तीर्थंकर नमिनाथ हैं, इक्किसवें तीर्थेश।
इनके चरणों में नमूँ, श्रद्धा-भक्ति समेत।।१।।
पूर्वाचार्यों को नमूँ, जिनका ज्ञान अपूर्व।
इनको नमने से मेरा, हो श्रुतज्ञान प्रपूर्ण।।२।।
हे माता! कमलासिनी, हंसवाहिनी मात!।
कृपा रखो मुझ पर सदा, है मुझमें अज्ञान।।३।।
श्री नमिनाथ जिनेश का, यह चालीसा पाठ।
पूरो होगा शीघ्र ही, पा तुम कृपाप्रसाद।।४।।
नमि जिनवर हैं दया के सागर, दर्शन से हो ज्ञान उजागर।।१।।
इन प्रभु की महिमा अति न्यारी, दर्शन से नशते अघ भारी।।२।।
प्रभु तुम तीनलोक के स्वामी, कहलाते हो अन्तर्यामी।।३।।
फिर भी तुममें मान नहीं है, पदवी का अभिमान नहीं है।।४।।
इसीलिए तुम सम्मुख आके, भक्त विनयशाली हो जाते।।५।।
प्रभु जन्मे मिथिलानगरी में, हर्ष हुआ था तीन भुवन में।।६।।
विजय पिता अरु मात वप्पिला, उनको अतुलित पुण्य मिला था।।७।।
आश्विन बदी दूज तिथि प्यारी, हुआ गर्भ उत्सव था भारी।।८।।
श्री-ह्री-धृति आदिक छह देवी, सेवा करतीं जिनमाता की।।९।।
तिथि आषाढ़ बदी दशमी को, तीन ज्ञानधारी प्रभु जन्मे।।१०।।
जन्म महोत्सव इन्द्रगणों ने, किया बहुत भक्तिभाव से।।११।।
समयचक्र चल रहा गती से, प्रभु जी अब महाराजा बन गए।।१२।।
इक दिन प्रभुवर वर्षाऋतु में, गजारूढ़ हुए वन-विहार को।।१३।।
तभी वहाँ आकाशमार्ग से, आ स्तुति की दो देवों ने।।१४।।
भक्तिविनय से नमन किया फिर, कहने लगे प्रभू से वे सुर।।१५।।
नाथ! कहाँ से हम क्यों आए? थोड़े शब्दों में बतलाएँ।।१६।।
जम्बुद्वीप के पूर्वविदेह में, एक वत्सकावती नगर है।।१७।।
उसी देश में एक नगरिया, नाम सुसीमा उस नगरी का।।१८।।
वहँ पर अपराजित नामक इक, तीर्थंकर का समवसरण है।।१९।।
हम उनकी ही पूजा करने, पहुँचे थे वहाँ स्वर्गलोक से।।२०।।
तभी वहाँ पर इक श्रावक ने, प्रभु से पूछा प्रश्न सभा में।।२१।।
वर्तमान में क्या कोई इस, भरतक्षेत्र में तीर्थंकर हैं।।२२।।
खिरी थी तब दिव्यध्वनि प्रभु की, जिसमें उत्तर मिला यही है।।२३।।
मिथिलानगरी के राजा श्री-नमीनाथ होंगे तीर्थंकर।।२४।।
अभी वो राज्य अवस्था में हैं, सुख-वैभव में पूर्ण मगन हैं।।२५।।
देवों की सब बातें सुनकर, प्रभु जी आए नगर में वापस।।२६।।
पुन: उन्हें निज पूर्व भवों की, सब बातें स्मरण हो गई।।२७।।
वे संसार-शरीर-भोग से, हो गए निस्पृह पूर्ण रूप से।।२८।।
ब्रह्मस्वर्ग से देवों ने आ, प्रभु विराग की करी प्रशंसा।।२९।।
उत्तरकुरु नामक पालकि से, पहुँचे प्रभु जी चैत्र विपिनवन का नाम में।।३०।।
वहाँ आषाढ़ बदी दशमी के, दीक्षा ली अश्विनी नखत में।।३१।।
नगर वीरपुर के अधिराजा, दत्त के घर में प्रथम पारणा।।३२।।
पुन: वर्ष नौ बीत गए जब, केवलज्ञान हुआ प्रभु को तब।।३३।।
मगसिर शुक्ला एकादशि को, लोक-अलोक प्रकाशा प्रभु ने।।३४।।
दस हजार वर्षायु आपकी, पन्द्रह धनुष थी तन ऊँचाई।।३५।।
नील कमल था चिन्ह आपका, देहवर्ण तो स्वर्ण सदृश था।।३६।।
अन्त में प्रभु सम्मेदशिखर से, सिद्धिधाम को प्राप्त हो गए।।३७।।
ऐसे वे नमिनाथ प्रभू जी, देवें सच्चा ज्ञान सभी को।।३८।।
क्योंकी जिसके पास जो होता, वही दूसरों को दे सकता।।३९।।
प्रभु के पास अनन्तज्ञान है, वही ‘‘सारिका’’ की डिमाण्ड है।।४०।।
श्री नमिनाथ जिनेश का, यह चालीसा पाठ।
पढ़ने वालों को मिले, दिव्यज्ञान का लाभ।।१।।
चालिस दिन तक जो पढ़े, चालिस-चालिस बार।
उनके जीवन में रहे, खुशियों की भरमार।।२।।
गणिनी माता ज्ञानमती, इस युग में विख्यात।
उनकी शिष्याप्रज्ञाश्रमणी आर्यिकाश्री चंदनामती माता
जीपी.एच.डी. मानद पदवी प्राप्त।।३।।
उन ही छोटी मात की, हुई प्रेरणा प्राप्त।
तभी लिखा इस पाठ को, पढ़ो मिले सुख-शान्ति।।४।।