भारत भूमि ऋषि, मुनियों, आर्यिकाओं की भूमि है इसीलिये अनादिकाल से यहाँ जन-जन मंगलकारी अरिहंत, सिद्ध एवं साधुओं की लीला-स्थली के पुनीत धर्मतीर्थों के दर्शन एवं वंदन से संसार ताप-पीड़ित मानव मन आत्म अनुभूति की ओर अग्रसर होने लगता है, पुण्य की प्राप्ति होती है, पाप धुल जाते हैं और संसारी प्राणी उनसे प्रेरणा पाकर संसार सागर से तिरने का प्रयत्न करते रहते हैं। विगत ईसवी सन् २००५ में परम पूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिकारत्न १०५ श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से जैनधर्म के तेईसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ के तृतीय सहस्राब्दि महोत्सव का उद्घाटन भगवान की जन्मभूमि वाराणसी में पूज्य माताजी के संघ सानिध्य में धर्मप्रभावनापूर्वक मनाया गया, पुन: ‘‘सम्मेदशिखर वर्ष’’ भी मनाया गया क्योंकि सम्मेद शिखर जी भगवान की निर्वाण भूमि है इसीलिए देश भर में पूरे वर्ष उन्हीं से संबंधित कार्यक्रम चलते रहे, हमने भी मंदिरों में करवाकर पुण्य अर्जित किया, जिसमें श्री लालमंदिर जी में पार्श्वनाथ विधान व पंचायती मंदिर जी में श्री सम्मेद शिखर जी की चाँदी की भव्य फोटो के सम्मुख भगवान पार्श्वनाथ जी वेदी में विराजमान करके १०८ लाडू चढ़ाकर मोक्ष कल्याणक मनाया। २६ महिलाओं को ‘‘ वामा देवी सम्मान’’ से विभूषित किया। वैसे तो पूरे भारत में ही भगवान पार्श्वनाथ को बड़ी भावना के साथ विभिन्न नामों से जाना जाता है जैसे—अणिन्दा पार्श्वनाथ , साँवलिया पार्श्वनाथ , मक्सी पार्श्वनाथ , सहस्रफणी पार्श्वनाथ , चिंतामणी पार्श्वनाथ , कलिकुण्ड पार्श्वनाथ आदि। फिर भी मैं महाराष्ट्र के कुछ मुख्य पार्श्वनाथ अतिशय क्षेत्र के बारे में ‘‘तृतीय सहस्राब्दि महोत्सव’’ के समापन पर छपने वाले ऐतिहासिक ग्रंथ में प्रकाश डालना चाहती हूँ।
१. अंतरिक्ष पार्श्वनाथ
यह क्षेत्र अकोला क्षेत्र में है, मुम्बई-नागपुर रेलमार्ग पर अकोला से ७० कि.मी. दूर है। ग्राम के मध्य में ‘‘ अंतरिक्ष पार्श्वनाथ ’’ अतिशय क्षेत्र है। ऐसा माना जाता है कि चोलवंशी नरेश श्रीपाल जी ने मंदिर का निर्माण कराया था, भगवान रामचंद्र जी के समय में भी यह क्षेत्र था, यहाँ भट्टारको की गद्दियाँ हैं। यह क्षेत्र इसलिये भी प्रसिद्ध हुआ क्योंकि श्रीपाल जी का कुष्ट रोग यहाँ पर ही दूर हुआ था। प्रतिमा अंतरिक्ष में थी जिसके नीचे से एक घुड़सवार निकल जाता था। मुगल काल में मूर्ति को भूगर्भगृह में विराजमान कर दिया, वर्तमान में भी इस प्रतिमा के नीचे से कागज निकाला जा सकता है। मंदिर के शिखर की र्इंटेें पानी में तैरती हैंंं। इस अष्टकोणीय मंदिर की शिल्प रचना आकर्षक है।
२. कलिकुण्ड पार्श्वनाथ
यह क्षेत्र साँगली जिले में पूना-सतारा-मिरज लाइन पर किरलोस्करवाडी से ४ कि.मी. तथा सांगली से सड़क मार्ग द्वारा ५१ कि.मी. दूर है। प्राचीन काल में इस नगर का नाम कोडिन्यपुर था, बाद में यह कुण्डल हो गया, नगर में कलिकुण्ड पार्श्वनाथ जिनालय है। कहते हैं इस नगर में सत्येश्वर नाम का राजा राज्य करता था जो बहुत बीमार हो गया, बहुत उपचार किया मगर सब बेकार यहाँ तक कि वह मरणासन्न स्थिति तक पहुँच गया। इसकी रानी पद्मश्री ने पार्श्वनाथ भगवान की मूर्ति निर्मित करवाई और बड़े भक्ति भाव से तन्मय हो पूजा करने लगी, धीरे-धीरे राजा स्वस्थ हो गया। इससे राजा-प्रजा इस मूर्ति के भक्त बन गए और यह मूर्ति अतिशय सम्पन्न मानी जाने लगी। कुण्डल गाँव के २ कि.मी. दूरी पर पहाड़ी पर नैसर्गिक गुफा के ऊपर गुफा में भी भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा है इस क्षेत्र को झरी पार्श्वनाथ कहते हैं। झरी पार्श्वनाथ से ४ कि.मी. दूर पर्वत मार्ग पर दूसरे पहाड़ पर सप्तफणी पार्श्वनाथ का मंदिर है तथा निकट मैदान में चरण चिन्ह बने हुए हैं।
३.चिन्तामणि पार्श्वनाथ
यह क्षेत्र परभणी जिले में शिरड़ शाहपुर से २४ कि.मी. की दूरी पर है। यहाँ भगवान पार्श्वनाथ की अतिशययुक्त प्रतिमा है। यहाँ पर भक्तजन अपनी मनोकामना पूरी करने हेतु बड़ी संख्या में आते रहते हैं।
४. आष्टा अतिशय क्षेत्र
यह क्षेत्र उस्मानाबाद जिले में उस्मानाबाद सड़क मार्ग पर ५१ कि.मी.दूर है, यह स्थान कासार आष्टा के नाम से जाना जाता है यहाँ पार्श्वनाथ भगवान की अतिशय सम्पन्न प्रतिमा है, उसकी भक्ति से विघ्नों का नाश होता है अत: भक्तजन इसे विघ्नहर पार्श्वनाथ कहते हैं। कहते हैं लगभग ५०० वर्ष पूर्व मुस्लिम शासनकाल में जब मूर्तियों का निर्मम भंजन किया जा रहा था, मूर्ति सुरक्षा हेतु इस मूर्ति को बन्द करके ले जाया जा रहा था तब यहाँ से २ कि.मी. दूर दस्तापुर गाँव के बाहर बैलगाड़ी पहुँची तो वहाँ जाकर रूक गयी। उसी रात आष्टा गाँव की एक स्त्री को स्वप्न आया कि मूर्ति कहीं नहीं जायेगी। अत: मूर्ति को वापस लाया गया, मूर्ति के चमत्कार को देखकर सभी ग्रामवासी इसके भक्त हो गये और इसे ग्राम देवता मानने लगे।
५.कचनेर अतिशय क्षेत्र
यह औरंगाबाद नगर से बीड़ सड़क मार्ग पर ५५ कि.मी. दूर है। श्री महावीरजी के समान ही दक्षिणाष्ट में चिंतामणी पार्श्वनाथ अतिशय क्षेत्र प्रसिद्ध है। लगभग २५० वर्ष पूर्व ग्राम के एक भुयार के द्वार पर संपतराव नामक ग्रामीण की एक गौ प्रतिदिन संध्या में अपना दूध झरा देती थी। संपतराव की दादी यह देख चकित होती थी। एक दिन प्रात:काल में उसे स्वप्न में भुयार के द्वार के नीचे से मूर्ति निकालने का संकेत मिला। खुदाई में सप्तफणयुक्त पार्श्वनाथ जी की मूर्ति मिली, जिसे एक बाड़े में वेदी पर रख पूजा करने लगे, किन्तु कुछ वर्षों बाद यह मूर्ति धड़ से खंडित हो गई। उक्त मूर्ति को जल में विसर्जन करने की चेष्टा करने पर मूर्ति ने लच्छीराम कासलीवाल को स्वप्न में दृष्टान्त देकर पुन:, जुड़ने की विधि बताते हुए ७ दिन तक बन्द कमरे में एक गड्डे में मूर्ति को रखकर अखंड भजन-पूजन करने को कहा, ऐसा करने पर चमत्कारिक ढंग से अपने आप द्वार के पट खुल गए एवं जुड़ी हुई मूर्ति के दर्शन लोगों ने किए। यथाविधि मूर्ति को वेदी पर विराजमान कर दिया गया तथा क्षेत्र का विकास होने लगा। आज भी यह मूर्ति अपने चमत्कारों से श्रद्धालुओं की मनोकामना पूरी करती है।