आदिपुराण के आधार से भगवान् ऋषभदेव के दश भवों का यह कथानक यहाँ प्रस्तुत है—
अनादिनिधन जम्बूद्वीप के विदेह क्षेत्र में गंधिल नाम का एक देश है। उस देश की अलकापुरी नगरी में अतिबल नाम के विद्याधर राजा की मनोहरा रानी के पवित्र गर्भ से एक पुत्र का जन्म हुआ, जिसका नाम रखा गया—महाबल।
पुत्र के युवा होने पर राजा अतिबल ने उसे राज्यभार सौंपकर जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली। तब राजा महाबल अपने महामति, संभिन्नमति, शतमति और स्वयंबुद्ध नाम के चार बुद्धिमान मंत्रियों के साथ कुशलतापूर्वक राज्य संचालन करने लगे।
पुनः किसी एक दिन राजसभा में महाबल राजा का जन्मोत्सव चल रहा था, उस समय मंत्री, सेनापति, पुरोहित, सेठ तथा अन्य अधिकारी लोग राजा को घेरकर बैठे हुए थे। नृत्य, गीत, भाषण आदि के विविध आयोजन चल रहे थे जिनके माध्यम से महाबल विषयभोगों के प्रति अति अनुरक्त हो रहा था किन्तु उन सबमें बुद्धिशाली स्वयंबुद्ध मंत्री ने भगवान की भक्ति, सम्यग्दर्शन आदि का उपदेश देकर राजा का चित्त जिनधर्म में अनुरक्त किया।
सुखपूर्वक राज्य करते हुए महाबल ने एक दिन प्रातःकाल स्वयंबुद्ध मंत्री को बताया कि आज रात्रि के पिछले प्रहर में मैंने दो स्वप्न देखे हैं, उनका फल जानने की तीव्र अभिलाषा है। उन्होंने बताया—
हे मंत्रिन्! प्रथम स्वप्न में मैंने देखा है कि ‘‘मेरे तीन मंत्रियों ने मुझे जबर्दस्ती कीचड़ में ढकेल दिया है और तुमने मुझे उस कीचड़ से निकालकर सिंहासन पर बिठा दिया है तथा दूसरे स्वप्न में देखा कि ‘‘अग्नि की एक प्रदीप्त ज्वाला बिजली के समान और प्रतिक्षण क्षीण होती जा रही है।
स्वयंबुद्ध मंत्री ने चारणऋद्धिधारी मुनियों के मुखारविंद से चूँकि पहले ही राजा का भविष्य जान लिया था अतः उसने महाबल से कहा कि ये तीनों मंत्री आपको मिथ्यात्व रूपी कीचड़ में गिराने वाले हैं, हे राजन्! आज जिनेन्द्र भगवान की वाणी पर श्रद्धा करके अपने सम्यक्त्व में दृढ़ रहना, यही आपकी मानव पर्याय का रत्निंसहासन है।
इसी प्रकार दूसरे स्वप्न के फलानुसार आपकी आयु मात्र १ माह की शेष रह गयी है अतः राज्यवैभव को त्यागकर समाधिमरण के द्वारा आप सद्गति को प्राप्त करने का पुरुषार्थ करें। मंत्री ने दोनों स्वप्नों का फल बताकर यह भी कहा कि हे विद्याधिपति राजन्! अवधिज्ञानी मुनि से मुझे ज्ञात हुआ है कि आज से ९ भव पश्चात् दशवें भव में आप भरतक्षेत्र के प्रथम तीर्थंकर बनने वाले हैं।
यह सब वृत्तान्त सुनकर राजा महाबल ने महल के जिनमन्दिर में आष्टान्हिक महापूजा की, पुनः अपने पुत्र अतिबल का राज्याभिषेक करके स्वयं महाबल मुनिराज के पास जाकर सन्यास धारण कर लिया।
पुनः राजा महाबल ने जीवन के अन्त समय में स्वयंबुद्ध मंत्री के सारर्गिभत उद्बोधन से सल्लेखना ग्रहण कर ली और समाधिपूर्वक मरण करके ऐशान स्वर्ग में ललितांग देव का पद प्राप्त किया।
वहाँ ललितांग देव ने अवधिज्ञान से अपने स्वयंबुद्ध आदि मंत्रियों के क्रियाकलाप जान लिए और सम्यक्त्व के प्रभाव से अपना जन्म समझकर वह पुनः अकृत्रिम चैत्यालयों के दर्शन, वंदन रूप धर्मध्यान में ही अनुरक्त रहने लगा।
स्वर्ग की ४ हजार देवियों के साथ रमण करने का उसे पुण्य प्राप्त हुआ था, उनमें ४ महादेवियाँ प्रमुख थीं—स्वयंप्रभा, कनकप्रभा, कनकलता, विद्युल्लता।
इनमें भी स्वयंप्रभा रानी के प्रति उसका अत्यन्त प्रेम था, उसके साथ वह अनेक स्थलों पर जाकर शारीरिक, मानसिक सुखों का उपभोग करते हुए देवपर्याय को व्यतीत कर रहा था।
देवायु समाप्त होने के छह माह पूर्व ललितांग देव के गले में पड़ी मन्दारमाला मुरझाने लगी, शरीर की कान्ति मन्द पड़ने लगी तो ललितांग देव बड़ा दुःखी हुआ। यह देखकर अन्य देवों ने उसे सम्बोधन देकर कहा—
हे आर्य! जिस प्रकर उदित हुए सूर्य का अस्त होना निश्चित है उसी प्रकार स्वर्ग में प्राप्त हुए जीवों के अभ्युदयों का पतन होना भी निश्चित है इसीलिए मरण का शोक छोड़कर धर्म की शरण प्राप्त करें वही उत्तम गति प्राप्त कराने वाला है।
इस सम्बोधन से ललितांग देव ने धैर्य धारण करके धर्म में बुद्धि लगाई और १५ दिन तक समस्त लोक के चैत्यालयों की खूब पूजा की पुनः अच्युत स्वर्ग में चैत्यवृक्ष के नीचे बैठकर समाधिमरणपूर्वक शरीर का त्याग किया और विदेह क्षेत्र में पुष्कलावती देश की उल्पलखेट नामक नगरी में राजा वङ्काबाहु की रानी वसुन्धरा से वङ्काजंघ नाम का पुत्ररत्न उत्पन्न हुआ।
उधर ललितांग देव की स्वयंप्रभा वल्लभा भी छह महीने तक जिनपूजा करके समाधिमरण के प्रभाव से विदेहक्षेत्र की पुण्डरीकिणी नगरी के स्वामी वङ्कादन्त महाराज की रानी लक्ष्मीमती के गर्भ में आ गई। पुनः ९ महीने पश्चात् श्रीमती कन्या के रूप में जन्म लिया।
दूज के चाँद सदृश शोभा एवं वृद्धि को प्राप्त होती हुई राजकुमारी श्रीमती ने युवावस्था में प्रवेश कर लिया था अतः उसके अंग—प्रत्यंग से सुन्दरता का मानो झरना झर रहा था।
एक दिन वह राजमहल में सो रही थी कि उसी नगर के मनोहर नामक उद्यान में यशोधर मुनिराज को केवलज्ञान उत्पन्न हो जाने से दुन्दुभी बाजे बजाते हुए देव तथा इन्द्रों का वहां आगमन हुआ। उनके भक्तिपूर्ण कोलाहल को सुनकर श्रीमती की नींद खुली तो उसे पूर्व जन्म का स्मरण हो आया और वह स्वर्ग के ललितांग देव को याद करती हुई मूर्च्छित हो गई।
शीतोपचार किए जाने पर जब वह होश में आयी तो माता-पिता ने उससे सारा वृत्तान्त जानने का प्रयत्न किया किन्तु लज्जावश उसने कुछ भी न बताकर चुपचाप पण्डिता नामक धाय की गोद में मुँह छिपा लिया, पुनः राजा वङ्कादन्त को एक साथ समाचार मिले—तुम्हारे पिता यशोधर को केवलज्ञान प्राप्त हुआ है तथा आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ है।
इनमें से प्रथम तो वङ्कादन्त राजा अपनी रानी श्रीमती एवं समस्त परिकर के साथ समवसरण की पूजा करने गए, वहाँ जगद्गुरू यशोधर महामुनि के चरणों में नमस्कार करते ही उन्हें अवधिज्ञान प्रगट हो गया जिससे उन्होंने जान लिया कि पूर्व भव में मैं अच्युत स्वर्ग का इन्द्र था और मेरी पुत्री श्रीमती ललितांग देव की स्वयंप्रभा प्रिया थी। इससे वे समझ गए कि श्रीमती को पूर्व भव का स्मरण होने से ही वह खेदखिन्न हुई है और ललितांग को प्राप्त करने हेतु उसका हृदय व्याकुल है।
पुत्री को सांत्वना देकर वङ्कादन्त महाराज चक्ररत्न को लेकर षट्खण्ड विजय के लिए निकल पड़े। इधर पण्डिता धाय ने राजकुमारी का सम्पूर्ण अभिप्राय जानकर ललितांग देव, जो इस भव में वङ्कादन्त की बहन वसुन्धरा का वङ्काजंघ नामक पुत्र हुआ था। उसके पास जाकर पूर्व भव एवं इस भव सम्बन्धी चित्र को दिखाया जिससे वङ्काजंघ भी एकदम मूर्च्छित हो गया। पूर्वभव सम्बन्धी जातिस्मरण हो जाने से युवराज वङ्काजंघ स्वयंप्रभा को पाने हेतु आकुलित हो उठा।
राजा वङ्कादन्त जब चक्रवर्ती बनकर अपने राजभवन में आए तब शीघ्र ही उन्होंने अपने बहन-बहनोई वङ्काबाहु एवं वसुन्धरा को बुलाकर कल्पद्रुम नामक महापूजा की तथा उनके साथ पधारे पुत्र वङ्काजंघ का श्रीमती कन्या के साथ विवाह कर दिया। तब वङ्काजंघ और श्रीमती दाम्पत्य सुखों का उपभोग करते हुए चिरकाल तक वङ्कादन्त के यहाँ रहे। पुनः अपने उत्पलखेट नगर में चले गए। वहाँ क्रम से इन्होंने अट्ठानबे पुत्रों को जन्म देकर दाम्पत्य जीवन सफल किया
एक बार राजा वङ्काबाहु महल की छत पर बादलों की क्षणभंगुरता देखकर वैराग्य भाव को प्राप्त हो गए और पुत्र वङ्काजंघ को राज्यभार सौंपकर स्वयं जिनदीक्षा ले ली तब उन अट्ठानबे पुत्रों ने भी बाबा के साथ दीक्षा ले ली। राजा वङ्काजंघ ने अपनी रानी श्रीमती के साथ एक बार वन में श्रीदमधर और सागरसेन नामक चारणऋद्धिधारी मुनियों को आहारदान दिया। पुनः एक दिन वे दोनों शयनकक्ष में सो रहे थे, वहाँ सुगन्धित धूप किए जाने के बाद नौकर दरवाजा खोलना भूल गए थे इसीलिए दम घुट जाने से दोनों मर गए और आहारदान के प्रभाव से उत्तम भोगभूमि में आर्य-आर्या के रूप में उत्पन्न हो गये।
उस भोगभूमि में मद्यांग, वादित्रांग, भूषणांग, मालांग, दीपांग, ज्योतिरंग, गृहांग, भोजनांग और वस्त्रांग नाम के दश प्रकार के कल्पवृक्ष होते हैं जिनसे वहाँ के स्त्री-पुरुष दिव्य सुखों का उपभोग करते हैं। माता के गर्भ से एक साथ बालक-बालिका का युगल (जोड़ा) उत्पन्न होता है उनके उत्पन्न होते ही माता-पिता की छींक और जंभाई आकर मृत्यु हो जाती है। पुनः ४९ दिनों में ही वे बालक-बालिका युवावस्था को प्राप्त होकर पति-पत्नी के रूप में जीवन व्यतीत करने लगते हैं। वहाँ जीवन में एक बार ही माता गर्भ धारण करती है, कई बार नहीं।
आर्य वङ्काजंघ और श्रीमती आर्या वहाँ दाम्पत्य सुखों का उपभोग करते हुए एक दिन कल्पवृक्षों की शोभा निहार रहे थे तभी आकाश में देवविमान जाते देखकर उन दोनों को पूर्वभव का जातिस्मरण हो गया। उसी समय स्वयंबुद्ध मंत्री का जीव जो मरकर सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ था, पुनः विदेहक्षेत्र में मनुष्य पर्याय पाकर प्रीतिंकर मुनि बन गये थे। उन्होंने अपने छोटे भाई मुनि प्रीतिदेव के साथ चारणऋद्धि के बल से भोगभूमि में पहुँचकर उन आर्य-आर्या को सम्बोधन प्रदान किया कि हे आर्य ! तुम लोगों ने बिना सम्यग्दर्शन के पूर्व भव में आहारदान दिया था जिससे भोगभूमि में आए हो, पुनः सम्यक्त्व की महिमा बताकर उन्हें सम्यग्दर्शन ग्रहण कराया। जिसके प्रभाव से आर्य वङ्काजंघ एवं आर्या श्रीमती ने भगवान जिनेन्द्र की भक्ति करते-करते तीन पल्य की आयु भोगने के पश्चात् जीवन के अन्त में समाधिमरणपूर्वक ईशान स्वर्ग में श्रीधर एवं स्वयंप्रभ नामक देवपद को प्राप्त कर लिया।
एक दिन ईशान स्वर्ग में श्रीधर देव ने अवधिज्ञान से जान लिया कि हमारे गुरु प्रीन्तिकर मुनिराज को केवलज्ञान उत्पन्न हो गया है। तब वे शीघ्र ही उनकी पूजा करने तथा दिव्यध्वनि सुनने पहुँच गए। वहाँ जाकर उन्होंने केवली भगवान से पूछा कि—
भगवन्! जब मैं राजा महाबल था, आप स्वयंबुद्ध मंत्री थे, तब मेरे शतमति, महामति और संभिन्नमति नाम के अन्य तीन मंत्री भी थे उनका क्या हुआ ? वे आज किस गति में हैं ? तब प्रीन्तिकर केवली की दिव्यध्वनि खिरी—
हे देव! उनमें से संभिन्नमति और महामति ये मंत्री तो मिथ्यात्व के प्रभाव से निगोद चले गए हैं एवं शतमति मंत्री नरक में दुःख उठा रहा है।
यह सुनकर श्रीधरदेव ने नरक में जाकर शतमति के जीव को सम्बोधन देकर सम्यक्त्व ग्रहण कराया जिसके प्रभाव से वह नारकी विदेहक्षेत्र के एक राजघराने में राजपुत्र हो गया। युवावस्था में उसके विवाह के समय श्रीधरदेव ने उसे पुनः सम्बोधित किया तो उसने जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर आगे देवगति को प्राप्त कर लिया और श्रीधर देव भी सम्यक्त्व के प्रभाव से मनुष्यगति में उत्पन्न हुए।
पुनः श्रीधरदेव भी स्वर्ग से निकलकर विदेहक्षेत्र की सुसीमा नगरी में राजा सुदृष्टि की रानी सुन्दरनन्दा के गर्भ से सुविधि नामक पुत्र हुआ। युवावस्था में सुविधि का अभयघोष चक्रवर्ती की पुत्री मनोरमा के साथ विवाह हो गया तब श्रीमती का जीव जो पूर्व भव में स्वयंप्रभ देव था वह वहाँ से च्युत होकर रानी मनोरमा के गर्भ में आ गया और वह ९ महीने पश्चात् राजा सुविधि का केशव नामक पुत्र हुआ।
पूर्व जन्म के संस्कारवश सुविधि राजा का अपने पुत्र केशव पर अतीव प्रेम था जिससे कालान्तर में चक्रवर्ती सहित अनेक राजाओं के दीक्षा ले लेने पर भी सुविधि दीक्षा न ले सके और घर में ही वे श्रावक के उत्कृष्ट व्रतों का पालन करते रहे। पुनः जीवन के अन्त में दीक्षा लेकर समाधिमरण करके अच्युत स्वर्ग में इन्द्र का पद प्राप्त किया। कालान्तर में केशव ने भी शुभ भावों से मरण कर अच्युत स्वर्ग में ही प्रतीन्द्र के रूप में जन्म धारण कर लिया।
स्वर्ग में वह अच्युतेन्द्र बीस सागर तक दिव्य सुखों का उपभोग करता रहा। वहाँ उसकी आठ महादेवियाँ तथा हजारों देवियाँ स्पर्श मात्र से उसे कामसुख का अनुभव कराती थीं। इस प्रकार अकृत्रिम चैत्यालयों की वन्दना तथा अनेक वन-उपवनों में अप्सराओं सहित क्रीड़ा करते हुए अच्युतेन्द्र की आयु का समापन काल आ गया।
पंचपरमेष्ठी की आराधना करते हुए सम्यक्त्व सहित अच्युत इन्द्र ने अपने शरीर का त्याग किया जिससे जम्बूद्वीप के ही पूर्व विदेह की पुण्डरीकिणी नगरी में राजा वङ्कासेन और रानी श्रीकान्ता के वङ्कानाभि नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ।
राजा वङ्काजंघ के साथ पूर्व जन्मों से सम्बन्ध चले आ रहे श्रीमती के जीव ने भी इस भव में उसी पुण्डरीकिणी नगरी में एक वैश्य दम्पत्ति के यहाँ जन्म धारण कर धनदेव नाम प्राप्त किया।
कुछ समय पश्चात् वङ्कानाभि के पिता महाराज उग्रसेन संसार से विरक्त हो गए और उन्होंने पुत्र वङ्कानाभि का राज्याभिषेक कर जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली। एक बार राजा वङ्कानाभि की आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ तथा धनदेव उनके चौदह रत्नों में से गृहपति नाम का रत्न नियुक्त किया गया। चक्ररत्न के द्वारा छह खण्ड पर विजय प्राप्त करके वङ्कानाभि चक्रवर्ती सम्राट बन गए, पुनः चिरकाल तक राजसुखों को भोगने के पश्चात् एक दिन उन्होंने समस्त वैभव का त्याग कर अपने पुत्र वङ्कादन्त को राज्य सौंपकर पिता के श्रीचरणों में जाकर अनेक राजाओं, पुत्रों, भाइयों तथा गृहपति धनदेव के साथ जिनदीक्षा धारण कर ली। वङ्कानाभि चक्रवर्ती के त्याग का वर्णन वैराग्य भावना में भी आया है—
छोड़े चौदह रत्न नवोनिधि, अरु छोड़े संग साथी।
कोटि अठारह घोड़े छोड़े चौरासी लख हाथी।।
इत्यादिक सम्पति बहुतेरी, जीरण तृण सम त्यागी।
नीति विचार नियोगी सुत को, राज दियो बड़भागी।।
महामुनि वङ्कानाभि ने केवली वङ्कासेन तीर्थंकर के निकट सोलहकारण भावनाओं को भाकर तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध कर लिया। अनन्तर घोरातिघोर तपश्चरण करते हुए आयु के अन्त में उपशमश्रेणी में पहुँचकर ग्यारहवें उपशान्तमोह गुणस्थान में मरण करके सर्वार्थसिद्धि विमान में अहमिन्द्र पद को प्राप्त किया।
एक भव मनुष्य का प्राप्त कर नियम से मोक्ष जाने वाले परमपुण्यशाली जीव ही सर्वार्थसिद्धि नामक अन्तिम अनुत्तर विमान में अहमिन्द्र का जन्म धारण करते हैं। राजा वङ्कानाभि का भी संसार अब बिल्कुल समाप्त होने वाला था, इसीलिए यहाँ अहमिन्द्र पद को प्राप्त कर वे अद्भुत स्र्विगक सुख का उपभोग करने लगे।
अणिमा, महिमा आदि गुणों से प्रशंसनीय वैक्रियक शरीर को धारण करने वाला वह अहमिन्द्र जिनेन्द्रदेव के अकृत्रिम चैत्यालयों की पूजा करता हुआ सातिशय पुण्य संचय करता था। वङ्कानाभि के विजय, वैजयन्त, अपराजित, बाहु, सुबाहु, पीठ और महापीठ नाम के सातों भाई तथा गृहपति धनदेव आदि आठों जीवों ने भी अपने पुण्यप्रभाव से उसी सर्वार्थसिद्धि विमान में अहमिन्द्र पद प्राप्त कर लिया। वे सभी वहाँ मोक्षतुल्य सुख का अनुभव करते हुए तेतीस सागर तक तत्त्वचर्चा में निमग्न रहे, पुनः आयु की पूर्णता पर जब वङ्कानाभि का जीव अहमिन्द्र मध्यलोक में जन्म लेने के सन्मुख हुआ तो वहाँ सुभिक्षता का वातावरण फैल गया।
इस धरती पर चौदहवें कुलकर नाभिराय हुए जिनका मरुदेवी नामक कन्या के साथ इन्द्र ने विवाह किया, तब से ही विवाह की परम्परा प्रारम्भ हुई। पुनः सर्वार्थसिद्धि से अहमिन्द्र का जीव तीर्थंकर रूप में जब मरुदेवी के पवित्र गर्भ में आषाढ़ कृष्णा द्वितीया के दिन पधारा तब इन्द्र ने अयोध्या नगरी में आकर गर्भकल्याणक महोत्सव मनाया तथा उसके ६ मास पूर्व से ही धनकुबेर ने माता के आँगन में रत्नवृष्टि प्रारम्भ कर दी, जो निरन्तर १५ मास तक चलती रही।
पुनः चैत्र कृष्ण नवमी को ऋषभदेव का जन्मकल्याणक मनाया गया। उन्होंने क्रमशः युवावस्था को प्राप्त कर प्रजा को कर्मभूमि के प्रारम्भ में जीवन जीने की कला सिखाई। आगे विवाह, सन्तानोत्पत्ति, राज्यसंचालन आदि के पश्चात् चैत्र कृष्णा नवमी को ही उन्होंने प्रयाग में वटवृक्ष के नीचे जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली। एक हजार वर्ष तक तपस्या करके फाल्गुन वदी एकादशी को पुरिमतालपुर के उद्यान में भगवान् ऋषभदेव को केवलज्ञान प्राप्त हो गया, पुनः चिरकाल तक समवसरण में भव्यों को दिव्यध्वनि के द्वारा उपदेश देने के पश्चात् कैलाशपर्वत पर योग निरोध किया और समस्त कर्मों का नाशकर माघ कृष्णा चतुर्दशी को निर्वाणधाम प्राप्त कर लिया। उन पंचकल्याणक को प्राप्त प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव के चरणों में शत-शत नमन।