्य महान् हैं।
जन्म मरण के…….।।वंदे जिनवरं.।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं सम्यक्त्वगुणादिपरमानंदधर्मपर्यंताष्टोत्तरशतगुणसमन्विताय श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१।।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं श्री संभवनाथतीर्थंकराय नम:।
(१०८ या ९ बार मंत्र जपें)
-दोहा-
पूरब भव में आपने, सोलहकारण भाय।
तीर्थंकर पद पाय के, तीर्थ चलाया आय।।१।।
-रोला छंद-
दर्श विशुद्धि प्रधान, नित्यप्रती प्रभु ध्या के।
अष्ट अंग से शुद्ध, दोष पच्चीस हटा के।।
मन वच काय समेत, विनय भावना भायी।
मुक्ति महल का द्वार, भविजन को सुखदायी।।२।।
व्रतशीलों में आप, नहिं अतिचार लगाया।
संतत ज्ञानाभ्यास, करके कर्म खपाया।।
भवतन भोग विरक्त, मन संवेग बढ़ाया।
शक्ती के अनुसार, चउविध दान रचाया।।३।।
बारहविध तपधार, आतम शक्ति बढ़ाई।
धर्मशुक्ल से सिद्ध, साधुसमाधि कराई।।
दशविध मुनि की नित्य, वैयावृत्य किया था।
सर्व शक्ति से पूर्ण, बहु उपकार किया था।।४।।
श्री अर्हंत जिनेन्द्र, भक्ति हृदय में धर के।
सूरि परम परमेश, गुण संस्तवन उचर के।।
उपाध्याय गुरु देव, शिवपथ के उपदेष्टा।
प्रवचन भक्ति समेत, गुणगण भजा हमेशा।।५।।
षट् आवश्यक नित्य, करके दोष नशाया।
हानिरहित परिपूर्ण, निज कर्तव्य निभाया।।
मार्गप्रभावन पाय, धर्म महत्त्व बढ़ाया।
प्रवचन में वात्सल्य, कर निज गुण प्रगटाया।।६।।
सोलहकारण भाय, तीर्थंकर पद पाया।
घातिकर्म को नाश, केवल सूर्य उगाया।।
लोकालोक प्रकाश, सौख्य अतीन्द्रिय पायो।
दिव्यध्वनी से नित्य, धर्म सुतीर्थ चलायो।।७।।
द्वादश सभा समूह, हाथ जोड़कर बैठे।
पीते वचन पियूष, स्वात्म निधी को लेते।।
भव्य अनंतानंत, जग से पार किया है।
सौ इन्द्रोें से वंद्य, निज सुख सार लिया है।।८।।
जय जय संभवनाथ, गणधर गुरु तुम वंदें।
जय जय संभवनाथ, सुरपति गण अभिनंदें।।
जय तीर्थंकर देव, धर्मतीर्थ के कर्ता।
तुम पद पंकज सेव, करते भव्य अनंता।।९।।
चारुषेण गुरुदेव, गणधर प्रमुख कहाये।
सब गणपति गुरुदेव, इक सौ पाँच कहाये।।
सब मुनिवर दो लाख, नग्न दिगम्बर गुरु हैं।
आकिंचन मुनिनाथ, कहें रत्नत्रययुत हैं।।१०।।
धर्मार्या वरनाम, गणिनी प्रमुख कहायीं।
आर्यिकाएँ त्रय लाख, बीस हजार बतायीं।।
श्रावक हैं त्रय लाख, धर्म क्रिया में तत्पर।
श्राविकाएं पण लाख, सम्यग्दर्शन निधिधर।।११।।
संभव जिनके पास त्रिमुख यक्ष नित रहते।
शासन देव प्रसिद्ध धर्म पक्षरत रहते।।
यक्षी हैं प्रज्ञप्ति शासन देवी मानी।
समवसरण में नित्य रहें कहे जिनवाणी।।१२।।
संभवनाथ जिनेन्द्र, समवसरण में राजें।
करें धर्म उपदेश, भविजन कमल विकासें।।
जो जन करते भक्ति, नरक तिर्यग्गति नाशें।
देव आयु को बांध, भवसंतती विनाशें।।१३।।
सोलह शत कर तुंग, प्रभु का तनु स्वर्णिम है।
साठ लाख पूर्वायु, वर्ष प्रमित थिति शुभ है।।
अश्वचिन्ह से नाथ, सभी आपको जानें।
तीर्थंकर जगवंद्य, त्रिभुवन ईश बखाने।।१४।।
भरें सौख्य भंडार, जो जन स्तवन उचरते।
पावें नवनिधि सार, जो प्रभु पूजन करते।।
रोग शोक आतंक, मानस व्याधि नशावें।
पावें परमानंद, जो प्रभु के गुण गावें।।१५।।
नमूँ नमूँ नत शीश, संभवजिन के चरणा।
मिले स्वात्म नवनीत, लिया आपकी शरणा।।
क्षायिकलब्धि महान, पाऊँ भव दु:ख नाशूँ।
‘‘ज्ञानमती’’ वैâवल्य, मिले स्वयं को भासूँ।।१६।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीसंभवनाथतीर्थंकराय जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-गीता छंद-
जो भव्य संभवनाथ की, नित भक्ति से अर्चा करें।
वे भवभ्रमण को दूर कर, सम्यक् गती प्राप्ती करें।।
पंचमगती को प्राप्त कर, लोकाग्र पर निज में रमें।
सज्ज्ञानमति आर्हन्त्य सुख आनन्त्यगुणमय परिणमें।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।