भगवान पार्श्वनाथ की निर्वाणभूमि श्री सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र का परिचय
प्रस्तुति-आर्यिका चन्दनामती
शाश्वत सिद्धक्षेत्र
श्री सम्मेदशिखर सम्पूर्ण तीर्थक्षेत्रों में सर्वप्रमुख एवं शाश्वत सिद्धक्षेत्र है। इसीलिए इसे तीर्थराज कहा जाता है। इसकी एक बार वंदना-यात्रा करने से कोटि-कोटि जन्मों में संचित पापों का नाश हो जाता है। निर्वाण क्षेत्र पूजा में कविवर द्यानतराय जी ने सत्य ही लिखा है-‘‘एक बार वन्दे जो कोई। ताहि नरक-पशुगति नहिं होई।।’’ एक बार वन्दना करने का फल मात्र नरक और पशुगति से ही छुटकारा नहीं है, अपितु परम्परा से संसार से भी छुटकारा है। ऐसी अनुश्रुति है कि श्री सम्मेदशिखर और अयोध्या ये दो तीर्थ अनादि-निधन-शाश्वत हैं। अयोध्या में सभी तीर्थंकरों का जन्म होता है और सम्मेदशिखर से सभी तीर्थंकरों का निर्वाण होता है। किन्तु हुण्डावसर्पिणी काल के दोष से इस शाश्वत नियम में व्यतिक्रम हो गया। अत: अयोध्या में केवल पाँच तीर्थंकरों का ही जन्म हुआ और सम्मेदशिखर से केवल बीस तीर्थंकरों ने निर्वाणलाभ किया। किन्तु इनके अतिरिक्त भी असंख्य मुनियों ने यहीं पर तपश्चरण करके मुक्ति प्राप्त की। सम्मेदशिखर की वंदना से तात्पर्य यह है कि इस क्षेत्र से जो तीर्थंकर और अन्य मुनिवर मुक्ति को प्राप्त हुए हैं, उनके गुणों को सच्चाई के साथ अपने हृदय में उतारें और तदनुसार अपनी आत्मा के गुणों का विकास करें। ऐसा करने से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होगा, इसमें संदेह नहीं। ढाई द्वीप में कुल १७० निर्वाणक्षेत्र होते हैं। उनमें जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र का निर्वाणक्षेत्र सम्मेदशिखर ही है जो पारसनाथ हिल के नाम से विख्यात है। प्राकृत निर्वाणकाण्ड में सम्मेदशिखर से बीस तीर्थंकरों की निर्वाण-प्राप्ति का उल्लेख करते हुए उन्हें नमस्कार किया है, जो इस प्रकार है-
‘‘वीसं तु जिणविंरदा अमरासुर-वंदिदा धुद-किलेसा।
सम्मेदे गिरि-सिहरे णिव्वाण गया णमो तेसिं।।२।।
संस्कृत निर्वाणभक्ति में इसी बात का वर्णन इस प्रकार है-
‘‘शेषास्तु ते जिनवरा जितमोहमल्ला, ज्ञानार्वभूरिकिरणैरवभास्य लोकान्।
प्रसिद्ध आर्षग्रंथ ‘तिलोयपण्णत्ति’ (४/११८६-१२०६) में तो आचार्य यतिवृषभ ने बीस तीर्थंकरों द्वारा सम्मेदशिखर पर्वत से मुक्ति प्राप्त करने का वर्णन विस्तारपूर्वक किया है। उसमें उन्होंने प्रत्येक तीर्थंकर की निर्वाणप्राप्ति की तिथि, नक्षत्र और उनके साथ मुक्त होने वाले मुनियों की संख्या भी दी है। यह विवरण अत्यन्त उपयोगी और ज्ञातव्य है। अत: यहाँ दिया जा रहा है-
चेत्तस्स सुद्धपंचमिपुव्वण्हे भरणिणामरिक्खम्मि।
सम्मेदे अजियजिणे मुत्तिं पत्तो सहस्ससमं।।
अजितनाथ जिनेन्द्र चैत्र शुक्ला पंचमी के दिन पूर्वाण्ह काल में भरणी नक्षत्र के रहते सम्मेदशिखर से एक हजार मुनियों के साथ मुक्ति को प्राप्त हुए।
चेत्तस्स सुक्कछट्ठीअवरण्हे जम्मभम्मि सम्मेदे।
संपत्तो अपवग्गं संभवसामी सहस्सजुदो।।
संभवनाथ स्वामी चैत्र शुक्ला षष्ठी के दिन अपराण्ह समय में जन्म-नक्षत्र के रहते सम्मेदशिखर से एक हजार मुनियों के साथ अपवर्ग (मोक्ष) को प्राप्त हुए।
वइसाहसुक्कसत्तमिपुव्वण्हे जम्मभम्मि सम्मेदे।
दससयमहेसिसहिदो णंदणदेवो गदो मोक्खं।।
अभिनंदननाथ वैशाख शुक्ला सप्तमी को पूर्वाण्ह समय में अपने जन्म नक्षत्र के रहते सम्मेदशिखर से एक हजार महर्षियों के साथ मोक्ष को प्राप्त हुए।
चेत्तस्स सुक्कदसमीपुव्वण्हे जम्मभम्मि सम्मेदे।
दससयरिसिसंजुत्तो सुमइस्सामी स मोक्खगदो।।
सुमतिनाथ स्वामी चैत्र शुक्ला दशमी के दिन पूर्वाण्हकाल में अपने जन्म-नक्षत्र के रहते सम्मेदशिखर से एक हजार ऋषियों के साथ मोक्ष को प्राप्त हुए।
फग्गुणकिण्ह चउत्थी अवरण्हे जम्मभम्मि सम्मेदे।
चउवीसाधिय तियसयसहिदो पउमप्पहो देवो।।
पद्मप्रभ देव फाल्गुन कृष्ण चतुर्थी के दिन अपराण्ह में अपने जन्म-नक्षत्र के रहते सम्मेदशिखर से तीन सौ चौबीस मुनियों के साथ मुक्ति को प्राप्त हुए।
फग्गुणबहुलच्छट्ठीपुव्वण्हे पव्वदम्मि सम्मेदे।
अणुराहाए पणसयजुत्तो मुत्तो सुपासजिणो।।
सुपाश्र्व जिनेन्द्र फाल्गुन कृष्णा षष्ठी को पूर्वाण्ह समय में अनुराधा नक्षत्र के रहते सम्मेद पर्वत से पाँच सौ मुनियों के साथ मुक्त हुए।
सिदसत्तमि पुव्वण्हे भद्दपदे मुणिसस्स संजुत्तो।
जेट्ठासुं सम्मेदे चंद्रप्पह जिणवरो सिद्धो।
चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र भाद्रपद शुक्ला सप्तमी को पूर्वाण्हकाल में ज्येष्ठा नक्षत्र के रहते एक हजार मुनियों सहित सम्मेदशिखर से मुक्त हुए।
अस्सजुद सुक्कअट्ठमिअवरण्हे जम्मभम्मि सम्मेदे।
मुणिवरसहस्ससहिदो सिद्धिगदो पुप्फदंतजिणो।।
पुष्पदंत भगवान् आश्विन शुक्ला अष्टमी के दिन अपराण्ह काल में अपने जन्म नक्षत्र के रहते सम्मेदशिखर से एक हजार मुनियों के साथ सिद्धि को प्राप्त हुए।
कत्तियसुक्के पंचमिपुव्वण्हे जम्मभम्मि सम्मेदे।
णिव्वाणं संपत्तो सीयलदेवो सहस्सजुदो।।
शीतलनाथ कार्तिक शुक्ला पंचमी के पूर्वाण्ह समय में अपने जन्म-नक्षत्र के रहते सम्मेदशिखर से एक हजार मुनियों के साथ निर्वाण को प्राप्त हुए।
सावणिय पुण्णिमाए पुव्वण्हे मुणिसहस्ससंजुत्तो।
सम्मेदे सेयंसो सिद्धिं पत्तो धणिट्ठासुं।।
भगवान श्रेयांस श्रावण की पूर्णिमा को पूर्वाण्ह में धनिष्ठा नक्षत्र में सम्मेदशिखर से एक हजार मुनियों के साथ सिद्ध हुए।
सुक्कट्ठमीपदोसे आसाढे जम्मभम्मि सम्मेदे।
छस्सयमुणिसंजुत्तो मुत्तिं पत्तो विमलसामी।।
विमलनाथ स्वामी आषाढ़ शुक्ला अष्टमी के दिन प्रदोषकाल में अपने जन्म-नक्षत्र के रहते छह सौ मुनियों के साथ सम्मेदशिखर से मुक्ति को प्राप्त हुए।
अनन्तनाथ भगवान चैत्रमास के कृष्ण पक्ष की अमावस्या को प्रदोष काल में अपने जन्म नक्षत्र के रहते सम्मेदशिखर से सात हजार मुनियों के साथ मुक्ति को प्राप्त हुए।
जेट्ठस्स किण्हचोद्दसिपच्चूसे जम्मभम्मि सम्मेदे।
सिद्धो धम्मजिणिंदो रूवाहियअडसएहिं जुदो।।
धर्मनाथ जिनेन्द्र ज्येष्ठ कृष्णा चतुर्दशी के दिन प्रत्यूष काल में अपने जन्म नक्षत्र के रहते आठ सौ एक मुनियों के साथ सम्मेदशिखर से मुक्त हुए।
जेट्ठस्स किण्ह चोद्दसिपदोससमयम्मि जम्मणक्खत्ते।
सम्मेदे संतिजिणो णवसयमुणिसंजुदो सिद्धो।।
शांतिनाथ तीर्थंकर ज्येष्ठ कृष्णा चतुर्दशी के दिन प्रदोष काल में अपने जन्म-नक्षत्र के रहते नौसो मुनियों के साथ सम्मेदशिखर से सिद्ध हुए। वइसाहसुक्कपाडिवपदोससमये हि जम्मणक्खत्ते। सम्मेदे कुंथुजिणो सहस्ससहिदो गदो सिद्धिं।। कुंथुजिन वैशाख शुक्ला प्रतिपदा के दिन प्रदोष समय में अपने जन्म-नक्षत्र के रहते एक हजार मुनियों सहित सम्मेदशिखर से सिद्ध हुए।
चेत्तस्स बहुलचरिमे दिणम्मि णियजम्मभम्मि पच्चूसे।
सम्मेदे अरदेओ सहस्ससहिदो गदो मोक्खं।।
अरनाथ भगवान चैत्र कृष्णा अमावस्या के दिन प्रत्यूष काल में अपने जन्म-नक्षत्र के रहते एक हजार मुनियों के साथ सम्मेदशिखर से मोक्ष को प्राप्त हुए।
पंचमिपदोससमए फग्गुणबहुलम्मि भरणिणक्खत्ते।
सम्मेदे मल्लिजिणो पंचसयसमं गदो मोक्खं।।
मल्लिनाथ तीर्थंकर फाल्गुन कृष्णा पंचमी को प्रदोष समय में भरणी नक्षत्र के रहते सम्मेदशिखर से पाँच सौ मुनियों के साथ मोक्ष को प्राप्त हुए।
फग्गुणकिण्हे वारसि पदोससमयम्मि जम्मणक्खत्ते।
सम्मेदे सिद्धिगदो सुव्वददेओ सहस्ससंजुत्तो।।
मुनिसुव्रतनाथ फाल्गुन कृष्णा बारस के दिन प्रदोष समय में अपने जन्म-नक्षत्र के रहते एक हजार मुनियों सहित सम्मेदशिखर से सिद्धि को प्राप्त हुए।
वइसाहकिण्ह चोद्दसिपच्चूसे जम्मभम्मि सम्मेदे।
णिस्सेयस संपण्णो समं सहस्सेण णमिसामी।।
नमिनाथ स्वामी वैशाख कृष्णा चतुर्दशी के दिन प्रत्यूष काल में अपने जन्म नक्षत्र के रहते सम्मेदशिखर से एक हजार मुनियों के साथ नि:श्रेयस पद को प्राप्त हुए।
सिद सत्तमीपदीसे सावणमासम्मि जम्मणक्खत्ते।
सम्मेदे पासजिणो छत्तीसजुदो गदो मोक्खं।।
पार्श्वनाथ जिनेन्द्र श्रावण मास में शुक्ल पक्ष की सप्तमी को प्रदोषकाल में अपने जन्म-नक्षत्र के रहते छत्तीस मुनियों के साथ सम्मेदशिखर से मुक्त हुए। नोट-उत्तरपुराण में निर्वाणकल्याणक तिथियों में अन्तर है। वर्तमान में उसी के आधार से निर्वाणकल्याणक मनाने की परम्परा है। इसी प्रकार आचार्य गुणभद्र ने ‘उत्तरपुराण’ में, आचार्य रविषेण ने ‘पद्मपुराण’ में, आचार्य जिनसेन ने ‘हरिवंशपुराण’ में तथा अन्य अनेक शास्त्रों में सम्मेदशिखर को बीस तीर्थंकरों और असंख्य मुनियों की निर्वाणभूमि बताया है। ‘मंगलाष्टक’ में भी चार तीर्थंकरों की निर्वाणभूमियों का उल्लेख करके शेष बीस तीर्थंकरों की निर्वाणभूमि के रूप में सम्मेदशैल को मंगलकारी माना है। जटासिंहनन्दी ने ‘वरांगचरित्र’ में लिखा है-
संस्कृत और प्राकृत ग्रंथों के अतिरिक्त अपभ्रंश, हिन्दी, गुजराती, मराठी आदि भाषाओं के कवियों ने भी सम्मेदशिखर को तीर्थक्षेत्र माना है और उसे बीस तीर्थंकरों एवं अनेक मुनियों की सिद्धभूमि माना है। मराठी भाषा के सुप्रसिद्ध कवि गुणकीर्ति (अनुमानत: १५वीं शताब्दी का अंतिम चरण) अपने गद्य ग्रंथ ‘धर्मामृत’ (परिच्छेद १६७) में लिखते हैं- ‘‘संमेद महागिरि पर्वति बीस तीर्थंकर अहूठ कोडि मुनिस्वरु सिद्धि पावले त्या सिद्ध क्षेत्रासिं नमस्कारु माझा।’’ अपभ्रंश भाषा के कवि उदयकीर्ति (१२-१३वीं शताब्दी) ने ‘तीर्थ वंदना’ नामक अपनी लघु रचना में सम्मेदशिखर के संबंध में निम्नलिखित उल्लेख किया है-
‘सम्मेद महागिरि सिद्ध जे वि। हउँ वंदउँ बीस जिणंद ते वि।
’गुजराती भाषा के कवि मेघराज (समय १६वीं शताब्दी) ने विभिन्न तीर्थों की वंदना के प्रसंग में सम्मेदशिखर की वंदना में निम्नलिखित पद्य बनाया है-
चलि जिनवर जे बीस सिद्ध हवा स्वामी संमेद गिरीए।
सुरनर करे तिहा जात्र पूज रचे बड़भाव धरीए।।
भट्टारक अभयनन्दि (सूरत) के शिष्य सुमतिसागर (समय १६वीं शताब्दी के मध्य में) ने ‘तीर्थजयमाला’ में लिखा है-
‘‘सुसंमेदाचल पूजो संत। सुबीस जिनेश्वर मुक्ति वसंत।।
’’नन्दीतटगच्छ, काष्ठासंघ के भट्टारक श्रीभूषण के शिष्य ज्ञानसागर (समय १५७८-१६२०) ने गुजराती में ‘सर्वतीर्थ-वंदना’ लिखी है। इसमें कुल १०१ छप्पय हैंं। इनमें तीन छप्पय में सम्मेदगिरि की वंदना और प्रशंसा अत्यन्त भावपूर्ण शब्दों में की है। यहाँ उनमें से एक पद्य का रसास्वाद कराया जा रहा है-
सम्मेदाचल शृंग बीस जिनवर शिव पाया।
संख्या रहित मुनीश मोक्ष तिस थान सिधाया।
यात्रा जेह करंत तास पातक सबि जाये।
मनवांछित फल पूर सद्य सुखसंपति थाये।।
सारद अथवा सुरगुरु जो तस गुण वर्णन करे।
ब्रह्म ज्ञानसागर वदति जन्म जन्म पातक हरे।।१।।
बीस तीर्थंकरों के अतिरिक्त अनेक मुनिजन यहाँ तपस्या करके और कर्मों का नाश करके मुक्ति पधारे हैं। ऐसे कुछ मुनियों का वर्णन पुराण और कथा-ग्रंथों में उपलब्ध होता है। ‘उत्तरपुराण’ (४८/१२९-१३७) में सगर चक्रवर्ती का प्रेरक जीवन-चरित्र दिया गया है। जब मणिकेतु देव ने अपने पूर्वभव की मित्रता को ध्यान में रखकर सगर चक्रवर्ती को आत्म-कल्याण की प्रेरणा देने के लिए उसके साठ हजार पुत्रों के अकाल मरण का शोक-समाचार सुनाया तो चक्रवर्ती को सुनते ही संसार से वैराग्य हो गया और भगीरथ को राज्य देकर उसने मुनि दीक्षा ले ली। उधर देव ने उन साठ हजार पुत्रों को उनके पिता द्वारा मुनिदीक्षा लेने का समाचार जा सुनाया। उस समाचार को सुनकर उन सबने भी मुनि व्रत धारण कर लिया और तपस्या करने लगे। अन्त में सम्मेदशिखर से उन्होंने मुक्ति प्राप्त की।‘
सर्वै ते सुचिरं कृत्वा सत्तपो विधिवद् बुधा:।
शुक्लध्यानेन संमेदे संप्रापन् परमं पदम्।।
’’सम्मेदशिखर पर मंदिरों के निर्माण की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि- भट्टारक ज्ञानकीर्ति ने ‘यशोधर चरित’ की रचना की है। यह ग्रंथ उन्होंने संवत् १६५९ में लिखा था। इस ग्रंथ की प्रशस्ति में राजा मानसिंह के मंत्री नानू का नामोल्लेख करते हुए सम्मेदशिखर पर बीस मंदिरों के निर्माण का उल्लेख है। ग्रंथकार ने पहले अपना परिचय दिया है। उसके बाद मंदिरों के निर्माण का उल्लेख किया है। प्रशस्ति का उक्त अंश यहाँ दिया जा रहा है।
संमेदशृंगे च जिनेन्द्रगेहमष्टापदे वादिमचक्रधारी।।६४।।
योऽकारयद् यत्र च तीर्थनाथा: सिद्धिंगता विंशतिमानयुक्ता:।
अर्थात् यहाँ (चम्पानगरी के निकटवर्ती अकबरपुर गाँव में) महाराज मानसिंह हैं, जिन्होंने वैरियों का दमन किया है और बड़े-बड़े राजाओं से अपने चरणों में मस्तक झुकवाया है। उनके महामंत्री का नाम नानू है। उन्होंने सम्मेदशिखर के ऊपर वहाँ से सिद्धगति को प्राप्त करने वाले बीस तीर्थंकरों के मंदिर का निर्माण कराया, जैसे प्रथम चक्रवर्ती भरत ने अष्टापद के ऊपर मंदिरों का निर्माण कराया था और उनकी कई बार यात्राएँ की थीं। इसी ग्रंथ में अन्यत्र महामंत्री नानू का परिचय इस प्रकार दिया है-
उस राजा मानसिंह के एक अधिकारी गोधा गोत्रीय रूपचंद खण्डेलवाल थे। वह महान् पुण्यात्मा, यात्रा आदि शुभकर्म करने वाला और अत्यन्त धनाढ्य व्यापारी था। वह महान दाता, गुणज्ञ, जिनपूजन में रत रहने वाला था। वह धन में कुबेर को, स्वरूप में कामदेव को, प्रताप में सूर्य को, सौम्यता में चन्द्रमा को, ऐश्वर्य में इन्द्र को तिरस्कृत करता था। उसका पुत्र नानू था। वह राजा के समान था और अपने वंश का शिरोमणि था। उसकी प्रार्थना पर मैं यह चरित बना रहा हूँ। महामात्य नानू ने सम्मेदशिखर के ऊपर बीस तीर्थंकरों के जो मंदिर-टोंकें बनाई, उनसे पहले वहाँ क्या मंदिर नहीं थे और थे तो वे किसने बनवाये थे? इस संबंध में अनुसंधान की आवश्यकता है। तीर्थंकर भगवान जिस स्थान से मुक्त हुए, उस स्थान पर सौधर्मेन्द्र ने चिन्ह स्वरूप स्वस्तिक बना दिया, दिगम्बर परम्परा में इस प्रकार की मान्यता प्रचलित है। इस मान्यता के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भक्त श्रावकों ने उन स्थानों पर तीर्थंकरों के चरण स्थापित किये। महामात्य नानू ने जिन मंदिरों का निर्माण किया था, वे पुराने जीर्ण मंदिरों के स्थान पर ही बनाये गये थे। (यहाँ मंदिरों का अर्थ टोके हैं) मंत्रिवर नानू द्वारा बनायी गयी वे ही टोंकेअब तक वहाँ विद्यमान हैं। मंत्रिवर नानू के पहले यहाँ मंदिर और मूर्तियाँ थीं, इस प्रकार के उल्लेख हमें कई ग्रंथों में मिलते हैं। तेरहवीं शताब्दी के विद्वान् यति मदनकीर्ति, जो पं. आशाधर जी के प्राय: समकालीन थे, ने ‘शासन चतुस्त्रिंशिका’ में लिखा है-
सोपानेषु सकष्टमिष्टसुकृतादारुह्य यान् वन्दते।
सौधर्माधिपति प्रतिष्ठितवपुष्का ये जिना विंशति:।।
मुख्या: स्वप्रमितिप्रभाभिरतुला संमेदपृथ्वीरुहि।
भव्योऽन्यस्तु न पश्यति ध्रुवमिदं दिग्वाससां शासनम्।।११।।
अर्थात् सौधर्म इन्द्र ने बीस तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ जहाँ प्रतिष्ठित की हैं तथा जो प्रतिमाएँ अपने आकार की प्रभा से तुलनारहित हैं, उस सम्मेदरूपी वृक्ष पर भव्यजन कष्ट उठाकर भी सीढ़ियों द्वारा चढ़कर पुण्योदय से उन प्रतिमाओं की वंदना करते हैं। भव्य के अतिरिक्त उनके दर्शन अन्य कोई नहीं कर सकता। यह दिगम्बर-धर्म शाश्वत है अर्थात् यहाँ सदा से रहा है। यति जी ने सम्मेदशिखर के संबंध में जो वर्णन किया है, उसमें तीन बातों का उल्लेख किया गया है-१. इस क्षेत्र पर सौधर्म इन्द्र ने बीस तीर्थंकरों की प्रतिमा स्थापित की थी। (२) उन प्रतिमाओं का प्रभामण्डल प्रतिमाओं के आकार का था, इसलिए उनकी ओर देखने के लिए श्रद्धा की आँखें ही समर्थ होती थीं। जिनके हृदय में श्रद्धा नहीं होती थी, वे इन प्रभा-पुंज स्वरूप प्रतिमाओं को देख नहीं सकते थे। (३) यतिजी के काल तक अर्थात् तेरहवीं शताब्दी तक इस तीर्थराज पर दिगम्बर समाज का आधिपत्य था। इस वर्णन से यह फलितार्थ निकलता है कि पहले सम्मेदशिखर के ऊपर बीस मंदिर बने हुए थे और उनमें सौधर्मेन्द्र द्वारा प्रतिष्ठित बीस तीर्थंकरों की मूर्तियाँ विराजमान थीं। ये मंदिर कितने बड़े थे और इनका क्या हुआ, यह तो पता नहीं चलता। लेकिन ऐसा लगता है कि ये मंदिर नहीं, बल्कि टोंकों के रूप मेें थे और पहले इन्हीं में मूर्ति विराजमान होंगी। पश्चात् असुरक्षा आदि कारणों से इन मूर्तियों के स्थान पर चरण विराजमान कर दिये होंगे और जीर्ण होने पर महामात्य नानू ने इनके स्थान पर ही बीस टोंके या मंदरियाँ बनवा दी होंगी। यतिवर्य मदनकीर्ति के काल में सम्मेदशिखर पर एक अमृतवापिका भी थी, जिसमें भक्त लोग अष्टद्रव्यों (जल, गंध, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, धूप और फल) से बीस तीर्थंकरों के लिए अघ्र्य चढ़ाते थे।
अर्थात् जिसके पवित्र जल में निग्र्रंथ रूप के धारक श्री तीर्थंकरों के क्रमिक नामों के साथ सुन्दर मंत्रोच्चारणपूर्वक अष्टद्रव्य का अघ्र्य चढ़ाया जाता है और यथायोग्य रीति से उनकी पूजा की जाती है वह सम्मेदगिरि की अमृतवापिका दिगम्बर शासन की सदा रक्षा करे। यह अमृतवापिका ही वर्तमान में जल-मंदिर कहलाता है।
प्राचीनकाल में सम्मेदगिरि की यात्रा के विवरण
भक्तजन अत्यन्त प्राचीन काल से ही सिद्धक्षेत्र सम्मेदगिरि की पुण्यप्रदायिनी यात्रा के लिए जाते रहे हैं। इन यात्राओं के विवरण पुराण ग्रंथों, कथाकोषोें और विविध भाषाओं में निबद्ध यात्रा-विवरण-काव्यों तथा ग्रंथ-प्रशस्तियों में मिलते हैं। सम्मेदशिखर की यात्रा के संदर्भ में संघ सहित मुनि अरविन्द का चरित्र ‘उत्तरपुराण’ में मिलता है। पोदनपुर नगर के राजा अरविंद थे। उनके नगर में वेदों का विशिष्ट विद्वान् विश्वभूति ब्राह्मण रहता था। उसके दो पुत्र थे-कमठ और मरुभूति। मरुभूति महाराज अरिंवद का मंत्री था। वह अत्यन्त सदाचारी, विवेकी और नीतिपरायण भद्र व्यक्ति था। इसके विपरीत कमठ दुराचारी और दुष्ट प्रकृति का था। एक बार मरुभूति की स्त्री वसुंधरी के कारण उत्तेजित होकर कमठ ने मरुभूति की हत्या कर दी। मरुभूति मरकर मलय देश में कुब्जक नामक सल्लकी के भयानक वन में हाथी हुआ। राजा अरविंद ने किसी समय विरक्त होकर राजपाट छोड़ दिया और दिगम्बर मुनिदीक्षा धारण कर ली। एक बार वे संघ के साथ सम्मेदशिखर की वंदना के लिए जा रहे थे। चलते-चलते वे उसी वन में पहुँचे। सामायिक का समय हो जाने से वे प्रतिमायोग धारण कर विराजमान हो गये। इतने में घूमता-फिरता वह मदोन्मत्त हाथी उधर ही आ निकला और मुनिराज के पास आते ही वह शान्त हो गया। उसकी दृष्टि मुनिराज के वक्षस्थल पर बने श्रीवत्स लांछन पर पड़ी। वह टकटकी लगाकर उस चिन्ह को देखता रहा। उसे देखकर उसके मन में अनजाने ही मुनि के प्रति प्रेम उमड़ने लगा। सामायिक समाप्त होने पर मुनिराज ने आँखें खोलीं। वे अवधिज्ञानी थे। उन्होंने अपने अवधिज्ञान से जानकर हाथी को उपदेश दिया और कहा- ‘‘गजराज! पूर्वजन्म में तू मेरा अमात्य मरुभूति था। आज तू इस निकृष्ट तिर्यंच योनि में पड़ा हुआ है। तू कषाय छोड़कर आत्म-कल्याण कर।’’ मुनिराज का उपदेश गजराज के हृदय में बैठ गया। उसने अणुव्रतों का नियम ले लिया। जीवन सात्त्विक बन गया। यही हाथी का जीव आगे जाकर कठोर साधना से तेईसवाँ तीर्थंकर बना। अस्तु! मुनिराज अरविंद संघ सहित आगे बढ़ गये और सम्मेदशिखर पहुँचकर उन्होंने भक्तिभाव सहित तीर्थराज की वंदना की। उन्होंने मोह का क्षय कर घातिया कर्मों का नाशकर केवलज्ञान प्राप्त किया तथा वहीं से मोक्ष प्राप्त किया। कवि महाचन्द्र ने अपभ्रंश भाषा के ‘संतिणाह चरिउ (रचना काल सं. १५८७) में सारंग साहू का परिचय देते हुए उनकी सम्मेदशिखर यात्रा का वर्णन किया है-
इसका आशय यह है कि भोजराज के पुत्र ज्ञानचंद की पत्नी का नाम ‘सउराजही’ था जो अनेक गुणों से विभूषित थी। उसके तीन पुत्र हुए। पहला पुत्र सारंग साहू था, जिसने सम्मेदशिखर की यात्रा की थी। उसकी पत्नी का नाम ‘तिलोकाही’ था। भट्टारक रत्नचन्द्र मूलसंघ सरस्वती गच्छ के भट्टारक थे। ये हुंबड़ जाति के थे। इन्होंने ‘सुभौमचक्रि-चरित्र’ की रचना सं. १६८३ में सागपत्तन (सागवाड़ा, वाग्वर देश) के हेमचन्द्र पाटनी की प्रेरणा से पाटलिपुत्र में गंगा के किनारे सुदर्शन चैत्यालय में की थी। पाटनी जी भट्टारक रत्नचन्द्र जी के साथ शिखर जी की यात्रा के लिए गये थे। इनके साथ आचार्य जयकीर्ति तथा श्रावकों का संघ भी था। इस संबंध में उन्होंने ग्रंथ की प्रशस्ति में उल्लेख भी किया है जो इस भाँति है-
संमेदाचलयात्रायै रत्नचन्द्रास्समागता:।
जगन्महन्नात्मजाचार्यं जयकीर्तिभिरन्वित:।।१६।।
श्रीमत्कगलकीत्र्याह्वै: सूरिभिश्च सुवर्णिभि:।
कल्याण-कचराख्यान-कान्हजी-भोगिदासवै:।।१७।।
कारंजा के सेनगण के भट्टारक सोमसेन के पट्टशिष्य भट्टारक जिनसेन द्वारा सम्मेदाचल की यात्रा का उल्लेख मिलता है। जिनसेन का समय शक सं. १५७७ से १६०७ (सन् १६५५ से १६८५) तक है।
सम्मेदशिखर माहात्म्य की रचनाएँ
अनेक कवियों ने विभिन्न भाषाओं में सम्मेदशिखर के माहात्म्य और पूजाओें की रचनाएँ की हैं, उनसे एक महान् सिद्धक्षेत्र और तीर्थराज के रूप में सम्मेदशिखर के गौरव पर प्रकाश पड़ता है और इस तीर्थक्षेत्र का नाम लेते ही श्रद्धा से स्वत: ही मस्तक उसके लिए झुक जाता है। गंगादास कारंजा के मूलसंघ बलात्कारगण के भट्टारक धर्मचन्द्र के शिष्य थे। आपने मराठी में पार्श्वनाथ भवान्तर, गुजराती में आदित्यवार व्रतकथा, त्रेपन क्रिया विनती व जटामुकुट, संस्कृत में क्षेत्रपाल पूजा एवं मेरुपूजा की रचना की है। आपका काल सत्रहवीं शताब्दी है। आपने संस्कृत में सम्मेदाचल पूजा भी बनायी, जो सरल और रोचक हैै। कवि देवदत्त दीक्षित कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे तथा भदौरिया राजाओं के राज्य में स्थित अटेर नगर के निवासी थे। इन्होंने शौरीपुर के भट्टारक जिनेन्द्रभूषण की आज्ञा से ‘सम्मेदशिखर माहात्म्य’ और ‘स्वर्णाचल माहात्म्य’ की रचना की थी। दीक्षित जी संभवत: १९वीं शताब्दी के विद्वान् थे। उन्होंने ‘सम्मेदाचल माहात्म्य’ के प्रारंभ में लिखा है-
गुरुं गणेशं वाणीं च ध्यात्वा स्तुत्वा प्रणम्य च।
सम्मेदशैलमाहात्म्यं प्रकटीक्रियते मया।।२।।
इस माहात्म्य में इक्कीस अध्याय हैं। यह सुबोध संस्कृत में लिखा गया है।
सम्मेदशिखर की यात्रा मार्ग –तीर्थराज सम्मेदशिखर जी, जिसका दूसरा नाम ‘पारसनाथ हिल’ है, जो पहले बिहार प्रदेश के हजारीबाग जिले में स्थित था अब झारखण्ड प्रदेश के अन्तर्गत आता है जो गिरीडीह जिले में है। यहाँ पहुँचने के लिए रेलवे के कई मार्ग हैं-(१) गया, दिल्ली अथवा कलकत्ता की ओर से आने वालों के लिए पारसनाथ स्टेशन उतरना चाहिए। (२) कलकत्ता की ओर से आने वाले गिरीडीह स्टेशन भी उतर सकते हैं। (३) पटना से राँची जाने वाली ट्रेनों से पारसनाथ उतर सकते हैं। ये सभी ईस्टर्न रेलवे की मेन लाइन हैं।
ईसरी –पारसनाथ स्टेशन के सामने ही लगभग एक फर्लांग दूरी पर ईसरी में दो दिगम्बर जैन धर्मशालाएँ बनी हुई हैं। एक बीसपन्थी और दूसरी तेरापंथी। दोनों निकट-निकट हैं। दोनों धर्मशालाओं में जिनमंदिर हैं और दोनों के बीच में श्रीगणेश प्रसादवर्णी द्वारा स्थापित उदासीन आश्रम है, जहाँ अनेक विरक्त स्त्री-पुरुष धर्मध्यान करने हेतु प्रवास करते हैं।
मधुवन- ईसरी से लगभग २२ किमी. पर मधुवन है। मधुवन के लिए यहाँ से बस तथा टैक्सी मिलती है। यहाँ से गिरीडीह रोड पर १६ किमी. चलकर मधुवन के लिए सड़क मुड़ती है और ६ किमी. चलकर मधुवन आ जाता है। मधुवन पर्वत के उत्तरी भाग की ओर है। गिरीडीह से मधुवन २५ किमी. है। गिरीडीह-ईसरी रोड पर बसें बराबर मिलती हैं। मधुवन में बीसपंथी और तेरहपंथी दो कोठियाँ अर्थात् धर्मशालाएँ हैं। श्री सम्मेदशिखर पर्वत की तलहटी में दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों की धर्मशालाएँ और मंदिर हैं। सबसे पहले दिगम्बर जैन तेरहपंथी कोठी मिलती है। फिर श्वेताम्बर कोठी, जो मझली कोठी कहलाती है और सबसे अंत में दिगम्बर जैन बीसपंथी कोठी है। यह उपरैली कोठी कहलाती है। ==बीसपंथी कोठी-== इन तीनों कोठियों में बीसपंथी कोठी सबसे प्राचीन है। इसकी स्थापना सम्मेदशिखर की यात्रार्थ आने वाले जैन बंधुओं की सुविधा के लिए लगभग चार सौ वर्ष पूर्व की गई थी, ऐसा कहा जाता है। यह कोठी ग्वालियर गादी के भट्टारक जी के अधीन थी। इस शाखा के भट्टारक महेन्द्रभूषण ने शिखर जी पर एक कोठी और एक मंदिर की स्थापना की और मंदिर में पार्श्वनाथ स्वामी की प्रतिमा विराजमान करायी। उन्होंने एक धर्मशाला भी बनवायी। समाज के दो दानी सज्जनों ने दो मंदिर भी बनवाये। महेन्द्रभूषण के पश्चात् शतेन्द्रभूषण, राजेन्द्रभूषण, शिलेन्द्रभूषण और शतेन्द्रभूषण भट्टारक क्रम से कोठी के अधिकारी हुए। बीसपंथी कोठी के बहुत दिनों पश्चात् (लगभग २५० वर्ष बाद) श्वेताम्बर कोठी का निर्माण हुआ। उसके लगभग १०० वर्ष बाद तेरापंथी कोठी बनी है। बीसपंथी एवं तेरहपंथी दोनों कोठियों के अन्तर्गत अनेक दिगम्बर जिनमंदिरों की व्यवस्थाएँ संचालित होती हैं।
पर्वत-यात्रा के मार्ग
सम्मेदशिखर की यात्रा के लिए ऊपर जाने के दो मार्ग हैं-एक तो नीमिया घाट होकर और दूसरा मधुवन की ओर से। नीमिया घाट पर्वत के दक्षिण की ओर है। यहाँ एक डाक बंगला, जैन धर्मशाला बनी हुई है। इधर से जाने पर पर्वत की वंदना उलटी पड़ती है और सबसे पहले पार्श्वनाथ टोंक पड़ती है। नीमियाघाट की ओर से सम्मेदशिखर की यात्रा करने में ६ मील की चढ़ाई पड़ती है। ऊपर टोंकों की वंदना ६ मील और वापसी ६ मील। चढ़ाई में ६ मील की यात्रा करनी होती है। नीमियाघाट की दिगम्बर जैन धर्मशाला और मंदिर बीसपंथी कोठी के अन्तर्गत है। पालगंज का दिगम्बर जैन मंदिर भी बीसपंथी कोठी के अन्तर्गत है। इसका जीर्णोद्धार लगभग १५० वर्ष पहले क्षुल्लक धर्मचंद्र जी ने कराया था। पहले सम्मेदशिखर की यात्रा के लिए यात्री पालगंज होकर आते थे। जब पालगंज के राजा का अभिषेक होता था, उस समय दिगम्बर जैन प्रतिमा वहाँ विराजमान करके उसका अभिषेक होता था। इस गंधोदक को छिड़ककर राजा की शुद्धि की जाती थी। मधुवन की ओर से भी कुल मिलाकर १८ मील (२७ किमी.) की यात्रा पड़ती है। किन्तु अधिकांश यात्री मधुवन की ओर से ही यात्रा करते हैं। इधर से यात्रा करने में कई सुविधाएँ हैं। सबसे बड़ी सुविधा तो यह है कि इधर अन्य अनेक यात्रियों का साथ मिल जाता है और इतनी लम्बी यात्रा अन्य साथियों के कारण सुगम बन जाती है, इसके विपरीत नीमिया घाट की ओर से यात्रा करने में यात्री को प्राय: अकेले ही चढ़ना-उतरना पड़ता है। इससे यात्रा दुरूह मालूम पड़ने लगती है। २७ किमी. की यह लम्बी यात्रा किशोर, युवक, वृद्ध, स्त्री-पुरुष सभी तीर्थंकरों का जय-घोष करते, स्तुति-विनती पढ़ते आनन्दपूर्वक कर लेते हैं। सांस फूल जाती है किन्तु मन में क्षण-भर को भी खिन्नता के भाव नहीं आते। बल्कि अपनी धार्मिक श्रद्धा, उल्लास, उत्साह और प्रकृति की सुषमा में विभोर होकर यात्री यात्रा पूरी करके जब वापस अपने डेरे पर लौटता है तो उसे अनुभव होता है कि भगवान की भक्ति में अद्भुत शक्ति है, वरना इतनी लम्बी यात्रा कैसे संभव थी। अब पर्वत पर पूरा रास्ता पक्का बन जाने से यात्रा अत्यन्त सुगम हो गई है।
यात्रा संबंधी आवश्यक सूचनाएँ
पर्वत वंदना के लिए पहले यात्री रात्रि दो बजे उठकर शौच और स्नान से निवृत्त होकर तीन बजे चल देते थे किन्तु अब कुछ असुरक्षा के भय से यात्रियों को प्रात: ५ बजे से पहले नहीं जाने दिया जाता है। पर्वत यात्रा के लिए सर्दी का मौसम ही उपयुक्त रहता है। ग्रीष्म ऋतु में गर्मी के कारण यात्रा करना कठिन होता है और बरसात में सब जगह हरियाली, जीवों की उत्पत्ति और फिसलन हो जाती है। यात्रा के समय पुरुष लोग नये धोती, बनियान और दुपट्टा धुले हुए धारण करते हैं तथा महिलाएं भी नये धुले वस्त्रों में पहाड़ चढ़ती हैं। वृद्ध और अशक्त पुरुष और महिलाएँ डोली में वंदना कर सकते हैं। अन्य लोग लाठी लेकर चढ़ते हैं। उससे पर्वत पर चढ़ने-उतरने में बड़ी सहायता मिलती है। धर्मशालाओं में इन सब चीजों की व्यवस्था रहती है। इस तीर्थराज की वंदना के लिए जाते समय न केवल शरीर और वस्त्र आदि की बाह्य शुद्धि ही आवश्यक है, अपितु मन और वाणी की पवित्रता भी आवश्यक है। धर्मशाला से चलकर लगभग एक फर्लांग से ही पर्वत की चढ़ाई प्रारंभ हो जाती है। यहाँ से करीब तीन किमी. पर गंधर्व नाला पड़ता है। यहीं पर बीसपंथी कोठी की तरफ से एक धर्मशाला बनी है। लौटते समय यात्रियों के लिए यहाँ जलपान का प्रबंध है। नाले से कुछ दूर आगे जाने पर एक रास्ता सीता नाले की ओर और दूसरा पार्श्वनाथ टोंक की ओर जाता है।
श्री सम्मेदशिखर का अद्भुत माहात्म्य
मधुवन से जब सम्मेदशिखर की यात्रा के लिए रवाना होते हैं, तब मन में एक अद्भुत उल्लास, उमंग और तीर्थंकरों के प्रति निश्छल भक्ति की पुण्य भावना होती है। वहाँ का सारा वातावरण ही भक्तिमय होता है। यात्री के मन में व्यक्त अथवा अव्यक्त रूप में द्यानतरायजी की यह पंक्ति सदा अंकित रहती है-‘‘एक बार वन्दे जो कोई। ताहि नरक-पशुगति नहिं होई।।’’ शास्त्रों में तो शिखरजी की वंदना करने का फल यह बताया है कि वह व्यक्ति फिर संसार में अधिक से अधिक ४९ भव धारण करने के बाद मोक्ष प्राप्त कर लेता है। यह अतिशयोक्ति नहीं, किन्तु सत्य है। इसमें तर्क और संदेह को कोई स्थान नहीं है। इसीलिए तो इसे तीर्थराज की संज्ञा दी गई है। भाव-भक्तिपूर्वक इसकी यात्रा और वंदना करने से कोटि-कोटि जन्मों के संचित कर्मोें का नाश हो जाता है। बीस तीर्थंकरों को इसी पर्वत पर अंतिम योग-निरोध करके निर्वाण प्राप्त हुआ है। इनके अतिरिक्त यहाँ से असंख्य मुनियों को मोक्ष प्राप्त हुआ है। यहाँ से मुक्ति प्राप्त करने वाले मुनियों की निश्चित संख्या शास्त्रों में दी हुई है। कुल कूटों की संख्या २० है जो बीस तीर्थंकरों के निर्वाण स्थान हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि इस क्षेत्र से असंख्य मुनिजन अनादिकाल से समय-समय पर मुक्त हुए हैं। इसलिए यह क्षेत्र अत्यन्त पवित्र है, उसका कण-कण पवित्र है। यही कारण है कि इस तीर्थ पर सिंह, व्याघ्र, हिरण आदि अनेकों जाति विरोधी और हिंसक प्राणी विचरते देखे गये हैं किन्तु कभी किसी ने एक दूसरे पर आक्रमण किया हो या किसी यात्री के साथ कभी कोई दुर्घटना घटी हो ऐसा कभी सुना नहीं गया। ऐसे अवसर कई बार आये हैं, जब रात्रि में यात्रा के लिए जाने वाले भाइयों से कोई यात्री पिछड़ गया और अकेला पड़ गया और राह में उसे शेर मिल गया। किन्तु न यात्री के मन में भय और न शेर के मन में व्रूरता। शेर एक ओर चला गया और यात्री अपनी राह पर आगे बढ़ गया। यह सब इस तीर्थराज का प्रभाव है। यहाँ के वातावरण में पवित्रता और शुचिता की भावना सदैव बनी हुुई रहती है।
तीर्थ-दर्शन
पहाड़ पर ऊपर चढ़ने पर सर्वप्रथम गौतम स्वामी की टोंक मिलती है। वहाँ एक कमरा भी बना हुआ है जो यात्रियों के लिए विश्राम के काम आता है। टोंक से बायें हाथ की ओर मुड़कर पूर्व दिशा की पन्द्रह टोंकों की वंदना करनी चाहिए। ये टोंवें ही कूट कहलाती हैं। इन टोंकों के नाम क्रमश: इस प्रकार हैं- (१) कुंथुनाथ का ज्ञानधर कूट (२) नमिनाथ का मित्रधर कूट (३) अरहनाथ का नाटक कूट (४) मल्लिनाथ का सम्बल कूट (५) श्रेयांसनाथ का संकुल कूट (६) पुष्पदंत का सुप्रभ कूट (७) पद्मप्रभु का मोहन कूट (८) मुनिसुव्रतनाथ का निर्जर कूट (१०) आदिनाथ का कूट (११) शीतलनाथ का विद्युत कूट (१२) अनन्तनाथ का स्वयंभू कूट (१३) संभवनाथ का धवलदत्त कूट (१४) वासुपूज्य का कूट (१५) अभिनन्दन का आनंद कूट। इन टोंकों में भगवान चन्द्रप्रभु की टोंक बहुत ऊँची हैं। ये सभी टोंके पूर्व दिशा में हैं। इनमें तीर्थंकरों के चरण विराजमान हैं। इन टोंकों पर जाने के लिए मार्ग बने हुए हैं। तीर्थंकर-चरणों पर जो लेख पूर्व में खुदे हुए थे, उनके अनुसार ये सब सं. १८२५ में प्रतिष्ठित किये गये प्रतीत होते हैं किन्तु वर्तमान में लगभग १५-२० वर्षों में ये चरण और प्रशस्तियाँ प्राय: बदल दी गई हैं। भगवान अभिनंदननाथ की टोंक से उतरकर जल मंदिर में जाते हैं। यहाँ से गौतम स्वामी की टोंक पर पहुँचते हैं। इस स्थान से चारों ओर रास्ते जाते हैं बायीं ओर कुंथुनाथ टोंक को दायीं ओर पार्श्वनाथ मंदिर को, सामने जल मंदिर और पीछे मधुवन को। अत: यहाँ पश्चिम दिशा की ओर जाकर शेष नौ टोंकों की वंदना करनी चाहिए।
पार्श्वनाथ टोंक
सम्मेदशिखर पर्वत की यह अंतिम और प्रमुख टोंक है। टोंक के स्थान पर अब एक सुन्दर जिनालय बन गया है। जिसमें मण्डप और गर्भगृह है। गर्भगृह में एक वेदी पर पार्श्वनाथ भगवान के कृष्ण वर्ण के चरण विराजमान हैं। चरण नौ अंगुल के हैं। इन टोंकों में भगवान पार्श्वनाथ की यह टोंक सबसे ऊँची है। इस टोंक पर खड़े होकर चारों ओर का मनोहर दृश्य देखते ही बनता है। मन में एक अनिर्वचनीय प्रफुल्लता भर उठती है। ऐसी आह्लादपूर्ण प्राकृतिक दृश्यावली में मन ध्यान, सामायिक और पूजा-स्तोत्र में स्वत: निमग्न हो जाता है। यहाँ आकर सब यात्री पूजन करते हैं। ये सभी टोंके ऊँचाई में आठ फुट और चौड़ाई में भी इससे अधिक नहीं। इन टोंकों के निर्माण का प्रारंभ काल जानना कठिन है, उसी प्रकार चरणों की स्थापना इस क्षेत्र पर सबसे पहले किसने की, यह बताना भी कठिन है। वास्तव में जहाँ से तीर्थंकर मोक्ष पधारे, उस स्थान को इन्द्र ने चिन्हित कर दिया। उन्हीं स्थानों पर टोंक और चरण बना दिये गये। यह भी कहा जाता है कि सम्राट श्रेणिक ने जीर्ण टोंकों के स्थान पर भव्य टोंकों का निर्माण कराया था। बाद में समय-समय पर भक्तों ने इन टोंकों का जीर्णोद्धार कराया अथवा उनके स्थान पर नवीन टोंक बनवा दी गई। यही बात चरणों के संबंध में है। वर्तमान चरणों पर जो लेख खुदे हुए हैं, उनका तात्पर्य इतना ही है कि अमुक व्यक्ति ने प्राचीन चरणों का जीर्णोद्धार किया अथवा प्राचीन चरणों के स्थान पर नवीन चरण स्थापित कराये।
शिखरजी पर शिकार वर्जित
जैन समाज की अहिंसक भावना के कारण सरकार की ओर से इस पर्वत पर किसी प्रकार का शिकार करना वर्जित कर दिया गया है और उसकी सूचना एक शिलापट्ट पर लगा दी गई है। जैन लोग इस तीर्थ की पवित्रता को अक्षुण्ण रखने का पूर्ण प्रयत्न करते रहे हैं। सन् १८५९ से १८६२ तक इस पहाड़ पर ब्रिटिश सेनाओं के लिए एक सैनीटोरियम बनाने के लिए सरकार की ओर से जाँच होती रही थी। किन्तु सैनिकों के रहने से यहाँ मांस पकाया जायेगा, इस आशंका से जैन समाज ने जबरदस्त विरोध किया और वह विचार छोड़ दिया गया। शिखरजी का पहाड़ कई पीढ़ियों से पालगंज के जमींदार के अधिकार मे चला आ रहा था। उक्त घराने के सभी लोग दिगम्बर जैन धर्म के अनुयायी थे। यहाँ तक कि दर्शन-पूजा के लिए उन्होंने अपने यहाँ दिगम्बर जैन मंदिर भी बनवाया था जो अभी भी पालगंज में विद्यमान है। उसकी प्रतिष्ठा श्री १०५ धर्मदास जी द्वारा वि.सं. १९३९ में हुई थी। वे शिखरजी की रक्षा भी धर्मपूर्वक किया करते थे। लेकिन दुर्भाग्यवश कर्मचारियों की अयोग्यता से जमींदार कर्जदार हो गये। उस अवसर पर दिगम्बर समाज की ओर से उन्हें बतौर कर्ता हजारों रुपये दिये गये। फिर भी उनकी स्टेट इनकमवर्ड हो गई। उस समय इस इलाके के डिप्टी कमिश्नर मि. केणी थे। उन्होंने शिखरजी की पहाड़ की मनोरमता और स्काटलैण्ड की पहाड़ियों-जैसी प्राकृतिक सुषमा देखकर ही उस समय अंगे्रजों के लिए एक सैनीटोरियम बनाने का विचार किया था। बाद में विरोध होने पर वह विचार स्थगित कर दिया गया था।
यात्रा से वापसी
भगवान पार्श्वनाथ की टोंक से वापस लौटते समय विशेष कठिनाई नहीं होती। क्योंकि उतराई है और मार्ग ठीक है। बीच-बीच में जंगल में पगडण्डियाँ भी जाती हैं। यदि उन पर चला जाये तो लगभग डेढ़ मील की यात्रा बच जाती है। किन्तु पगडण्डियों पर चलना बहुत कठिन है। रास्ता भूलने का भी डर है। यदि भील (मजदूर) साथ हो तो फिर कोई डर नहीं। इस समय लाठी से बड़ी सहायता मिलती है। जिस प्रकार आत्मा के बिना शरीर शून्य है उसी प्रकार श्री सम्मेदशिखर के बिना दिगम्बर जैन समाज शून्य है। शिखर जी हमारा ऐसा पवित्र तीर्थ है जहाँ से इस ‘हुण्डावसर्पिणी काल’में हमारे २४ तीर्थंकरों में से २० तीर्थंकरों एवं असंख्यात मुनिवरों ने मोक्ष प्राप्त किया है। इसलिए शिखर जी हमारी संस्कृति और धर्म की धरोहर है। उसका एक-एक कण हम सभी के लिए पूज्यनीय एवं वंदनीय है। जैन समाज के इस सर्वप्रमुख शाश्वत तीर्थ की व्यवस्था जहाँ स्थानीय संस्थाएँ देखती हैं, वहीं भारतवर्षीय दिगम्बरा जैन तीर्थ क्षेत्र कमेटी के द्वारा इसका विशेष प्रबंध देखा जाता है। वह कमेटी पिछले कई वर्षों से श्वेताम्बर सम्प्रदाय के साथ सम्मेदशिखर के विषय में मतभिन्नता का सामना कर रही है। उनके अनुसार कुछ तथ्य यहाँ प्रस्तुत हैं- इस तीर्थराज पर एवं अन्य कई क्षेत्रों पर श्वेताम्बर जैन मूर्तिपूजकों एवं अन्य धर्मावलंबियों द्वारा शाम-दाम-दण्ड-भेद से नये-नये षड्यंत्र रचकर हमें अपने अधिकारों से वंचित करने का प्रयास किया जा रहा है। विशेषकर सम्मेदशिखर जी के बारे में श्वेताम्बर मूर्तिपूजकों द्वारा नये-नये विवाद उत्पन्न करके दिगम्बर जैन समाज के अधिकारों पर कुठाराघात किया जा रहा है। इस निवेदन के माध्यम से हम समाज को उनके द्वारा पूर्व में किये गये घातक षड्यंत्रों की कुछ झलकियाँ देना चाहते हैं, ताकि आप सभी श्वेताम्बरों के कुटिल इरादों से परिचित हो सके-
१.सन् १९७२ में शिखर जी पर उन ४ तीर्थंकरों की नई टोंके निर्मित कर दी गईं’ जो वहाँ से मोक्ष नहीं गये थे। यह शिखर जी के प्राचीन मूल स्वरूप को बदलने की बहुत बड़ी साजिश थी।
२.सन् १९०० में वंदना पथ पर हमारे द्वारा बनाई गई करीब २५० सीढ़ियों को इनके इशारे पर इनके आदमियों ने रातों-रात तोड़ डाला, ताकि हमारा कोई अधिकार पहाड़ पर न रहे। इसका फौजदारी मुकदमा चला, जिसमें इनके आदमियों को सजा भी हुई।
३.इन्होंने मुगल बादशाह अकबर के तथाकथित झूठे फरमानों के आधार पर शिखरजी के मालिकाना अधिकार का दावा करते हुए फरमानों की नकलों को कोर्ट में प्रस्तुत किया परन्तु वे ओरिजनल नहीं होने से पटना हाईकोर्ट ने उन्हें दिनाँक १४-०४-१९२१ को जालसाजी करार दिया। यह उल्लेखनीय है कि श्वेताम्बरों द्वारा श्री ऋषभदेव (केसरिया जी), तारंगाजी क्षेत्र, शत्रुंजय-पालीताना में भी इन जाली फरमानों का उपयोग किया गया था।
४.सन् १९२९ में श्वेताम्बरों ने शिखरजी पर्वत पर जाने के मुख्य मार्ग पर लोहे का गेट बनाकर वहाँ वॉचमैन रखना चाहा और कहा कि बिना उनकी इजाजत के दिगम्बरों को पूजा करने का अधिकार नहीं है, जिसे कोर्ट ने निरस्त करते हुए सभी टोंक २४ घंटे खुले रखने का आदेश दिया। उन्होंने चरणचिन्हों पर वरक तथा केशर लगाना प्रारंभ किया जिसको लेकर पूजा केस लंदन की प्रिव्ही काउन्सिल में चला। कोर्ट ने यह निर्णय दिया कि सभी २१ टोंकोें पर दिगम्बर आम्नाय के चरणचिन्ह विराजमान हैं। अतएव उन्हें दर्शन-पूजन से रोकने का किसी को अधिकार नहीं है। परन्तु उनकी रख-रखाव के बारे में हमारी ओर से उस समय कोई ठोस सबूत नहीं दे सकने से रख-रखाव का अधिकार उनका ही रहा, जो बिहार जमींदारी उन्मूलन कानून (बिहार लैण्ड रिफार्म्स एक्ट, १९५३) के लागू होने से समाप्त हो गया। इसके पश्चात् श्वेताम्बरों ने सन् १९६५ में बिहार सरकार से एक एग्रीमेंट कर लिया और खनिज एवं वन सम्पत्ति का ४० प्रतिशत सरकार को छोड़कर ६० प्रतिशत स्वयं लेने लगे।
५.बिहार सरकार एवं आनंद जी कल्याण जी ट्रस्ट के बीच हुए एग्रीमेंट से अपनी समाज को चिंता हुई। उस समय समाज के नेता साहू शांतिप्रसाद जैन थे। उनके प्रयत्नों से ६ अगस्त १९६६ को भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी एवं बिहार सरकार के बीच एक एग्रीमेंट करवा लिया गया। दिगम्बरों के साथ हुए सरकार के एग्रीमेंट के अनुसरण में शिखरजी पहाड़ पर कुंथुनाथ टोंक के पास धर्मशाला बनाने के लिए कमेटी की ओर से एक टीन शेड धर्मशाला के रूप में लगाया गया। २६ जनवरी १९६७ को आनंदजी कल्याणजी के आदमियों ने उसे रातों-रात तोड़ डाला और उसका सामान भी उठा ले गये, जिसके लिए फौजदारी केस हुआ और उनके आदमियों को जुर्माना व सजा भी हुई। इस प्रकार हमने एक कुटिल प्रयासोें को विफल करते हुए मुकदमों में अपनी जीत हासिल की। लम्बे समय से चले आ रहे शिखरजी तीर्थ के विवाद का ऐतिहासिक फैसला तब हुआ जब पटना हाईकोर्ट की राँची बैंच के न्यायमूर्ति श्रीमान के. देव ने अपने १ जुलाई १९९७ के फैसले में श्वेताम्बरों के मंसूबों को करारा झटका दिया। इस फैसले के मुख्य अंश इस प्रकार हैं-
१.कोर्ट ने कहा कि आनंद जी कल्याण जी ट्रस्ट के नाम से कोई भी ट्रस्ट बिहार में रजिस्टर्ड नहीं है, इसलिए पारसनाथ पहाड़ से सेठ आनंदजी कल्याणकजी (श्वेताम्बर फर्म)-अहमदाबाद के मालिकाना अधिकार के सभी दावे खारिज किए जाते हैं।
२.कोर्ट ने यह भी कहा कि ये लोग (आनंदजी कल्याणजी) शिखर के टोंकों से चढ़ावा तो उठाते थे किन्तु उन्होंने पिछले सौ वर्षों में एक रुपया भी शिखरजी की व्यवस्था एवं विकास के लिए नहीं लगाया। वहाँ की राशि अन्य श्वेताम्बर तीर्थों में ले जाकर खर्च की। अतएव उन्हें मैनेजमेंट का अधिकार नहीं है और इनके प्रबंध एवं नियंत्रण के सभी दावे रद्द किये जाते हैं।
३.इस निर्णय में उस फैसले का विशेष उल्लेख किया गया है जिसमें प्रिव्ही काउंसिल ने २१ प्राचीन टोंके (२० तीर्थंकरों की तथा एक गौतम गणधर स्वामी की) दिगम्बर आम्नाय की मानी हैं एवं केवल ४ नई टोंके श्वेताम्बर आम्नाय की मानी हैं।
४. निर्णय में दिगम्बर जैन यात्रियों के लिए पर्वत पर नयी धर्मशाला निर्माण करने की मांग न्यायसंगत ठहराई गई है और कहा गया है कि हमारा आवेदन आने पर राज्य सरकार हमें भूमि अवश्य उपलब्ध करावे। यह भी कहा है कि पर्वत की व्यवस्था हेतु बिहार सरकार द्वारा दिगम्बर और श्वेताम्बर जैन समाज के प्रतिनिधियों की एक संयुक्त कमेटी बनायी जावे जिसका अध्यक्ष जिला कलेक्टर हो। उपरोक्त निर्णय के विरुद्ध सेठ आनंदजी कल्याणजी फर्म ने राँची हाईकोर्ट की डबल बेंच के सामने अपील करते हुए उक्त निर्णय पर स्टे-ऑर्डर की मांग की, जिसे कोर्ट ने अस्वीकृत कर दिया। तत्पश्चात् उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर स्टे-आर्डर की मांग की, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने भी खारिज कर दिया। डबल बेंच के अघोषित निर्णय के बाद यह मुकदमा रांची हाईकोर्ट की फुल बेंच ने सिंगल जज न्यायमूर्ति श्री पी.के. देव के फैसल को ही बरकरार रखा तथा कहा कि दिगम्बरों को पहाड़ पर धर्मशाला बनाने का अधिकार है और इनका आवेदन आने पर राज्य सरकार इन्हें भूमि अवश्य उपलब्ध करावे। इस प्रकार सत्य की जीत हुई।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि पिछले १०० वर्षों से चल रहे मुकदमों का पूरा खर्च भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी करती आई है। अब तक करीब २ करोड़ की राशि इन मुकदमों पर खर्च हुई है और उसके लिए उसने कभी भी समाज से अलग से धन एकत्रित करने की आवश्यकता महसूस नहीं की। कमेटी के पास जो धु्रुवफड है उसके ब्याज की आमदनी से कमेटी इन केसों को लड़ती रही है। अब राँची हाईकोर्ट की तीनों बेंचों के फैसले हमारे पक्ष में होने से श्वेताम्बर मूर्तिपूजक बौखलाये हुए हैं और वे येन-केन-प्रकारेण हमारे अधिकारों को समाप्त करने के प्रयास में जुटे हुए हैं। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि भारतवर्ष में जैनों की कुल जनसंख्या में से ७० प्रतिशत जनसंख्या दिगम्बरों की है, शेष ३० प्रतिशत में श्वेताम्बर मूर्तिपूजक, स्थानकवासी, तेरहपंथी आदि हैं। वे शत्रुंजय एवं पालीताना अधिक जाते हैं परन्तु श्री सम्मेदशिखर जी के मामले में वे पूरे सजग हैं। हमें यह भी ज्ञात हुआ है कि कई श्वेताम्बर भाईयों ने यह मंशा व्यक्त की है कि जैसे भी हो उन्हें शिखरजी केस की लड़ाई जीतनी है, रकम चाहे जो भी खर्च हो, उनकी देने की तैयारी है। यह हमारे समाज के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती है। अब शिखरजी की रक्षा कैसे की जावे यह हमारे लिए चिंतनीय विषय बन गया है। राँची हाईकोर्ट के फैसले के आलोक में असंतुष्ट सेठ आनंदजी कल्याणजी फर्म-अहमदाबाद एवं श्वेताम्बर जैन सोसायटी, कोलकाता के प्रतिनिधियों ने शिखरजी पहाड़ के मैनेजमेंट के लिए कमेटी गठित किये जाने के राज्य सरकार के निर्णय का विरोध करते हुए सुप्रीम कोर्ट में अलग-अलग एस.एल.पी. फाइल की हैं। हमारी ओर से भी पिटीशनें, फाइल हुई हैं। ये सभी पिटीशनें अभी एडमिट नहीं हुई हैं परन्तु सुप्रीम कोर्ट द्वारा यह आदेश हुआ है कि केस की सुनवाई करने के बाद फैसला दे दिया जायेगा। श्वेताम्बर समाज सुप्रीम कोर्ट में श्री फली नरिमन, श्री अरुण जेटली, श्री सिद्धार्थ शंकरराय, श्री मुकुल रोहतगी जैसे दिग्गज वकीलों को खड़ा करके शिखरजी केस का फैसला अपने पक्ष में कराने के प्रयास में लगा हुआ है। हमारा पक्ष सत्य के बल पर अभी तक विजयी होता आया है। अब यह लड़ाई आर-पार की लड़ाई है।
इसलिए यह मौका हम भी नहीं खोना चाहते हैं। हमने अपनी ओर से भी वरिष्ठ एडवोकेट श्री हरीश सालवे, श्री अशोक देसाई एवं कुछ अन्य सीनियर एडवोकेट्स को आग्र्यूमेंट्स के लिए खड़ा करने का निर्णय लिया है। इनको सहयोग देने के लिए एडवोकेट श्री मनोज गोयल को भी इस कार्य में जोड़ा गया है। ऐसी संभावना की जा रही है कि यह केस कई दिनों तक चलेगा, जिसमें करोड़ों रुपये व्यय होने का अनुमान है। जब यह केस राँची हाईकोर्ट की, फुल बेंच के सामने १९ दिनों तक चला था तब अपनी ओर से करीब ६० लाख रुपये व्यय हुए थे। श्री गिरनारजी, श्री शिखरजी दोनों ही केस सुनवाई पर आ गये हैं। श्री अंतरिक्ष पार्श्वनाथ , सिरपुर का केस भी सुप्रीम कोर्ट में फाइनल हियरिंग में है। श्री ऋषभदेव (केशरिया जी), श्री पावापुरी एवं श्री चंवलेश्वर पार्श्वनाथ क्षेत्र, बागूदार (भीलवाड़ा-राज.) के मुकदमें भी अलग-अलग न्यायालयों में विचाराधीन हैं। इन मुकदमों पर विपुल धनराशि व्यय होने की संभावना को देखते हुए तीर्थक्षेत्र कमेटी इसके लिए प्रथम बार दिगम्बर जैन समाज के सामने आई है और अपील करती है कि जिससे जितना भी संभव हो सके, तीर्थराज श्री सम्मेदशिखर जी एवं अन्य क्षेत्रों की सुरक्षा के लिए उदार हस्त से योगदान करें। कहीं ऐसा न हो कि धनाभाव के कारण हम केस की उचित पैरवी करने में असमर्थ हो जायें और अभी तक की जीती हुई लड़ाई हमें हारनी पड़े। यदि ऐसा होता है तो हमारी आने वाली पीढ़ी हमें कभी माफ नहीं करेगी। हमारा समाज बहुत बड़ा समाज है। हमें पूर्ण विश्वास है कि समाज का हर व्यक्ति इस समस्या के लिए अवश्य सोचेगा और यथाशक्ति आर्थिक सहयोग करेगा।
अन्य जिनमंदिरों एवं भगवान ऋषभदेव जिनमंदिर का निर्माण
शाश्वत तीर्थ सम्मेदशिखर में मुख्यरूप से बीसपंथी-तेरहपंथी कोठी के साथ-साथ पिछले २५-३० वर्षों से अनेक नवनिर्माणों के द्वारा भारी विकास कार्य हुआ है। पूज्य आचार्यश्री विमलसागर जी महाराज की प्रेरणा से समवसरण मंदिर, तीस चौबीसी मंदिर आदि के विशाल निर्माण, गणिनी आर्यिका श्री सुपाश्र्वमती माताजी की प्रेरणा से मध्यलोक शोध संस्थान, आचार्यश्री संभवसागर महाराज की प्रेरणा से त्रियोग आश्रम, आचार्यश्री सुमतिसागर महाराज की प्रेरणा से त्यागी-व्रती आश्रम आदि निर्माणों के साथ वहाँ अनेक दि. जैन संस्थाएँ अपने-अपने नवनिर्माण आदि कार्यकलापों के द्वारा सिद्धक्षेत्र की गरिमा वृद्धि में अपना सक्रिय योगदान प्रदान कर रही हैं। इसी शृँखला में पर्वतराज के चौपड़ा कुण्ड पर स्थित दिगम्बर जैन मंदिर एवं धर्मशाला यात्रियों के लिए विशेष सुविधा प्रदान करते हुए यात्रा के आनंद को द्विगुणित कर देते हैं। सन् २००३ में पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने पावन तीर्थ सम्मेदशिखर के इतिहास में एक नया अध्याय और जोड़ दिया। पूज्य माताजी ने वहाँ पर भगवान ऋषभदेव की विशाल प्रतिमा एवं मंदिर निर्माण की प्रेरणा दी। भगवान बाहुबली एवं चौबीसी मंदिर के परिसर में बाहर की ओर निर्मित इस मंदिर का निर्माण कराने का पुण्यलाभ डॉ. पन्नालाल जैन पापड़ीवाल-पैठण (महाराष्ट्र) परिवार को प्राप्त हुआ है। वर्तमान में यह निर्माण कार्य पूर्ण होकर दिसम्बर २००५ में पूज्य ज्ञानमती माताजी के शिष्य जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर के पीठाधीश क्षुल्लक श्री मोतीसागर जी महाराज एवं अध्यक्ष कर्मयोगी ब्र. रवीन्द्र कुमार जैन के पावन सानिध्य में सवा नौ फुट ऋषभदेव प्रतिमा जी की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा भी सम्पन्न हो चुका है। निश्चित ही यह भव्य और मनोज्ञ प्रतिमा प्रत्येक दर्शक को जैनधर्म की प्राचीनता एवं भगवान आदिनाथ के जीवन का स्मरण कराती रहेगीr। शास्त्रों में तो शिखर जी की वंदना का फल बताते हुए कहा है कि व्यक्ति इस पर्वत की वंदना करके अधिकतम ४९ भव धारण करने के बाद मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। ऐसे पावन सिद्धधाम शाश्वत तीर्थ सम्मेदशिखर को कोटि-कोटि नमन।