अष्टकर्म को नाशकर, बने सिद्ध भगवान।
उनके चरणों में करूँ, शत-शत बार प्रणाम।।१।।
पुन: सरस्वती मात को, ज्ञानप्राप्ति के हेतु।
नमन करूँ सिर नाय के, श्रद्धा भक्ति समेत।।२।।
अजितनाथ भगवान ने, जीते विषय-कषाय।
उनकी गुणगाथा कहूँ, पद अजेय मिल जाय।।३।।
जीत लिया इन्द्रिय विषयों को, नमन करूँ उन अजितप्रभू को।।१।।
गर्भ में आने के छह महिने, पहले से ही रत्न बरसते।।२।।
श्री-ह्री आदि देवियाँ आतीं, सेवा करतीं जिनमाता की।।३।।
तीर्थ अयोध्या की महारानी, माता विजया धन्य कहाई।।४।।
उनने देखे सोलह सपने, ज्येष्ठ कृष्ण मावस की तिथि में।।५।।
प्रात: पति श्री जितशत्रू से, उन स्वप्नों के फल पूछे थे।।६।।
वे बोले-तुम त्रिभुवनपति की, जननी होकर पूज्य बनोगी।।७।।
माता विजया अति प्रसन्न थीं, जीवन सार्थक समझ रही थीं।।८।।
नौ महिने के बाद भव्यजन! माघ शुक्ल दशमी तिथि उत्तम।।९।।
अजितनाथ तीर्थंकर जन्मे, स्वर्ण सदृश वे चमक रहे थे।।१०।।
प्रभु के लिए वस्त्र-आभूषण, स्वर्ग से ही आते हैं प्रतिदिन।।११।।
भोजन भी स्वर्गों से आता, इन्द्र सदा सेवा में रहता।।१२।।
प्रभु अनेक सुख भोग रहे थे, राज्यकार्य को देख रहे थे।।१३।।
इक दिन उल्कापात देखकर, हो गए वैरागी वे प्रभुवर।।१४।।
वह तिथि माघ शुक्ल नवमी थी, नम: सिद्ध कह दीक्षा ले ली।।१५।।
इक हजार राजा भी संग में, नग्न दिगम्बर मुनी बन गए।।१६।।
वे मुनि घोर तपस्या करते, जंगल-पर्वत-वन-उपवन में।।१७।।
दीक्षा के पश्चात् सुनो तुम, मौन ही रहते तीर्थंकर प्रभु।।१८।।
दिव्यध्वनि में खिरती वाणी, जो जन-जन की है कल्याणी।।१९।।
अजितनाथ तीर्थंकर प्रभु जी, शुद्धात्मा में पूर्ण लीन थे।।२०।।
ध्यान अग्नि के द्वारा तब ही, जला दिया कर्मों को झट ही।।२१।।
पौष शुक्ल ग्यारस तिथि आई, प्रभु ने ज्ञानज्योति प्रगटाई।।२२।।
उस आनन्द का क्या ही कहना, जहाँ नष्ट हैं कर्मघातिया।।२३।।
वे प्रभु अन्तर्यामी बन गए, ज्ञानानन्द स्वभावी हो गए।।२४।।
धर्मामृत वर्षा के द्वारा, प्रभु ने किया जगत उद्धारा।।२५।।
बहुत काल तक समवसरण में, भव्यों को सम्बोधित करते।।२६।।
पुन: चैत्र शुक्ला पंचमि को, प्रभु ने पाया पंचमगति को।।२७।।
पंचकल्याणक के स्वामी वे, पंचभ्रमण से छूट गए अब।।२८।।
हाथी चिन्ह सहित प्रभुवर की, ऊँचाई अठरह सौ करहाथ है।।२९।।
इन प्रभुवर को हम नित वंदें, पाप नष्ट हो जाएँ जिससे।।३०।।
अजितनाथ की टोंक अयोध्या में निर्मित है मंदिर भैया!।।३१।।
उसमें प्रतिमा अति मनहारी, शोभ रही हैं प्यारी-प्यारी।।३२।।
गणिनी ज्ञानमती माता की, प्रबल प्रेरणा प्राप्त हुई है।।३३।।
वर्षों से इच्छा थी उनकी, इच्छा पूरी हुई मात की।।३४।।
अजितनाथ तीर्थंकर प्रभु की, जितनी भक्ति करें कम ही है।।३५।।
हे प्रभु! मुझको ऐसा वर दो, तन में कोई रोग नहीं हो।।३६।।
क्योंकी नीरोगी तन से ही, अधिक साधना हो संयम की।।३७।।
संयम इक अनमोल रतन है, मिलता है बहुतेक जतन से।।३८।।
इससे कभी न डरना तुम भी, इसको धारण करना इक दिन।।३९।।
यही भाव निशदिन करने से, तिरें ‘‘सारिका’’ भवसमुद्र से।।४०।।
जो अजितनाथ तीर्थंकर का, चालीसा चालिस बार पढ़ें।
वे हर कार्यों में सदा-सदा ही, शीघ्र विजयश्री प्राप्त करें।।
चारित्रचन्द्रिका गणिनी ज्ञानमती माता की शिष्या हैं।
प्रज्ञाश्रमणी चन्दनामती माता की मिली प्रेरणा है।।१।।
यद्यपि अति अल्पबुद्धि फिर भी, गुरु आज्ञा शिरोधार्य करके।
लिख दिया समझ में जो आया, विद्वज्जन् त्रुटि सुधार कर लें।।
इस चालीसा को पढ़ने से, इक दिन कर्मों को जीत सकें।
शाश्वत सुख की हो प्राप्ती, भव्यों को ऐसा पुण्य मिले।।२।।