वीतराग-सर्वज्ञ अरु, हित उपदेशी जान।
वे ही सच्चे देव हैं, उनको करूँ प्रणाम।।१।।
पूर्वापर दोषों रहित, सच्चा आगम शास्त्र।
ज्ञान प्राप्ति के हेतु ही, नमूँ नमाकर माथ।।२।।
वृषभसेन को आदि ले, श्री गौतमपर्यन्त।
सब ही गणधर गुरु नमूँ, होवे भव दु:ख अंत।।३।।
जय जय चन्द्रप्रभू जिनराजा, चन्द्रपुरी के तुम अधिराजा।।१।।
फिर भी त्रिभुवनपति कहलाते, देवों द्वारा पूज्य कहाते।।२।।
चन्द्र किरण सम जगमग-जगमग, रूप तुम्हारा अतिशय सुन्दर।।३।।
पंचकल्याणक के तुम स्वामी, तुम हो अद्भुत महिमाशाली।।४।।
एक दिवस सुरपति शचि के संग, बैठे थे निज सिंहासन पर।।५।।
स्वर्ग सुखों में वे निमग्न थे, नृत्य अप्सरा देख रहे थे।।६।।
तभी कंपा सिंहासन उनका, अवधिज्ञान लगाया अपना।।७।।
समझ गए काशी नगरी में, चन्द्रप्रभू अवतरित होएंगे।।८।।
वहीं से सात पैंड आगे बढ़, नमन किया प्रभु को परोक्ष में।।९।।
शचि ने पूछा नाथ! आपने, नमस्कार कर लिया है किनको।।१०।।
यहँ तो कोई मंदिर निंह है, कोई जिनप्रतिमा भी नहिं है।।११।।
सुरपति बोले देवी! सुन लो, चलने की तैयारी कर लो।।१२।।
अब हम मध्यलोक जाएंगे, धनपति को भी ले जाएंगे।।१३।।
वहाँ चन्द्रपुरि नगरी में हम, प्रभु का गर्भकल्याणक उत्सव।।१४।।
खूब मनाएंगे मिल करके, नृत्य-गान-संगीतध्वनी से।।१५।।
चैत्र कृष्ण पंचमि तिथि के दिन, पहुँच गए सुरपति परिकर सह।।१६।।
नगरी की त्रय प्रदक्षिणा कर, मात-पिता को भी वन्दन कर।।१७।।
गर्भकल्याण महोत्सव कीना, पुण्यबंध सबने कर लीना।।१८।।
मात सुलक्ष्मणा के आंगन में, पन्द्रह मास रतन बरसे थे।।१९।।
पौष कृष्ण एकादशि के दिन, जन्म लिया चन्द्रप्रभु जी ने।।२०।।
महासेन पितु ने प्रसन्न हो, दान किमिच्छक बाँटा सबको।।२१।।
चन्द्रप्रभू जी युवा हुए जब, उनका राजतिलक किया पितु ने।।२२।।
एक बार श्री चन्द्रप्रभू जी, दर्पण में मुख देख रहे थे।।२३।।
तभी उन्हें वैराग्य हो गया, सिद्धिप्रिया से राग हो गया।।२४।।
पौष वदी ग्यारस को प्रभु ने, केशलोंच कर दीक्षा ले ली।।२५।।
प्रथम पारणा नलिन नगर में, सोमदत्त राजा के महल में।।२६।।
दो महिने के बाद ही भव्यों! नागवृक्ष के नीचे प्रभु को।।२७।।
केवलज्ञान प्रगट होता है, धनपति समवसरण रचता है।।२८।।
फाल्गुन कृष्ण सप्तमी के दिन, खिरी प्रभू की प्रथम दिव्यध्वनि।।२९।।
करके धर्मवृष्टि प्रभुवर ने, आर्यखण्ड के सब देशों में।।३०।।
पुन: गए सम्मेदशिखर जी, वहाँ बने वे सिद्धप्रभू जी।।३१।।
फाल्गुन शुक्ला सप्तमि शुभ दिन, ललित कूट से मोक्ष गए प्रभु।।३२।।
कीर्ति आपकी चन्द्रकिरण सम, वर्ण आपका धवल चन्द्र सम।।३३।।
आयु आपकी दशलख पूरब, तन की ऊँचाई छह सौ करहाथ।।३४।।
चिन्ह आपका अर्धचन्द्रमा, मुखमंडल पर तेज सूर्य सा।।३५।।
आप ह्रीं प्रतिमा में प्रभुवर, सदा विराजें अर्धचन्द्र पर।।३६।।
अर्धचन्द्र सम सिद्धशिला पर, शाश्वत काल रहेंगे प्रभुवर।।३७।।
रहते आप जहाँ प्रभु जी हैं, वहाँ अनन्ते सुख मिलते हैं।।३८।।
ऐसा हमने सुना है प्रभु जी, इसीलिए यह इच्छा हो गई।।३९।।
एक बार वह स्थल हम भी, देख सकें ‘सारिका’’ कभी भी।।४०।।
श्री चन्द्रप्रभ का चालीसा, चालिस दिन चालिस बार पढ़ो।
हो सकता है तुम चतुर्गती के, परिभ्रमण से छूट सको।।
इक दिन चन्द्रप्रभ के समान ही, पंचमगति पा जाओगे।
तभी समझ लो तुम अपना, जीवन सार्थक कर पाओगे।।१।।
बीसवीं सदी की प्रथम राष्ट्र-गौरव हैं ज्ञानमती माता।
शिष्या उनकी है ज्ञानपुंज-चन्दनामती जी विख्याता।।
उनकी ही पुण्य प्रेरणा मेरे लिए सुखद वरदान बनी।
इसलिए लिखा मैंने इसको, पढ़कर पाओ तुम सौख्य घनी।।२।।