भगवान पार्श्वनाथ की गर्भ-जन्म एवं दीक्षाकल्याणक भूमि वाराणसी तीर्थ का परिचय
प्रस्तुति-प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चन्दनामती माताजी
जैन तीर्थ-काशी (वाराणसी) जैनों का प्रसिद्ध तीर्थ है। तीर्थक्षेत्र के रूप में इसकी प्रसिद्धि सातवें तीर्थंकर भगवान सुपार्श्वनाथ के काल से ही हो गयी थी। जब यहाँ उनके गर्भ, जन्म, तप और केवलज्ञान कल्याणक मनाये गये, उस समय काशी के नरेश महाराज सुप्रतिष्ठ थे। पृथ्वी उनकी महारानी थी। ज्येष्ठ शुक्ला द्वादशी के दिन तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ उनके गर्भ से उत्पन्न हुए। ‘तिलोयपण्णत्ति’ ग्रंथ में उनके जन्म के संबंध में लिखा है-
वाराणसीए पुडवी सुपइट्ठेहिं सुपास देवो य।
जेट्ठस्स सुक्कवार सिदिणम्मि जादो विसाहाए।।४।५३२
अर्थात् सुपार्श्वदेव वाराणसी नगरी में माता पृथ्वी और पिता सुप्रतिष्ठ से ज्येष्ठ शुक्ला १२ के दिन विशाखा नक्षत्र में उत्पन्न हुए। इसके पश्चात् तेईसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ के गर्भ, जन्म और दीक्षाकल्याणक इसी प्रकार धूमधाम और उल्लास के साथ मनाये गये। ‘तिलोयपण्णत्ति’ में उनके जन्म के संबंध में इस प्रकार विवरण मिलता है-
हयसेण वम्मिलाहिं जादो हि वाणारसीए पासजिणो।
पूसस्स बहुल एक्कारसिए रिक्खे विसाहाए।।४।५४८।।
अर्थात् भगवान पार्श्वनाथ वाराणसी नगरी में पिता अश्वसेन और माता वम्मिला (वामा) से पौष कृष्णा एकादशी के दिन विशाखा नक्षत्र में उत्पन्न हुए।
पार्श्वनाथ का जन्म
काशी देश में वाराणसी नामक एक नगरी थी। महाराज अश्वसेन वहाँ के राजा थे। वामा देवी उनकी महारानी थीं। वैशाख कृष्णा द्वितीया को शुभ नक्षत्र में पार्श्वनाथ का जीव वामादेवी के गर्भ में आया। इन्द्र की आज्ञा से धनपति कुबेर ने गर्भावतरण के छह माह पूर्व से रत्नवर्षा प्रारंभ कर दी। रत्नवर्षा का यह कार्य भगवान के जन्म होने तक चलता रहा। इन्द्र और देवों ने वाराणसी नगरी में पहुँचकर त्रिलोकीनाथ भगवान का गर्भकल्याणक उत्सव बड़ी भक्ति के साथ मनाया। भगवान के पुण्य प्रभाव से महाराज अश्वसेन के प्रासादों में, नगर में और काशी राज्य में सुख-समृद्धि में निरन्तर वृद्धि होने लगी। पौष कृष्णा एकादशी को भगवान का जन्म हुआ। इन्द्रों और देवों ने वाराणसी में आकर भगवान को अपने ऐरावत हाथी पर सुशोभित रत्नमय सिंहासन पर विराजमान किया। बालक भगवान को लेकर वे सुमेरु पर्वत के पाण्डुक वन में स्थित पाण्डुकशिला पर ले गये और वहाँ क्षीरसागर के जल से उनका अभिषेक किया। इन्द्राणी ने प्रभु का शृँगार किया, वस्त्रालंकार पहनाये। तब सौधर्मेन्द्र भगवान को लेकर अन्य इन्द्रों और देवों के साथ वाराणसी आये और महाराज अश्वसेन के नव मंजिले सर्वार्थसिद्धि महल में उन्होंने भक्तिमग्न होकर ताण्डव नृत्य किया। फिर सब लोग अपने-अपने स्थानों पर चले गये।
तापसी का मान-भंग
कुमार पार्श्वनाथ एक दिन क्रीड़ा के लिए नगर से बाहर गये। वहाँ उन्होंने एक वृद्ध तापसी को देखा जो पंचाग्नि तप कर रहा था। वह महीपाल नगर का राजा था और पार्श्वनाथ का नाना लगता था। अपनी रानी के वियोग से वह तापस बन गया था। उसके सात सौ तापस शिष्य थे। कुमार पार्श्वनाथ उस महीपाल तापस को नमस्कार किये बिना उसके पास जाकर खड़े हो गये। तापस ने उनके इस व्यवहार को बड़ा अपमानजनक माना। उसने बुझती हुई अग्नि में लकड़ी डालने के लिए एक बड़ा लक्कड़ उठाया और कुल्हाड़ी से काटने के लिए वह ज्यों ही तैयार हुआ कि अवधिज्ञानी भगवान पार्श्वनाथ ने उसे रोका-‘इसे मत फाड़ो। इसमें साँप हैं।’ मना करने पर भी वह तापस नहीं माना और उसने लकड़ी काट ही डाली। इससे लकड़ी में बैठे हुए साँप-साँपिनी दोनों के दो टुकड़े हो गये। प्रभु ने दयाद्र्र होकर उस सर्प-युगल को णमोकार मंत्र सुनाया। मंत्र सुनकर वह सर्प-युगल शांत भावों से मरा और अपनी शुभ भावनाओं के कारण मरकर धरणेन्द्र और पद्मावती बने। तापसी का घोर तिरस्कार और अपमान हुआ। वह वहाँ से अन्यत्र चला गया। उसका सारा क्रोध कुमार पार्श्वनाथ के ऊपर केन्द्रित हो गया। कषाय परिणामों में वह निर्मलता नहीं ला सका और मरकर संवर नाम का ज्योतिषी देव हुआ।
भगवान की दीक्षा एवं ज्ञानकल्याणक
-पार्श्वनाथ जब तीस वर्ष के हुए, तब एक दिन अयोध्यानरेश जयसेन ने उपहार देकर दूत को भेजा। पार्श्वनाथ ने दूत से अयोध्या के समाचार पूछे। दूत अयोध्या के समाचार सुनाते-सुनाते भगवान ऋषभदेव का भी चरित सुनाने लगा। सुनते ही पार्श्वनाथ को जातिस्मरण हो गया। उन्हें पूर्व जन्मों की घटनाओं से तीस वर्ष की अवस्था में संसार से वैराग्य हो गया। तत्काल लौकान्तिक देव आये। उन्होंने भगवान के वैराग्य की अनुमोदना की। सभी जाति के देवों और इन्द्रों ने आकर दीक्षाकल्याणक का अभिषेक किया। तदनन्तर भगवान पालकी में बैठकर वाराणसी नगरी के बाहर अश्ववन (या अश्वत्थवन) में पहुँचे और वहाँ पालकी से उतरकर सिद्धों को नमस्कार किया। फिर प्रभु ने पद्मासन लगाकर पंचमुष्टि लोंच किया। भगवान दीक्षा लेकर तेला का नियम लेकर योग में लीन हो गये। पुन: वे विहार करते हुए गुल्मखेटपुर नगर पहुँचे और वहाँ राजा धन्य के घर महामुनि पार्श्वनाथ का प्रथम आहार हुआ। अनन्तर विहार करते हुए वे एक बार भीमाटवी में पहुँचे और कायोत्सर्ग मुद्रा में ध्यानलीन हो गये। तभी कमठ का जीव संवर नाम का असुर आकाशमार्ग से जा रहा था कि अकस्मात् उसका विमान रुक गया। जब उसने अवधिज्ञान से इसका कारण जानना चाहा तो उसे अपने पूर्व भव का वैर स्पष्ट दिखने लगा। उसे बहुत क्रोध आया और अपनी सामथ्र्य के अनुसार पार्श्वनाथ को घोर कष्ट देने लगा। किन्तु धीर-वीर पार्श्वनाथ का ध्यान शरीर की ओर नहीं था, वे तो आत्मलीन थे। घोर कष्टों का भी कोई प्रभाव उनके ऊपर नहीं हुआ। अवधिज्ञान से यह उपसर्ग जानकर नागकुमार देवों का इन्द्र धरणेन्द्र अपनी इन्द्राणी पद्मावती सहित भगवान के पास आया। धरणेन्द्र-पद्मावती ने भगवान को मस्तक पर धारण करके ऊपर से ऊपर फणा-मण्डप तान दिया। इस प्रकार उपसर्ग निवारण हुआ। वही स्थान अहिच्छत्र के नाम से प्रसिद्ध हुआ है। वाराणसी से ६ किमी. दूर सिंहपुरी क्षेत्र है। यह स्थान पहले वाराणसी का ही भाग रहा है। यहाँ ग्यारहवें तीर्थंकर भगवान श्रेयांसनाथ के गर्भ, जन्म, दीक्षा और ज्ञानकल्याणक हुए थे। तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ में इस संबंध में निम्नलिखित उल्लेख मिलता है-
सीहपुरे सेयंसो विण्हु णरिंदेण वेणुदेवीए।
एक्कारसिए फग्गुण सिद पक्खे समणभेजादो।।४।५३६।।
अर्थात् भगवान श्रेयांसनाथ सिंहपुरी में पिता विष्णु नरेन्द्र और माता वेणुदेवी से फाल्गुन कृष्णा एकादशी के दिन श्रवण नक्षत्र में उत्पन्न हुए। वाराणसी से २२ किमी. दूर चन्द्रपुरी क्षेत्र है। सिंहपुरी से यह स्थान लगभग दस मील है। यहाँ आठवें तीर्थंकर भगवान चन्द्रप्रभ का जन्म हुआ था। इस संबंध में तिलोयपण्णत्ति में निम्नलिखित कथन मिलता है-
चन्दपहो चन्दपुरे जादो महसेण लाच्छेमइ आहिं।
पुस्सस्स किण्ह एयारसिए अणुराह णक्खत्ते।।४।५३३।।
अर्थात् चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र चन्द्रपुरी में पिता महासेन और माता लक्ष्मणा से पौष कृष्णा एकादशी को अनुराधा नक्षत्र में उत्पन्न हुए। आचार्य गुणभद्र ने उत्तरपुराण में चन्द्रप्रभ भगवान के दीक्षाकल्याणक के संबंध में लिखा है-
दिनद्वयोपवासित्वा वने सर्वर्तुकाह्वये।
पौषे मास्यनुराधायामेकादश्यां महीभुजाम्।।४५।२१६।।
सर्वर्तुक वन में दो दिन के उपवास का नियम लेकर पौष कृष्णा एकादशी को (एक हजार राजाओं के साथ दीक्षा धारण कर ली।) इस प्रकार काशी जनपद के वाराणसी, सिंहपुरी और चन्द्रपुरी तीनों नगर चार तीर्थंकरों के कल्याणक क्षेत्र हैं।
धार्मिक और ऐतिहासिक घटनाओं का केन्द्र
वाराणसी नगर में प्राचीन काल में अनेक धार्मिक और ऐतिहासिक घटनाएँ घटित हुई हैं। जैन पुराण-साहित्य में सर्वप्रथम इस नगर का उल्लेख राजकुमारी सुलोचना के प्रसंग में आया है। काशी नरेश अकंपन ने अपनी पुत्री सुलोचना का स्वयंवर किया। राजकुमारी के सौन्दर्य की प्रशंसा सुनकर भारत के बहुत से नरेश और राजकुमार इस अवसर पर वाराणसी में आये। उनमें भारत के प्रथम चक्रवर्ती सम्राट भरत के ज्येष्ठ पुत्र युवराज अर्वकीर्ति, महाराज भरत के प्रधान सेनापति जयकुमार जैसे विख्यात पुरुष भी सम्मिलित हुए थे। सभी राजकुमार आशा लेकर आये थे, किन्तु भाग्यलक्ष्मी जयकुमार के ऊपर प्रसन्न हो उठी। राजकुमारी सुलोचना ने वरमाला जयकुमार के गले में डाल दी। कुछ हताश और ईष्र्यालु राजकुमारों ने कुमार अर्वकीर्ति को भड़का दिया ‘आप चक्रवर्ती महाराज के उत्तराधिकारी हैं, भावी सम्राट हैं। आपके यहाँ होते हुए आपके एक सेवक को यह कन्यारत्न मिले, यह अन्याय की पराकाष्ठा है। साम्राज्य की सम्पूर्ण सुन्दर वस्तुओं पर सम्राट् का अधिकार होता है।’ आद्य तीर्थंकर ऋषभदेव का धर्मशासन और आद्य चक्रवर्ती भरत का राज्यशासन सम्पूर्ण भरत क्षेत्र में प्रवर्तमान था। किन्तु वाराणसी ने सभ्यता के इस आदिम काल में एक नये इतिहास का निर्माण किया। इस युग में सामाजिक व्यवस्था के नये-नये आयाम निर्धारित हो रहे थे। यह स्वयंवर भी उनमें एक था। यह प्रथम बार आयोजित किया गया था। इस प्रथा द्वारा स्त्री जाति को अपना भावी जीवन साथी चुनने की स्वाधीनता दी गयी थी। बातों में आकर राजकुमार अर्ककीर्ति ने न्याय की इस रेखा को लाँघकर स्वामी-सेवक का अनावश्यक प्रश्न खड़ा कर देना चाहा। जयकुमार ने अन्याय की इस चुनौती को स्वीकार किया। उन्होंने बनारस के विस्तृत मैदान में युवराज अर्ककीर्ति और उनके साथी राजकुमारों को पराजित कर न्याय और नैतिकता को धूमिल होने से बचा लिया। एक अन्य पौराणिक उल्लेख के अनुसार भगवान मल्लिनाथ के तीर्थ में यहाँ नौवें चक्रवर्ती पद्म हुए। उन्होंने सम्पूर्ण भरत क्षेत्र को जीतकर काशी को उसकी राजधानी बनाया। ये प्रतापी सम्राट् इक्ष्वाकुवंशी थे। ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि भगवान् पार्श्वनाथ विहार करते हुए केवलज्ञान प्राप्ति के पश्चात् वाराणसी पधारे थे उनके दर्शनार्थ काशी नरेश अश्वसेन (भगवान् के पिता) और महारानी वामादेवी दोनों आये।
समवसरण में भगवान् का उपदेश सुनकर दोनों ने ही दीक्षा ले१ ली थी। इसके पश्चात् यहाँ इतिहास की जो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण घटना घटित हुई, वह थी स्वामी समन्तभद्र की। मुनि समन्तभद्र दक्षिण भारत के उरगपुर (अथवा उरैयूर) के रहने वाले थे। यह त्रिचनापल्ली नगर का बाहरी प्रान्त था। इसकी राजधानी कंचनपुर या कांजीपुरम् अथवा कांची२ थी। उस समय यहाँ पल्लव राजाओं का राज्य था। यह मद्रास से दक्षिण-पश्चिम की ओर ४२ मील दूर है तथा कावेरी नदी के तट पर अवस्थित है। उनके पिता फणिमण्डलान्तर्गत उरगपुर के राजा१ थे। इनके बचपन का नाम शान्तिवर्म२ था। मुनि समन्तभद्र घोर तपस्वी थे और प्रकाण्ड विद्वान भी। किन्तु अशुभोदय से इन्हें भस्मक रोग हो गया। भस्मक रोग में कफ क्षीण हो जाता है, वायु और पित्त बढ़ जाते हैं। इससे जठराग्नि अत्यन्त प्रदीप्त, बलाढ्य और तीक्ष्ण हो जाती है। जो भी भोजन किया जाता है, क्षण मात्र में भस्म हो जाता है। पौष्टिक भोजन से ही यह रोग शान्त होता है। मुनि अवस्था में यह सम्भव नहीं था। अत: वे गुरु की आज्ञा से वहाँ से चल दिये। उस समय वे मणुवक हल्ली (मैसूर से लगभग ४० मील दूर) में विराजमान थे। वहाँ से चलकर वे दिगम्बर अवस्था में कांची में पहुँचे। फिर भस्म रमाकर लाम्बुश में पहुँचे। वहाँ के बौद्धभिक्षु का वेश बनाकर पुण्ड्र (बंगाल), उण्ड्र (उड़ीसा) में घूमे। तदनन्तर परिव्राजक का बाना धारण करके दशपुर (मध्यप्रदेश का मन्दसौर) जा पहुँचे। फिर श्वेतवस्त्रधारी योगी बनकर वाराणसी गये३। किन्तु यथेष्ट सुस्निग्ध पौष्टिक आहार की व्यवस्था नहीं बन सकी। उस समय वाराणसी के नरेश शिवकोटि थे। उन्होंने शिवजी का एक विशाल मंदिर बनवाया था। वहाँ राज्य की ओर से अनेक प्रकार के व्यंजन शिवजी के आगे चढ़ते थे। स्वामी समन्तभद्र ने देखा कि पुजारी शिवजी की पूजा करके बाहर आये और शिवजी को चढ़ाई हुई व्यंजनों की भारी राशि बाहर लाकर रख दी। समन्तभद्र उसे देखकर पुजारियों से कहने लगे—‘आप लोगों में किसी में ऐसी शक्ति नहीं है, जो इस नैवेद्य को शिवजी को खिला सकें।’ पुजारियों को इस प्रश्न से बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने पूछा—‘क्या आप में यह शक्ति है?’ स्वामी बोले—‘हाँ, मुझमें यह शक्ति है। तुम चाहो तो मैं यह सारी सामग्री शिवजी को खिला सकता हूँ।’ पुजारी तत्काल राजा के पास गये और उनसे सब समाचार कहा। राजा को भी सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ और उस अद्भुत योगी को देखने के लिये वह उसी समय शिवालय में आया। उसने स्वामी समन्तभद्र को देखा। उनकी तेजमण्डित मुखमुद्रा और आकर्षक व्यक्तित्व को देखकर वह बड़ा प्रभावित हुआ। उसने बड़ी विनय के साथ निवेदन किया—‘योगीराज! सुना है, आप में शिवालय का यह संपूर्ण नैवेद्य शिवजी को खिलाने की सामथ्र्य है।
यदि यह सत्य है तो लीजिए यह सामग्री, इसे महादेव जी को खिलाइए।’ स्वामी ने स्वीकृति देकर सब पकवानों को मंदिर में रखवा दिया और सब लोगों को मंदिर से बाहर निकालकर अन्दर से दरवाजा बन्द कर लिया। फिर आनन्दपूर्वक भोजन किया और सम्पूर्ण पक्वान्न को समाप्त करके बाहर आये। महाराज और उपस्थित जन वह अश्रुतपूर्व दृश्य देख विस्मित रह गये। अब राजा की ओर से प्रतिदिन एक से एक बढ़कर सुस्वादु पक्वान्न आने लगे और आचार्य उससे अपनी व्याधि शांत करने लगे। इस प्रकार छह माह व्यतीत हो गये। रोग शांत होता गया और उसी मात्रा में नैवेद्य बचने लगा। पुजारियों को संदेह बढ़ने लगा। उन्होंने जाकर राजा से यह बात कही। राजा को भी संदेह हुआ। राजा के कहने पर पुजारियों ने एक चालाक लड़के को मोरी में छिपा दिया। यथासमय योगीराज ने किवाड़ बन्द करके भोजन किया। लड़के ने यह सब देखा और बाहर आकर पुजारियों से कह दिया। राजा को भी यह समाचार भेजा गया। राजा आया और आचार्य महाराज से बोला—‘हमें सब समाचार मिल गये हैं। तुम्हारा धर्म क्या है? तुम सबके समक्ष शिवजी को नमस्कार करो।’
स्वामी समन्तभद्र बोले—‘राजन्! मेरा नमस्कार स्वीकार करने में शिवजी समर्थ नहीं हैं। तब भी राजा बराबर आग्रह करता रहा और निश्चय हुआ कि दूसरे दिन प्रात:काल स्वामी समन्तभद्र शिवजी को नमस्कार करेंगे। रात्रि में स्वामी समन्तभद्र चौबिस तीर्थंकरों की स्तुति करने लगे। प्रात:काल होने पर राजा आया। शिवलिंग के समक्ष स्वामी जी को बुलाया गया। राजा ने उनसे शिवजी को नमस्कार करने के लिए कहा। स्वामी जी जिनेन्द्र प्रभु की भक्ति में तन्मय होकर स्वयम्भू स्तोत्र (चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति) का पाठ करने लगे। जिस समय वे आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभु की स्तुति करने लगे, शिवमूर्ति फट गयी और उसमें से भगवान चन्द्रप्रभु की दिव्य प्रतिमा प्रकट हुई । इस दिव्य चमत्कार को देखकर सभी बड़े प्रभावित हुए। तब राजा हाथ जोड़कर बोला-‘भगवन्! आपका प्रभाव अचिन्त्य है। किन्तु आप हैं कौन? उस समय स्वामी समन्तभद्र ने आत्म-परिचय के लिए ‘काञ्च्यां नग्नाटकोऽहं’ इत्यादि श्लोक बोला। राजा तथा अनेक प्रजाजन स्वामीजी के शिष्य हो गये। स्वामी समन्तभद्र ने पुन: जैन मुनि की दीक्षा ले ली। राजा शिवकोटि आदि ने भी उनसे मुनि-दीक्षा ले ली। वाराणसी के बाँस फाटक मुहल्ले में गुदौलिया चौक मार्ग पर एक छोटा-सा शिवालय है, जो फटे महादेव के नाम से ख्यात है। इसकी पिण्डी ठीक बीच से एकदम फटी है। हिन्दी के प्रसिद्ध कवि बनारसीदास भी यात्रा के निमित्त काशी में आये थे। उनके लिखे हुए ‘अर्धकथानक’ नामक आत्मचरित ग्रन्थ से पता चलता है कि वे व्यापार आदि के सिलसिले में वाराणसी कई बार आये थे। इतना ही नहीं, उनका बनारसीदास यह नाम भी बनारस की यात्रा के कारण ही पड़ा। उनके इस नामकरण की कथा बड़ी रोचक है। बनारसीदास का जन्म माघ शुक्ला ११ संवत् १६४३ को श्रीमान् खड्गसेन के घर में जौनपुर में हुआ। जब बालक छह सात महीने का हुआ, तब खड्गसेन जी यात्रा के निमित्त काशी गये। बालक का राशि नाम विक्रमाजीत था। खड्गसेन जी ने बालक को पार्श्वप्रभु के चरणों में रख दिया और उसके दीर्घायु होने की प्रार्थना की। उस समय मंदिर का पुजारी भी वहाँ खड़ा था। थोड़ी देर ध्यान लगाकर बोला—भगवान् पार्श्वनाथ के यक्ष ने मुझसे कहा है कि यदि बालक का नाम पार्श्वनाथ के जन्म नगर (बनारस) के नाम पर रखा जायेगा तो बालक चिरायु होगा।
जो प्रभु पार्श्व जन्म को गाँव। सो दीजे बालक को नांव।।
तो बालक चिरजीवी होय। यह कलि लोप भयो सुर सोय।। (अर्धकथानक, ९१-९२)
तब से बालक का नाम बनारसीदास रख दिया गया। वि.संवत् १६६१ में, जब पिता खड्गसेन जी शिखर जी की यात्रा पर चले गये, तब बनारसीदास अपनी माता से पार्श्वनाथ भगवान् के मेले में जाने के लिए झगड़ने लगे। यहाँ तक कि इसके लिए उन्होंने दही, दूध, घृत, चावल, चने, तेल, ताम्बूल, पुष्प आदि कितनी ही वस्तुओं का हठपूर्वक त्याग कर दिया। चैत के महीने में यह नियम लिया था कि जब तक बनारस के पार्श्वनाथ की यात्रा नहीं कर लूँगा, तब तक इन वस्तुओं का उपयोग नहीं करूँगा। इस नियम को छह-सात महीने हो गये। कार्तिकी पूर्णमासी के गंगास्नान के लिए बहुत-से शिवभक्त और पार्श्वनाथ की पूजा के लिए जिनभक्त बनारस जा रहे थे। उन लोगों के साथ बनारसीदास भी गये। ‘अर्धकथानक’ में उन्होंने इसका बड़े रोचक ढंग से वर्णन किया हैै
‘‘कासी नगरी में गये, प्रथम नहाये गंग।
पूजा पास सुपास की, कीनी मन धर रंग।।२३२।।
जे जे खन की बस्त सब, ते ते मोल मंगाइ।
नेवज ज्यों आगें धरे, पूजे प्रभु के पाइ।।२३३।।
दिन दस रहे बनारसी, नगर बनारस मािंह।
पूजा कारन द्योहरे, नित प्रभात उठि जािंह।।२३४।।
इस प्रकार बनारसीदास ने वाराणसी नगरी की दस दिवसीय यात्रा बड़े भक्ति-भाव से की। बनारस के स्थानीय भारत-कला भवन में पुरातत्व संबंधी बहुमूल्य सामग्री संग्रहीत है। यहाँ राजघाट तथा अन्य स्थानों पर खुदाई में जो पुरातत्व सामग्री उपलब्ध हुई थी, वह इस कला भवन में सुरक्षित है। यह सामग्री विभिन्न युगों से संबंधित है। इसमें पाषाण और धातु की अनेक जैन प्रतिमाएं भी हैंं ये कुषाण काल से लेकर मध्यकाल तक की हैं। बनारस में ‘भदैनी जैन घाट’ नाम से एक स्थान है जो भगवान सुपार्श्वनाथ का जन्मस्थान माना जाता है। यहाँ आजकल स्याद्वाद महाविद्यालय नामक प्रसिद्ध शिक्षा संस्था है। इस भवन के ऊपर भगवान सुपार्श्वनाथ का मंदिर है। यह गंगा तट पर अवस्थित है, दृश्य अत्यंत सुन्दर है। मंदिर छोटा ही है किन्तु शिखरबद्ध है। भगवान पार्श्वनाथ का जन्मस्थल वर्तमान के भेलूपुर मोहल्ले को माना जाता है। उनके जन्मस्थान पर बहुत विशाल सुन्दर मंदिर बना हुआ है। उसी कम्पाउन्ड के भीतर धर्मशाला भी बनी हुई है। जिसमें सभी दिगम्बर जैन बंधुओं के ठहरने की समुचित व्यवस्था है। भेलूपुर में एक और दिगम्बर जैन मंदिर भी है उसमें मूलनायक पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा है। हिन्दुओं की मान्यतानुसार अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार, काशी, कांची, अवन्ति और द्वारका ये सात महापुरियाँ हैं इनमें काशी मुख्य मानी गई है। ‘‘काश्यां हि मरणान्मुक्तिः’’ यह हिन्दू शास्त्रों का वाक्य है। काशी में मरने से मुक्ति होती है इस विश्वास के कारण ही प्राचीन काल में यहाँ देहोत्सर्ग करने के लिए हिन्दू लोग आया करते थे। काशी का संबंध महाराजा हरिश्चन्द्र, कबीर और तुलसी से भी जुड़ा रहा है। बनारस सहस्रों वर्षों से विद्या का केन्द्र रहा है। यहाँ भारतीय वाङ्मय-दर्शन और साहित्य के अध्ययन-अध्यापन की प्राचीन परम्परा आज तक सुरक्षित है।